मनुष्य के अंतः करण में सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों बीज रूप में विद्यमान रहते हैं। जैसा वातावरण मिलेगा वह बीज रूप से वृक्ष बनने लगेंगे। अतः संग का मनुष्य के जीवन में बहुत बड़ा महत्व है। संग सांसारिक विषयों में घिरे लोगों का होगा तो वह कुसंग में बदल कर सर्वनाश का कारण बन जाएगा।
यदि संग जीवन मुक्त, ब्रह्मनिष्ठ संतों का होगा तो वह मनुष्य के उद्धार का कारण बन जाएगा। इसीलिए नारद भक्ति सूत्र में कहा है सर्वप्रथम मनुष्य को अपनी कामनाओं को नियंत्रण में रखने के लिए अपना संग सुधारना होगा।
अपनी संगति सुधारो सब कुछ सुधर जाएगा। अपने अंतःकरण में कामना का बीज उत्पन्न होने से पूर्व ही सिद्ध संतों की चरण-शरण ले लो। जैसी संगति होगी वैसा ही चिंतन प्रारंभ हो जाएगा। दुःसंग से अपने साधन अर्थात् ईश्वर भक्ति के विपरीत चिंतन होने लगता है और यही चिंतन मनुष्य के मन में सांसारिक रसों के प्रति आसक्ति प्रकट कर देता है और फिर कामना की पूर्ति न होने पर मोह उत्पन्न होने लगता है। मोह ग्रसित व्यक्ति की स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। जिसके कारण उसकी बुद्धि कर्तव्य का विवेक न होने के कारण उसका सर्वनाश कर देती है।
'तरंगयिता अपीमे सगांत् समुद्रायन्ति' - यदि किसी कारण साधक, काम-क्रोध से होता हुआ बुद्धि नाश की स्थिति तक पहुंच भी जाता है तो उसके मन में सदगुरु की कृपा एवं ईश्वर की भक्ति का भाव बना रहने पर वह सर्वनाश से बच जाता है और उसे अपनी भक्ति साधना को पुनर्जीवित करने का अवसर मिल जाता है।
यही स्थिति भक्ति सूत्र को देने वाले देवर्षि नारद की भी हुई थी, क्योंकि विश्वमोहिनी से विवाह करने की कामना उन्हें बुद्धिनाश की स्थिति तक पहुंचा देती है लेकिन भगवान की करुण कृपा के फलस्वरूप वह पुनः अपने संत स्वरूप को प्राप्त हो लेते हैं। सूत्र है कि लौकिक कामना से भगवद्भक्त संत भी संत स्वरूप से लोकविषयों में फंस जाता है और प्रभु कृपा होते ही विषयों की कामना से उपराम होकर वह पुनः परमसंतत्व को प्राप्त कर अपने तत्वज्ञान से जगत का उद्धारक बन जाता है।
सत, रज और तम तीनों गुणों की साम्य अवस्था का नाम प्रकृति है। भगवान अपनी शक्ति से इसी प्रकृति द्वारा संसार की रचना करते हैं। मनुष्य का अंतः करण प्रकृति का परिणाम है इसमें यह तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। यही मनुष्य के भांति-भांति प्रकार के संस्कारों को तरंगित करते रहते हैं।
साधक इनको समझते हुए इनके प्रभाव से बचने का उपाय खोजता हैं लेकिन सिद्ध संत इन तीनों के प्रभाव से परे इन्हें साक्षी भाव से देखते हैं और इनका उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए सिद्ध त्रिगुणातीत होते हैं।
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