25 February 2012

रुद्राक्ष की महिमा

रुद्राक्ष की महिमा एक बार देवर्षि नारद ने भगवान नारायण से पूछा-“दयानिधान! रुद्राक्ष को श्रेष्ठ क्यों माना जाता है? इसकी क्या महिमा है? सभी के लिए यह पूजनीय क्यों है? रुद्राक्ष की महिमा को आप विस्तार से बताकर मेरी जिज्ञासा शांत करें।” देवर्षि नारद की बात सुनकर भगवान् नारायण बोले-“हे देवर्षि! प्राचीन समय में यही प्रश्न कार्तिकेय ने भगवान् महादेव से पूछा था। तब उन्होंने जो कुछ बताया था, वही मैं तुम्हें बताता हूँ: “एक बार पृथ्वी पर त्रिपुर नामक एक भयंकर दैत्य उत्पन्न हो गया। वह बहुत बलशाली और पराक्रमी था। कोई भी देवता उसे पराजित नहीं कर सका। तब ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र आदि देवता भगवान शिव की शरण में गए और उनसे रक्षा की प्रार्थना लगने लगे। भगवान शिव के पास ‘अघोर’ नाम का एक दिव्य अस्त्र है। वह अस्त्र बहुत विशाल और तेजयुक्त है। उसे सम्पूर्ण देवताओं की आकृति माना जाता है। त्रिपुर का वध करने के उद्देश्य से शिव ने नेत्र बंद करके अघोर अस्त्र का चिंतन किया। अधिक समय तक नेत्र बंद रहने के कारण उनके नेत्रों से जल की कुछ बूंदें निकलकर भूमि पर गिर गईं। उन्हीं बूंदों से महान रुद्राक्ष के वृक्ष उत्पन्न हुए। फिर भगवान शिव की आज्ञा से उन वृक्षों पर रुद्राक्ष फलों के रूप में प्रकट हो गए। ये रुद्राक्ष अड़तीस प्रकार के थे। इनमें कत्थई वाले बारह प्रकार के रुद्राक्षों की सूर्य के नेत्रों से, श्वेतवर्ण के सोलह प्रकार के रुद्राक्षों की चन्द्रमा के नेत्रों से तथा कृष्ण वर्ण वाले दस प्रकार के रुद्राक्षों की उत्पत्ति अग्नि के नेत्रों से मानी जाती है। ये ही इनके अड़तीस भेद हैं। ब्राह्मण को श्वेतवर्ण वाले रुद्राक्ष, क्षत्रिय को रक्तवर्ण वाले रुद्राक्ष, वैश्य को मिश्रित रंग वाले रुद्राक्ष और शूद्र को कृष्णवर्ण वाले रुद्राक्ष धारण करने चाहिए। रुद्राक्ष धारण करने पर बड़ा पुण्य प्राप्त होता है। जो मनुष्य अपने कण्ठ में बत्तीस, मस्तक पर चालीस, दोनों कानों में छः-छः, दोनों हाथों में बारह-बारह, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, शिखा में एक और वक्ष पर एक सौ आठ रुद्राक्षों को धारण करता है, वह साक्षात भगवान नीलकण्ठ समझा जाता है। उसके जीवन में सुख-शांति बनी रहती है। रुद्राक्ष धारण करना भगवान शिव के दिव्य-ज्ञान को प्राप्त करने का साधन है। सभी वर्ण के मनुष्य रुद्राक्ष धारण कर सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने वाला मनुष्य समाज में मान-सम्मान पाता है। रुद्राक्ष के पचास या सत्ताईस मनकों की माला बनाकर धारण करके जप करने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है। ग्रहण, संक्रांति, अमावस्या और पूर्णमासी आदि पर्वों और पुण्य दिवसों पर रुद्राक्ष अवश्य धारण किया करें। रुद्राक्ष धारण करने वाले के लिए मांस-मदिरा आदि पदार्थों का सेवन वर्जित होता है।”

मानवता ही सबसे बड़ा धन है

खरा सौदा किसी गांव में एक साहूकार रहता था। उसके तीन बेटे थे-रामलाल, श्यामलाल, मोहन कुमार। साहूकार के पास रुपए पैसे की कमी न थीं। किंतु अब उसकी उम्र बढ़ रही थी। वह अधिक मेहनत नहीं कर पाता था। इसलिए उसने सोचा कि चलो अपना व्यापार बेटों को सौंप दूं। साहूकार चाहता था कि उसका धन गलत हाथों में पड़कर बर्बाद न हो जाए। इसलिए उसने अपने बेटों की परीक्षा लेने का मन बनाया। उसने बातों-बातों में कहा-‘ईश्वर तो सब जगह रहता है। वह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम लोग मुझे ऐसी जगह से एक-एक अशर्फी लाकर दो, जहां कोई देख न रहा हो।’ तीनों बेटे पिता की बात सुनकर चल पड़े। रामलाल को पता था के पिता जी पैसा कहां रखते हैं? जब साहूकार सो रहा था तो उसने एक अशर्फी चुपके से उठा ली। इसी तरह श्यामलाल ने मां की संदूकची में से अशर्फी चुराई। लेकिन मोहन को पिता की बात भूली न थी। उसने सोचा-‘पिता जी ने कहा था कि ईश्वर सब जगह रहता है फिर तो वह मेरी चोरी देख लेगा?’ उसने कहीं से भी अशर्फी नहीं ली। दोनों भाइयों ने बड़ी शान से अपनी अक्लमंदी पिता को बताई। जब मोहन ने अपनी बात बताई तो साहूकार ने उसे गले से लगा लिया। मोहन पिता जी की परीक्षा में खरा उतरा। फिर साहूकार ने तीनों बेटों को एक-एक रुपया देकर कहा, ‘जाओ, ऐसा खरा सौदा करना कि माल से कमरा भर जाए?’ पहला बेटा रामलाल बाजार गया। बहुत दिमाग लड़ाने के बाद उसने एक रुपये का भूसा खरीद लिया। भूसे को फैलाकर कमरे में बिखेर दिया। कमरा भर गया। अपने उत्साह में उसने राह में बैठे भूखे भिखारी को लात मार दी। श्यामलाल को भी राह में वही भिखारी मिला। उसे भी खरा सौदा करने की जल्दी थी। उसने भिखारी को दुत्कार दिया। एक रुपए की रुई खरीदी और बैलगाड़ी में लदवाकर घर ले गया। कमरे में रूई ठूंस दी उसका कमरा भी लद गया। तब मोहन ने बचे हुए पैसों से एक माचिस व मोमबत्ती खरीद ली। जब साहूकार देखने आया तो उसने वही मोमबत्ती अपने कमरे में जला दी। सारा कमरा रोशनी से जगमगा उठा। दरअसल, साहूकार ही भिखारी बनकर राह में बैठा, बेटों की परीक्षा ले रहा था। उसे बड़े दो बेटों से बहुत निराशा हुई। वह मोहन से बोला-‘वाह बेटा! तुमने किया है खरा सौदा।’ इंसान वही है, जो दूसरों के दुख पहले दूर करे और बाद में अपने लिए सोचे। साहूकार ने मोहन को अपनी सारी संपत्ति सौंप दी। मोहन ने कहा-‘पिता जी, हम तीनों भाई मिलकर आपके काम ही देख-रेख करेंगे।’ साहूकार की आंखें खुशी से भर आईं। बड़े भाइयों ने भी मोहन से मानवता की सीख ली और सब मिल-जुलकर रहने लगे।

लालच ने ली ब्राह्मण के बेटे की जान

लोभ का कुफल किसी नगर में हरिदत्त नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी खेती साधारण ही थी, अतः अधिकांश समय वह खाली ही रहता था। एक बार ग्रीष्म ऋतु में वह इसी प्रकार अपने खेत पर वृक्ष की शीतल छाया में लेटा हुआ था। सोए-सोए उसने अपने समीप ही सर्प का बिल देखा, उस पर सर्प फन फैलाए बैठा था। उसको देखकर वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि हो-न-हो, यही मेरे क्षेत्र का देवता है। मैंने कभी इसकी पूजा नहीं की। अतः मैं आज अवश्य इसकी पूजा करूंगा। यह विचार मन में आते ही वह उठा और कहां से जाकर दूध मांग लाया। उसे उसने एक मिट्टी के सकोरे में रखा और बिल के समीप जाकर बोला, “हे क्षेत्रपाल! आज तक मुझे आपके विषय में मालूम नहीं था, इसलिए मैं किसी प्रकार की पूजा-अर्चना नहीं कर पाया। आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे धन-धान्य से समृद्ध कीजिए।” इस प्रकार प्रार्थना करके उसने उस दूध को वहीं पर रख दिया और फिर अपने घर को लौट गया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब वह अपने खेत पर आया तो सर्वप्रथम उसी स्थान पर गया। वहां उसने देखा कि जिस सकोरे में उसने दूध रखा था उसमें एक स्वर्णमुद्रा रखी हुई है। उसने उस मुद्रा को उठाकर रख लिया। उस दिन भी उसने उसी प्रकार सर्प की पूजा की और उसके लिए दूध रखकर चला गया। अगले दिन प्रातःकाल उसको फिर एक स्वर्णमुद्रा मिली। इस प्रकार अब नित्य वह पूजा करता और अगले दिन उसको एक स्वर्णमुद्रा मिल जाया करती थी। कुछ दिनों बाद उसको किसी कार्य से अन्य ग्राम में जाना पड़ा। उसने अपने पुत्र को उस स्थान पर दूध रखने का निर्देश दिया। तदनुसार उस दिन उसका पुत्र गया और वहां दूध रख आया। दूसरे दिन जब वह पुनः दूध रखने के लिए गया तो देखा कि वहां स्वर्णमुद्रा रखी हुई है। उसने उस मुद्रा को उठा लिया और वह मन-ही-मन सोचने लगा कि निश्चित ही इस बिल के अंदर स्वर्णमुद्राओं का भण्डार है। मन में यह विचार आते ही उसने निश्चय किया कि बिल को खोदकर सारी मुद्राएं ले ली जाएं। सर्प का भय था। किन्तु जब दूध पीने के लिए सर्प बाहर निकला तो उसने उसके सिर पर लाठी का प्रहार किया। इससे सर्प तो नहीं मरा नहीं लेकिन सर्प ने क्रुद्ध होकर ब्राह्मण-पुत्र को अपने विषभरे दांतों से काट लिया जिससे ब्राह्मण-पुत्र की तत्काल मृत्यु हो गई। उसके सम्बधियों ने उस लड़के को वहीं उसी खेत पर जला दिया। जब ब्राह्मण ने अपने की का मृत्यु का समाचार सुना तो उसने कहा, “यह ठीक ही हुआ है। क्योंकि शरणागत जीवों को जो व्यक्ति रक्षा नहीं करता उसके विभव आदि उसके हाथ से उसी प्रकार चले जाते हैं। जिस प्रकार पद्मसर में रहने वाले राजा के हाथ से हंस निकल गए थे।”

कैसे हुआ गंगा का पृथ्वी पर आगमन?

गंगा का पृथ्वी पर आगमन राजा सगर की केशिनी व महती नामक दो सुंदर रानियां थीं। एक दिन महर्षि और्व ने उन्हें वर देते हुए कहा- “तुम्हारी एक रानी को साठ हज़ार पुत्र प्राप्त होंगे, जबिक दूसरी को मात्र एक पुत्र! किंतु वंश चलानेवाला दूसरी रानी का ही पुत्र होगा। इसलिए इन दो वरों में जिसकी जो इच्छा हो, वह वही ले ले।” तब रानी केशिनी ने एक पुत्र वाला और महती ने साठ हज़ार पुत्रों वाला वर स्वीकार कर लिया। कुछ समय बाद केशिनी ने एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम असमंजस रखा गया। दूसरी रानी महती के गर्भ से बीजों से भरी एक थैली उत्पन्न हुई। उसमें बीज के आकर के साठ हज़ार अंडे थे। सगर ने उन्हें घी से भरे हुए घड़ों में रखवा दिया और उनका पोषण करने के लिए साठ हज़ार सेविकाएं नियुक्त कर दीं। उचित समय आने पर उनमें साठ हज़ार बालक उत्पन्न हुए। वे सभी बालक अति वीर, बलशाली और पराक्रमी थे। सगर इतने पुत्रों को देखकर हर्षित हो गए। एक बार राजा सगर के मन में अश्वमेध यज्ञ करने का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने अपने मंत्रियों को यज्ञ की तैयारी करने का आदेश दे दिया। शुभ मुहूर्त पर यज्ञ आरम्भ हुआ। यज्ञ-अश्व को छोड़ा गया. देवराज इन्द्र ने सोचा कि अश्वमेध यज्ञ करके राजा सगर कहीं उनका राजसिंहासन न हथिया ले। अतः उन्होंने दैत्य का रूप धारण कर यज्ञ अश्व को चुरा लिया और भगवान विष्णु के अंशावतार कपिल मुनि के आश्रम में छुपा दिया। अश्व का हरण होने पर ऋषि-मुनियों ने सगर से अतिशीघ्र यज्ञ-अश्व ढूंढने के लिए कहा। राजा सगर ने अपने साठ हज़ार पुत्रों को यज्ञ का अश्व खोजने के लिए भेजा। उन्होंने सारी पृथ्वी छान डाली, किंतु उन्हें यज्ञ का अश्व कहीं भी दिखाई नहीं दिया। तब उन्होंने अपनी बलिष्ठ भुजाओं से पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। उनके भीषण प्रहारों से पृथ्वी सहित वहां रहने वाले नागों, दैत्यों और अन्य प्राणियों की करुण चीत्कारें गूंजने लगीं। सगर-पुत्र भूमि खोदते हुए महर्षि कपिल के आश्रम के निकट पहुंच गए। वहां उन्हें यज्ञ का अश्व बंधा हुआ दिखाई दिया। उन्होंने सोचा कि यज्ञ में विघ्न डालने के लिए कपिल मुनि ने ही यज्ञ-अश्व का हरण किया, अतः उन्होंने भगवान विष्णु अंशावतार महर्षि कपिल को अपशब्द कह दिए। तब मुनि ने क्रुद्ध होकर उन्हें भस्म कर डाला। यह समाचार सुनकर सगर शोक में डूब गए। तब उनके पौत्र अंशुमान ने महर्षि कपिल की स्तुति कर उनका क्रोध शांत किया। महर्षि कपिल ने प्रसन्न होकर यज्ञ अश्व लौटा दिया। महर्षि को प्रसन्न देखकर अंशुमान ने उनसे मृत सगर-पुत्रों के उद्धार के विषय में पूछा। उन्होंने कहा कि गंगा की पवित्र जलधारा ही सगर-पुत्रों का उद्धार कर सकती है। महर्षि कपिल के परामर्श के अनुसार राजा सगर गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तप करने लगे। उनकी मृत्यु के बाद अंशुमान ने और इसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने अनेक वर्षों तक कठोर तप किया। किंतु वे गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफल नहीं हुए। अंत में अंशुमान के पौत्र भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए। भगवान के दर्शन पाकर भागीरथ श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर भागीरथ से कहा-“वत्स! तुम्हारी कठोर तपस्या से मैं अति प्रसन्न हूँ। तुम्हें अभिलषित वह प्रदान करने के लिए ही मैं यहाँ प्रकट हुआ हूँ। तुम निःसंकोच इच्छित वर माँग लो।” भागीरथ बोले-“भगवन! अनेक वर्षों पूर्व कपिल मुनि ने अपने शाप से मेरे पूर्वजों को भस्म कर दिया था। तभी से मेरे पूर्वज प्रेत योनि में भटक रहे हैं। कपिल मुनि ने कहा था कि यदि गंगा पृथ्वीलोक में आकर अपने पवित्र जल से उनकी शुद्धि कर दें तो प्रेत योनि से उनका उद्धार हो जाएगा और वे आपके परम पद के अधिकारी हो जाएँगे। भगवन! गंगा माता को पृथ्वी पर लाने के लिए मेरे परदादा राजा सगर, दादा अंशुमान और पिता दिलीप ने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या की। किंतु वे इसमें सफल नहीं हुए और तपस्या करते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिए। तब मैंने उनके कार्य को सम्पन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। प्रभु! यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो गंगा देवी को पृथ्वी पर भेजने की कृपा करें।” उसकी बात सुनकर भगवान विष्णु ने देवी गंगा से कहा-“गंगे! तुम अभी नदी के रूप में पृथ्वी पर जाओ और सगर के सभी पुत्रों का उद्धार करो। तुम्हारे स्पर्श से वे सभी राजकुमार मेरे परम धाम को प्राप्त होंगे। पृथ्वी पर जो भी पापी तुम्हारे जल में स्नान करेगा, उसके सभी पापों का नाश हो जाएगा। पर्वों और विशेष पुण्य तिथियों पर तुम्हारे जल में स्नान करने वाले प्राणियों को सुख-सम्पत्ति, भोग और ऐश्वर्य के अतिरिक्त मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त होगा। सूर्य-ग्रहण के समय तुम्हारे पवित्र जल में स्नान करने वालों को पुण्य और सुखों की प्राप्ति होगी। तुम्हारे स्मरण-मात्र से ही प्राणियों के समस्त दुखों और कष्टों का अंत हो जाएगा।” यह सुनकर गंगा हाथ जोड़कर बोलीं-“प्रभु! आपकी आज्ञा मुझे स्वीकार है। किंतु मुझे पृथ्वीलोक पर कितने वर्षों तक रहना होगा? स्नान करके पापीजन अपने पाप मुझे दे देंगे। ऐसी स्थिति में मेरे उन पापों का नाश किस प्रकार होगा? दयानिधान! आप सर्वज्ञ हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता हैं। संसार की कोई बात आप से छिपी नहीं है। इसलिए मेरी इन शंकाओं का समाधान करें?” भगवान विष्णु बोले-“हे गंगे! तुम नदी-रूप में पृथ्वीलोक पर रहोगी। मेरे अंशस्वरूप समुद्र तम्हारे पति होंगे। सभी नदियों में तुम सबसे श्रेष्ठ, सौभाग्यवती और पुण्यदायी होगी। हे देवी! कलियुग के पाँच हजार वर्षों तक तुम्हें भू-लोक में रहना पड़ेगा। सभी प्राणी देवी के रूप में तुम्हारी पूजा-अर्चना और स्तुति करेंगे। जो भी मनुष्य भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति-वंदना करेगा, उसे अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होगा। गंगा शब्द का निरंतर जाप करने वाले भक्तों के पूर्वजन्मों के भी समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे और मृत्यु के बाद वे मेरे परमधाम वैकुण्ठ को प्राप्त करेंगे।” जब भगवान विष्णु ने गंगा की सभी शंकाओं पर समाप्त कर दिया, तब वे भागीरथ से बोलीं-“राजन! भगवान विष्णु की आज्ञा और आपके कठोर तप के फलस्वरूप मैं आपके साथ पृथ्वी पर चलने को तैयार हूँ। किंतु राजन! जब मैं स्वर्ग से धरातल पर आऊँगी, तो मेरा वेग बहुत तेज़ होगा। मेरे तीव्र वेग से पृथ्वी पाताल में पहुँच जाएगी। इसलिए राजन! यदि आप अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहते हैं तो पहले इस समस्या का समाधान करें।” गंगा की बात सुनकर भागीरथ ने भगवान विष्णु से इसका समाधान करने की प्रार्थना की। तब भगवान विष्णु शिवजी से बोले-“महादेव! भागीरथ की इस समस्या का उपाय केवल आप ही कर सकते हैं। तीव्र वेग से धरातल पर उतरती गंगा का आप अपनी विशाल जटाओं में बाँध लें। इससे गंगा का वेग कम हो जाएगा और पृथ्वी पाताल में धँसने से बच जाएगी।” शिवजी इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए। तब गंगा देवी ने भगवान विष्णु को प्रणाम किया और नदी के रूप में धरातल की ओर चल पड़ीं। धरातल की ओर जाते समय उनकी गति अत्यंत तेज़ हो गई। ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो प्रलयकाल आ गया हो। मेघ भीषण गर्जन करने लगे। गंगा के वेग को देखकर पृथ्वी काँप उठी। तभी भगवान विष्णु की प्रेरणा से शिवजी गंगा के मार्ग में आ गए और वे पूर्ण वेग से शिवजी की जटाओं में समा गईं। तब भगवान शिव ने अपनी जटा की एक लट खोलकर उनकी एक जलधारा पृथ्वी की ओर छोड़ दी। गंगा बड़ी धीमी गति से धरातल पर गिरने लगीं। इस प्रकार गंगा का आवेग कम हो जाने के कारण पृथ्वी पाताल लोक में धँसने से बच गई। गंगा के धरातल पर पहुँचते ही राजा भागीरथ उनकी स्तुति करते हुए बोले-“हे परम कल्याणी देवी गंगा! पापियों के पाप धोने वाली पुण्यमयी देवी! आपको मेरा कोटि-कोटि नमन। माते! आपकी कृपा से संतानहीन को संतान की प्राप्ति हो। बंधन में पड़े हुए व्यक्ति के सभी बंधन कट जाएँ। पापियों के पाप, पुण्यों में बदल जाएँ। ये वर दें।” इस प्रकार स्तुति-वंदना करते हुए भागीरथ गंगा को लेकर उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ उनके पूर्वज कपिल मुनि की क्रोधाग्नि से जलकर भस्म हो गए थे। पवित्र गंगा का स्पर्श पाते ही वे सभी मुक्त होकर वैकुण्ठ लोक चले गए। इस प्रकार परम पावन गंगा का पृथ्वी पर आगमन हुआ। राजा भागीरथ के प्रयत्न से ही पुण्यमयी गंगा पृथ्वी पर आ सकी थीं, इसलिए उन्हें ‘भगीरथी’ भी कहा जाने लगा।

कर्म के आगे खुद भगवान भी झुके

कर्म किए जा एक बार की बात है, भगवान और देवराज इंद्र में इस बात पर बहस छिड़ गई कि दोनों में से श्रेष्ठ कौन हैं? उनका विवाद बढ़ गया तब इंद्र ने यह सोचकर वर्षा करनी बंद कर दी कि यदि वे बारह वर्षों तक पृथ्वी पर वर्षा नहीं करेंगे तो भगवान पृथ्वीवासियों को कैसे जीवित रख पाएंगे। इंद्र की आज्ञा से मेघों ने जल बरसाना बंद कर दिया। किंतु किसानों ने सोचा कि यदि यह लड़ाई बारह वर्षों तक चलती रही तो वे अपना कर्म ही भूल बैठेंगे। उनके पुत्र भी सब कुछ भूल जाएंगे। अतः उन्हें अपना कर्म करते रहना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने कृषि कार्य शुरू कर दिया। वे अपने-अपने खेत जोतने लगे। तभी मिट्टी के नीचे छिपा कर मेढ़क बाहर आया और किसानों को खेती करते देख आश्चर्यचकित होकर बोला- “इंद्र देव और भगवान में श्रेष्ठता की लड़ाई छिड़ी हुई है। इसी कारण इंद्र देव ने बारह वर्षों तक पृथ्वी पर वर्षा न करने का निश्चय किया है। फिर भी आप लोग खेत जोत रहे हैं! यदि वर्षा ही न हुई तो खेत जोतने का क्या लाभ?” किसान बोले-“मेढ़क भाई! यदि उनकी लड़ाई वर्षों तक चलती रही तो हम अपनी कर्म ही भूल जाएंगे। इसलिए हमें अपना कर्म तो करते ही रहना चाहिए।” मेढ़क ने सोचा- ‘तो मैं भी टर्राता हूं, नहीं तो मैं भी टर्राना भूल जाऊंगा। तब वह भी टर्राने लगा।’ उसने टर्राना शुरू किया तो मोर ने भी इंद्र एवं भगवान के मध्य लड़ाई की बात कही। मेढ़क बोला-“मोर भाई! हमें तो अपना कर्म करते ही रहना चाहिए, चाहे दूसरे अपने कार्य भूल जाएं। क्योंकि यदि हम अपने कर्म भूल जाएंगे तो आने वाली पीढ़ी को कैसे मालूम होगा कि उन्हें क्या कर्म करने हैं। अतः सबको अपना कर्म करने चाहिएं। फल क्या और कब मिलता है, यह ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए।” मेढ़क की बात सुनकर मोर भी पिहू-पिहू बोलने लगा। देवराज इंद्र ने जब देखा कि सभी प्राणी अपने-अपने कार्य में लगे हैं तो उन्होंने सोचा कि ‘शायद इन्हें ज्ञात नहीं है कि मैं बारह वर्षों तक नहीं बरसूंगा। इसलिए ये अपने कर्म कर रहे हैं। मुझे जाकर इन्हें सत्य बताना चाहिए।’ यह सोचकर वे पृथ्वी पर आए और किसानों से बोले-“ये क्या कर रहे हो?” किसान बोले- “भगवन! हमारा कर्म ही ईश्वर है। आप अपना कार्य करें अथवा न करें, हमें तो अपना कर्म करते ही रहना है।” किसानों की बात सुन देवराज इंद्र ने अपनी जिस छोड़ते हुए बादलों को आदेश दिया कि वे पृथ्वी पर घनघोर वरसे।

दुष्ट शेर के चंगुल में फंसा निर्दोष ब्राह्मण

दुष्ट शेर एक अय्यर ब्राह्मण घने वन से गुजर रहा था। तभी उसकी नजर पिंजरे पर पड़ी। पिंजरे में एक शेर बंद था। शेर ने ब्राह्मण से विनती की-‘आप मुझे पिंजरे से निकाल दें। भूख-प्यास से मेरी जान जा रही है। मैं कुछ खा-पीकर पुनः पिंजरे में लौट आऊंगा।’ ब्राह्मण महाशय परेशान हो गए। यदि पिंजरा खोलते हैं तो शर उन्हें खा सकता है। यदि नहीं खोलते हैं तो बेचारा पशु मारा जाएगा। अंत में उनकी दयालुता की जीत हुई। उन्होंने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया। शेर बाहर आते ही गरजकर बोला-‘मूर्ख मनुष्य, तूने गलती की है। उसकी सजा भुगत। मैं तुझे ही खाऊंगा।’ ब्राह्मण भय के कारण थर-थर कांपने लगा। परंतु मन-ही-मन वह बचने का उपाय भी सोच रहा था। जैसे ही शेर ने झपट्टा मारने की कोशिश की, ब्राह्मण ने हिम्मत बटोरकर कांपते स्वर में कहा, खाने से पहले मुझको चार लोगों से सलाह लेनी हैं- यदि वे कहें कि यही न्याय है तो मैं स्वयं काटूंगा अपने गला। अब जंगल में और लोग कहां से आते? चार वन्य प्राणियों से राय लेने का निश्चय हुआ। एक बूढ़ा-सा ऊंट सामने से गुजरा तो उससे राय पूछी गई। वह मुंह बिचकाकर बोला-‘अरे ये इंसान कहीं दया के योग्य होते हैं? मेरे मालिक को ही देखो, मैं जवान था तो खूब काम करता था। अब शरीर में ताकत नहीं है तो वह मुझे डंडों से मारता है।’ शेर की आंखें खुशी से चमकनें लगीं। किंतु अभी तीन जजों की सलाह और लेनी थी। पास में ही बरगद का विशाल वृक्ष था। उसे भी अपने मन की भड़ास निकालने का अवसर मिल गया। लंबी बांहें फैलकर बोला- ‘मनुष्य बहुत लोभी होता है। सूरज की तपती धूप से मैं इसकी रक्षा करता हूं। सारी दोपहर मेरी छांव में बिताकर यह शाम को मेरी टहनियां काटकर ले जाता है। मेरी राय में तो सभी मनुष्यों को जान से मार देना चाहिए।’ यह उत्तर सुनकर ब्राह्मण की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। तभी ढेंचू-ढेंचू की आवाज सुनाई दी। ब्राह्मण को कुछ आशा बंधी। एक लंगड़ा गधा रेंकता हुआ उसी ओर आ रहा था। शेर ने उनसे भी प्रश्न किया। क्या वह ब्राह्मण को खा सकता है? गधेराम तो पहले से ही जले-भुने बैठे थे। शायद अभी पिटाई खाकर आ रहे थे। गुस्से से भरकर बोले-‘देखो न, मैं दिन-भर मालिक का बोझा ढोता हूं। मैं उफ तक नहीं करता। जो भी रूखा-सूखा मिल जाता है, वह खुशी से खा लेता हूं पर आज....। कहकर वह रोने लगा।’ शेर को गधे से क्या लेना-देना था? उसने अपना प्रश्न दुहराया, ‘क्या ब्राह्मण को खा लूं?’ गधे ने आंसू पोंछकर कहा- ‘अवश्य मेरे मित्र, इसे बिलकुल मत छोड़ना। इन मनुष्यों ने हमारी नाक में दम कर रखा है।’ अब एक ही पशु की राय और लेनी थी। शेर की निगाहें तेजी से इधर-उधर दौड़ने लगीं। एक लोमड़ी वहीं खड़ी होकर सब कुछ देख रही थी। वह पास आई और बोली- ‘फैसला तो मैं कर दूंगी पर पहले अपने-अपने स्थान पर खड़े हो जाओ। मुझे तो विश्वास ही नहीं होता कि इतना बड़ा शेर पिंजरे में कैसे समा गया? शेर ने जोश में आकर छलांग लगाई और पिंजरे में जा पहुंचा। लोमड़ी ने झट से दरवाजा बंद कर दिया और ब्राह्मण से बोली, ‘आप अपने घर जाएं और जंगली पशुओं से बचकर रहें। इस शेर की हरकतों से तंग आकर ही इसे बंद किया गया था। आगे से बिना सोचे-समझे कोई काम मत करना।’ ऐसा कहकर लोमड़ी जंगल में लौट गई। दुष्ट शेर ने पिंजरे में ही भूख-प्यास से दम तोड़ दिया। उसे उसके किए की सजा मिल गई थी।

कैसे आया सूरज आकाश में?

कैसे आया सूरज आकाश में... सत्ता के अधिकार के लिए दैत्य और देवताओं में शत्रुता उत्पन्न होने के कारण दैत्य सदा देवताओं पर आक्रमण कर युद्ध करते रहते थे। इसी बात को लेकर एक बार दैत्य और देवताओं के बीच भयानक युद्ध हुआ। यह युद्ध अनेक वर्षों तक चला। इस युद्ध के कारण देवताओं और सृष्टि का अस्तित्व संकट में पड़ गया। अंत में दैत्यों से पराजित होकर देवगण जान बचाकर वन-वन भटकने लगे। देवताओं की यह दुर्दशा देखकर उनके पिता महर्षि कश्यप और माता अदिति दुःखी रहने लगे। एक बार देवर्षि नारद घूमते-घूमते कश्यपजी के आश्रम की ओर आ निकले। वहाँ देव माता अदिति और महर्षि कश्यप को व्याकुल देखकर उन्होंने उनसे चिंतित होने का कारण पूछा। अदिति बोलीं-“देवर्षि! दैत्यों ने युद्ध में देवताओं को पराजित कर दिया है। इन्द्रादि देवगण वन-वन भटक रहे हैं। हमें उनकी रक्षा करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इसलिए हम चिंतित और व्याकुल हैं।” अदिति का कथन सुनकर नारदजी बोले-“माते! इस संकट से बचने का केवल एक उपाय है। आप उपासना करके भगवान सूर्य को प्रसन्न करें और उनसे पुत्र रूप में प्रकट होने का वर प्राप्त करें। सूर्यदेव के तेज के समक्ष ही दैत्य पराजित हो सकते हैं और देवताओं की रक्षा हो सकती है।” इस प्रकार अदिति को भगवान सूर्य की तपस्या करने के लिए प्रेरित कर देवर्षि नारद वहाँ से चले गए। तत्पश्चात अदिति कठोर तप करने लगीं। अनेक वर्ष बीत गए। अंत में भगवान सूर्यदेव साक्षात प्रकट हुए और उनसे मनोवांछित वरदान माँगने के लिए कहा। अदिति ने उनकी स्तुति की। तत्पश्चात बोली-“सूर्यदेव! आप भक्तों की समस्त इच्छाएँ पूर्ण करते हैं। आपकी पूजा-उपासना करने वाला कभी निराश नहीं होता। मेरी केवल यह विनती है कि आप मेरे पुत्र के रूप में उत्पन्न होकर देवताओं की रक्षा करें।” अदिति को मनोवांछित फल देकर सूर्य भगवान अंतर्धान हो गए। कुछ दिनों के बाद सूर्य भगवान का तेज अदिति के गर्भ में स्थापित हो गया। एक बार महर्षि कश्यप और अदिति कुटिया में बैठे थे। तभी किसी बात पर क्रोधित होकर कश्यप ने अदिति के गर्भस्थ शिशु के लिए ‘मृत’ शब्द का प्रयोग कर दिया। कश्यप ने जैसे ही ‘मृत’ शब्द का उच्चारण किया, तभी अदिति के शरीर से एक दिव्य प्रकाश पुंज निकला। उस प्रकाश पुंज को देखकर कश्यप मुनि भयभीत हो गए और सूर्यदेव से अपने अपराध की क्षमा माँगने लगे। तभी एक दिव्य आकाशवाणी हुई-“मुनिवर! मैं तुम्हारे अपराध को क्षमा करता हूँ। मेरी आज्ञा से तुम इस पुंज की नियमित उपासना करो। उचित समय पर इसमें से एक दिव्य बालक जन्म लेगा और तुम्हारी सभी इच्छाओं को पूर्ण करने के बाद ब्रह्माण्ड के मध्य में स्थित हो जाएगा।” महर्षि कश्यप और अदिति ने वेद मंत्रों द्वारा प्रकाश पुंज की स्तुति आरंभ कर दी। उचित समय आने पर उसमें से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ। उसके शरीर से दिव्य तेज निकल रहा था। यही बाल ‘आदित्य’ और ‘मार्तण्ड’ आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ। आदित्य वन- वन जाकर देवताओं को एकत्रित करने लगा। आदित्य के तेजस्वी और बलशाली स्वरूप को देख इन्द्र आदि देवता अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने आदित्य को अपना सेनापति नियुक्त कर दैत्यों पर आक्रमण कर दिया। आदित्य के तेज के समक्ष दैत्य अधिक देर तक नहीं टिक पाए और शीघ्र ही उनके पाँव उखड़ गए। वे अपने प्राण बचाकर पाताल लोक में छिप गए। सूर्यदेव के आशीर्वाद से स्वर्ग लोक पर पुनः देवताओं का अधिकार हो गया। सभी देवताओं ने आदित्य को जगत पालक और ग्रहराज के रूप में स्वीकार किया। सृष्टि को दैत्यों के अत्याचारों से मुक्त कर भगवान आदित्य सूर्यदेव के रूप में ब्रह्माण्ड के मध्य भाग में स्थित हो गए और वहीं से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का कार्य-संचालन करने लगे।

गुरु के मंत्र में छुपा स्वर्ग जाने का रास्ता

अनोखा मंत्र रामानुजाचार्य प्राचीन काल में हुए एक प्रसिद्ध विद्वान थे। उनका जन्म मद्रास नगर के समीप पेरुबुदूर गाँव में हुआ था। बाल्यकाल में इन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा गया। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। शिक्षा समाप्त होने पर वे बोले-‘पुत्र, मैं तुम्हें एक मंत्र की दीक्षा दे रहा हूँ। इस मंत्र के सुनने से भी स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है।’ रामानुज ने श्रद्धाभाव से मंत्र की दीक्षा दी। वह मंत्र था-‘ऊँ नमो नारायणाय’। आश्रम छोड़ने से पहले गुरु ने एक बार फिर चेतावनी दी-‘रामानुज, ध्यान रहे यह मंत्र किसी अयोग्य व्यक्ति के कानों में न पड़े।’ रामानुज ने मन ही मन सोचा-‘इस मंत्र की शक्ति कितनी अपार है। यदि इसे केवल सुनने भर से ही स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है तो क्यों न मैं सभी को यह मंत्र सिखा दूँ।’ रामानुज के हृदय में मनुष्यमात्र के कल्याण की भावना छिपी थी। इसके लिए उन्होंने अपने गुरु की आज्ञा भी भंग कर दी। उन्होंने संपूर्ण प्रदेश में उक्त मंत्र का जाप आरंभ करवा दिया। सभी व्यक्ति वह मंत्र जपने लगे। गुरु जी को पता लगा कि उन्हें बहुत क्रोध आया। रामानुज ने उन्हें शांत करते हुए उत्तर दिया, ‘गुरु जी, इस मंत्र के जाप से सभी स्वर्ग को चले जाएँगे। केवल मैं ही नहीं जा पाऊँगा, क्योंकि मैंने आपकी आज्ञा का पालन नहीं किया है। सिर्फ मैं ही नरक में जाऊँगा। यदि मेरे नरक जाने से सभी को स्वर्ग मिलता है, तो इसमें नुकसान ही क्या?’ गुरु ने शिष्य का उत्तर सुनकर उसे गले से लगा लिया और बोले-‘वत्स, तुमने तो मेरी आँखें खोल दीं। तुम नरक कैसे जा सकते हो? सभी का भला सोचने वाला सदा ही सुख पाता है। तुम सच्चे अर्थों में आचार्य हो।’ रामानुजाचार्य अपने गुरु के चरणों में झुक गए। लोगों को भी उनकी भाँति सच्चे और सही मायने में इंसान बनना चाहिए। सच्चा इंसान वह नहीं होता, जो केवल अपने बारे में सोचे, इंसान वहीं है, जो दूसरों का भला करता है।

नकल में भी अकल की जरूरत

अयोध्या में चूड़ामणि नाम का एक व्यक्ति रहता था। धन पाने की इच्छा से उसने बहुत दिनों तक भगवान की तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर एक रात धन देवता कुबेर ने उसे सपने में दर्शन दिए। उन्होंने कहा “सूर्योदय के समय तुम हाथ में लाठी लेकर घर के दरवाजे पर खड़े हो जाना। कुछ देर बाद तुम्हारे पास एक भिक्षुक आएगा। उसके हाथ में एक भिक्षा पात्र होगा। जैसे ही तुम उस भिक्षा पात्र में अपनी लाठी अड़ाओगे वह सोने में परिवर्तित हो जाएगा। उसे तुम अपने पास रख लेना। ऐसा दस दिन करने से तुम्हारे पास दस सोने के पात्र हो जाएंगे। जिससे तुम्हारी जीवन भर की दरिद्रता दूर हो जाएगी। रोज सुबह उठकर चूडामणि वैसा ही करने लगा जैसा कुबेर ने सपने में बताया था। एक दिन उसे ऐसा करते हुए पड़ोसी ने देख लिया। बस उसी दिन से चूडामणि का पड़ोसी नित्यप्रति किसी भिक्षुक की प्रतीक्षा में अपने घर के दरवाजे पर लाठी लिए खड़ा रहता। बहुत दिन बाद अतंतः एक भिक्षुक उसके दरवाजे पर भिक्षा मांगने आया। पडौसी ने भिक्षा पात्र पर डंडा छुआया। पर वह सोने में नहीं बदला। अंत में से गुस्सा आया और उसके आव देखा न ताव और भिक्षुक पर प्रहार करना शुरू कर दिया। थोड़ी देर में भिक्षुक के प्राण पखेरू उड़ गए। उसके इस कर्म की सूचना राजा तक पहुंची। राजकर्मचारी उसे गिरफ्तार कर राजा के सामने ले गए। अभियोग सिद्द होने पर पड़ोसी कोमृत्युदंड दिया गया।

पुरुष से स्त्री बनने की रोचक कथा

(वेद हिंदू धर्म का सबसे प्राचीन ग्रंथ है। वेद के तीन भाग हैं- उपनिषद भाग, मंत्र भाग और ब्राह्मण भाग। उपनिषद वेद का ज्ञान वाला भाग है। उपनिषद कुल 10 हैं। उपनिषद का अर्थ बहुत व्यापक है। इसका मुख्य अर्थ है-विद्या। उपनिषदों की रचना वेदों के अंत में की गई है। इसीलिए इन्हें वेदांत भी कहते हैं। इनमें गुरू-शिष्य के प्रश्नोत्तर के जरिए सृष्टि के गूढ़ रहस्यों के बारे में चर्चा की गई है। सत्य की खोज की उत्सुकता इनका मुख्य विषय है। इसीलिए उपनिषदों में ज्यादातर आत्मा-परमात्मा के विषयों पर ही विचार किया गया है।) पुरुष से स्त्री सृष्टिकाल के आरम्भ की घटना है, भगवान शंकर किसी वन में देवी पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। उसी समय उनके दर्शनों की इच्छा से कुछ मुनिगण वहाँ पहुँचे। भगवान शिव और देवी पार्वती प्रेमालाप में लीन थे। मुनिगण को देखकर पार्वती लज्जित हो गईं। उनकी यह देशा देखकर भगवान शिव ने उस वन को शाप देते हुए कहा-“आज से जो पुरुष इस वन में प्रवेश करेगा, वह स्त्री हो जाएगा।” उसी समय से पुरुषों ने उस वन में जाना बंद कर दिया और वह स्थान अम्बिका वन नाम से प्रसिद्ध होकर शिव-पार्वती का सुरक्षित प्रणय-स्थल बन गया। एक बार वैवस्वत मनु के पुत्र इल शिकार खेलते हुए उस वन में आ निकले तो वे तत्क्षण एक सुंदर स्त्री में परिवर्तित हो गए। उनका घोड़ा भी घोड़ी बन गया। स्त्री बनकर इल अत्यंत दुखी हुए और वन में यहाँ-वहाँ भटकने लगे। उस वन के निकट ही बुध (जो बाद में बुध ग्रह बने) का आश्रम था। स्त्री के रूप में इल वहाँ पहुँचे तो बुध उन पर मोहित हो गए। उन्होंने स्त्री बने इल का नाम ‘इला’ रख दिया। फिर दोनों ने प्रेम-विवाह कर लिया। इला उसी आश्रम में बुध के साथ रहने लगीं। कुछ समय बाद इला ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम ‘पुरुरवा’ रखा गया। बुध के आश्रम में स्त्री बने इल को वर्षों बीत गए। एक दिन इला को दुखी देखकर पुरुरवा ने इसका कारण पूछा। इला ने अपना परिचय देकर पुरुष से स्त्री बनने की सारी घटना बताई। माता के दुःख निवारण का उपाय जानने के लिए पुरुरवा पिता बुध के पास गए। तब बुध बोले-“वत्स! मैं राजा इल के इला बनने की कथा भली-भांति जानता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि भगवान शिव और देवी पार्वती के कृपा-प्रसाद से ही उनका उद्धार हो सकता है। इसलिए तुम गौतमी के तट पर जाकर उनकी आराधना करो। भगवान शिव और पार्वती सदा वहाँ विराजमान रहते हैं। वे अवश्य तुम्हारी इच्छा पूरी करेंगे।” पिता की बात सुनकर पुरुरवा बड़े प्रसन्न हुए। वे उस समय माता-पिता को साथ लेकर गौतमी के तट पर गए और वहाँ स्नान कर भगवान की स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव देवी उमा के साथ साक्षात प्रकट हुए और उन्हें इच्छित वर माँगने को कहा। पुरुरवा ने वर-स्वरूप इला को पुनः राजा इल बनाने की प्रार्थना की। भगवान शिव बोले-“वत्स! इल गौतमी गंगा में स्नान करने के बाद पुनः अपने वास्तविक रूप में परिवर्तित हो जाएँगे।” यह कहकर वे अंतर्धान हो गए। इला ने गौतमी गंगा में स्नान किया। स्नान के समय उनके शरीर से जो जल गिर रहा था, उसके साथ उनके नारी जैसे सौंदर्य, नृत्य और संगीत भी गंगा की धारा में मिल गए। वे नृत्या, गीता एवं सौभाग्य नाम की नदियों में परिणत होकर गंगा में आ मिलीं। इससे वहाँ तीन पवित्र संगम हुए। तभी से वह स्थान इला तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वहाँ इलेश्वर नामक भगवान शिव की स्थापना भी हुई। माना जाता है इस तीर्थ में स्नान और दान करने से सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

क्यों होता है दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश पूजन?

गणेश-लक्ष्मी पूजन की कथा एक बार की बात है, एक राजा ने किसी लकड़हारे पर प्रसन्न होकर उसे चंदन की लकड़ी का पूरा जंगल दे दिया। लेकिन लकड़हारा बुद्धू और गंवार था। वह चंदन की लकड़ी का महत्व नहीं समझता था। धीरे-धीरे उसने पूरा जंगल साफ कर दिया और पुनः अपनी बदहाल अवस्था में पहुंच गया क्योंकि वह सारी लकड़ियां भोजन पकाने में जला चुका था। राजा ने सोचा यह सच है कि बुद्धि होती है तभी लक्ष्मी अर्थात धन का संचय किया जा सकता है। गणपति बुद्धि के स्वामी हैं, बुद्धि-दाता हैं। यही कारण है कि लक्ष्मी एवं गणपति की एक साथ पूजा का विधान है ताकि धन और बुद्धि एक साथ मिलें। एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार एक साधु के मन में राजसी सुख भोगने का विचार आया। यह सोचकर उसने लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या शुरू कर दी। लक्ष्मीजी प्रसन्न हुईं और उसे मनोवांछित वरदान दे दिया। वरदान को सफल करने के लिए वह साधु एक राजा के दरबार में पहुंचा और सीधा सिंहासन के पास पहुंचकर झटके से राजा का मुकुट नीचे गिरा दिया। यह देखकर राजा और सभासदों की भृकुटियां तन गईं। किंतु तभी मुकुट में से एक विषैला सर्प निकला। यह देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और सोचा कि इस साधु ने सर्प से उसकी रक्षा की है। इसलिए उसे अपना मंत्री बना लिया। एक बार साधु ने सभी को फौरन राजमहल से बाहर जाने को कहा। राजमहल में सभी उनके चमत्कार को नमस्कार करते थे। इसलिए सभी ने राजमहल खाली कर दिया। अगले ही क्षण वह धड़धड़ाता हुआ खडंहर बन गया। सभी ने उसकी प्रंशसा की। अब साधु के कहे अनुसार सभी कार्य होने लगे। यह सब देखकर साधु के मन में अहंकार उत्पन्न हो गया और वह स्वयं के आगे सबको तुच्छ समझने लगा। एक दिन राजमहल के एक कक्ष में उसने गणेशजी की प्रतिमा देखी। उसने आदेश देकर वह मूर्ति वहां से हटवा दी। एक दिन दरबार लगा था। साधु ने राजा से कहा- “महाराज! आप अपनी धोती तुरंत उतार दें, इसमें सर्प है।” राजा उनका चमत्कार पहले भी देख चुका था, इसलिए उसने धोती उतार दी। लेकिन उसमें सर्प नहीं निकला। यह देख राजा को बहुत क्रोध आया। उसने साधु को काल कोठरी में डलवा दिया। साधु पुनः तप करने लगा। स्वप्न में लक्ष्मी ने उससे कहा-“मूर्ख! तूने राजमहल से गणेशजी की मूर्ति हटवा दी। वे बुद्धि के देवता हैं। तूने उन्हें रुष्ट कर दिया, इसलिए उन्होंने तेरी बुद्धि हर ली।” साधु को अपनी गलती का पता चला। तब उसने गणपति को प्रसन्न किया। गणपति के प्रसन्न होते ही राजा कालकोठरी में गया और साधु से क्षमा मांग कर उसे पुनः मंत्री बना दिया। मंत्री बनते ही साधु ने गणपति को पुनः स्थापित किया। साथ ही वहां लक्ष्मी की मूर्ति भी स्थापित की। इस प्रकार कहा गया है कि धन के लिए बुद्धि का होना आवश्यक है। दोनों साथ होंगी तभी मनुष्य सुख एवं समृद्धि में रह सकता है। यही कारण है कि दिवाली पर लक्ष्मी एवं गणेश के रूप में धन एवं बुद्धि की पूजा होती है।

लक्ष्मी को तो एक न एक दिन जाना है

सेठ करोड़ीमल नाम का एक व्यक्ति था जैसा उसका नाम था वैसा ही वो धनवान था। माता लक्ष्मी की उस पर बहुत कृपा थी। धनवान होने के कारण उसमें अभिमान आने लगा। एक रात उसके सपने में माता लक्ष्मी आईं और बोली- सेठ करोड़ीमल तुमने बहुत धन कमाया है शायद इसलिए तुम अभिमानी हो गए हो। मैं कुछ समय के लिए तुम्हें छोड़ गंगा पार हलवाई के पास जा रही हूं। अब तुम्हारे पास कुछ नहीं बचेगा। यह सुनकर सेठ करोड़ीमल की आंखे खुल गई। अगले ही दिन उसने सारा धन छत की कड़ियों में छिपा दिया। लेकिन उसकी किस्मत खराब थी। कुछ दिन बाद ही भूकम्प आ गया और सेठ के मकान की छत गिर गई। उसकी कड़ियां गंगा में बहकर दूसरे किनारे पहुंच गई। गंगा किनारे बैठे नाविक बुलाकी ने जब वे कड़ियां देखी तो सोचा क्यों न इसे बेचकर कुछ पैसा बना लूं। सो उसने वे कड़ियां फकीरा हलवाई को बेच दी। जब फकीरा हलवाई ने वे कड़ियां लुहार को तोड़ने को दी तो उसमें से सोने की अशर्फियां निकली और वे उन्हें अपने घर लेकर आ गया। उधर सेठ का बुरा हाल था। उसके घर में खाने तक के लाले पड़ गए। वह जानता था कि उसकी लक्ष्मी फकीरा के पास पहुंच गई है। एक दिन उसने सोचा कि क्यों न फकीरा के पास जाकर विनती करूं कि वह मेरी लक्ष्मी मुझे लौटा दे। सेठ रोटी लेकर घर से निकला यात्रा के दौरान बुलाकी नाविक ने उसे गंगा पार कराई और अपना किराया मांगा तो सेठ ने उससे कहा कि मेरे पास दो रोटी हैं सो एक तुम ले लो और नाविक ने बात मान ली। गंगा के पार पहुंचते ही वह सीधा फकीरा हलवाई के पास पहुंचा और उसे सारी बात कह सुनाई। फकीरा को उस पर तरस आ गया और उसने दो लड्डू सेठ को दिए। जिसमें अशर्फियां छिपी थी। सेठ किरोड़ीमल को कुछ समझ में नहीं आया और वह लड्डू लेकर वापस गंगा पार जाने के लिए बुलाकी नाविक के पास जा पहुंचा। नाविक ने जब किराया मांगा तो हताश सेठ ने दोनों लड्डू नाविक को दे दिए और घर लौट आया। वापिस आकर नाविक ने सोचा कि इतने बड़े लड्डू खाकर मैं क्या करूंगा। मैं इन्हें फकीरा हलवाई को बेच आता हूं। उसने कुछ रुपयो में वे दोनों लड्डू फकीरा हलवाई को बेच दिए। इसलिए कहते हैं कि लक्ष्मी चंचल हैं उन्हें जहां रहना है, वहीं जाना हैं, भूकंप, नाविक, और कड़ियां तो एक बहाना हैं।

बुराई को भलाई से जीतने वाला राजा ही श्रेष्ठ

राजा का रथ एक बार मल्लिक राजा और ब्रह्मदत्त राजा के रथ संकरे रास्ते में आमने-सामने मिल गए। चूंकि दोनों राजाओं के रथ एक साथ निकल नहीं सकते इसलिए दोनों के सारथी एक-दूसरे से पीछे हटने के लिए कहने लगे किंतु कोई भी अपना रथ पीछे खींचने के लिए तैयार नहीं हुआ। बहुत समय तक दोनों में बहस चलती रही। आखिर में ब्रह्मदत्त राजा के सारथी ने कहा कि- दोनों राजाओं में जो श्रेष्ठ और महान है उसका रथ पहले निकलना चाहिए। मल्लिक राजा के सारथी ने कहा कि- दोनो राजा राज्य और सम्पत्ति में समान हैं, दोनों की उम्र भी बराबर है। तो फिर इस बात का निर्णय कैसे हो सकता है? ब्रह्मदत्त राजा के सारथी ने कहा- जो सदगुण और सदाचार में श्रेष्ठ है उसका रथ पहले निकलेगा। मल्लिक राजा के सारथी ने कहा कि- यह बिल्कुल ठीक है तब तो पहले मेरे राजा का रथ ही पहले जाएगा। क्योंकी वह कठोर आदमी को कठोरता से और कोमल आदमी को कोमलता से जीतते हैं। किंतु मेरे राजा क्रोधी को क्षमा से, स्वार्थी और कंजूस को उदारता से और दुराचारी को सदाचार से जीतते हैं। ब्रह्मदत्त राजा के सारथी ने बीच में ही मल्लिक राजा के सारथी को टोकते हुए कहा। ये वार्तालाप सुनकर मल्लिक राजा ने कहा- ब्रह्मदत्त का रथ पहले जाना चाहिए क्योंकी वह मुझसे ज्यादा श्रेष्ठ और महान है। इसकी वजह यह है कि वह दुर्गुण को सदगुण से जीतता है, बुराई को भलाई से जीतता है। मल्लिक राजा के सारथी ने रथ वापस मोड़ लिया और ब्रह्मदत्त राजा के रथ को आगे बढ़ने दिया।

पिता ने बिना भेदभाव किए निकाला समाधान

(हमारी लोककथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से चली आ रही हैं। इनमें भारत की सांस्कृतिक एकता और धार्मिक मान्यताओं की सुंदर झलक देखने को मिलती है। दरअसल, कथाएँ बच्चों की सूझ-बूझ विकसित करने और उनकी मानसिक क्षुधा शांत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बालपन का कल्पना संसार विस्तृत होता चला जाता है। साथ ही सामाजिक मूल्य और भारतीय संस्कारों के प्रति चेतना भी जाग्रत होती है।) समाधान रामसखा नाम का एक बड़ा व्यक्ति था उसकी दो बेटियां थीं लता और सीता। लता का विवाह बर्तन बनाने वाले के साथ और सीता का विवाह एक किसान के साथ हुआ। एक दिन रामसखा को अपनी दोनों बेटियों की बहुत याद आई। इसलिए बेटियों से मिलने के लिए वो घर से निकल पड़ा। वह पहले अपनी बड़ी बेटी लता के घर गया। उसने लता और उसके परिवार का हाल-चाल पूछा। बातों-बातों में उसकी बेटी बोली- पिताजी इस बार हमने बहुत मेहनत की और ढेर सारे मिट्टी के बर्तन बनाए। बस इस बार वर्षा न हो तो हमारी मेहनत सफल हो जाए। उसने अपने पिता रामसखा से आग्रह किया कि आप भी प्रार्थना कीजिए कि इस बार वर्षा न हो। कुछ देर बातें करने के बाद वह अपनी दूसरी बेटी सीता के पास चल दिया। वहां पहुंचकर उसने सीता का भी हाल-चाल पूछा। उसने कहा- पिताजी इस बार हमने बहुत परिश्रम किया है यदि वर्षा अच्छी हो जाएगी तो खूब फसल उगेगी। उसने पिता से विनती की की वे ईश्वर से प्रार्थना करें कि इस बार खूब वर्षा हो। अब रामसखा असमंजस की स्थिती में पड़ गया कि वो किस बेटी के लिए प्रार्थना करें। उसने सोचा कि एक बेटी का आग्रह वर्षा न होने का है और दूसरी बेटी का आग्रह वर्षा होने का है। एक बेटी का साथ देता हूं तो दूसरी बेटी के साथ नाइंसाफी होती है। मेरे लिए तो दोनों की मेहनत बराबर है। इस उलझन से निकलने के लिए उसने एक समाधान निकाला। वह दोबारा अपनी बेटियों के घर गया। घर पहुंचते ही उसने अपनी बड़ी बेटी लता से कहा कि- यदि इस बार वर्षा नहीं हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी छोटी बहन सीता को दे दोगी। ताकि उसके नुकसान की कुछ हद तक भरपाई हो सके। लता ने अपने पिता की बात मानते हुए हां कर दी। फिर वह अपनी छोटी बेटी सीता के पास गया और उससे बोला- यदि इस बार वर्षा होती है, तो तुम्हारी बहन कीए मेहनत पर पानी फिर जाएगा। इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम अपने लाभ का हिस्सा अपनी बड़ी बहन को दे दो। इस प्रकार रामसखा ने बिना भेद-भाव किए दोनों बेटियों की समस्या का समाधान कर लिया।

भगवान शिव कैसे बने नीलकंठ?

पुराण: (वेद और पुराण हिंदू धर्म की अमूल्य निधि हैं। जन्म से मृत्यु तक के हमारे संस्कार इन्हीं वेदों और पुराणों की परंपरा पर आधारित हैं। पुराणों की संख्या अठारह कही गई है। इनमें विभिन्न व्यक्तियों, वस्तुओं, जीवों आदि को आधार बनाकर शिक्षा और ज्ञान का महत्व बताया गया है। इनमें कथा-कहानियों के जरिए सही और गलत में अंतर बताया गया है। पुराण ज्ञान और शिक्षा के साथ मनोरंजन का भी भरपूर खजाना है। यही कारण है कि लोग इसे आज भी पढ़ना पसंद करते हैं।) भगवान शिव कैसे बने नीलकंठ? एक बार की बात है- शिवजी के दर्शनों के लिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को विनम्रतापूर्वक प्रणाम किया। तब दुर्वासा ने इन्द्र को आशीर्वाद देकर भगवान विष्णु का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा भगवान विष्णु के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया। इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के दिव्य पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वास ऋषि के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को वैभव (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और धनहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपना परचम फहरा दिया। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पृति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए। तब ब्रह्माजी बोले- ‘देवेंद्र! भगवान विष्णु के भोगरूपी फूल का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गई हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’ इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आश्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान् विष्णु की स्तुति करते हुए बोले- ‘भगवन! आपके चरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम। भगवन! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रुठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में है, हमारी रक्षा कीजिए। ’ भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी थे। वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगण से अपने वैभव लौटाने के लिए, दानवों से दोस्ती कर उनके साथ मिलकर समुद्र मंथन करने को बोले। उन्होंने समुद्र की गहराइयों में छिपे अमृत के कलश और मणि रत्नों के बारे में बताया कि उसे पाने से वे सभी फिर से वैभवशाली हो जाएंगे। भगवान विष्णु के कहे अनुसार इन्द्र सहित सभी देवता दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया। समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे। अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। सहसा तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएँ जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। देवताओं और दैत्यों सहित ऋषि, मुनि, मनुष्य, गंधर्व और यक्ष आदि उस विष की गरमी से जलने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर, भगवान शिव विषपान के लिए तैयार हो गए। उन्होंने भयंकर विष को हथेलियों में भरा और भगवान विष्णु का स्मरण कर उसे पी गए। भगवान विष्णु अपने भक्तों के संकट हर लेते हैं। उन्होंने उस विष को शिवजी के कंठ (गले) में ही रोक कर उसका प्रभाव समाप्त कर दिया। विष के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया और वे संसार में नीलंकठ के नाम से प्रसिद्ध हुए। जिस समय भगवान शिव विषपान कर रहे थे, उस समय विष की कुछ बूँदें नीचे गिर गईं। जिन्हें बिच्छू, साँप आदि जीवों और कुछ वनस्पतियों ने ग्रहण कर लिया। इसी विष के कारण वे विषैले हो गए। विष का प्रभाव समाप्त होने पर सभी देवगण भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। हलाहल के बाद समुद्र से कामधेनू (गाय) प्रकट हुईं। वह यज्ञ-हवन आदि सामग्री उत्पन्न करने वाली थी, अतः उसे ऋषि-मुनियों ने ग्रहण किया। उसके बाद उच्चैःश्रवा नामक सात मुखों वाला एक अश्व निकला। वह चंद्रमा के समान श्वेत वर्ण का था। उसकी सुंदरता से प्रभावित होकर उसे दैत्यराज बलि ने ग्रहण कर लिया। तदंतर समुद्र से श्वेत वर्ण का ऐरावत नाम एक हाथी निकला। उसे अपना वाहन बनाने के लिए इन्द्र ने ग्रहण कर लिया। इसके बाद कौस्तूभ नामक मणि प्रकट हुई। उसे श्रीविष्णु ने धारण किया। समुद्र मंथन से कल्पवृक्ष तथा अनेक सुंदर अप्सराएँ भी प्रकट हुई। इनके बाद ऐश्वर्य और भोगों की देवी लक्ष्मी प्रकट हुईं। वे भगवान विष्णु की नित्यशक्ति हैं। उनके रूप-सौंदर्य से सभी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। देवी लक्ष्मी समुद्र की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुईँ थी। उन्होंने प्रकट होते ही भगवान विष्णु को वरमाला डालकर पति रूप में स्वीकार कर लिया। अंत में समुद्र से एक दिव्य पुरुष प्रकट हुए। दिव्य वस्त्र-आभूषणों से सुशोभित वे दिव्य पुरुष श्रीविष्णु के अंशावतार और आयुर्वेद के प्रवर्तक वैद्य धन्वन्तरि थे। उनके हाथों में अमृत से भरा कलश था। उन्हें देखकर दैत्यों ने समुद्र मंथन छोड़कर उनसे अमृत का कलश छीन लिया। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण करके देवताओं को अमृत पान करवाया। इस प्रकार सभी देवता वैभव से संपन्न होने के साथ-साथ अमृतपान कर अमर हो गए।

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