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Monday, 28 January 2013
समभाव मैं है जीवन की सार्थकता
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संत एकनाथजी के पास एक व्यक्ति आया और बोला - नाथ! आपका जीवन कितना मधुर है। हमें तो शांति एक क्षण भी प्राप्त नहीं होती। कृपया मार्गदर्शन करें।
एकनाथजी ने कहा - तू तो अब आठ ही दिनों का मेहमान है, अतः पहले की ही भांति अपना जीवन व्यतीत कर।
यह सुनते ही वह व्यक्ति उदास हो गया। घर गया और पत्नी से बोला - मैंने तुम्हें कई बार नाहक ही कष्ट दिया है। मुझे क्षमा करो। फिर बच्चों से बोला - बच्चों, मैंने तुम्हें कई बार पीटा है, मुझे उसके लिए माफ करो। जिन लोगों से उसने दुर्व्यवहार किया था, सबसे माफी मांगी।
इस तरह आठ दिन व्यतीत हो गए और नौवें दिन वह एकनाथजी के पास पहुंचा और बोला - नाथ, मेरी अंतिम घड़ी के लिए कितना समय शेष है?
एकनाथजी बोले - तेरी अंतिम घड़ी तो परमेश्वर ही बता सकता है, किंतु तेरे यह आठ दिन कैसे व्यतीत हुए? भोग-विलास और आनंद तो किया ही होगा?
वह व्यक्ति बोला - क्या बताऊं नाथ, मुझे इन आठ दिनों में मृत्यु के अलावा और कोई चीज दिखाई नहीं दे रही थी। इसीलिए मुझे अपने द्वारा किए गए सारे दुष्कर्म स्मरण हो आए और उसके पश्चाताप में ही यह अवधि बीत गई।
एकनाथजी बोले - मित्र, जिस बात को ध्यान में रखकर तूने यह आठ दिन बिताए हैं, हम साधु लोग इसी को सामने रखकर सारे काम किया करते हैं। यह देह क्षणभंगुर है, इसे मिट्टी में मिलना ही है। इसका गुलाम होने की अपेक्षा परमेश्वर का गुलाम बनो। सबके साथ समान भाव रखने में ही जीवन की सार्थकता है।
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