16 January 2013

राम प्रभूजी

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हे राम प्रभूजी दयाभवन ।
तुमसा है जग में और कवन ।।

सुखसागर नागर जलजनयन ।
गुन आगर करुना क्षमा अयन ।।
...
सुखदायक लायक विपतिसमन ।
भवतारन हारन जरा-मरन ।।

संकोचसिन्धु धुर धर्म धरन ।
शारंग धर टाँरन भार अवन ।।

जग पालन कारन सियारमन ।
देवों को दायक तुम्ही अमन ।।

मन लाजे तुमको देखि मदन ।
शोभा की सीमा शील सदन ।।

विश्वाश्रय रघुवर विश्व भरन ।
तुमको प्रभु वारंवार नमन ।।

तुम बिनु प्रभु क्या यह मानुष तन ।
बन जाओ मेरे जीवनधन ।।

दुःख दारिद दावन दोष दमन ।
तुमको ही ध्याये मेरा मन ।।

प्रभुजी अवगुन अघ ओघ हरन ।
हो चित चकोर विधु आप वदन ।।


नहि मालुम मुझको एक जतन ।
तुम बिनु को हारे दुख दोष तपन ।।

कहते हैं स्वामी तव गुनगन ।
सरनागत राखन प्रभु का पन ।।

मेरा उर हो प्रभु आप सदन ।
गहि बाँह रखो मोहि जानिके जन ।।

विनती प्रभुजी तारन-तरन ।
मन का भी मेरे हो नियमन ।।

हे रामप्रभू मेरे भगवन ।
मै चाह रहा तेरी चितवन ।।

करुनासागर संतोष सरन ।
है ठौर इसे बस आप चरन ।।

Hey Shiv Shankar

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Hey Shiv Shankar Hey Karunakar, Suniye Arj Hamari,

Bhav Sagar Se Par Utaro,aaye Sharan Tihari,
Hey Shiv Shankar Hey Karunakar, Suniye Arj Hamari,

Chandra Lalat Bhabut Ramaye,gatgambar Hari,
Karn Mein Damru Gale Bhujanga, Nandi Khado Dware,
Hey Ganga Dhar Daras Dikha Do, Hey Bhole Bhandari,
Hey Shiv Shankar Hey Karunakar, Suniye Arj Hamari,
Bhav Sagar Se Par Utaro,aaye Sharan Tihari
Hey Shiv Shankar Hey Karunakar, Suniye Arj Hamari,

Janam Maran Ke Tum Ho Swami, Hey Shankar Abhilashi,
Kan Kan Mein Hai Rup Tumhara, Hey Bhole Kailashi,
Charan Sharan Mein Aaya Jo Bhi, Rakhyo Laaj Hamari
Hey Shiv Shankar Hey Karunakar, Suniye Arj Hamari,
Bhav Sagar Se Par Utaro,aaye Sharan Tihari
Hey Shiv Shankar Hey Karunakar, Suniye Arj Hamari,

Om namah shivay

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Om namah shivay

शीश गंग अर्धग पार्वती सदा विराजत कैलासी।

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Om Namah Shivay -

शीश गंग अर्धग पार्वती सदा विराजत कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुखरासी॥
शीतल मन्द सुगन्ध पवन बह बैठे हैं शिव अविनाशी।
करत गान-गन्धर्व सप्त स्वर राग रागिनी मधुरासी॥
यक्ष-रक्ष-भैरव जहँ डोलत, बोलत हैं वनके वासी।
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर, भ्रमर करत हैं गुंजा-सी॥
कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु लाग रहे हैं लक्षासी।
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत करत दुग्ध की वर्षा-सी॥
सूर्यकान्त सम पर्वत शोभित, चन्द्रकान्त सम हिमराशी।
नित्य छहों ऋतु रहत सुशोभित सेवत सदा प्रकृति दासी॥
ऋषि मुनि देव दनुज नित सेवत, गान करत श्रुति गुणराशी।
ब्रह्मा, विष्णु निहारत निसिदिन कछु शिव हमकू फरमासी॥
ऋद्धि सिद्ध के दाता शंकर नित सत् चित् आनन्दराशी।
जिनके सुमिरत ही कट जाती कठिन काल यमकी फांसी॥
त्रिशूलधरजी का नाम निरन्तर प्रेम सहित जो नरगासी।
दूर होय विपदा उस नर की जन्म-जन्म शिवपद पासी॥
कैलाशी काशी के वासी अविनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर किंकर की विनती सुनियो॥

श्री शनि चालीसा

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श्री शनि चालीसा -

जय गनेश गिरिजा सुवन. मंगल करण कृपाल.
दीनन के दुःख दूर करि. कीजै नाथ निहाल.
जय जय श्री शनिदेव प्रभु. सुनहु विनय महाराज.
करहु कृपा हे रवि तनय. राखहु जन की लाज.

जयति जयति शनिदेव दयाला. करत सदा भक्तन प्रतिपाला.
चारि भुजा, तनु श्याम विराजै. माथे रतन मुकुट छवि छाजै.
परम विशाल मनोहर भाला. टेढ़ी दृश्टि भृकुटि विकराला.
कुण्डल श्रवण चमाचम चमके. हिये माल मुक्तन मणि दमके.
कर में गदा त्रिशूल कूठारा. पल बिच करैं अरिहिं संसारा.
पिंगल, कृश्णों, छाया, नन्दन. यम कोणस्थ, रौद्र, दुःखभंजन.
सौरी, मन्द, शनि, दशनामा. भानु पुत्र पूजहिं सब कामा.
जापर प्रभु प्रसन्न हो जाहीं. रंकहुं राव करै क्षण माहीं.
पर्वतहु तृण होई निहारत. तृणहु को पर्वत करि डारत.
राज मिलत बन रामहिं दीन्हा. कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हा.
बनहूँ में मृग कपट दिखाई. मातु जानकी गई चुराई.
लक्षमन विकल शक्ति के मारे. रामा दल चनंतित बहे सारे
रावण की मति गई बौराई. रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई.
दियो छारि करि कंचन लंका. बाजो बजरंग वीर की डंका.
नृप विकृम पर दशा जो आई. चित्र मयूर हार सो ठाई.
हार नौलख की लाग्यो चोरी. हाथ पैर डरवायो तोरी.
अतिनिन्दा मय बिता जीवन. तेलिहि सेवा लायो निरपटन.
विनय राग दीपक महँ कीन्हो. तव प्रसन्न प्रभु सुख दीन्हो.
हरिश्चन्द्र नृप नारी बिकाई. राजा भरे डोम घर पानी.
वक्र दृश्टि जब नल पर आई. भूंजी- मीन जल बैठी दाई.
श्री शंकर के गृह जब जाई. जग जननि को भसम कराई.
तनिक विलोकत करि कुछ रीसा. नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा.
पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी. अपमानित भई द्रौपदी नारी.
कौरव कुल की गति मति हारि. युद्ध महाभारत भयो भारी.
रवि कहं मुख महं धरि तत्काला. कुदि परयो ससा पाताला.
शेश देव तब विनती किन्ही. मुख बाहर रवि को कर दीन्ही.
वाहन प्रभु के सात सुजाना. जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना.
कौरव कुल की गति मति हारि. युद्ध महाभारत भयो भारी.
रवि कहं मुख महं धरि तत्काला. कुदि परयो ससा पाताला.
शेश देव तब विनती किन्ही. मुख बाहर रवि को कर दीन्ही.
वाहन प्रभु के सात सुजाना. जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना.
जम्बुक सिंह आदि नख धारी सो फ़ल जयोतिश कहत पुकारी.
गज वाहन लक्ष्मी गृह आवै.हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं.
गदर्भ हानि करै बहु काजा. सिंह सिद्ध कर राज समाजा.
जम्बुक बुद्धि नश्ट कर डारै . मृग दे कश्ट प्राण संहारै.
जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी. चोरी आदि होय डर भारी.
तैसहि चारि चरण यह नामा. स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा.
लौह चरण पर जब प्रभु आवैं. धन जन सम्पति नश्ट करावै.
समता ताम्र रजत शुभकारी. स्वर्ण सदा सुख मंगल कारी.
जो यह शनि चरित्र नित गावै. दशा निकृश्ट न कबहुं सतावै.
नाथ दिखावै अदभुत लीला. निबल करे जय है बल शिला.
जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई. विधिवत शनि ग्रह शांति कराई.
पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत. दीप दान दै बहु सुख पावत.
कहत राम सुन्दर प्रभु दासा. शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा.

दोहा

पाठ शनिचर देव को, कीन्हों विमल तैयार.
करत पाठ चालीसा दिन, हो दुख सागर पार

भगवान् मैं आपको भूलू नही

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मनुष्य का जन्म सिर्फ ईश्वर को प्राप्त करने के लिए हुआ है। लगातार प्रार्थना करिए-- हे भगवान, हे भगवान क्या आप दर्शन नहीं देंगे? मैं आपके लिए व्याकुल हूं। लगातार प्रार्थना से उनका दिल पिघल जाता है।

ईश्वर हमसे प्रेम करता ही है। हमारे पैदा होने पर माता की देह में दूध पैदा कर देता है। हम वह पीकर बड़े होते हैं और बड़ा- बड़ा ग्यान बघारते हैं। फिर अंत में हमारी सांस खत्म हो जाती है और हमारा शरीर मुर्दा हो जाता है। तब हमारी सारी हेकड़ी कहां चली जाती है? ईश्वर हमें प्रेम करता है मां- बाप के रूप में, पत्नी के रूप में, प्रेमिका के रूप में, मित्र के रूप में, एक रोगी को सहानुभूति और दवा के रूप में। भूखे के पास वह भोजन के रूप में आता है। करने वाला वही है। हम नाहक घमंड कर बैठते हैं कि हमने यह किया, वह किया।

थोड़ी थोड़ी देर मैं ये कहते रहे की - " हे! मेरे नाथ ..हे ! मेरे भगवान् मैं आपको भूलू नही

श्री शिव चालीसा

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श्री शिव चालीसा -

।।दोहा।। श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥
जय गिरिजा पति दीन दयाला। सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके। कानन कुण्डल नागफनी के॥
अंग गौर शिर गंग बहाये। मुण्डमाल तन छार लगाये॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे। छवि को देख नाग मुनि मोहे॥
मैना मातु की ह्वै दुलारी। बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥
नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। सागर मध्य कमल हैं जैसे॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ। या छवि को कहि जात न काऊ॥
देवन जबहीं जाय पुकारा। तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥
किया उपद्रव तारक भारी। देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥
तुरत षडानन आप पठायउ। लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥
आप जलंधर असुर संहारा। सुयश तुम्हार विदित संसारा॥
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥
दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं॥
वेद नाम महिमा तव गाई। अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥
प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। जरे सुरासुर भये विहाला॥
कीन्ह दया तहँ करी सहाई। नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा। जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥
सहस कमल में हो रहे धारी। कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥
एक कमल प्रभु राखेउ जोई। कमल नयन पूजन चहं सोई॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥
जय जय जय अनंत अविनाशी। करत कृपा सब के घटवासी॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। यहि अवसर मोहि आन उबारो॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट से मोहि आन उबारो॥
मातु पिता भ्राता सब कोई। संकट में पूछत नहिं कोई॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु अब संकट भारी॥
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥
शंकर हो संकट के नाशन। मंगल कारण विघ्न विनाशन॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। नारद शारद शीश नवावैं॥
नमो नमो जय नमो शिवाय। सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥
जो यह पाठ करे मन लाई। ता पार होत है शम्भु सहाई॥
ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। पाठ करे सो पावन हारी॥
पुत्र हीन कर इच्छा कोई। निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥
पण्डित त्रयोदशी को लावे। ध्यान पूर्वक होम करावे ॥
त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा। तन नहीं ताके रहे कलेशा॥
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥
जन्म जन्म के पाप नसावे। अन्तवास शिवपुर में पावे॥
कहे अयोध्या आस तुम्हारी। जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥

॥दोहा॥ नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान।
अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥

Om Namah Shivay

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शीश गंग अर्धग पार्वती सदा विराजत कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुखरासी॥
शीतल मन्द सुगन्ध पवन बह बैठे हैं शिव अविनाशी।
करत गान-गन्धर्व सप्त स्वर राग रागिनी मधुरासी॥
यक्ष-रक्ष-भैरव जहँ डोलत, बोलत हैं वनके वासी।
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर, भ्रमर करत हैं गुंजा-सी॥
कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु लाग रहे हैं लक्षासी।
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत करत दुग्ध की वर्षा-सी॥
सूर्यकान्त सम पर्वत शोभित, चन्द्रकान्त सम हिमराशी।
नित्य छहों ऋतु रहत सुशोभित सेवत सदा प्रकृति दासी॥
ऋषि मुनि देव दनुज नित सेवत, गान करत श्रुति गुणराशी।
ब्रह्मा, विष्णु निहारत निसिदिन कछु शिव हमकू फरमासी॥
ऋद्धि सिद्ध के दाता शंकर नित सत् चित् आनन्दराशी।
जिनके सुमिरत ही कट जाती कठिन काल यमकी फांसी॥
त्रिशूलधरजी का नाम निरन्तर प्रेम सहित जो नरगासी।
दूर होय विपदा उस नर की जन्म-जन्म शिवपद पासी॥
कैलाशी काशी के वासी अविनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर किंकर की विनती सुनियो॥

शंकर मेरा प्यारा, शंकर मेरा प्यारा ।

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शंकर मेरा प्यारा, शंकर मेरा प्यारा ।
माँ री माँ मुझे मूरत ला दे, शिव शंकर की मूरत ला दे,
मूरत ऐसी जिस के सर से निकले गंगा धरा ॥

माँ री माँ वो डमरू वाला, तन पे पहने मृग की छाला ।
रात मेरे सपनो में आया, आ के मुझ को गले लगाया ।
गले लगा कर मुझ से बोला, मैं हूँ तेरा रखवाला ॥

माँ री माँ वो मेरा स्वामी, मैं उस के पट की अनुगामी ।
वो मेरा है तारण हारा, उस से मेरा जग उजारा ।
है प्रभु मेरा अन्तर्यामी, सब का है वो रखवाला ॥

शिव की महिमा अनंत है

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शिव की महिमा अनंत है
उनके रूप, रंग और गुण अनन्य हैं
समस्त सृष्टि शिवमयहै
सृष्टि से पूर्व शिव - सृष्टि के बाद केवल शिव ही शेष रहते हैं

शिवोहम_शिवोहम_शिवोहम

ॐ महादेवाय नम:, ॐ हरये नम:, ॐ हराय नम:
ॐ महेश्वराय नम:, ॐ शंङ्कराय नम:, ॐ अम्बिकानाथाय नम:
ॐ गंगाधराय नम:, ॐ जटाधराय नम:, ॐ त्रिमूर्तये नम:
ॐ सदाशिवाय नम:, ॐ मृत्युञ्जयाय नम:, ॐ रुद्राय नम

भोलेनाथ के दिवाने

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कभी तो नजर मिलाओ, कभी तो नजिक आओ
जो नही कहा है कभी तो समझ भी जाओ
हम भी तो है तुमहारे
दिवाने ओ दिवाने

भोलेनाथ के दिवाने

भलाई के कार्य

www.goswamirishta.com सदैव भलाई के कार्य करते रहो एवं
दूसरों को भी अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करो।
ऐसा कोई भी काम न करो, जिसे करने से तुम्हारा मन मलिन हो।
यदि नेक कार्य करते रहोगे तो भगवान तुम्हें सदैव अपनी अनन्त शक्ति प्रदान करते रहेंगे।

किसी के विश्वास को तोड़ने से सच्चाई और ईमानदारी जैसे मूल्य हमेशा के लिए शक के घेरे मे आ जाते है

108 different names of My Lord Shiv !!!!!!!


1. शिव – कल्याण स्वरूप
2. महेश्वर – माया के अधीश्वर
3. शम्भू – आनंद स्स्वरूप वाले
4. पिनाकी – पिनाक धनुष धारण करने वाले
5. शशिशेखर – सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले
6. वामदेव – अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले
7. विरूपाक्ष – भौंडी आँख वाले
8. कपर्दी – जटाजूट धारण करने वाले
9. नीललोहित – नीले और लाल रंग वाले
10. शंकर – सबका कल्याण करने वाले
11. शूलपाणी – हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले
12. खटवांगी – खटिया का एक पाया रखने वाले
13. विष्णुवल्लभ – भगवान विष्णु के अतिप्रेमी
14. शिपिविष्ट – सितुहा में प्रवेश करने वाले
15. अंबिकानाथ – भगवति के पति
16. श्रीकण्ठ – सुंदर कण्ठ वाले
17. भक्तवत्सल – भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले
18. भव – संसार के रूप में प्रकट होने वाले
19. शर्व – कष्टों को नष्ट करने वाले
20. त्रिलोकेश – तीनों लोकों के स्वामी
21. शितिकण्ठ – सफेद कण्ठ वाले
22. शिवाप्रिय – पार्वती के प्रिय
23. उग्र – अत्यंत उग्र रूप वाले
24. कपाली – कपाल धारण करने वाले
25. कामारी – कामदेव के शत्रु
26. अंधकारसुरसूदन – अंधक दैत्य को मारने वाले
27. गंगाधर – गंगा जी को धारण करने वाले
28. ललाटाक्ष – ललाट में आँख वाले
29. कालकाल – काल के भी काल
30. कृपानिधि – करूणा की खान
31. भीम – भयंकर रूप वाले
32. परशुहस्त – हाथ में फरसा धारण करने वाले
33. मृगपाणी – हाथ में हिरण धारण करने वाले
34. जटाधर – जटा रखने वाले
35. कैलाशवासी – कैलाश के निवासी
36. कवची – कवच धारण करने वाले
37. कठोर – अत्यन्त मजबूत देह वाले
38. त्रिपुरांतक – त्रिपुरासुर को मारने वाले
39. वृषांक – बैल के चिह्न वाली झंडा वाले
40. वृषभारूढ़ – बैल की सवारी वाले
41. भस्मोद्धूलितविग्रह – सारे शरीर में भस्म लगाने वाले
42. सामप्रिय – सामगान से प्रेम करने वाले
43. स्वरमयी – सातों स्वरों में निवास करने वाले
44. त्रयीमूर्ति – वेदरूपी विग्रह करने वाले
45. अनीश्वर – जिसका और कोई मालिक नहीं है
46. सर्वज्ञ – सब कुछ जानने वाले
47. परमात्मा – सबका अपना आपा
48. सोमसूर्याग्निलोचन – चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले
49. हवि – आहूति रूपी द्रव्य वाले
50. यज्ञमय – यज्ञस्वरूप वाले
51. सोम – उमा के सहित रूप वाले
52. पंचवक्त्र – पांच मुख वाले
53. सदाशिव – नित्य कल्याण रूप वाले
54. विश्वेश्वर – सारे विश्व के ईश्वर
55. वीरभद्र – बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले
56. गणनाथ – गणों के स्वामी
57. प्रजापति – प्रजाओं का पालन करने वाले
58. हिरण्यरेता – स्वर्ण तेज वाले
59. दुर्धुर्ष – किसी से नहीं दबने वाले
60. गिरीश – पहाड़ों के मालिक
61. गिरिश – कैलाश पर्वत पर सोने वाले
62. अनघ – पापरहित
63. भुजंगभूषण – साँप के आभूषण वाले
64. भर्ग – पापों को भूंज देने वाले
65. गिरिधन्वा – मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले
66. गिरिप्रिय – पर्वत प्रेमी
67. कृत्तिवासा – गजचर्म पहनने वाले
68. पुराराति – पुरों का नाश करने वाले
69. भगवान् – सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न
70. प्रमथाधिप – प्रमथगणों के अधिपति
71. मृत्युंजय – मृत्यु को जीतने वाले
72. सूक्ष्मतनु – सूक्ष्म शरीर वाले
73. जगद्व्यापी – जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले
74. जगद्गुरू – जगत् के गुरू
75. व्योमकेश – आकाश रूपी बाल वाले
76. महासेनजनक – कार्तिकेय के पिता
77. चारुविक्रम – सुन्दर पराक्रम वाले
78. रूद्र – भक्तों के दुख देखकर रोने वाले
79. भूतपति – भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी
80. स्थाणु – स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले
81. अहिर्बुध्न्य – कुण्डलिनी को धारण करने वाले
82. दिगम्बर – नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले
83. अष्टमूर्ति – आठ रूप वाले
84. अनेकात्मा – अनेक रूप धारण करने वाले
85. सात्त्विक – सत्व गुण वाले
86. शुद्धविग्रह – शुद्धमूर्ति वाले
87. शाश्वत – नित्य रहने वाले
88. खण्डपरशु – टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले
89. अज – जन्म रहित
90. पाशविमोचन – बंधन से छुड़ाने वाले
91. मृड – सुखस्वरूप वाले
92. पशुपति – पशुओं के मालिक
93. देव – स्वयं प्रकाश रूप
94. महादेव – देवों के भी देव
95. अव्यय – खर्च होने पर भी न घटने वाले
96. हरि – विष्णुस्वरूप
97. पूषदन्तभित् – पूषा के दांत उखाड़ने वाले
98. अव्यग्र – कभी भी व्यथित न होने वाले
99. दक्षाध्वरहर – दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले
100. हर – पापों व तापों को हरने वाले
101. भगनेत्रभिद् – भग देवता की आंख फोड़ने वाले
102. अव्यक्त – इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले
103. सहस्राक्ष – अनंत आँख वाले
104. सहस्रपाद – अनंत पैर वाले
105. अपवर्गप्रद – कैवल्य मोक्ष देने वाले
106. अनंत – देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित
107. तारक – सबको तारने वाला
108. परमेश्वर – सबसे परे ईश्वर

पगड़ी बांधे वो सुंदर आँखों वाला

जरी की पगड़ी बांधे वो सुंदर आँखों वाला, कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा | कानो में कुंडल साजे सर मोर मुकुट विराजे, संखियाँ पगली होती जब होठों पे बंसी बाजे, है चंदा ये सांवरा तारे ग्वाल बाला .... कितना सुंदर लागे बिहारी.......... लट घुंगराले बाल तेरे कारे कारे गाल, सुंदर श्याम सलोना तेरी टेडी मेढ़ी चाल, हवा में सर सर करता तेरा पीताम्बर मतवाला..... कितना सुंदर लागे बिहारी .......... मुख पे माखन मलता तू बल घुटनों के चलता, देख यशोदा मात को देवो का मन भी जलता माथे पे तिलक है सोहे आँखों में काजल डाला....... कितना सुंदर लागे बिहारी......... तू जब बंसी बजाये तब मोर भी नाच दिखाए, यमुना में लहरें उठती और कोयल कुह कुह गाये, हाथ में कंगन पहने और गल वैजन्ती माला...... कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा जरी की पगड़ी बांधे वो सुंदर आँखों वाला, कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे प्यारा |

हमारे देवस्थानोंके धनका सही सदुपयोग होना चाहिए !

हमारे देवस्थानोंके धनका सही सदुपयोग होना चाहिए ! जितना धन हमारे देवस्थानोंमें है यदि उनका सही सदुपयोग किया जाए तो भारत के ९५ करोड हिन्दुओंको धर्मशिक्षण अत्यंत सहजतासे मिल सकता है, प्रत्येक ग्राममें एक संस्कृत विद्यालय खुल सकता है, एक गौशाला खुल सकती है, एक गुरुकुल हो सकता है, एक आयुर्वेदिक औषधालय खुल सकता है | ऐसा करनेसे वैदिक संस्कृतिका पोषण होगा, हिन्दुओंमें धर्माभिमान जागृत होगा और धर्माभिमानी, जागृत हिन्दु कभी भी इस श्रेष्ठ धर्मको छोडकर किसी अन्य धर्म और पंथमें धर्मांतरित नहीं होगा ! परंतु मंदिरके कोषाध्यक्ष और कर्ता-धर्ताको ही इस बातका महत्त्व पता नहीं ! अतः इस कालको कलियुग कहते हैं ! उन्हें यह समझमें नहीं आता कि धर्मशिक्षण नहीं देनेके कारण आज इतनी धर्मग्लानि हुई है और चहुं ओर त्राहिमांकी स्थिति व्याप्त हो गयी है | जब धर्मपर आघात होगा तो धर्मस्थलपर भी होगा और जब धर्मस्थल ही नहीं रहेंगे तो धर्मस्थलका धन कहां सुरक्षित रह पाएगा !! इतिहास इस तथ्यका साक्षी है कि दुराचारी आक्रमणकारियोंने किस प्रकार हिंदुओंके धर्मस्थलको कब्रगाहमें परिवर्तित कर दिया !! • Wealth in the shrines of our deities must be utilized properly The money in the shrines of our deities, if utilized well, can impart Dharma Shikshan (education about abiding Dharma) to about 95 crore Hindus, a Sanskrut school can be opened in every village, a Gaushala (cowshed) can be opened, an ayurvedic hospital can be opened and there can also be a Gurukul (a school to nurture vedic culture). This will lead to the revival of Vedic culture, awakening of Dharmaabhimaan (self-esteem about Dharma), an awakened Hindu will never get converted into any other Dharma, leaving this noble Dharma. However, the treasurers and decision-makers of such shrines themselves do not know the importance of this. Hence, the age is known as Kaliyug (the age of Kali). They do not understand that so much of Dharmaglaani (denigration of Dharma) has been caused due to lack of Dharmaacharan (abiding by the code of conduct as per Vedic Dharma) and a situation of Trahi Maam (Have mercy on us!) exists all around. Whenever Dharma receives a blow , the religious shrines are attacked, how will the money remain secure? History bears testimony to the fact that how the vicious invaders have converted Hindu religious shrines into graveyards !!

कुम्भ मेले के बारे में पौराणिक कथाएँ

कुंभ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र 'जयंत' अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है। जय सनातन धर्म||

भारतीय सनातन संस्कृति की और नतमस्तक होती दुनिया,...

भारतीय सनातन संस्कृति की और नतमस्तक होती दुनिया,... प्रयागराज में शुरू हुए महाकुंभ मेले में विदेशी श्रद्धालुओं ने भी बड़ी संख्या में संगम में डुबकी लगा पूजा-अर्चना की।! इस बार करीब पन्द्रह से बीस लाख के बीच विदेशी श्रद्धालुओं संगम में डुबकी लगाने पहुँचे हैं..

मन के घोड़े

एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा, "मेरी पत्नी धर्म-साधना-आराधना में बिलकुल ध्यान नहीं देती। यदि आप उसे थोड़ा बोध दें तो उसका मन भी धर्म-ध्यान में रत हो।" साधु बोला, "ठीक है।"" अगले दिन प्रातः ही साधु उस व्यक्ति के घर गया। वह व्यक्ति वहाँ नजर नहीं आया तो साफ सफाई में व्यस्त उसकी पत्नी से साधु ने उसके बारे में पूछा। पत्नी ने कहा, "वे चमार की दुकान पर गए हैं।" पति अन्दर के पूजाघर में माला फेरते हुए ध्यान कर रहा था। उसने पत्नी की बात सुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। त्वरित बाहर आकर बोला, "तुम झूठ क्यों बोल रही हो, मैं पूजाघर में था और तुम्हे पता भी था।"" साधु हैरान हो गया। पत्नी ने कहा- "आप चमार की दुकान पर ही थे, आपका शरीर पूजाघर में, माला हाथ में किन्तु मन से चमार के साथ बहस कर रहे थे।" पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच चमार की दुकान पर ही चला गया था। कल ही खरीदे जूते क्षति वाले थे, खराब खामी वाले जूते देने के लिए, चमार को क्या क्या सुनाना है वही सोच रहा था। और उसी बात पर मन ही मन चमार से बहस कर रहा था। पत्नी जानती थी उनका ध्यान कितना मग्न रहता है। वस्तुतः रात को ही वह नये जूतों में खामी की शिकायत कर रहा था, मन अशान्त व असन्तुष्ट था। प्रातः सबसे पहले जूते बदलवा देने की बेसब्री उनके व्यवहार से ही प्रकट हो रही थी, जो उसकी पत्नी की नजर से नहीं छुप सकी थी। साधु समझ गया, पत्नी की साधना गजब की थी और ध्यान के महत्व को उसने आत्मसात कर लिया था। निरीक्षण में भी एकाग्र ध्यान की आवश्यकता होती है। पति की त्रृटि इंगित कर उसे एक सार्थक सीख देने का प्रयास किया था। धर्म-ध्यान का मात्र दिखावा निर्थक है, यथार्थ में तो मन को ध्यान में पिरोना होता है। असल में वही ध्यान साधना बनता है। यदि मन के घोड़े बेलगाम हो तब मात्र शरीर को एक खूँटे से बांधे रखने का भी क्या औचित्य?

ॐ जय शिव ओंकारा

ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ जय शिव ओंकारा एकानन चतुरानन पंचानन राजे । हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ जय शिव ओंकारा दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे । त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ जय शिव ओंकारा अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी । त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी ॥ ॐ जय शिव ओंकारा श्वेतांबर पीतांबर बाघंबर अंगे । सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ जय शिव ओंकारा कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूलधारी । सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी ॥ ॐ जय शिव ओंकारा ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका । प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका ॥ ॐ जय शिव ओंकारा लक्ष्मी व सावित्री पार्वती संगा । पार्वती अर्द्धांगी, शिवलहरी गंगा ॥ ॐ जय शिव ओंकारा पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा । भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ॥ ॐ जय शिव ओंकारा जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला । शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ॥ ॐ जय शिव ओंकारा काशी में विराजे विश्वनाथ, नंदी ब्रह्मचारी । नित उठ दर्शन पावत, महिमा अति भारी ॥ ॐ जय शिव ओंकारा त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे । कहत शिवानंद स्वामी सुख संपति पावे ॥ ॐ जय शिव ओंकारा

कुम्भ मेला

पौराणिक कथाओं अनुसार देवता और राक्षसों के सहयोग से समुद्र मंथन के पश्चात् अमृत कलश की प्राप्ति हुई। जिस पर अधिकार जमाने को लेकर देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे निकलकर पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरी। वे चार स्थान है : - प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। जिनमें प्रयाग गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर और हरिद्वार गंगा नदी के किनारे हैं, वहीं उज्जैन शिप्रा नदी और नासिक गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ है। अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार बारह दिन तक युद्ध हुआ था। जो मनुष्यों के बारह वर्ष के समान हैं। युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी, अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुम्भ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। कुम्भ-अमृत स्नान और अमृतपान की बेला। इसी समय गंगा की पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होता है। इसी समय कुम्भ स्नान का संयोग बनता है। कुम्भ पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक है। विशेषकर उत्तराखंड की भूमि पर तीर्थ नगरी हरिद्वार का कुम्भ तो महाकुम्भ कहा जाता है।

Feetured Post

ये है सनातन धर्म के संस्कार

  गर्व है हमें #सनातनी #अरुणा_जैन जी पर..अरुणा ने 25 लाख का इनाम ठुकरा दिया पर अंडा नही बनाया. ये सबक है उन लोगों के लिए जो अंडा और मांसाहा...