14 December 2013

हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है

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हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है और कोई भी अक्षर वैसा क्यूँ है उसके पीछे कुछ कारण है , अंग्रेजी भाषा में ये बात देखने में नहीं आती |
______________________
क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है। एक बार बोल कर देखिये |
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है। एक बार बोल कर देखिये
हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है
हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है और कोई भी अक्षर वैसा क्यूँ है उसके पीछे कुछ कारण है , अंग्रेजी भाषा में ये बात देखने में नहीं आती |
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क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है। एक बार बोल कर देखिये |
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये |
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है। एक बार बोल कर देखिये

लक्ष्मी प्राप्ति के मन्त्र !

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१-
ॐ महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च घीमहि! तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात!
२-
ज्येष्ठा लक्ष्मी--
ॐ रक्तज्येष्ठायै विधाहे नीलज्येष्ठायै धीमहि! तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात !
अथवा -- ॐ ऐंश्रीं ज्येष्ठलक्ष्मी- स्वयम्भुवे ह्रीं ज्येष्ठायै नम:!
३-
महालक्ष्मी मन्त्र --
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नम:!
४-
लक्ष्मी मन्त्र--
ॐ ह्रीं श्रेण महालक्ष्मि सर्वकामप्रदे सर्वसौभाग्यदायिनी अभिमतंप्रयक्छ सर्वसर्वगते सुरुपे सर्वदुर्जयविमोचिनी ह्रीं स: स्वाहा !!
५--
धनदा लक्ष्मी --
ॐ नमो धनदायै स्वाहा!
६-
लक्ष्मी यक्षिणी --
ॐ ऐं लक्ष्मी श्रीं कमलधारिणी कलहंसी स्वाहा!

सुख निर्भार करता है

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जब आप सुखी होते होगे तो अपने आपको बजनशून्य अनुभव करते होगे ,और दुखी होकर अपने -आपको बजनी होने का अनुभव करते होगे , ऎसा अनुभव लगता होगा कि कुछ आपको नीचे की ओर खींच रहा है ,तब आपका गुरुत्वाकषर्ण बहुत बढ़ जाता है , यानिकि दुःख कि हालत में बजन बढ़ जाता है / जब आप सुखी होते होगें तब हलके होते हैं ऎसा आपको अनुभव होता होगा। क्यों ? क्योंकि जब आप सुखी होते है तब आप आनंद का अनुभव करते होगे और शारीर को बिलकुल भूल जाते हैं ,और जब उदास या दुखी होते है तब शरीर को नहीं भुलसकते ,आप शरीर के भार का अनुभव करते होगे ,तब शरीर आपको नीचेकी ओऱ खींचता है ,मनो जमीं में धसे जारहे हैं। सुख में आप निर्भार ( हलका) होते है , अतः मौज मस्ती प्रभु भक्ति के साथ जिंदगी जियो।
सुख निर्भार करता है 
जब आप  सुखी होते होगे तो अपने आपको बजनशून्य अनुभव करते होगे ,और  दुखी होकर  अपने -आपको बजनी होने का अनुभव करते होगे , ऎसा अनुभव लगता होगा कि कुछ आपको नीचे की ओर खींच रहा है ,तब आपका  गुरुत्वाकषर्ण बहुत बढ़ जाता है , यानिकि दुःख कि हालत में बजन बढ़ जाता है / जब आप सुखी होते होगें तब हलके होते हैं ऎसा आपको अनुभव होता होगा। क्यों ? क्योंकि जब आप सुखी होते है तब आप आनंद  का अनुभव करते होगे  और शारीर को बिलकुल भूल जाते हैं ,और जब उदास या दुखी होते है तब शरीर को नहीं भुलसकते ,आप शरीर के  भार का अनुभव करते होगे ,तब शरीर आपको नीचेकी ओऱ खींचता है ,मनो जमीं में धसे जारहे  हैं।  सुख में आप निर्भार ( हलका)  होते है ,  अतः  मौज मस्ती  प्रभु  भक्ति के साथ जिंदगी जियो।

मृत सञ्जीवनी विद्या !

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मृत सञ्जीवनी विद्या ! [ शुक्राचार्य द्वारा उपासित ]
ॐ हौं जूँस: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं ॐ सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम ॐ भर्गो देवस्य धीमहि ॐ उर्वारुकमिव बन्धनाद ॐ धियो यो न प्रचोदयात ॐ मृत्योर्मुक्षीय माSमृतात ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: जूँ ह्रौं ॐ!!


मृत सञ्जीवनी विद्या ! [ शुक्राचार्य द्वारा उपासित ] 
ॐ हौं जूँस: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं ॐ सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम ॐ भर्गो देवस्य धीमहि ॐ उर्वारुकमिव बन्धनाद ॐ धियो यो न प्रचोदयात ॐ मृत्योर्मुक्षीय माSमृतात ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: जूँ ह्रौं ॐ!!

mohabbat

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shararat na hoti shikayat na hoti
naino me kisi ke nazakat na hoti
na hoti bekarari na hote hum tanha
jo jahan me kambakht mahobat na hoti
na hote ye sapne ye khwabo ki duniya
kisi ko chahat ki tamanna na hoti
na zulfo ki chhaya na phoolo ki khushboo
yado me unki yu raate na kat tii
jo na hoti mahobat ye ansu na hote
dil bhi na khota aaj tanha na rote
ashiqo si apani ye halat na hoti
jo jahan me kambakht mohabbat na hoti....


shararat na hoti shikayat na hoti
naino me kisi ke nazakat na hoti
na hoti bekarari na hote hum tanha
jo jahan me kambakht mahobat na hoti
na hote ye sapne ye khwabo ki duniya
kisi ko chahat ki tamanna na hoti
na zulfo ki chhaya na phoolo ki khushboo
yado me unki yu raate na kat tii
jo na hoti mahobat ye ansu na hote
dil bhi na khota aaj tanha na rote
ashiqo si apani ye halat na hoti
jo jahan me kambakht mohabbat na hoti....

प्यार

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कोई जीता है प्यार में, कोई मरता है प्यार में ...!!
कान्हा से करा प्यार, हम तर गए संसार से ...!!

जीवन के दुःख अब उनपर दिए है छोड़ ....!
मेरे जीवन की उन्होंने थाम ली है डोर ....!!

ना में राधा , ना में मीरा,ना मै गोपी कोई ....!
उस नटवर नागर की मै तो भक्तन होई ....!!

मूढ़ बनी मै दर- दर भटकी,पास दिखा ना कोई....!
जब से कान्हा रंग रंगी हूँ,सब सुख 'अनु' के होई ...!!


कोई जीता है प्यार में, कोई मरता है प्यार में ...!!
कान्हा से करा प्यार, हम तर गए संसार से ...!!

जीवन के दुःख अब उनपर दिए है छोड़ ....!
मेरे जीवन की उन्होंने थाम ली है डोर ....!!

ना में राधा , ना में मीरा,ना मै गोपी कोई ....!
उस नटवर नागर की मै तो भक्तन होई ....!!

मूढ़ बनी मै दर- दर भटकी,पास दिखा ना कोई....!
जब से कान्हा रंग रंगी हूँ,सब सुख 'अनु' के होई ...!!

गौ सेवाका लाभ

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शास्त्र कहता है — गौ भक्त जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है वह सब उसे प्राप्त होती है | स्त्रियोंमे भी जो गौओंकी भक्त है, वे मनोवांछित कामनाएं प्राप्त कर लेती है | पुत्रार्थी पुत्र पाता है, कन्यार्थी कन्या, धनार्थी धन, धर्मार्थी धर्म, विद्यार्थी विद्या और सुखार्थी सुख पा जाता है | विश्व भरमे कही भी गौभक्तको कुछ भी दुर्लभ नहीं है | यहां तक कि इस मृत्यु लोक भी बिना गायके पूंछ पकडे संभव नहीं | वैतरणीपर यमराज एवं उसके गण भयभीत होकर गायके पूंछ पकडे जीवको प्रणाम करते है|
गौ सेवाका लाभ :
शास्त्र कहता है — गौ भक्त जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है वह सब उसे प्राप्त होती है | स्त्रियोंमे भी जो गौओंकी भक्त है, वे मनोवांछित कामनाएं प्राप्त कर लेती है | पुत्रार्थी पुत्र पाता है, कन्यार्थी कन्या, धनार्थी धन, धर्मार्थी धर्म, विद्यार्थी विद्या और सुखार्थी सुख पा जाता है | विश्व भरमे कही भी गौभक्तको कुछ भी दुर्लभ नहीं है | यहां तक कि इस मृत्यु लोक भी बिना गायके पूंछ पकडे संभव नहीं | वैतरणीपर यमराज एवं उसके गण भयभीत होकर गायके पूंछ पकडे जीवको प्रणाम करते है| 
source : www.tanujathakur.com

गुरु वाणी

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मानव-जीवन की प्रगति दो बातो पर निर्भर करती है- पहला, सदा नए कार्य करते रहना और दूसरा, नए आध्यात्मिक विचारों को मन में लाना। 

Shayari

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Zindagi Ne Kai Sawalat Badal Dale,
Waqt Ne Mere Haalaat Badal Dale,
Main to Aaj bi wahi hun Jo mai kal tha,
Bas mere liye apno ne Apne Khyalat badal dale..


Zindagi Ne Kai Sawalat Badal Dale,
Waqt Ne Mere Haalaat Badal Dale,
Main to Aaj bi wahi hun Jo mai kal tha,
Bas mere liye apno ne Apne Khyalat badal dale..

Thought

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Change in India

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दूब घास (दुर्वा)

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दूब या 'दुर्वा' (वैज्ञानिक नाम- 'साइनोडान डेक्टीलान") वर्ष भर पाई जाने वाली घास है, जो ज़मीन पर पसरते हुए या फैलते हुए बढती है। हिन्दू धर्म में इस घास को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिन्दू संस्कारों एवं कर्मकाण्डों में इसका उपयोग बहुत किया जाता है। इसके नए पौधे बीजों तथा भूमीगत तनों से पैदा होते हैं। वर्षा काल में दूब घास अधिक वृद्धि करती है तथा वर्ष में दो बार सितम्बर-अक्टूबर और फ़रवरी-मार्च में इसमें फूल आते है। दूब सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। यह घास औषधि के रूप में विशेष तौर पर प्रयोग की जाती है।

पौराणिक कथा
***************

"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।
वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"

पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी।

भारतीय संस्कृति में महत्त्व
**************************

'भारतीय संस्कृति' में दूब को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे विवाहोत्सव हो या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़ जाती है। दूब का पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी नम्रता को देखकर गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है-

नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब
और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।

हिन्दू धर्म के शास्त्र भी दूब को परम-पवित्र मानते हैं। भारत में ऐसा कोई मांगलिक कार्य नहीं, जिसमें हल्दी और दूब की ज़रूरत न पड़ती हो। दूब के विषय में एक संस्कृत कथन इस प्रकार मिलता है-



ज़मीन पर उगती दूब
"विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।"

अर्थात "हे दुर्वा! तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है। तुम विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो।"

महाकवि तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है-
"रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।"

प्रायः जो वस्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में उपलब्ध रहती है। दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी खींचने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यही कारण है कि चाहे जितनी सर्दी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इन सबका दूब पर असर नहीं होता और यह अक्षुण्ण बनी रहती है।


उद्यानों की शोभा
******************
दूब को संस्कृत में 'दूर्वा', 'अमृता', 'अनंता', 'गौरी', 'महौषधि', 'शतपर्वा', 'भार्गवी' इत्यादि नामों से जानते हैं। दूब घास पर उषा काल में जमी हुई ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकती प्रतीत होती हैं। ब्रह्म मुहूर्त में हरी-हरी ओस से परिपूर्ण दूब पर भ्रमण करने का अपना निराला ही आनंद होता है। पशुओं के लिए ही नहीं अपितु मनुष्यों के लिए भी पूर्ण पौष्टिक आहार है दूब। महाराणा प्रताप ने वनों में भटकते हुए जिस घास की रोटियाँ खाई थीं, वह भी दूब से ही निर्मित थी।[3] राणा के एक प्रसंग को कविवर कन्हैया लाल सेठिया ने अपनी कविता में इस प्रकार निबद्ध किया है-

अरे घास री रोटी ही,
जद बन विला वड़ो ले भाग्यो।
नान्हों सो अमरयौ चीख पड्यो,
राणा रो सोयो दुख जाग्यो।

औषधीय गुण
***************
दूब घास की शाखा
अर्वाचीन विश्लेषकों ने भी परीक्षणों के उपरांत यह सिद्ध किया है कि दूब में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। दूब के पौधे की जड़ें, तना, पत्तियाँ इन सभी का चिकित्सा क्षेत्र में भी अपना विशिष्ट महत्व है। आयुर्वेद में दूब में उपस्थित अनेक औषधीय गुणों के कारण दूब को 'महौषधि' में कहा गया है। आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार दूब का स्वाद कसैला-मीठा होता है। विभिन्न पैत्तिक एवं कफज विकारों के शमन में दूब का निरापद प्रयोग किया जाता है। दूब के कुछ औषधीय गुण निम्नलिखित हैं-

संथाल जाति के लोग दूब को पीसकर फटी हुई बिवाइयों पर इसका लेप करके लाभ प्राप्त करते हैं।
इस पर सुबह के समय नंगे पैर चलने से नेत्र ज्योति बढती है और अनेक विकार शांत हो जाते है।
दूब घास शीतल और पित्त को शांत करने वाली है।
दूब घास के रस को हरा रक्त कहा जाता है, इसे पीने से एनीमिया ठीक हो जाता है।
नकसीर में इसका रस नाक में डालने से लाभ होता है।
इस घास के काढ़े से कुल्ला करने से मुँह के छाले मिट जाते है।
दूब का रस पीने से पित्त जन्य वमन ठीक हो जाता है।
इस घास से प्राप्त रस दस्त में लाभकारी है।
यह रक्त स्त्राव, गर्भपात को रोकती है और गर्भाशय और गर्भ को शक्ति प्रदान करती है।
कुँए वाली दूब पीसकर मिश्री के साथ लेने से पथरी में लाभ होता है।
दूब को पीस कर दही में मिलाकर लेने से बवासीर में लाभ होता है।
इसके रस को तेल में पका कर लगाने से दाद, खुजली मिट जाती है।
दूब के रस में अतीस के चूर्ण को मिलाकर दिन में दो-तीन बार चटाने से मलेरिया में लाभ होता है।
इसके रस में बारीक पिसा नाग केशर और छोटी इलायची मिलाकर सूर्योदय के पहले छोटे बच्चों को नस्य दिलाने से वे तंदुरुस्त होते है। बैठा हुआ तालू ऊपर चढ़ जाता है।
दूब घास (दुर्वा) --------------

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दूब या 'दुर्वा' (वैज्ञानिक नाम- 'साइनोडान डेक्टीलान") वर्ष भर पाई जाने वाली घास है, जो ज़मीन पर पसरते हुए या फैलते हुए बढती है। हिन्दू धर्म में इस घास को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिन्दू संस्कारों एवं कर्मकाण्डों में इसका उपयोग बहुत किया जाता है। इसके नए पौधे बीजों तथा भूमीगत तनों से पैदा होते हैं। वर्षा काल में दूब घास अधिक वृद्धि करती है तथा वर्ष में दो बार सितम्बर-अक्टूबर और फ़रवरी-मार्च में इसमें फूल आते है। दूब सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। यह घास औषधि के रूप में विशेष तौर पर प्रयोग की जाती है।

पौराणिक कथा
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"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।
वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"

पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। 

भारतीय संस्कृति में महत्त्व
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'भारतीय संस्कृति' में दूब को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे विवाहोत्सव हो या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़ जाती है। दूब का पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी नम्रता को देखकर गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है-

नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब
और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।

हिन्दू धर्म के शास्त्र भी दूब को परम-पवित्र मानते हैं। भारत में ऐसा कोई मांगलिक कार्य नहीं, जिसमें हल्दी और दूब की ज़रूरत न पड़ती हो। दूब के विषय में एक संस्कृत कथन इस प्रकार मिलता है-



ज़मीन पर उगती दूब
"विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।"

अर्थात "हे दुर्वा! तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है। तुम विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो।"

महाकवि तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है-
"रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।"

प्रायः जो वस्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में उपलब्ध रहती है। दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी खींचने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यही कारण है कि चाहे जितनी सर्दी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इन सबका दूब पर असर नहीं होता और यह अक्षुण्ण बनी रहती है।


उद्यानों की शोभा
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दूब को संस्कृत में 'दूर्वा', 'अमृता', 'अनंता', 'गौरी', 'महौषधि', 'शतपर्वा', 'भार्गवी' इत्यादि नामों से जानते हैं। दूब घास पर उषा काल में जमी हुई ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकती प्रतीत होती हैं। ब्रह्म मुहूर्त में हरी-हरी ओस से परिपूर्ण दूब पर भ्रमण करने का अपना निराला ही आनंद होता है। पशुओं के लिए ही नहीं अपितु मनुष्यों के लिए भी पूर्ण पौष्टिक आहार है दूब। महाराणा प्रताप ने वनों में भटकते हुए जिस घास की रोटियाँ खाई थीं, वह भी दूब से ही निर्मित थी।[3] राणा के एक प्रसंग को कविवर कन्हैया लाल सेठिया ने अपनी कविता में इस प्रकार निबद्ध किया है-

अरे घास री रोटी ही,
जद बन विला वड़ो ले भाग्यो।
नान्हों सो अमरयौ चीख पड्यो,
राणा रो सोयो दुख जाग्यो।

औषधीय गुण
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दूब घास की शाखा
अर्वाचीन विश्लेषकों ने भी परीक्षणों के उपरांत यह सिद्ध किया है कि दूब में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। दूब के पौधे की जड़ें, तना, पत्तियाँ इन सभी का चिकित्सा क्षेत्र में भी अपना विशिष्ट महत्व है। आयुर्वेद में दूब में उपस्थित अनेक औषधीय गुणों के कारण दूब को 'महौषधि' में कहा गया है। आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार दूब का स्वाद कसैला-मीठा होता है। विभिन्न पैत्तिक एवं कफज विकारों के शमन में दूब का निरापद प्रयोग किया जाता है। दूब के कुछ औषधीय गुण निम्नलिखित हैं-

संथाल जाति के लोग दूब को पीसकर फटी हुई बिवाइयों पर इसका लेप करके लाभ प्राप्त करते हैं।
इस पर सुबह के समय नंगे पैर चलने से नेत्र ज्योति बढती है और अनेक विकार शांत हो जाते है।
दूब घास शीतल और पित्त को शांत करने वाली है।
दूब घास के रस को हरा रक्त कहा जाता है, इसे पीने से एनीमिया ठीक हो जाता है।
नकसीर में इसका रस नाक में डालने से लाभ होता है।
इस घास के काढ़े से कुल्ला करने से मुँह के छाले मिट जाते है।
दूब का रस पीने से पित्त जन्य वमन ठीक हो जाता है।
इस घास से प्राप्त रस दस्त में लाभकारी है।
यह रक्त स्त्राव, गर्भपात को रोकती है और गर्भाशय और गर्भ को शक्ति प्रदान करती है।
कुँए वाली दूब पीसकर मिश्री के साथ लेने से पथरी में लाभ होता है।
दूब को पीस कर दही में मिलाकर लेने से बवासीर में लाभ होता है।
इसके रस को तेल में पका कर लगाने से दाद, खुजली मिट जाती है।
दूब के रस में अतीस के चूर्ण को मिलाकर दिन में दो-तीन बार चटाने से मलेरिया में लाभ होता है।
इसके रस में बारीक पिसा नाग केशर और छोटी इलायची मिलाकर सूर्योदय के पहले छोटे बच्चों को नस्य दिलाने से वे तंदुरुस्त होते है। बैठा हुआ तालू ऊपर चढ़ जाता है।

Thought‬ of the Day

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अदरक

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अदरक रूखा, तीखा, उष्ण-तीक्ष्ण होने के कारण कफ तथा वात का नाश करता है, पित्त को बढ़ाता है। इसका अधिक सेवन रक्त की पुष्टि करता है। यह उत्तम आमपाचक है। भारतवासियों को यह सात्म्य होने के कारण भोजन में रूचि बढ़ाने के लिए इसका सार्वजनिक उपयोग किया जाता है। आम से उत्पन्न होने वाले अजीर्ण, अफरा, शूल, उलटी आदि में तथा कफजन्य सर्दी-खाँसी में अदरक बहुत उपयोगी है।
सावधानीः रक्तपित्त, उच्च रक्तचाप, अल्सर, रक्तस्राव व कोढ़ में अदरक का सेवन नहीं करना चाहिए। अदरक साक्षात अग्निरूप है। इसलिए इसे कभी फ्रिज में नहीं रखना चाहिए ऐसा करने से इसका अग्नितत्त्व नष्ट हो जाता है।

औषधि-प्रयोगः

उलटीः अदरक व प्याज का रस समान मात्रा में मिलाकर 3-3 घंटे के अंतर से 1-1 चम्मच लेने से अथवा अदरक के रस में मिश्री में मिलाकर पीने से उलटी होना व जौ मिचलाना बन्द होता है।

हृदयरोगः अदरक के रस व पानी समभाग मिलाकर पीने से हृदयरोग में लाभ होता है।

मंदाग्निः अदरक के रस में नींबू व सेंधा नमक मिलाकर सेवन करने से जठराग्नि तीव्र होती है।

उदरशूलः 5 ग्राम अदरक, 5 ग्राम पुदीने के रस में थोड़ा-सा सेंधा नमक डालक पीने से उदरशूल मिटता है।

शीतज्वरः अदरक व पुदीने का काढ़ा देने से पसीना आकर ज्वर उतर जाता है। शीतज्वर में लाभप्रद है।

पेट की गैसः आधा-चम्मच अदरक के रस में हींग और काला नमक मिलाकर खाने से गैस की तकलीफ दूर होती है।

सर्दी-खाँसीः 20 ग्राम अदरक का रस 2 चम्मच शहद के साथ सुबह शाम लें। वात-कफ प्रकृतिवाले के लिए अदरक व पुदीना विशेष लाभदायक है।
खाँसी एवं श्वास के रोगः अदरक और तुलसी के रस में शहद मिलाकर लें।
अदरक ......

अदरक रूखा, तीखा, उष्ण-तीक्ष्ण होने के कारण कफ तथा वात का नाश करता है, पित्त को बढ़ाता है। इसका अधिक सेवन रक्त की पुष्टि करता है। यह उत्तम आमपाचक है। भारतवासियों को यह सात्म्य होने के कारण भोजन में रूचि बढ़ाने के लिए इसका सार्वजनिक उपयोग किया जाता है। आम से उत्पन्न होने वाले अजीर्ण, अफरा, शूल, उलटी आदि में तथा कफजन्य सर्दी-खाँसी में अदरक बहुत उपयोगी है।
सावधानीः रक्तपित्त, उच्च रक्तचाप, अल्सर, रक्तस्राव व कोढ़ में अदरक का सेवन नहीं करना चाहिए। अदरक साक्षात अग्निरूप है। इसलिए इसे कभी फ्रिज में नहीं रखना चाहिए ऐसा करने से इसका अग्नितत्त्व नष्ट हो जाता है।

औषधि-प्रयोगः

उलटीः अदरक व प्याज का रस समान मात्रा में मिलाकर 3-3 घंटे के अंतर से 1-1 चम्मच लेने से अथवा अदरक के रस में मिश्री में मिलाकर पीने से उलटी होना व जौ मिचलाना बन्द होता है।

हृदयरोगः अदरक के रस व पानी समभाग मिलाकर पीने से हृदयरोग में लाभ होता है।

मंदाग्निः अदरक के रस में नींबू व सेंधा नमक मिलाकर सेवन करने से जठराग्नि तीव्र होती है।

उदरशूलः 5 ग्राम अदरक, 5 ग्राम पुदीने के रस में थोड़ा-सा सेंधा नमक डालक पीने से उदरशूल मिटता है।

शीतज्वरः अदरक व पुदीने का काढ़ा देने से पसीना आकर ज्वर उतर जाता है। शीतज्वर में लाभप्रद है।

पेट की गैसः आधा-चम्मच अदरक के रस में हींग और काला नमक मिलाकर खाने से गैस की तकलीफ दूर होती है।

सर्दी-खाँसीः 20 ग्राम अदरक का रस 2 चम्मच शहद के साथ सुबह शाम लें। वात-कफ प्रकृतिवाले के लिए अदरक व पुदीना विशेष लाभदायक है।
खाँसी एवं श्वास के रोगः अदरक और तुलसी के रस में शहद मिलाकर लें।

अमरबेल से जुडे आदिवासी हर्बल नुस्खे, जानिए और कहिए अरे वाह!

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जंगलों, सड़क, खेत खलिहानों के किनारे लगे वृक्षों पर परजीवी अमरबेल का जाल अक्सर देखा जा सकता है, वास्तव में जिस पेड़ पर यह लग जाती है, वह पेड़ धीरे धीरे सूखने लगता है। इसकी पत्तियों मे पर्णहरिम का अभाव होता है जिस वजह से यह पीले रंग की दिखाई देती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है। अमरबेल का वानस्पतिक नाम कस्कूटा रिफ़्लेक्सा है। आदिवासी अंचलों में अमरबेल को अनेक हर्बल नुस्खों के तौर पर उपयोग में लाया जाता है, चलिए जानते हैं आज अमरबेल से जुडे हर्बल नुस्खों और आदिवासी जानकारियों को..


पूरे पौधे का काढ़ा घाव धोने के लिए बेहतर है और यह टिंक्चर की तरह काम करता है। आदिवासियों के अनुसार यह काढा घावों पर लगाया जाए तो यह घाव को पकने नहीं देता है।

बरसात में पैर के उंगलियों के बीच सूक्ष्मजीवी संक्रमण या घाव होने पर अमरबेल पौधे का रस दिन में 5-6 बार लगाया जाए तो आराम मिल जाता है।

अमरबेल को कुचलकर इसमें शहद और घी मिलाकर पुराने घावों पर लगाया जाए तो घाव जल्दी भरने लगता है। यह मिश्रण एंटीसेप्टिक की तरह कार्य करता है।

- गुजरात के आदिवासी हर्बल जानकार इसके बीजों और पूरे पौधे को कुचलकर आर्थराईटिस के रोगी को दर्द वाले हिस्सों पर पट्टी लगाकर बाँध देते है। इनके अनुसार यह दर्द निवारक की तरह कार्य करता है।

गंजेपन को दूर करने के लिए पातालकोट के आदिवासी मानते हैं कि यदि आम के पेड़ पर लगी अमरबेल को पानी में उबाल लिया जाए और उस पानी से स्नान किया जाए तो बाल पुन: उगने लगते है।

डाँग के आदिवासी अमरबेल को कूटकर उसे तिल के तेल में 20 मिनट तक उबालते हैं और इस तेल को कम बाल या गंजे सर पर लगाने की सलाह देते है। आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार यह तेल बालों के झडने का सिलसिला कम करता है और गंजे सिर पर भी बाल लाने में मदद करता है।
डाँग के आदिवासी अमरबेल को कूटकर उसे तिल के तेल में 20 मिनट तक उबालते हैं और इस तेल को कम बाल या गंजे सर पर लगाने की सलाह देते है। आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार यह तेल बालों के झडने का सिलसिला कम करता है और गंजे सिर पर भी बाल लाने में मदद करता है।

पातालकोट के आदिवासियों के अनुसार मुँह और पेट के कैंसर या ट्युमर में इस पौधे का काढा आराम दिलाता है, आधुनिक अध्ययनों से पता चलता है कि इस पौधे का अर्क पेट के कैंसर से लड़ने में मदद कर सकता है।


अमरबेल से जुडे आदिवासी हर्बल नुस्खे, जानिए और कहिए अरे वाह! 
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जंगलों, सड़क, खेत खलिहानों के किनारे लगे वृक्षों पर परजीवी अमरबेल का जाल अक्सर देखा जा सकता है, वास्तव में जिस पेड़ पर यह लग जाती है, वह पेड़ धीरे धीरे सूखने लगता है। इसकी पत्तियों मे पर्णहरिम का अभाव होता है जिस वजह से यह पीले रंग की दिखाई देती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है। अमरबेल का वानस्पतिक नाम कस्कूटा रिफ़्लेक्सा है। आदिवासी अंचलों में अमरबेल को अनेक हर्बल नुस्खों के तौर पर उपयोग में लाया जाता है, चलिए जानते हैं आज अमरबेल से जुडे हर्बल नुस्खों और आदिवासी जानकारियों को..


पूरे पौधे का काढ़ा घाव धोने के लिए बेहतर है और यह टिंक्चर की तरह काम करता है। आदिवासियों के अनुसार यह काढा घावों पर लगाया जाए तो यह घाव को पकने नहीं देता है।

बरसात में पैर के उंगलियों के बीच सूक्ष्मजीवी संक्रमण या घाव होने पर अमरबेल पौधे का रस दिन में 5-6 बार लगाया जाए तो आराम मिल जाता है।

अमरबेल को कुचलकर इसमें शहद और घी मिलाकर पुराने घावों पर लगाया जाए तो घाव जल्दी भरने लगता है। यह मिश्रण एंटीसेप्टिक की तरह कार्य करता है।

- गुजरात के आदिवासी हर्बल जानकार इसके बीजों और पूरे पौधे को कुचलकर आर्थराईटिस के रोगी को दर्द वाले हिस्सों पर पट्टी लगाकर बाँध देते है। इनके अनुसार यह दर्द निवारक की तरह कार्य करता है।

गंजेपन को दूर करने के लिए पातालकोट के आदिवासी मानते हैं कि यदि आम के पेड़ पर लगी अमरबेल को पानी में उबाल लिया जाए और उस पानी से स्नान किया जाए तो बाल पुन: उगने लगते है।

डाँग के आदिवासी अमरबेल को कूटकर उसे तिल के तेल में 20 मिनट तक उबालते हैं और इस तेल को कम बाल या गंजे सर पर लगाने की सलाह देते है। आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार यह तेल बालों के झडने का सिलसिला कम करता है और गंजे सिर पर भी बाल लाने में मदद करता है।
डाँग के आदिवासी अमरबेल को कूटकर उसे तिल के तेल में 20 मिनट तक उबालते हैं और इस तेल को कम बाल या गंजे सर पर लगाने की सलाह देते है। आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार यह तेल बालों के झडने का सिलसिला कम करता है और गंजे सिर पर भी बाल लाने में मदद करता है।

पातालकोट के आदिवासियों के अनुसार मुँह और पेट के कैंसर या ट्युमर में इस पौधे का काढा आराम दिलाता है, आधुनिक अध्ययनों से पता चलता है कि इस पौधे का अर्क पेट के कैंसर से लड़ने में मदद कर सकता है।

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