मैं घर की नई बहू थी और एक प्राइवेट बैंक में एक अच्छे ओहदे पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर और पति के अलावा कोई और नहीं था। पति का अपना कारोबार था, जिससे उनकी व्यस्तता भी काफी रहती थी। और कभी कभी ही हमारे बीच संबंध बनता, लेकिन जब बनाने लगे तो उसमें भी आफत क्यों की घर में एक बुजुर्ग पिता जी थे कभी भी आवाज देके बुला लेते
हर सुबह जब मैं जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाकर ऑफिस के लिए निकलने की तैयारी करती, ठीक उसी वक़्त मेरे ससुर मुझे आवाज़ देकर कहते, "बहू, मेरा चश्मा साफ़ कर मुझे देती जा।" यह रोज़ का सिलसिला था। ऑफिस की देरी और काम के दबाव की वजह से कभी-कभी मैं मन ही मन झल्ला जाती थी, लेकिन फिर भी अपने ससुर को कुछ कह नहीं पाती।
एक दिन, मैंने इस बारे में अपने पति से बात की। उन्हें भी यह जानकर हैरानी हुई, लेकिन उन्होंने पिता से कुछ नहीं कहा। उन्होंने मुझे सलाह दी कि सुबह उठते ही पिताजी का चश्मा साफ करके उनके कमरे में रख दिया करो ताकि ऑफिस जाते समय कोई परेशानी न हो।
अगले दिन मैंने वैसा ही किया, पर फिर भी ऑफिस के लिए निकलते समय वही बात हुई। ससुर ने मुझे फिर बुलाकर कहा कि "बहू, मेरा चश्मा साफ़ कर दे।" मुझे बहुत गुस्सा आया लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। धीरे-धीरे मैंने उनकी बातों को अनसुना करना शुरू कर दिया, और कुछ समय बाद तो मैंने बिल्कुल ध्यान देना ही बंद कर दिया।
ससुर के कुछ बोलने पर मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं देती औऱ बिलकुल ख़ामोशी से अपने काम में मस्त रहती ।
गुज़रते वक़्त के साथ ही एक दिन ससुर जी भी गुज़र गए ।
समय का पहिया कहाँ रुकने वाला था,वो घूमता रहा घूमता रहा ।
छुट्टी का एक दिन था। अचानक मेरे के मन में घर की साफ़ सफाई का ख़याल आया । मैं अपने घर की सफ़ाई में जुट गई । तभी सफाई के दौरान मृत ससुर की डायरी मेरे हाथ लग गई ।
मैने ने जब अपने ससुर की डायरी को पलटना शुरू किया तो उसके एक पन्ने पर लिखा था-"दिनांक 26.10.2019.... " मेरी प्यारी बहू.....आज के इस भागदौड़ औऱ बेहद तनाव व संघर्ष भरी ज़िंदगी में घर से निकलते समय बच्चे अक़्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं , जबकि बुजुर्गों का यही आशीर्वाद मुश्किल समय में उनके लिए ढाल का काम करता है । बस इसीलिए जब तुम प्रतिदिन मेरा चश्मा साफ कर मुझे देने के लिए झुकती थी तो मैं मन ही मन अपना हाथ तुम्हारे सिर पर रख देता था , क्योंकि मरने से पहले तुम्हारी सास ने मुझसे कहा था कि बहू को अपनी बेटी की तरह प्यार से रखना औऱ उसे ये कभी भी मत महसूस होने देना कि वो अपने ससुराल में है औऱ हम उसके माँ बाप नहीं है ।उसकी छोटी मोटी गलतियों को उसकी नादानी समझकर माफ़ कर देना । वैसे मैं रहूं या न रहूं मेरा आशीष सदा तुम्हारे साथ है बेटा...सदा खुश रहो ।"
अपने ससुर की डायरी को पढ़कर मुझे रोना आने लगा लगा
आज मेरे ससुर को गुजरे ठीक 2 साल से ज़्यादा समय बीत चुके हैं , लेकिन फ़िर भी मैं रोज घर से बाहर निकलते समय अपने ससुर का चश्मा अच्छी तरह साफ़ कर , उनके टेबल पर रख दिया करती हूं....... उनके अनदेखे हाथ से मिले आशीष की लालसा में.....।
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अक़्सर हम जीवन में रिश्तों का महत्व महसूस नहीं कर पाते , चाहे वो किसी से भी हो, कैसा भी हो.......और जब तक महसूस करते हैं तब तक वह हमसे बहुत दूर जा चुका होता है ......!!
प्रत्येक रिश्तों की अहमियत औऱ उनका भावनात्मक कद्र बेहद जरूरी है , अन्यथा ये जीवन व्यर्थ है ।