वेदों का इतिहास जानें यही है सनातन धर्म के धर्मग्रंथ Know the history of Vedas, these are the scriptures of Sanatan Dharma

 ।।ॐ।। वेद 'विद' शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ज्ञान या जानना, ज्ञाता या जानने वाला; मानना नहीं और न ही मानने वाला। सिर्फ जानने वाला, जानकर जाना-परखा ज्ञान। अनुभूत सत्य। जाँचा-परखा मार्ग। इसी में संकलित है 'ब्रह्म वाक्य'। WD वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है। वेद को 'श्रुति' भी कहा जाता है। 'श्रु' धातु से 'श्रुति' शब्द बना है। 'श्रु' यानी सुनना। कहते हैं कि इसके मन्त्रों को ईश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन तपस्वियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था जब वे गहरी तपस्या में लीन थे। सर्वप्रथम ईश्वर ने चार ऋषियों को इसका ज्ञान दिया:- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य। वेद वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले छह-सात हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है। विद्वानों ने संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद इन चारों के संयोग को समग्र वेद कहा है। ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहे जाते हैं। बाकी ग्रन्थ स्मृति के अंतर्गत आते हैं। संहिता : मन्त्र भाग। वेद के मन्त्रों में सुंदरता भरी पड़ी है। वैदिक ऋषि जब स्वर के साथ वेद मंत्रों का पाठ करते हैं, तो चित्त प्रसन्न हो उठता है। जो भी सस्वर वेदपाठ सुनता है, मुग्ध हो उठता है। ब्राह्मण : ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों की चर्चा है। वेदों के मंत्रों की व्याख्या है। यज्ञों के विधान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन है। मुख्य ब्राह्मण 3 हैं : (1) ऐतरेय, ( 2) तैत्तिरीय और (3) शतपथ। आरण्यक : वन को संस्कृत में कहते हैं 'अरण्य'। अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों का नाम पड़ गया 'आरण्यक'। मुख्य आरण्यक पाँच हैं : (1) ऐतरेय, (2) शांखायन, (3) बृहदारण्यक, (4) तैत्तिरीय और (5) तवलकार। उपनिषद : उपनिषद को वेद का शीर्ष भाग कहा गया है और यही वेदों का अंतिम सर्वश्रेष्ठ भाग होने के कारण वेदांत कहलाए। इनमें ईश्वर, सृष्टि और आत्मा के संबंध में गहन दार्शनिक और वैज्ञानिक वर्णन मिलता है। उपनिषदों की संख्या 1180 मानी गई है, लेकिन वर्तमान में 108 उपनिषद ही उपलब्ध हैं। मुख्य उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वर। असंख्य वेद-शाखाएँ, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं। वर्तमान में ऋग्वेद के दस, कृष्ण यजुर्वेद के बत्तीस, सामवेद के सोलह, अथर्ववेद के इकतीस उपनिषद उपलब्ध माने गए हैं।
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वैदिक काल

http://www.goswamirishta.com प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था। दरअसल वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है। अर्थात यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: माना यह जाता है कि पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्‍वेद, यजुर्वेद व सामवेद जि‍से वेदत्रयी कहा जाता था। मान्यता अनुसार वेद का वि‍भाजन राम के जन्‍म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि‍ अथर्वा द्वारा कि‍या गया। दूसरी ओर कुछ लोगों का यह मानना है कि कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया। इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी। उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्‍य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के आज से 5112 वर्ष पूर्व होने के तथ्‍य ढूँढ लिए गए हैं। वेद के विभाग चार हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गति‍शील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई। ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें 10 मंडल हैं और 1,028 ऋचाएँ। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियाँ और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें 5 शाखाएँ हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन। यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में 1975 मन्त्र और 40 अध्याय हैं। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मन्त्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं कृष्ण और शुक्ल। सामवेद : साम अर्थात रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इसमें 1875 (1824) मन्त्र हैं। ऋग्वेद की ही अधिकतर ऋचाएँ हैं। इस संहिता के सभी मन्त्र संगीतमय हैं, गेय हैं। इसमें मुख्य 3 शाखाएँ हैं, 75 ऋचाएँ हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है। अथर्ववेद : थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कम करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। अथर्ववेद में 5987 मन्त्र और 20 कांड हैं। इसमें भी ऋग्वेद की बहुत-सी ऋचाएँ हैं। इसमें रहस्यमय विद्या का वर्णन है। ND उक्त सभी में परमात्मा, प्रकृति और आत्मा का विषद वर्णन और स्तुति गान किया गया है। इसके अलावा वेदों में अपने काल के महापुरुषों की महिमा का गुणगान व उक्त काल की सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थिति का वर्णन भी मिलता है।
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छह वेदांग : (वेदों के छह अंग)-

http://www.goswamirishta.com (वेदों के छह अंग)- (1) शिक्षा, (2) छन्द, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) ज्योतिष और (6) कल्प। छह उपांग : (1) प्रतिपदसूत्र, (2) अनुपद, (3) छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), (4) धर्मशास्त्र, (5) न्याय तथा (6) वैशेषिक। ये 6 उपांग ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसे ही षड्दर्शन कहते हैं, जो इस तरह है:- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत। वेदों के उपवेद : ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं। आधुनिक विभाजन : आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों का विभाजन कुछ इस प्रकार किया गया- (1) याज्ञिक, (2) प्रायोगिक और (3) साहित्यिक। वेदों का सार है उपनिषदें और उपनिषदों का सार 'गीता' को माना है। इस क्रम से वेद, उपनिषद और गीता ही धर्मग्रंथ हैं, दूसरा अन्य कोई नहीं। स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत समझाया गया है। वाल्मिकी रामायण और महाभारत को इतिहास तथा पुराणों को पुरातन इतिहास का ग्रंथ माना है। विद्वानों ने वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया है। ऋषि और मुनियों को दृष्टा कहा गया है और वेदों को ईश्वर वाक्य। वेद ऋषियों के मन या विचार की उपज नहीं है। ऋषियों ने वह लिखा या कहा जैसा कि उन्होंने पूर्णजाग्रत अवस्था में देखा, सुना और परखा। मनुस्मृति में श्लोक (II.6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। वेद किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्‍भगवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41) में मिलता है। श्लोक : श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते। तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥ भावार्थ : अर्थात जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात की मान्य होगी।-वेद व्यास प्रकाश से अधिक गतिशील तत्व अभी खोजा नहीं गया है और न ही मन की गति को मापा गया है। ऋषि-मुनियों ने मन से भी अधिक गतिमान किंतु अविचल का साक्षात्कार किया और उसे 'वेद वाक्य' या 'ब्रह्म वाक्य' बना दिया।।। ॐ ।।
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हरा धनिया

http://www.goswamirishta.com हरा धनिया मसाले के रूप में व भोजन को सजाने या सुंदरता बढ़ाने के साथ ही चटनी के रूप में भी खाया जाता है। हमारे बड़े-बुजूर्ग इसके औषधिय गुणों को जानते थे इसीलिए प्राचीन समय से ही धनिए का उपयोग भारतीय भोजन का स्वाद बढ़ाने के लिए उपयोग में लाया जाता रहा है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं हरे धनिए के कुछ ऐसे ही औषधिय गुणों के बारे में... - इसके एंटीसेप्टिक और एंटीऑक्सीडेंट गुण पाया जाता है इसीलिए अगर चेहरे पर मुंहासे हो तो धनिए की हरी पत्तियों को पीसकर उसमें चुटकीभर हल्दी पाउडर मिलाकर लगाने से लाभ होता है। यह त्वचा की विभिन्न समस्याओं जैसे एक्जीमा, सुखापन और एलर्जी से राहत दिलवाता है। - आयरन से भरपूर होने के कारण यह एनिमिया को दूर करने में मददगार होता है। एंटी ऑक्सीडेंट, विटामिन ए, सी और कई मिनरलों से भरपूर धनिया कैंसर से बचाव करता है। - हरा धनिया की चटनी बनाकर खाई जाती है क्योंकि जो हमाइसको खाने से नींद भी अच्छी आती है। डायबिटीज से पीडि़त व्यक्ति के लिए तो यह वरदान है। यह इंसुलिन बढ़ाता है और रक्त का ग्लूकोज स्तर कम करने में मदद करता है। - धनिया की पत्तियों में एंटी टय़ुमेटिक और एंटी अर्थराइटिस के गुण होते हैं। यह सूजन कम करने में बहुत मददगार होता है, इसलिए जोड़ों के दर्द में राहत देता है। - हरा धनिया वातनाशक होने के साथ-साथ पाचनशक्ति भी बढ़ाता है। धनिया की हरी पत्तियां पित्तनाशक होती हैं। पित्त या कफ की शिकायत होने पर दो चम्मच धनिया की हरी-पत्तियों का रस सेवन करना चाहिए।
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रुद्राक्ष क्या है ?

http://www.goswamirishta.com रुद्राक्ष एक फल की गुठली है। इसका उपयोग आध्यात्मिक क्षेत्र में किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शंकर की आँखों के जलबिंदु से हुई है। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। रुद्राक्ष शिव का वरदान है, जो संसार के भौतिक दु:खों को दूर करने के लिए प्रभु शंकर ने प्रकट किया है। रुद्राक्ष के नाम और उनका स्वरूप:: एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शिव, द्विमुखी श्री गौरी-शंकर, त्रिमुखी तेजोमय अग्नि, चतुर्थमुखी श्री पंचदेव, षष्ठमुखी भगवान कार्तिकेय, सप्तमुखी प्रभु अनंत, अष्टमुखी भगवान श्री गेणश, नवममुखी भगवती देवी दुर्गा, दसमुखी श्री हरि विष्णु, तेरहमुखी श्री इंद्र तथा चौदहमुखी स्वयं हनुमानजी का रूप माना जाता है। इसके अलावा श्री गणेश व गौरी-शंकर नाम के रुद्राक्ष भी होते हैं। एकमुखी रुद्राक्ष- ऐसा रुद्राक्ष जिसमें एक ही आँख अथवा बिंदी हो। स्वयं शिव का स्वरूप है जो सभी प्रकार के सुख, मोक्ष और उन्नति प्रदान करता है। द्विमुखी रुद्राक्ष- सभी प्रकार की कामनाओं को पूरा करने वाला तथा दांपत्य जीवन में सुख, शांति व तेज प्रदान करता है। त्रिमुखी रुद्राक्ष- ऐश्वर्य प्रदान करने वाला होता है। चतुर्थमुखी रुद्राक्ष- धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष प्रदान करने वाला होता है। पंचमुखी रुद्राक्ष- सुख प्रदान करने वाला। षष्ठमुखी रुद्राक्ष- पापों से मुक्ति एवं संतान देने वाला होता होता है। सप्तमुखी रुद्राक्ष- दरिद्रता को दूर करने वाला होता है। अष्टमुखी रुद्राक्ष- आयु एवं सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता है। नवममुखी रुद्राक्ष- मृत्यु के डर से मुक्त करने वाला होता है। दसमुखी रुद्राक्ष- शांति एवं सौंदर्य प्रदान करने वाला होता है। ग्यारह मुखी रुद्राक्ष- विजय दिलाने वाला, ज्ञान एवं भक्ति प्रदान करने वाला होता है। बारह मुखी रुद्राक्ष- धन प्राप्ति कराता है। तेरह मुखी रुद्राक्ष- शुभ व लाभ प्रदान कराने वाला होता है। चौदह मुखी रुद्राक्ष- संपूर्ण पापों को नष्ट करने वाला होता है।
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कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।'

http://www.goswamirishta.com एक साधु बहुत बूढ़े हो गए थे। उनके जीवन का आखिरी क्षण आ पहुँचा। आखिरी क्षणों में उन्होंने अपने शिष्यों और चेलों को पास बुलाया। जब सब उनके पास आ गए, तब उन्होंने अपना पोपला मुँह पूरा खोल दिया और शिष्यों से बोले-'देखो, मेरे मुँह में कितने दाँत बच गए ह ैं?' शिष्यों ने उनके मुँह की ओर देखा। कुछ टटोलते हुए वे लगभग एक स्वर में बोल उठे-'महाराज आपका तो एक भी दाँत शेष नहीं बचा। शायद कई वर्षों से आपका एक भी द ाँत नहीं है।' साधु बोले-'देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।' सबने उत्तर दिया-'हाँ, आपकी जीभ अवश्य बची हुई है।' इस पर सबने कहा-'पर यह हुआ कैसे?' मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज मैं यह चोला छोड़ रहा हूँ तो भी यह जीभ बची हुई है। ये दाँत पीछे पैदा हुए, ये जीभ से पहले कैसे विदा हो गए? इसका क्या कारण है, कभी सोचा?' शिष्यों ने उत्तर दिया-'हमें मालूम नहीं। महाराज, आप ही बतलाइए।' उस समय मृदु आवाज में संत ने समझाया- 'यही रहस्य बताने के लिए मैंने तुम सबको इस बेला में बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और खुद भी कोमल थी, इसलिए वह आज भी मेरे पास है परंतु मेरे दाँतों में शुरू से ही कठोरता थी, इसलिए वे पीछे आकर भी पहले खत्म हो गए, अपनी कठोरता के कारण ही ये दीर्घजीवी नहीं हो सके। दीर्घजीवी होना चाहते हो तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।'
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न सुख, न दुख, केवल समभाव

http://www.goswamirishta.com फूल आते हैं, चले जाते हैं. कांटे आते हैं, चले जाते हैं. सुख आते हैं, चले जाते हैं. दुख आते हैं, चले जाते हैं. जो जगत के इस ‘चले जाने’ के शाश्वत नियम को जान लेता है, उसका जीवन क्रमश: बंधनों से मुक्त होने लगता है. एक अंधकारपूर्ण रात्रि में कोई व्यक्ति नदी तट से कूदकर आत्महत्या करने का विचार कर रहा था. वर्षा के दिन थे और नदी पूर्ण पर थी. आकाश में बादल घिरे थे और बीच-बीच में बिजली चमक रही थी. वह व्यक्ति उस देश का बहुत धनी व्यक्ति था, लेकिन अचानक घाटा लगा और उसकी सारी संपत्ति चली गई. उसके भाग्य का सूरज डूब गया था और उसके समक्ष अंधकार के अतिरिक्त और कोई भविष्य नहीं था. ऐसी स्थिति में उसने स्वयं को समाप्त करने का विचार कर लिया था. किंतु वह नदी में कूदने के लिए जैसे ही चट्टान के किनारे पर पहुंचने को हुआ कि किन्हीं दो बूढ़ी लेकिन मजबूत बांहों ने उसे रोक लिया. तभी बिजली चमकी और उसने देखा कि एक वृद्ध साधु उसे पकड़े हुए है. उस वृद्ध ने उससे इस निराशा का कारण पूछा और सारी कथा सुनकर वह हंसने लगा और बोला, ”तो तुम यह स्वीकार करते हो कि पहले तुम सुखी थे?” वह व्यक्ति बोला, ”हां, मेरा भाग्य-सूर्य पूरे प्रकाश से चमक रहा था और अब सिवाय अंधकार के मेरे जीवन में और कुछ भी शेष नहीं है.” वह वृद्ध फिर हंसने लगा और बोला, ”दिन के बाद रात्रि है और रात्रि के बाद दिन. जब दिन नहीं टिकता, तो रात्रि भी कैसे टिकेगी? परिवर्तन प्रकृति का नियम है. ठीक से सुन लो – जब अच्छे दिन नहीं रहे, तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे. और जो व्यक्ति इस सत्य को जान लेता है, वह सुख में सुखी नहीं होता और दुख में दुखी नहीं. उसका जीवन उस अडिग चट्टान की भांति हो जाता है, जो वर्षा और धूप में समान ही बनी रहती है.” सुख और दुख को जो समभाव से ले, समझना कि उसने स्वयं को जान लिया. क्योंकि, स्वयं की पृथकता का बोध ही समभाव को जन्म देता है. सुख-दुख आते और जाते हैं, जो न आता है और न जाता है, वह है, स्वयं का अस्तित्व, इस अस्तित्व में ठहर जाना ही समत्व है.
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अलग-अलग देवता हैं श्री गणेश और गणपति!!


हिन्दू धर्म ग्रंथों में प्रसंग है कि भगवान शिव के विवाह में सबसे पहले गणपति की पूजा हुई थी। इसमें सांसारिक नजरिए से एक जिज्ञासा यह पैदा होती है जब भगवान गणेश शिव-पार्वती के पुत्र हैं तो उनके विवाह क े पहले ही उनकी पूजा कैसे की गई? दरअसल लोक मान्यताओं में गणेश और गणपति एक ही देवता है। है। किंतु धर्म ग्रंथ में गणेश और गणपति को दो अलग-अलग रूप के बारे में बताया गया हैं। जानते हैं यह रोचक तथ्य -

शास्त्रों के अनुसार गणेश का अर्थ है - जगत के सभी प्राणियों का ईश्वर या स्वामी। इसी तरह गणपति का मतलब है - गणों यानि देवताओं का मुखिया या रक्षक।

गणपति को शिव, विष्णु की तरह ही स्वयंभू, अजन्मा, अनादि और अनंत यानि जिनका न जन्म हुआ न ही अंत है, माना गया है।

श्री गणेश इन गणपति का ही अवतार हैं। जैसे पुराणों में विष्णु का अवतार राम, कृष्ण, नृसिंह का अवतार बताया गया है। वैसे ही गणपति, गणेश रूप में जन्में और अलग-अलग युगों में अलग-अलग रूपों में पूजित हुए। विनायक, मोरेश्वर, धूम्रकेतु, गजानन कृतयुग, त्रेतायुग में पूजित गणपति के ही रूप है। यही कारण है कि काल अन्तर से श्री गणेश जन्म की भी अनेक कथाएं हैं।

सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पांच देवों की पूजा लोकप्रिय है। इनमें गणपति पंच देवों में प्रमुख माने गए हैं। इन सब बातों में एक बात साफ है कि गणपति हो या गणेश वास्तव मे दोनों ही उस शक्ति का नाम है जो हर कार्य में सिद्ध यानि कुशल और सफल बनाती है।Photo: अलग-अलग देवता हैं श्री गणेश और गणपति!!    हिन्दू धर्म ग्रंथों में प्रसंग है कि भगवान शिव के विवाह में सबसे पहले गणपति की पूजा हुई थी। इसमें सांसारिक नजरिए से एक जिज्ञासा यह पैदा होती है जब भगवान गणेश शिव-पार्वती के पुत्र हैं तो उनके विवाह के पहले ही उनकी पूजा कैसे की गई? दरअसल लोक मान्यताओं में गणेश और गणपति एक ही देवता है। है। किंतु धर्म ग्रंथ में गणेश और गणपति को दो अलग-अलग रूप के बारे में बताया गया हैं। जानते हैं यह रोचक तथ्य -  शास्त्रों के अनुसार गणेश का अर्थ है - जगत के सभी प्राणियों का ईश्वर या स्वामी। इसी तरह गणपति का मतलब है - गणों यानि देवताओं का मुखिया या रक्षक।  गणपति को शिव, विष्णु की तरह ही स्वयंभू, अजन्मा, अनादि और अनंत यानि जिनका न जन्म हुआ न ही अंत है, माना गया है।  श्री गणेश इन गणपति का ही अवतार हैं। जैसे पुराणों में विष्णु का अवतार राम, कृष्ण, नृसिंह का अवतार बताया गया है। वैसे ही गणपति, गणेश रूप में जन्में और अलग-अलग युगों में अलग-अलग रूपों में पूजित हुए। विनायक, मोरेश्वर, धूम्रकेतु, गजानन कृतयुग, त्रेतायुग में पूजित गणपति के ही रूप है। यही कारण है कि काल अन्तर से श्री गणेश जन्म की भी अनेक कथाएं हैं।  सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पांच देवों की पूजा लोकप्रिय है। इनमें गणपति पंच देवों में प्रमुख माने गए हैं। इन सब बातों में एक बात साफ है कि गणपति हो या गणेश वास्तव मे दोनों ही उस शक्ति का नाम है जो हर कार्य में सिद्ध यानि कुशल और सफल बनाती है।

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संस्कार आपको सम्मान दिलाता है...Culture gives you respect...

संस्कार आपको सम्मान दिलाता है...

आप अपने ही घर में बुजुर्ग लोगों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वे विश्वास से अधिक जिए हैं और नई पीढ़ी पर दृष्टि रखें तो पाएंगे कि ये लोग विचार से जीते हैं। विश्वास से जीने वालों के पास संतोष, धर्य और शांति ह ोती है। वे तर्क के सामने निरुत्तर होते हैं।

गुजरती पीढ़ी से यदि पूछा जाए कि वे आज भी कुछ काम ऐसे कर रहे हैं, जिनका उनके पास जवाब नहीं है तो वे यही कहेंगे कि सारा मामला विश्वास का है। उन्होंने रिश्तों में विश्वास किया है, प्रकृति पर विश्वास किया है और सबसे बड़ा विश्वास उनके लिए परमात्मा है।

नई पीढ़ी विचार को प्रधानता देती है। विचार और विश्वास सही तरीके से मिल जाएं तो आनंद और बढ़ जाएगा। खाली विश्वास एक दिन आदमी को पंगु बना देगा। उसकी सक्रियता आलस्य में बदल सकती है। इस बदलते युग में वह लाचार हो जाएगा और शायद बेकार भी।

खाली विचार से चलने वाले लोग घोर अशांत पाए जाते हैं। श्रीश्री रविशंकर एक जगह कहते हैं - उदारता इसमें है कि जीवन में दोनों का संतुलन हो। विश्वास का अर्थ है स्वयं के प्रति आदरपूर्ण होना।

विश्वास और विचार जुड़ते ही हम समग्र के प्रति आदरपूर्ण हो सकते हैं। जब हम कहते हैं कि परमात्मा महान है तो इसका विश्वास में अर्थ है कि सचमुच वो महान है और विचार का अर्थ होगा कि वो महान है इसलिए उसकी कृति के रूप में हम भी महान हैं। हमें उस महानता को याद रखना है और वैसे ही कार्य करने हैं।

किसी को आदर देकर हम स्वयं भी सम्मान पाते हैं। जैसे-जैसे विचार और विश्वास जीवन में मिलते जाएंगे, वैसे-वैसे विज्ञान और धर्म का भी संतुलन जिंदगी में होता रहेगा। 
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Feetured Post

रिश्तों की अहमियत

 मैं घर की नई बहू थी और एक प्राइवेट बैंक में एक अच्छे ओहदे पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर और पति...