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अलग-अलग देवता हैं श्री गणेश और गणपति!!


हिन्दू धर्म ग्रंथों में प्रसंग है कि भगवान शिव के विवाह में सबसे पहले गणपति की पूजा हुई थी। इसमें सांसारिक नजरिए से एक जिज्ञासा यह पैदा होती है जब भगवान गणेश शिव-पार्वती के पुत्र हैं तो उनके विवाह क े पहले ही उनकी पूजा कैसे की गई? दरअसल लोक मान्यताओं में गणेश और गणपति एक ही देवता है। है। किंतु धर्म ग्रंथ में गणेश और गणपति को दो अलग-अलग रूप के बारे में बताया गया हैं। जानते हैं यह रोचक तथ्य -

शास्त्रों के अनुसार गणेश का अर्थ है - जगत के सभी प्राणियों का ईश्वर या स्वामी। इसी तरह गणपति का मतलब है - गणों यानि देवताओं का मुखिया या रक्षक।

गणपति को शिव, विष्णु की तरह ही स्वयंभू, अजन्मा, अनादि और अनंत यानि जिनका न जन्म हुआ न ही अंत है, माना गया है।

श्री गणेश इन गणपति का ही अवतार हैं। जैसे पुराणों में विष्णु का अवतार राम, कृष्ण, नृसिंह का अवतार बताया गया है। वैसे ही गणपति, गणेश रूप में जन्में और अलग-अलग युगों में अलग-अलग रूपों में पूजित हुए। विनायक, मोरेश्वर, धूम्रकेतु, गजानन कृतयुग, त्रेतायुग में पूजित गणपति के ही रूप है। यही कारण है कि काल अन्तर से श्री गणेश जन्म की भी अनेक कथाएं हैं।

सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पांच देवों की पूजा लोकप्रिय है। इनमें गणपति पंच देवों में प्रमुख माने गए हैं। इन सब बातों में एक बात साफ है कि गणपति हो या गणेश वास्तव मे दोनों ही उस शक्ति का नाम है जो हर कार्य में सिद्ध यानि कुशल और सफल बनाती है।Photo: अलग-अलग देवता हैं श्री गणेश और गणपति!!    हिन्दू धर्म ग्रंथों में प्रसंग है कि भगवान शिव के विवाह में सबसे पहले गणपति की पूजा हुई थी। इसमें सांसारिक नजरिए से एक जिज्ञासा यह पैदा होती है जब भगवान गणेश शिव-पार्वती के पुत्र हैं तो उनके विवाह के पहले ही उनकी पूजा कैसे की गई? दरअसल लोक मान्यताओं में गणेश और गणपति एक ही देवता है। है। किंतु धर्म ग्रंथ में गणेश और गणपति को दो अलग-अलग रूप के बारे में बताया गया हैं। जानते हैं यह रोचक तथ्य -  शास्त्रों के अनुसार गणेश का अर्थ है - जगत के सभी प्राणियों का ईश्वर या स्वामी। इसी तरह गणपति का मतलब है - गणों यानि देवताओं का मुखिया या रक्षक।  गणपति को शिव, विष्णु की तरह ही स्वयंभू, अजन्मा, अनादि और अनंत यानि जिनका न जन्म हुआ न ही अंत है, माना गया है।  श्री गणेश इन गणपति का ही अवतार हैं। जैसे पुराणों में विष्णु का अवतार राम, कृष्ण, नृसिंह का अवतार बताया गया है। वैसे ही गणपति, गणेश रूप में जन्में और अलग-अलग युगों में अलग-अलग रूपों में पूजित हुए। विनायक, मोरेश्वर, धूम्रकेतु, गजानन कृतयुग, त्रेतायुग में पूजित गणपति के ही रूप है। यही कारण है कि काल अन्तर से श्री गणेश जन्म की भी अनेक कथाएं हैं।  सनातन धर्म में वैदिक काल से ही पांच देवों की पूजा लोकप्रिय है। इनमें गणपति पंच देवों में प्रमुख माने गए हैं। इन सब बातों में एक बात साफ है कि गणपति हो या गणेश वास्तव मे दोनों ही उस शक्ति का नाम है जो हर कार्य में सिद्ध यानि कुशल और सफल बनाती है।

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संस्कार आपको सम्मान दिलाता है...Culture gives you respect...

संस्कार आपको सम्मान दिलाता है...

आप अपने ही घर में बुजुर्ग लोगों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वे विश्वास से अधिक जिए हैं और नई पीढ़ी पर दृष्टि रखें तो पाएंगे कि ये लोग विचार से जीते हैं। विश्वास से जीने वालों के पास संतोष, धर्य और शांति ह ोती है। वे तर्क के सामने निरुत्तर होते हैं।

गुजरती पीढ़ी से यदि पूछा जाए कि वे आज भी कुछ काम ऐसे कर रहे हैं, जिनका उनके पास जवाब नहीं है तो वे यही कहेंगे कि सारा मामला विश्वास का है। उन्होंने रिश्तों में विश्वास किया है, प्रकृति पर विश्वास किया है और सबसे बड़ा विश्वास उनके लिए परमात्मा है।

नई पीढ़ी विचार को प्रधानता देती है। विचार और विश्वास सही तरीके से मिल जाएं तो आनंद और बढ़ जाएगा। खाली विश्वास एक दिन आदमी को पंगु बना देगा। उसकी सक्रियता आलस्य में बदल सकती है। इस बदलते युग में वह लाचार हो जाएगा और शायद बेकार भी।

खाली विचार से चलने वाले लोग घोर अशांत पाए जाते हैं। श्रीश्री रविशंकर एक जगह कहते हैं - उदारता इसमें है कि जीवन में दोनों का संतुलन हो। विश्वास का अर्थ है स्वयं के प्रति आदरपूर्ण होना।

विश्वास और विचार जुड़ते ही हम समग्र के प्रति आदरपूर्ण हो सकते हैं। जब हम कहते हैं कि परमात्मा महान है तो इसका विश्वास में अर्थ है कि सचमुच वो महान है और विचार का अर्थ होगा कि वो महान है इसलिए उसकी कृति के रूप में हम भी महान हैं। हमें उस महानता को याद रखना है और वैसे ही कार्य करने हैं।

किसी को आदर देकर हम स्वयं भी सम्मान पाते हैं। जैसे-जैसे विचार और विश्वास जीवन में मिलते जाएंगे, वैसे-वैसे विज्ञान और धर्म का भी संतुलन जिंदगी में होता रहेगा। 
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Koi bhakat nahi unsa dekha,
koi balwan nahi unsa dekha,
koi hona nahi unsa budhimann,
kehte hain jinhe sab HANUMAN....
Shri RAM, SIYA RAM, Jai Jai RAM...
Jai RAM, Jai RAM, Jai HANUMAN.......

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पुराणों से संग्रहित ब्रह्मा जी से परीक्षित जी तक कि संक्षिप्त पुरु वंशावली 
जैसा की हम जानते हैं कि सारी सृष्टी परमपिता ब्रम्हा से उत्पन्न हुई है इसलिए उनके बाद से पुरुवंश की पचास पीढ़ियों का वर्णन इस प्रकार है. आप दिए गए नंबरों से उनकी पीढ़ी का पता लगा सकते है.
१. परमपिता ब्रम्हा से प्रजापति दक्ष हुए.
२. दक्ष से अदिति हुए.
३. अदिति से बिस्ववान हुए.
४. बिस्ववान से मनु हुए जिनके नाम से हम लोग मानव कहलाते हैं.
५. मनु से इला हुए.
६. इला से पुरुरवा हुए जिन्होंने उर्वशी से विवाह किया.
७. पुरुरवा से आयु हुए.
८. आयु से नहुष हुए जो इन्द्र के पद पर भी आसीन हुए परन्तु सप्तर्षियों के श्राप के कारण पदच्युत हुए.
९. नहुष के बड़े पुत्र यति थे जो सन्यासी हो गए इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए. ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले. ययाति के पांच पुत्र थे. देवयानी से यदु और तर्वासु तथा शर्मिष्ठा से दृहू, अनु, एवं पुरु. यदु से यादवों का यदुकुल चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया. तर्वासु से मलेछ, दृहू से भोज तथा पुरु से सबसे प्रतापी पुरुवंश चला. अनु का वंश ज्यादा नहीं चला.
१०. पुरु के कौशल्या से जन्मेजय हुए.
११. जन्मेजय के अनंता से प्रचिंवान हुए.
१२. प्रचिंवान के अश्म्की से संयाति हुए.
१३. संयाति के वारंगी से अहंयाति हुए.
१४. अहंयाति के भानुमती से सार्वभौम हुए.
१५. सार्वभौम के सुनंदा से जयत्सेन हुए.
१६. जयत्सेन के सुश्रवा से अवाचीन हुए.
१७. अवाचीन के मर्यादा से अरिह हुए.
१८. अरिह के खल्वंगी से महाभौम हुए.
१९. महाभौम के शुयशा से अनुतनायी हुए.
२०. अनुतनायी के कामा से अक्रोधन हुए.
२१. अक्रोधन के कराम्भा से देवातिथि हुए.
२२. देवातिथि के मर्यादा से अरिह हुए.
२३. अरिह के सुदेवा से ऋक्ष हुए.
२४. ऋक्ष के ज्वाला से मतिनार हुए.
२५. मतिनार के सरस्वती से तंसु हुए.
२६. तंसु के कालिंदी से इलिन हुए.
२७. इलिन के राथान्तरी से दुष्यंत हुए.
२८. दुष्यंत के शकुंतला से भरत हुए जिनके नाम पर हमारा देश भारतवर्ष कहलाता है.
२९. भरत के सुनंदा से भमन्यु हुए.
३०. भमन्यु के विजय से सुहोत्र हुए.
३१. सुहोत्र के सुवर्णा से हस्ती हुए जिनके नाम पर पूरे प्रदेश का नाम हस्तिनापुर पड़ा.
३२. हस्ती के यशोधरा से विकुंठन हुए.
३३. विकुंठन के सुदेवा से अजमीढ़ हुए.
३४. अजमीढ़ से संवरण हुए.
३५. संवरण के तपती से कुरु हुए जिनके नाम से ये वंश कुरुवंश कहलाया.
३६. कुरु के शुभांगी से विदुरथ हुए.
३७. विदुरथ के संप्रिया से अनाश्वा हुए.
३८. अनाश्वा के अमृता से परीक्षित हुए.
३९. परीक्षित के सुयशा से भीमसेन हुए.
४०. भीमसेन के कुमारी से प्रतिश्रावा हुए.
४१. प्रतिश्रावा से प्रतीप हुए.
४२. प्रतीप के सुनंदा से तीन पुत्र देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु का जन्म हुआ. देवापि किशोरावस्था में ही सन्यासी हो गए एवं बाह्लीक युवावस्था में अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ने में लग गए इसलिए सबसे छोटे पुत्र शांतनु को गद्दी मिली.
४३. शांतनु कि गंगा से देवव्रत हुए जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए. भीष्म का वंश आगे नहीं बढा क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रम्हचारी रहने की प्रतिज्ञा कि थी. शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए. चित्रांगद की मृत्यु युवावस्था में ही हो गयी. विचित्रवीर्य कि दो रानियाँ थी, अम्बिका और अम्बालिका. विचिचित्रवीर्य भी संतान प्राप्ति के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए, लेकिन महर्षि व्यास कि कृपा से उनका वंश आगे चला.
४४. विचित्रवीर्य के महर्षि व्यास की कृपा से अम्बिका से ध्रितराष्ट्र, अम्बालिका से पांडू तथा अम्बिका की दासी से विदुर का जन्म हुआ.
४५. ध्रितराष्ट्र से दुर्योधन, दुहशासन, इत्यादि १०० पुत्र एवं दुशाला नमक पुत्री हुए. इनकी एक वैश्य कन्या से युयुत्सु नमक पुत्र भी हुआ जो दुर्योधन से छोटा और दुहशाशन से बड़ा था. इतने पुत्रों के बाद भी इनका वंश आगे नहीं चला क्योंकि इनके समूल वंश का नाश महाभारत के युद्घ में हो गया. किन्दम ऋषि के श्राप के कारण पांडू संतान उत्पत्ति में असमर्थ थे. उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को दुर्वासा ऋषि के मंत्र से संतान उत्पत्ति की आज्ञा दी. कुंती के धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम और इन्द्रदेव से अर्जुन हुए तथा माद्री के अश्वनीकुमारों से नकुल और सहदेव का जन्म हुआ. इन पांचो के जन्म में एक एक साल का अंतर था. जिस दिन भीम का जन्म हुआ उसी दिन दुर्योधन का भी जन्म हुआ.
४६. युधिष्ठिर के द्रौपदी से प्रतिविन्ध्य एवं देविका से यौधेय हुए. भीम के द्रौपदी से सुतसोम, जलन्धरा से सवर्ग तथा हिडिम्बा से घतोत्कच हुआ. घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक हुआ. नकुल के द्रौपदी से शतानीक एवं करेनुमती से निरमित्र हुए. सह्देव के द्रौपदी से श्रुतकर्मा तथा विजया से सुहोत्र हुए. इन चारो भाइयों के वंश नहीं चले. अर्जुन के द्रौपदी से श्रुतकीर्ति, सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इलावान, तथा चित्रांगदा से बभ्रुवाहन हुए. इनमे से केवल अभिमन्यु का वंश आगे चला.
४७. अभिमन्यु के उत्तरा से परीक्षित हुए. इन्हें ऋषि के श्रापवश तक्षक ने कटा और ये मृत्यु को प्राप्त हुए.
४८. परीक्षित से जन्मेजय हुए. इन्होने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया जिसमे सर्पों के कई जातियां समाप्त हो गयी, लेकिन तक्षक जीवित बच गया.
४९. जन्मेजय से शतानीक तथा शंकुकर्ण हुए.
५०. शतानीक से अश्वामेघ्दत्त हुए.

ये संक्षेप में पुरुवंश का वर्णन है.
महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा हैः
क्र. शासक का नाम वर्ष माह दिन
1 राजा युधिष्ठिर 36 8 25
2 राजा परीक्षित 60 0 0
3 राजा जन्मेजय 84 7 23
4 अश्वमेध 82 8 22
5 द्वैतीयरम 88 2 8
6 क्षत्रमाल 81 11 27
7 चित्ररथ 75 3 18
8 दुष्टशैल्य 75 10 24
9 राजा उग्रसेन 78 7 21
10 राजा शूरसेन 78 7 21
11 भुवनपति 69 55
12 रणजीत 65 10 4
13 श्रक्षक 64 7 4
14 सुखदेव 62 0 24
15 नरहरिदेव 51 10 2
16 शुचिरथ 42 11 2
17 शूरसेन द्वितीय 58 10 8
18 पर्वतसेन 55 8 10
19 मेधावी 52 10 10
20 सोनचीर 50 8 21
21 भीमदेव 47 9 20
22 नरहिरदेव द्वितीय 45 11 23
23 पूरनमाल 44 8 7
24 कर्दवी 44 10 8
25 अलामामिक 50 11 8
26 उदयपाल 38 9 0
27 दुवानमल 40 10 26
28 दामात 32 0 0
29 भीमपाल 58 5 8
30 क्षेमक 48 11 21
क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया
 
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हर समस्या का निदान - पत्नी पुराण

शेर की शादी में चूहे को देखकर हाथी ने पूछा - "भाई तुम इस शादी में किस हैसियत से आये हो ?" चूहा बोला, " जिस शेर की शादी हो रही है, वह मेरा छोटा भाई है ।" हाथी का मुँह खुला का खुला रह गया, बोला, "शेर और तुम्हारा छोटा भाई ? " चूहा - "क्या कहूँ ? शादी के पहले मैं भी शेर ही था ।" यह तो हुई मजाक की बात, लेकिन पुराने समय से ही दुनिया का मोह छोड़कर, सच की तलाश में भटकनेवाले भगोडों को सही रास्ते पर लाने के लिए, शादी कराने का रिवाज हमारे समाज में रहा है । कई बिगडैल कुँवारों को इसी पद्धति से आज भी रास्ते पर लाया जाता है । हम सबने कई बार देखा-सुना है कि तथाकथित सत्य की तलाश में भटकने को तत्पर आत्मा, शादी के बाद पत्नी को प्रसन्न करने के लिए लगातार भटकती रहती है । कहते भी हैं कि "शादी वह संस्था है जिसमें मर्द अपनी 'बैचलर डिग्री' खो देता है और स्त्री 'मास्टर डिग्री' हासिल कर लेती है ।" प्रायः शादी के पहले की जिंदगी पत्नी को पाने के लिए होती है और शादी के बाद की जिंदगी पत्नी को खुश रखने के लिए । तकरीबन हर पति के लिए पत्नी को खुश रखना एक अहम और ज्वलंत समस्या होती है और यह समस्या चूँकि सर्वव्यापी है अतः इसे हम चाहें तो राष्ट्रीय (या अंतर्राष्ट्रीय) समस्या भी कह सकते हैं । लगभग प्रत्येक पति दिन-रात इसी समस्या के समाधान में लगा रहता है, पर कामयाबी बिरलों के भाग्य में ही होती है । सच तो यह है कि आदमी की पूरी जिंदगी पत्नी को ही समर्पित रहती है और पत्नी है कि खुश होने का नाम ही नहीं लेती । अगर खुश हो जाएगी तो उसका बीवीपन खत्म हो जाएगा, फिर उसके आगे-पीछे कौन घूमेगा? किसी ने ठीक ही तो कहा है कि "शादी और प्याज में कोई खास अन्तर नहीं - आनंद और आँसू साथ-साथ नसीब होते हैं ।" पत्नी को खुश रखना इस सभ्यता की संभवतः सबसे प्राचीन समस्या है । सभी कालखंडों में पति अपनी पत्नी को खुश रखने के आधुनिकतम तरीकों का इस्तेमाल करता रहा है और दूसरी ओर पत्नी भी नाराज होने की नई-नई तरकीबों का ईजाद करती रहती है । एक बार एक कामयाब और संतुष्ट-से दिखाई देनेवाले पति से मैंने पूछा- 'क्यों भाई पत्नी को खुश रखने का उपाय क्या है ?' वह नाराज होकर बोला- 'यह प्रश्न ही गलत है । यह सवाल यूँ होना चाहिए था कि पत्नी को भी कोई खुश रख सकता है क्या ?' उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि "शादी और युद्ध में सिर्फ एक अन्तर है कि शादी के बाद आप दुश्मन के बगल में सो सकते हैं ।" जिस पत्नी को सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हों, वह इस बात को लेकर नाराज रहती है कि उसका पति उसे समय ही नहीं देता । अब बेचारा पति करे तो क्या करे ? सुख-सुविधाएँ जुटाए या पत्नी को समय दे ? इसके बरअक्स कई पत्नियों को यह शिकायत रहती है कि मेरे पति आफिस के बाद हमेशा घर में ही डटे रहते हैं । इसी प्रकार के आदर्श-पतिनुमा एक इन्सान(?) से जब मैंने पूछा कि 'पत्नी को खुश रखने का क्या उपाय है ?' तो उसने तपाक से उत्तर दिया-'तलाक ।' मुझे लगा कि कहीं यह आदमी मेरी ही बात तो नहीं कह रहा है ? मैं सोचने लगा " 'विवाह' और 'विवाद' में केवल एक अक्षर का अन्तर है शायद इसलिए दोनों में इतना भावनात्मक साहचर्य और अपनापन है ।" पतिव्रता नारियों का युग अब प्रायः समाप्ति की ओर है और पत्नीव्रत पुरुषों की संख्या, प्रभुत्व और वर्चस्व लगातार बढ़त की ओर है । यदि इसका सर्वेक्षण कराया जाय तो प्रायः हर दूसरा पति आपको पत्नीव्रत मिलेगा । मैंने सोचा क्यों न किसी अनुभवी पत्नीव्रत पति से मुलाकात करके पत्नी को खुश रखने का सूत्र सीखा जाए । सौभाग्य से इस प्रकार के एक महामानव से मुलाक़ात हो ही गई, जो इस क्षेत्र में पर्याप्त तजुर्बेकार थे । मैंने अपनी जिज्ञासा जाहिर की तो उन्होंने जो भी बताया, उसे अक्षरशः नीचे लिखने जा रहा हूँ, ताकि हर उस पति का कल्याण हो सके, जो पत्नी-प्रताड़ना से परेशान हैं - १ - ब्रह्ममुहुर्त में उठकर पूरे मनोयोग से चाय बनाकर पत्नी के लिए 'बेड टी' का प्रबंध करें । इससे आपकी पत्नी का 'मूड नार्मल' रहेगा और बात-बात पर पूरे दिन आपको उनकी झिडकियों से निजात मिलेगी । वैसे भी, किसी भी पत्नी के लिए पति से अच्छा और विश्वासपात्र नौकर मिलना मुश्किल है, इसलिए इसे बोझस्वरूप न लें, बल्कि सहजता से युगधर्म की तरह स्वीकार करें । कहा भी गया है कि "सर्कस की तरह विवाह में भी तीन रिंग होते हैं - एंगेजमेंट रिंग, वेडिंग रिंग और सफरिंग ।" २ - अगर आपका वास्ता किसी तेज-तर्रार किस्म की पत्नी से है तो उनके तेज में अपना तेज (अगर अबतक बचा हो तो) सहर्ष मिलाकर स्वयं निस्तेज हो जाएँ । क्योंकि कोई भी पत्नी तेज-तर्रार पति की वनिस्पत ढुलमुल पति को ही ज्यादा पसंद करती है । इसका यह फायदा होगा कि आप पत्नी से गैरजरूरी टकराव से बच जाएँगे, अब तो जो भी कहना होगा, पत्नी कहेगी । आपको तो बस आत्मसमर्पण की मुद्रा अपनानी है । ३- आपकी पत्नी कितनी ही बदसूरत क्यों न हो, आप प्रयास करके, मीठी-मीठी बातों से यह यकीन दिलाएँ कि विश्व-सुंदरी उनसे उन्नीस पड़ती है । पत्नी द्वारा बनाया गया भोजन (हलाँकि यह सौभाग्य कम ही पतियों को प्राप्त है) चाहे कितना ही बेस्वाद क्यों न हो, उसे पाकशास्त्र की खास उपलब्धि बताते हुए पानी पी-पीकर निवाले को गले के नीचे उतारें । ध्यान रहे, ऐसा करते समय चेहरे पर शिकायत के भाव उभारना वर्जित है, क्योंकि "विवाह वह प्रणाली है, जो अकेलापन महसूस किए बिना अकेले जीने की सामर्थ्य प्रदान करती है ।" ४ - पत्नी के मायकेवाले यदि रावण की तरह भी दिखाई दे तो भी अपने वाकचातुर्य और प्रत्यक्ष क्रियाकलाप से उन्हें 'रामावतार' सिद्ध करने की कोशिश में सतत सचेष्ट रहना चाहिए । ५ - आप जो कुछ कमाएँ, उसे चुपचाप 'नेकी कर दरिया में डाल' की नीति के अनुसार बिल्कुल सहज समर्पित भाव से अपनी पत्नी के करकमलों में अर्पित कर दें और प्रतिदिन आफिस जाते समय बच्चों की तरह गिडगिडाकर दो-चार रूपयों की माँग करें । पत्नी समझेगी कि मेरा पति कितना बकलोल है कि कमाता खुद है और रूपये-दो रूपयों के लिए रोज मेरी खुशामद करता रहता है । एक हालिया सर्वे के अनुसार लगभग पचहत्तर प्रतिशत पति इसी श्रेणी में आते हैं । मैं अपील करता हूँ कि शेष पच्चीस प्रतिशत भी इस विधि को अपनाकर राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित हो जाएँ और सुरक्षित जीवन-यापन करें । अंत में उस अनुभवी महामानव ने अपने इस प्रवचन के सार-संक्षेप के रूप में यह बताया कि उक्त विधियों को अपनाकर आप भले दुखी हो जाएँ, लेकिन आपकी पत्नी प्रसन्न रहेगी और उनकी मेहरबानी के फूल आप पर बरसते रहेंगे । किसी ने बिलकुल ठीक कहा है कि "प्यार अंधा होता है और शादी आँखें खोल देती है ।" मेरी भी आँखें खुल गईं । कलम घिसने का रोग जबसे लगा, साहित्यिक मित्रों की आवाजाही घर पर बढ़ गई । चाय-पानी के चक्कर में जब पत्नी मुझे पूतना की तरह देखती तो मेरी रूह काँप जाती थी । मैंने इससे निजात पाने का रास्ता ढूँढ ही लिया । आपने फूल कई रंगों के देखे होंगे, लेकिन साँवले या काले रंग के फूल प्रायः नहीं दिखते । मैंने अपने नाम 'श्यामल' के आगे पत्नी का नाम 'सुमन' जोड़ लिया । हमारे साहित्यिक मित्र मुझे 'सुमनजी-सुमनजी' कहकर बुलाते हुए घर आते । धीरे-धीरे नम्रतापूर्वक मैंने अपनी पत्नी को विश्वास दिलाने में आश्चर्यजनक रूप से सफलता पाई कि मेरे उक्त क्रियाकलाप से आखिर उनका ही नाम तो यशस्वी होता है । अब मेरे घर में ऐसे मित्रों भले ही स्वागत-सत्कार कम होता हो, पर मैं निश्चिंत हूँ कि अब उनका अपमान नहीं होगा । किसी ने ठीक ही कहा है कि "विवाह वह साहसिक-कार्य है जो कोई बुजदिल पुरुष ही कर सकता है ।"
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रुद्राक्ष की महिमा

रुद्राक्ष की महिमा एक बार देवर्षि नारद ने भगवान नारायण से पूछा-“दयानिधान! रुद्राक्ष को श्रेष्ठ क्यों माना जाता है? इसकी क्या महिमा है? सभी के लिए यह पूजनीय क्यों है? रुद्राक्ष की महिमा को आप विस्तार से बताकर मेरी जिज्ञासा शांत करें।” देवर्षि नारद की बात सुनकर भगवान् नारायण बोले-“हे देवर्षि! प्राचीन समय में यही प्रश्न कार्तिकेय ने भगवान् महादेव से पूछा था। तब उन्होंने जो कुछ बताया था, वही मैं तुम्हें बताता हूँ: “एक बार पृथ्वी पर त्रिपुर नामक एक भयंकर दैत्य उत्पन्न हो गया। वह बहुत बलशाली और पराक्रमी था। कोई भी देवता उसे पराजित नहीं कर सका। तब ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र आदि देवता भगवान शिव की शरण में गए और उनसे रक्षा की प्रार्थना लगने लगे। भगवान शिव के पास ‘अघोर’ नाम का एक दिव्य अस्त्र है। वह अस्त्र बहुत विशाल और तेजयुक्त है। उसे सम्पूर्ण देवताओं की आकृति माना जाता है। त्रिपुर का वध करने के उद्देश्य से शिव ने नेत्र बंद करके अघोर अस्त्र का चिंतन किया। अधिक समय तक नेत्र बंद रहने के कारण उनके नेत्रों से जल की कुछ बूंदें निकलकर भूमि पर गिर गईं। उन्हीं बूंदों से महान रुद्राक्ष के वृक्ष उत्पन्न हुए। फिर भगवान शिव की आज्ञा से उन वृक्षों पर रुद्राक्ष फलों के रूप में प्रकट हो गए। ये रुद्राक्ष अड़तीस प्रकार के थे। इनमें कत्थई वाले बारह प्रकार के रुद्राक्षों की सूर्य के नेत्रों से, श्वेतवर्ण के सोलह प्रकार के रुद्राक्षों की चन्द्रमा के नेत्रों से तथा कृष्ण वर्ण वाले दस प्रकार के रुद्राक्षों की उत्पत्ति अग्नि के नेत्रों से मानी जाती है। ये ही इनके अड़तीस भेद हैं। ब्राह्मण को श्वेतवर्ण वाले रुद्राक्ष, क्षत्रिय को रक्तवर्ण वाले रुद्राक्ष, वैश्य को मिश्रित रंग वाले रुद्राक्ष और शूद्र को कृष्णवर्ण वाले रुद्राक्ष धारण करने चाहिए। रुद्राक्ष धारण करने पर बड़ा पुण्य प्राप्त होता है। जो मनुष्य अपने कण्ठ में बत्तीस, मस्तक पर चालीस, दोनों कानों में छः-छः, दोनों हाथों में बारह-बारह, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, शिखा में एक और वक्ष पर एक सौ आठ रुद्राक्षों को धारण करता है, वह साक्षात भगवान नीलकण्ठ समझा जाता है। उसके जीवन में सुख-शांति बनी रहती है। रुद्राक्ष धारण करना भगवान शिव के दिव्य-ज्ञान को प्राप्त करने का साधन है। सभी वर्ण के मनुष्य रुद्राक्ष धारण कर सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने वाला मनुष्य समाज में मान-सम्मान पाता है। रुद्राक्ष के पचास या सत्ताईस मनकों की माला बनाकर धारण करके जप करने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है। ग्रहण, संक्रांति, अमावस्या और पूर्णमासी आदि पर्वों और पुण्य दिवसों पर रुद्राक्ष अवश्य धारण किया करें। रुद्राक्ष धारण करने वाले के लिए मांस-मदिरा आदि पदार्थों का सेवन वर्जित होता है।”
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मानवता ही सबसे बड़ा धन है

खरा सौदा किसी गांव में एक साहूकार रहता था। उसके तीन बेटे थे-रामलाल, श्यामलाल, मोहन कुमार। साहूकार के पास रुपए पैसे की कमी न थीं। किंतु अब उसकी उम्र बढ़ रही थी। वह अधिक मेहनत नहीं कर पाता था। इसलिए उसने सोचा कि चलो अपना व्यापार बेटों को सौंप दूं। साहूकार चाहता था कि उसका धन गलत हाथों में पड़कर बर्बाद न हो जाए। इसलिए उसने अपने बेटों की परीक्षा लेने का मन बनाया। उसने बातों-बातों में कहा-‘ईश्वर तो सब जगह रहता है। वह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम लोग मुझे ऐसी जगह से एक-एक अशर्फी लाकर दो, जहां कोई देख न रहा हो।’ तीनों बेटे पिता की बात सुनकर चल पड़े। रामलाल को पता था के पिता जी पैसा कहां रखते हैं? जब साहूकार सो रहा था तो उसने एक अशर्फी चुपके से उठा ली। इसी तरह श्यामलाल ने मां की संदूकची में से अशर्फी चुराई। लेकिन मोहन को पिता की बात भूली न थी। उसने सोचा-‘पिता जी ने कहा था कि ईश्वर सब जगह रहता है फिर तो वह मेरी चोरी देख लेगा?’ उसने कहीं से भी अशर्फी नहीं ली। दोनों भाइयों ने बड़ी शान से अपनी अक्लमंदी पिता को बताई। जब मोहन ने अपनी बात बताई तो साहूकार ने उसे गले से लगा लिया। मोहन पिता जी की परीक्षा में खरा उतरा। फिर साहूकार ने तीनों बेटों को एक-एक रुपया देकर कहा, ‘जाओ, ऐसा खरा सौदा करना कि माल से कमरा भर जाए?’ पहला बेटा रामलाल बाजार गया। बहुत दिमाग लड़ाने के बाद उसने एक रुपये का भूसा खरीद लिया। भूसे को फैलाकर कमरे में बिखेर दिया। कमरा भर गया। अपने उत्साह में उसने राह में बैठे भूखे भिखारी को लात मार दी। श्यामलाल को भी राह में वही भिखारी मिला। उसे भी खरा सौदा करने की जल्दी थी। उसने भिखारी को दुत्कार दिया। एक रुपए की रुई खरीदी और बैलगाड़ी में लदवाकर घर ले गया। कमरे में रूई ठूंस दी उसका कमरा भी लद गया। तब मोहन ने बचे हुए पैसों से एक माचिस व मोमबत्ती खरीद ली। जब साहूकार देखने आया तो उसने वही मोमबत्ती अपने कमरे में जला दी। सारा कमरा रोशनी से जगमगा उठा। दरअसल, साहूकार ही भिखारी बनकर राह में बैठा, बेटों की परीक्षा ले रहा था। उसे बड़े दो बेटों से बहुत निराशा हुई। वह मोहन से बोला-‘वाह बेटा! तुमने किया है खरा सौदा।’ इंसान वही है, जो दूसरों के दुख पहले दूर करे और बाद में अपने लिए सोचे। साहूकार ने मोहन को अपनी सारी संपत्ति सौंप दी। मोहन ने कहा-‘पिता जी, हम तीनों भाई मिलकर आपके काम ही देख-रेख करेंगे।’ साहूकार की आंखें खुशी से भर आईं। बड़े भाइयों ने भी मोहन से मानवता की सीख ली और सब मिल-जुलकर रहने लगे।
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रिश्तों की अहमियत

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