गुरु वाणी


मानव-जीवन की प्रगति दो बातो पर निर्भर करती है- पहला, सदा नए कार्य करते रहना और दूसरा, नए आध्यात्मिक विचारों को मन में लाना। 
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Shayari



Zindagi Ne Kai Sawalat Badal Dale,
Waqt Ne Mere Haalaat Badal Dale,
Main to Aaj bi wahi hun Jo mai kal tha,
Bas mere liye apno ne Apne Khyalat badal dale..


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दूब घास (दुर्वा)



दूब या 'दुर्वा' (वैज्ञानिक नाम- 'साइनोडान डेक्टीलान") वर्ष भर पाई जाने वाली घास है, जो ज़मीन पर पसरते हुए या फैलते हुए बढती है। हिन्दू धर्म में इस घास को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिन्दू संस्कारों एवं कर्मकाण्डों में इसका उपयोग बहुत किया जाता है। इसके नए पौधे बीजों तथा भूमीगत तनों से पैदा होते हैं। वर्षा काल में दूब घास अधिक वृद्धि करती है तथा वर्ष में दो बार सितम्बर-अक्टूबर और फ़रवरी-मार्च में इसमें फूल आते है। दूब सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। यह घास औषधि के रूप में विशेष तौर पर प्रयोग की जाती है।

पौराणिक कथा
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"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।
वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"

पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी।

भारतीय संस्कृति में महत्त्व
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'भारतीय संस्कृति' में दूब को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे विवाहोत्सव हो या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़ जाती है। दूब का पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी नम्रता को देखकर गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है-

नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब
और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।

हिन्दू धर्म के शास्त्र भी दूब को परम-पवित्र मानते हैं। भारत में ऐसा कोई मांगलिक कार्य नहीं, जिसमें हल्दी और दूब की ज़रूरत न पड़ती हो। दूब के विषय में एक संस्कृत कथन इस प्रकार मिलता है-



ज़मीन पर उगती दूब
"विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।"

अर्थात "हे दुर्वा! तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है। तुम विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो।"

महाकवि तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है-
"रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।"

प्रायः जो वस्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में उपलब्ध रहती है। दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी खींचने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यही कारण है कि चाहे जितनी सर्दी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इन सबका दूब पर असर नहीं होता और यह अक्षुण्ण बनी रहती है।


उद्यानों की शोभा
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दूब को संस्कृत में 'दूर्वा', 'अमृता', 'अनंता', 'गौरी', 'महौषधि', 'शतपर्वा', 'भार्गवी' इत्यादि नामों से जानते हैं। दूब घास पर उषा काल में जमी हुई ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकती प्रतीत होती हैं। ब्रह्म मुहूर्त में हरी-हरी ओस से परिपूर्ण दूब पर भ्रमण करने का अपना निराला ही आनंद होता है। पशुओं के लिए ही नहीं अपितु मनुष्यों के लिए भी पूर्ण पौष्टिक आहार है दूब। महाराणा प्रताप ने वनों में भटकते हुए जिस घास की रोटियाँ खाई थीं, वह भी दूब से ही निर्मित थी।[3] राणा के एक प्रसंग को कविवर कन्हैया लाल सेठिया ने अपनी कविता में इस प्रकार निबद्ध किया है-

अरे घास री रोटी ही,
जद बन विला वड़ो ले भाग्यो।
नान्हों सो अमरयौ चीख पड्यो,
राणा रो सोयो दुख जाग्यो।

औषधीय गुण
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दूब घास की शाखा
अर्वाचीन विश्लेषकों ने भी परीक्षणों के उपरांत यह सिद्ध किया है कि दूब में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। दूब के पौधे की जड़ें, तना, पत्तियाँ इन सभी का चिकित्सा क्षेत्र में भी अपना विशिष्ट महत्व है। आयुर्वेद में दूब में उपस्थित अनेक औषधीय गुणों के कारण दूब को 'महौषधि' में कहा गया है। आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार दूब का स्वाद कसैला-मीठा होता है। विभिन्न पैत्तिक एवं कफज विकारों के शमन में दूब का निरापद प्रयोग किया जाता है। दूब के कुछ औषधीय गुण निम्नलिखित हैं-

संथाल जाति के लोग दूब को पीसकर फटी हुई बिवाइयों पर इसका लेप करके लाभ प्राप्त करते हैं।
इस पर सुबह के समय नंगे पैर चलने से नेत्र ज्योति बढती है और अनेक विकार शांत हो जाते है।
दूब घास शीतल और पित्त को शांत करने वाली है।
दूब घास के रस को हरा रक्त कहा जाता है, इसे पीने से एनीमिया ठीक हो जाता है।
नकसीर में इसका रस नाक में डालने से लाभ होता है।
इस घास के काढ़े से कुल्ला करने से मुँह के छाले मिट जाते है।
दूब का रस पीने से पित्त जन्य वमन ठीक हो जाता है।
इस घास से प्राप्त रस दस्त में लाभकारी है।
यह रक्त स्त्राव, गर्भपात को रोकती है और गर्भाशय और गर्भ को शक्ति प्रदान करती है।
कुँए वाली दूब पीसकर मिश्री के साथ लेने से पथरी में लाभ होता है।
दूब को पीस कर दही में मिलाकर लेने से बवासीर में लाभ होता है।
इसके रस को तेल में पका कर लगाने से दाद, खुजली मिट जाती है।
दूब के रस में अतीस के चूर्ण को मिलाकर दिन में दो-तीन बार चटाने से मलेरिया में लाभ होता है।
इसके रस में बारीक पिसा नाग केशर और छोटी इलायची मिलाकर सूर्योदय के पहले छोटे बच्चों को नस्य दिलाने से वे तंदुरुस्त होते है। बैठा हुआ तालू ऊपर चढ़ जाता है।
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अदरक Ginger Medicinal use:


अदरक रूखा, तीखा, उष्ण-तीक्ष्ण होने के कारण कफ तथा वात का नाश करता है, पित्त को बढ़ाता है। इसका अधिक सेवन रक्त की पुष्टि करता है। यह उत्तम आमपाचक है। भारतवासियों को यह सात्म्य होने के कारण भोजन में रूचि बढ़ाने के लिए इसका सार्वजनिक उपयोग किया जाता है। आम से उत्पन्न होने वाले अजीर्ण, अफरा, शूल, उलटी आदि में तथा कफजन्य सर्दी-खाँसी में अदरक बहुत उपयोगी है।
सावधानीः रक्तपित्त, उच्च रक्तचाप, अल्सर, रक्तस्राव व कोढ़ में अदरक का सेवन नहीं करना चाहिए। अदरक साक्षात अग्निरूप है। इसलिए इसे कभी फ्रिज में नहीं रखना चाहिए ऐसा करने से इसका अग्नितत्त्व नष्ट हो जाता है।

औषधि-प्रयोगः

उलटीः अदरक व प्याज का रस समान मात्रा में मिलाकर 3-3 घंटे के अंतर से 1-1 चम्मच लेने से अथवा अदरक के रस में मिश्री में मिलाकर पीने से उलटी होना व जौ मिचलाना बन्द होता है।

हृदयरोगः अदरक के रस व पानी समभाग मिलाकर पीने से हृदयरोग में लाभ होता है।

मंदाग्निः अदरक के रस में नींबू व सेंधा नमक मिलाकर सेवन करने से जठराग्नि तीव्र होती है।

उदरशूलः 5 ग्राम अदरक, 5 ग्राम पुदीने के रस में थोड़ा-सा सेंधा नमक डालक पीने से उदरशूल मिटता है।

शीतज्वरः अदरक व पुदीने का काढ़ा देने से पसीना आकर ज्वर उतर जाता है। शीतज्वर में लाभप्रद है।

पेट की गैसः आधा-चम्मच अदरक के रस में हींग और काला नमक मिलाकर खाने से गैस की तकलीफ दूर होती है।

सर्दी-खाँसीः 20 ग्राम अदरक का रस 2 चम्मच शहद के साथ सुबह शाम लें। वात-कफ प्रकृतिवाले के लिए अदरक व पुदीना विशेष लाभदायक है।
खाँसी एवं श्वास के रोगः अदरक और तुलसी के रस में शहद मिलाकर लें।
अदरक ......

अदरक रूखा, तीखा, उष्ण-तीक्ष्ण होने के कारण कफ तथा वात का नाश करता है, पित्त को बढ़ाता है। इसका अधिक सेवन रक्त की पुष्टि करता है। यह उत्तम आमपाचक है। भारतवासियों को यह सात्म्य होने के कारण भोजन में रूचि बढ़ाने के लिए इसका सार्वजनिक उपयोग किया जाता है। आम से उत्पन्न होने वाले अजीर्ण, अफरा, शूल, उलटी आदि में तथा कफजन्य सर्दी-खाँसी में अदरक बहुत उपयोगी है।
सावधानीः रक्तपित्त, उच्च रक्तचाप, अल्सर, रक्तस्राव व कोढ़ में अदरक का सेवन नहीं करना चाहिए। अदरक साक्षात अग्निरूप है। इसलिए इसे कभी फ्रिज में नहीं रखना चाहिए ऐसा करने से इसका अग्नितत्त्व नष्ट हो जाता है।

औषधि-प्रयोगः

उलटीः अदरक व प्याज का रस समान मात्रा में मिलाकर 3-3 घंटे के अंतर से 1-1 चम्मच लेने से अथवा अदरक के रस में मिश्री में मिलाकर पीने से उलटी होना व जौ मिचलाना बन्द होता है।

हृदयरोगः अदरक के रस व पानी समभाग मिलाकर पीने से हृदयरोग में लाभ होता है।

मंदाग्निः अदरक के रस में नींबू व सेंधा नमक मिलाकर सेवन करने से जठराग्नि तीव्र होती है।

उदरशूलः 5 ग्राम अदरक, 5 ग्राम पुदीने के रस में थोड़ा-सा सेंधा नमक डालक पीने से उदरशूल मिटता है।

शीतज्वरः अदरक व पुदीने का काढ़ा देने से पसीना आकर ज्वर उतर जाता है। शीतज्वर में लाभप्रद है।

पेट की गैसः आधा-चम्मच अदरक के रस में हींग और काला नमक मिलाकर खाने से गैस की तकलीफ दूर होती है।

सर्दी-खाँसीः 20 ग्राम अदरक का रस 2 चम्मच शहद के साथ सुबह शाम लें। वात-कफ प्रकृतिवाले के लिए अदरक व पुदीना विशेष लाभदायक है।
खाँसी एवं श्वास के रोगः अदरक और तुलसी के रस में शहद मिलाकर लें।
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अमरबेल से जुडे आदिवासी हर्बल नुस्खे, जानिए और कहिए अरे वाह!


जंगलों, सड़क, खेत खलिहानों के किनारे लगे वृक्षों पर परजीवी अमरबेल का जाल अक्सर देखा जा सकता है, वास्तव में जिस पेड़ पर यह लग जाती है, वह पेड़ धीरे धीरे सूखने लगता है। इसकी पत्तियों मे पर्णहरिम का अभाव होता है जिस वजह से यह पीले रंग की दिखाई देती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है। अमरबेल का वानस्पतिक नाम कस्कूटा रिफ़्लेक्सा है। आदिवासी अंचलों में अमरबेल को अनेक हर्बल नुस्खों के तौर पर उपयोग में लाया जाता है, चलिए जानते हैं आज अमरबेल से जुडे हर्बल नुस्खों और आदिवासी जानकारियों को..


पूरे पौधे का काढ़ा घाव धोने के लिए बेहतर है और यह टिंक्चर की तरह काम करता है। आदिवासियों के अनुसार यह काढा घावों पर लगाया जाए तो यह घाव को पकने नहीं देता है।

बरसात में पैर के उंगलियों के बीच सूक्ष्मजीवी संक्रमण या घाव होने पर अमरबेल पौधे का रस दिन में 5-6 बार लगाया जाए तो आराम मिल जाता है।

अमरबेल को कुचलकर इसमें शहद और घी मिलाकर पुराने घावों पर लगाया जाए तो घाव जल्दी भरने लगता है। यह मिश्रण एंटीसेप्टिक की तरह कार्य करता है।

- गुजरात के आदिवासी हर्बल जानकार इसके बीजों और पूरे पौधे को कुचलकर आर्थराईटिस के रोगी को दर्द वाले हिस्सों पर पट्टी लगाकर बाँध देते है। इनके अनुसार यह दर्द निवारक की तरह कार्य करता है।

गंजेपन को दूर करने के लिए पातालकोट के आदिवासी मानते हैं कि यदि आम के पेड़ पर लगी अमरबेल को पानी में उबाल लिया जाए और उस पानी से स्नान किया जाए तो बाल पुन: उगने लगते है।

डाँग के आदिवासी अमरबेल को कूटकर उसे तिल के तेल में 20 मिनट तक उबालते हैं और इस तेल को कम बाल या गंजे सर पर लगाने की सलाह देते है। आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार यह तेल बालों के झडने का सिलसिला कम करता है और गंजे सिर पर भी बाल लाने में मदद करता है।
डाँग के आदिवासी अमरबेल को कूटकर उसे तिल के तेल में 20 मिनट तक उबालते हैं और इस तेल को कम बाल या गंजे सर पर लगाने की सलाह देते है। आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार यह तेल बालों के झडने का सिलसिला कम करता है और गंजे सिर पर भी बाल लाने में मदद करता है।

पातालकोट के आदिवासियों के अनुसार मुँह और पेट के कैंसर या ट्युमर में इस पौधे का काढा आराम दिलाता है, आधुनिक अध्ययनों से पता चलता है कि इस पौधे का अर्क पेट के कैंसर से लड़ने में मदद कर सकता है।


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मस्तक पर तिलक प्रति दिन जरुर करना चाहिए


अपने देश में है मस्तक पर तिलक लगाने की प्रथा प्रचलित है। यह प्राचीन है।
दरअसल, हमारे शरीर में सात सूक्ष्म ऊर्जा केंद्र होते हैं, जो अपार शक्ति के भंडार हैं। इन्हें चक्र कहा जाता है। मस्तिष्क के भ्रु-मध्य ललाट में जिस स्थान पर टीका या तिलक लगाया जाता है यह भाग आज्ञाचक्र है । शरीर शास्त्र के अनुसार पीनियल ग्रन्थि का स्थान होने की वजह से, जब पीनियल ग्रन्थि को उद्दीप्त किया जाता हैं, तो मस्तष्क के अन्दर एक तरह के प्रकाश की अनुभूति होती है । पीनियल ग्रन्थि के उद्दीपन से आज्ञाचक्र का उद्दीपन होगा । इसी वजह से धार्मिक कर्मकाण्ड, पूजा-उपासना व शूभकार्यो में टीका लगाने का प्रचलन है / हिन्दु परम्परा में मस्तक पर तिलक लगाना शूभ माना जाता है इसे सात्विकता का प्रतीक माना जाता है विजयश्री प्राप्त करने के उद्देश्य रोली, हल्दी, चन्दन या फिर कुम्कुम का तिलक लगाया जाता है ।

स्त्रियां लाल कुंकुम का तिलक लगाती हैं। यह भी बिना प्रयोजन नहीं है। लाल रंग ऊर्जा एवं स्फूर्ति का प्रतीक होता है। तिलक स्त्रियों के सौंदर्य में अभिवृद्धि करता है। तिलक लगाना देवी की आराधना से भी जुड़ा है। देवी की पूजा करने के बाद माथे पर तिलक लगाया जाता है। तिलक देवी के आशीर्वाद का प्रतीक माना जाता है।


इससे आज्ञाचक्र को नियमित उत्तेजना मिलती रहती है ।
तन्त्र शास्त्र के अनुसार माथे को इष्ट इष्ट देव का प्रतीक समझा जाता है / हमारे इष्ट देव की स्मृति हमें सदैव बनी रहे इस तरह की धारणा , ध्यान में रखकर, मन में उस केन्द्र बिन्दु की स्मृति हो सकें । शरीर व्यापी चेतना शनैः शनैः आज्ञाचक्र पर एकत्रित होती रहे । अतः इसे तिलक या टीके के माध्यम से आज्ञाचक्र पर एकत्रित कर, तीसरे नेत्र को जागृत करा सकें ताकि हम परा – मानसिक जगत में प्रवेश कर सकें ।

तिलक लगाने से एक तो स्वभाव में सुधार आता हैं व देखने वाले पर सात्विक प्रभाव पड़ता हैं। तिलक जिस भी पदार्थ का लगाया जाता हैं उस पदार्थ की ज़रूरत अगर शरीर को होती हैं तो वह भी पूर्ण हो जाती हैं। तिलक किसी खास प्रयोजन के लिए भी लगाये जाते हैं जैसे यदि मोक्षप्राप्ती करनी हो तो तिलक अंगूठे से, शत्रु नाश करना हो तो तर्जनी से, धनप्राप्ति हेतु मध्यमा से तथा शान्ति प्राप्ति हेतु अनामिका से लगाया जाता हैं।

आमतौर से तिलक अनामिका द्वारा लगाया जाता हैं और उसमे भी केवल चंदन ही लगाया जाता हैं तिलक संग चावल लगाने से लक्ष्मी को आकर्षित करने का तथा ठंडक व सात्विकता प्रदान करने का निमित छुपा हुआ होता हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति को तिलक ज़रूर लगाना चाहिए। देवताओ को तिलक मध्यमा उंगली से लगाया जाता है

मनोविज्ञान की दृष्टि से भी तिलक लगाना उपयोगी माना गया है। माथा चेहरे का केंद्रीय भाग होता है/ उसके मध्य में तिलक लगाकर, दृष्टि को बांधे रखने का प्रयत्न किया जाता है। तिलक हिंदू संस्कृति का पहचान है। तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है/ तिलक लगाने से मन को शांति मिलती है/ चन्दन को पत्थर पर घिस कर लगाते है / ऐनक के सामने हमारी मुखमंडल की आभा काफी सौम्य दिखता है/ तिलक से मानसिक उतेज़ना पर काफी नियंत्रण पाया जा सकता है/

तंत्र शास्त्र में पंच गंध या अस्ट गंध से बने तिलक लगाने का बड़ा ही महत्व है तंत्र शास्त्र में शरीर के तेरह भागों पर तिलक करने की बात कही गई है, लेकिन समस्त शरीर का संचालन मस्तिष्क करता है। इसलिए इस पर तिलक करने की परंपरा अधिक प्रचलित है।



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ठंड में खाने के बाद गुड़ जरूर खाएंगे, जब जान जाएंगे ये लाजवाब फायदे


गुड़ का सेवन अधिकांश लोग ठंड में ही करते हैं वह भी थोड़ी मात्रा में इस सोच के साथ की ज्यादा गुड़ खाने से नुकसान होता है। इसकी प्रवृति गर्म होती है, लेकिन ये एक गलतफहमी है गुड़ हर मौसम में खाया जा सकता है और पुराना गुड़ हमेशा औषधि के रूप में काम करता है।आयुर्वेद संहिता के अनुसार यह शीघ्र पचने वाला, खून बढ़ाने वाला व भूख बढ़ाने वाला होता है। इसके अतिरिक्त गुड़ से बनी चीजों के खाने से बीमारियों में राहत मिलती है।

- गुड़ में सुक्रोज 59.7 प्रतिशत, ग्लूकोज 21.8 प्रतिशत, खनिज तरल 26प्रतिशत तथा जल अंश 8.86 प्रतिशत मौजूद होते हैं।इसके अलावा गुड़ में कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा और ताम्र तत्व भी अच्छी मात्रा में मिलते हैं। इसलिए चाहे हर मौसम में आप गुड़ खाना न पसन्द करें लेकिन ठंड में गुड़ जरूर खाएं।

- यह सेलेनियम के साथ एक एंटीऑक्सीडेंट के रूप में कार्य करता है। गुड़ में मध्यम मात्रा में कैल्शियम, फॉस्फोरस व जस्ता पाया जाता है यही कारण है कि इसका रोजाना सेवन करने वालों का इम्युनिटी पॉवर बढ़ता है। गुड़ में मैग्नेशियम अधिक मात्रा में पाया जाता है इसलिए ये बॉडी को रिचार्ज करता है साथ ही इसे खाने से थकान भी दूर होती है।

- गुड़ और काले तिल के लड्डू खाने से सर्दी में अस्थमा परेशान नहीं करता है। रोजाना गुड़ का सेवन हाइब्लडप्रेशर को कंट्रोल करता है। जिन लोगों को खून की कमी हो उन्हें रोज थोड़ी मात्रा में गुड़ जरूर खाना चाहिए। इससे शरीर में हिमोग्लोबिन का स्तर बढ़ता है।

- गुड़ का हलवा खाने से स्मरण शक्ति बढ़ती है। शरीर से जहरीले तत्वों को बाहर निकालता है व सर्दियों में, यह शरीर के तापमान को विनियमित करने में मदद करता है। यह लड़कियों के मासिक धर्म को नियमित करने यह मददगार होता है।

- अगर आप गैस या एसिडिटी से परेशान हैं तो खाने के बाद थोड़ा गुड़ जरूर खाएं ऐसा करने से ये दोनों ही समस्याएं नहीं होती हैं। गुड़, सेंधा नमक, काला नमक मिलाकर चाटने से खट्टी डकारें आना बंद हो जाती हैं।

- ठंड में कई लोगों को कान के दर्द की समस्या होने लगती है। ऐसे में कान में सरसो का तेल डालने से व गुड़ और घी मिलाकर खाने से कान का दर्द ठीक हो जाता है।
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जनेऊ पहनने के लाभ

पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार

सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है|

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रमह सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है।
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।
Photo: जनेऊ पहनने के लाभ

पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है। इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अगि्न, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि ऎसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।

यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) शब्द के दो अर्थ हैं-
उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। जनेऊ पहनाने का संस्कार

सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

जनेऊ को लेकर लोगों में कई भ्रांति मौजूद है| लोग जनेऊ को धर्म से जोड़ दिए हैं जबकि सच तो कुछ और ही है| तो आइए जानें कि सच क्या है? जनेऊ पहनने से आदमी को लकवा से सुरक्षा मिल जाती है| क्योंकि आदमी को बताया गया है कि जनेऊ धारण करने वाले को लघुशंका करते समय दाँत पर दाँत बैठा कर रहना चाहिए अन्यथा अधर्म होता है| दरअसल इसके पीछे साइंस का गहरा रह्स्य छिपा है| दाँत पर दाँत बैठा कर रहने से आदमी को लकवा नहीं मारता| आदमी को दो जनेऊ धारण कराया जाता है, एक पुरुष को बताता है कि उसे दो लोगों का भार या ज़िम्मेदारी वहन करना है, एक पत्नी पक्ष का और दूसरा अपने पक्ष का अर्थात् पति पक्ष का| अब एक एक जनेऊ में 9 - 9 धागे होते हैं| जो हमें बताते हैं कि हम पर पत्नी और पत्नी पक्ष के 9 - 9 ग्रहों का भार ये ऋण है उसे वहन करना है| अब इन 9 - 9 धांगों के अंदर से 1 - 1 धागे निकालकर देंखें तो इसमें 27 - 27 धागे होते हैं| अर्थात् हमें पत्नी और पति पक्ष के 27 - 27 नक्षत्रों का भी भार या ऋण वहन करना है| अब अगर अंक विद्या के आधार पर देंखे तो 27+9 = 36 होता है, जिसको एकल अंक बनाने पर 36 = 3+6 = 9 आता है, जो एक पूर्ण अंक है| अब अगर इस 9 में दो जनेऊ की संख्या अर्थात 2 और जोड़ दें तो 9 + 2 = 11 होगा जो हमें बताता है की हमारा जीवन अकेले अकेले दो लोगों अर्थात् पति और पत्नी ( 1 और 1 ) के मिलने सेबना है | 1 + 1 = 2 होता है जो अंक विद्या के अनुसार चंद्रमा का अंक है और चंद्रमा हमें शीतलता प्रदान करता है| जब हम अपने दोनो पक्षों का ऋण वहन कर लेते हैं तो हमें अशीम शांति की प्राप्ति हो जाती है|

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत। अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें। इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है। दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है। मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है। दाएं कान को ब्रमह सूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है। यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है। यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दायां कान ब्रसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है।
बिस्तर में पेशाब करने वाले लडकों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है। किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडने से वह उसी क्षण नरम हो जाता है। अंडवृद्धि के सात कारण हैं। मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है। दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है। इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है।
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शक्कर-नमकः कितने खतरनाक ! Sugar-Salt: How dangerous!


वैज्ञानिक तकनीक के विकास के पूर्व कहीं भी शक्कर खाद्य पदार्थों में प्रयुक्त नहीं की जाती थी। मीठे फलों अथवा शर्करायुक्त पदार्थों की शर्करा कम-से-कम रूपान्तरित कर उपयुक्त मात्रा में प्रयुक्त की जाती थी। इसी कारण पुराने लोग दीर्घजीवी तथा जीवन के अंतिम क्षणों तक कार्यसक्षम बने रहते थे।

आजकल लोगों में भ्रांति बैठ गई है कि सफेद चीनी खाना सभ्य लोगों की निशानी है तथा गुड़, शीरा आदि सस्ते शर्करायुक्त खाद्य पदार्थ गरीबों के लिए हैं। यही कारण है कि अधिकांशतः उच्च या मध्यम वर्ग के लोगों में ही मधुमेह रोग पाया जाता है।
श्वेत चीनी शरीर को कोई पोषक तत्त्व नहीं देती अपितु उसके पाचन के लिए शरीर को शक्ति खर्चनी पड़ती है और बदले में शक्ति का भण्डार शून्य होता है। उलटे वह शरीर के तत्वों का शोषण करके महत्व के तत्वों का नाश करती है। सफेद चीनी इन्स्युलिन बनाने वाली ग्रंथि पर ऐसा प्रभाव डालती है कि उसमें से इन्स्युलिन बनाने की शक्ति नष्ट हो जाती है। फलस्वरूप मधुप्रमेह जैसे रोग होते हैं।
शरीर में ऊर्जा के लिए कार्बोहाइड्रेटस में शर्करा का योगदान प्रमुख है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि परिष्कृत शक्कर का ही उपयोग करें। शक्कर एक धीमा एवं श्वेत विष (Slow and White Poison) है जो लोग गुड़ छोड़कर शक्कर खा रहे हैं उनके स्वास्थ्य में भी निरन्तर गिरावट आई है ऐसी एक सर्वेक्षण रिपोर्ट है।
ब्रिटेन के प्रोफेसर ज्होन युडकीन चीनी को श्वेत विष कहते हैं। उन्होंने सिद्ध किया है कि शारीरिक दृष्टि से चीनी की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य जितना दूध, फल, अनाज और शाकभाजी उपयोग में लेता है उससे शरीर को जितनी चाहिए उतनी शक्कर मिल जाती है। बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि चीनी से त्वरित शक्ति मिलती है परन्तु यह बात बिल्कुल भ्रमजनित मान्यता है, वास्तविकता से बहुत दूर है।
चीनी में मात्र मिठास है और विटामिन की दृष्टि से यह मात्र कचरा ही है। चीनी खाने से रक्त में कोलेस्टरोल बढ़ जाता है जिसके कारण रक्तवाहिनियों की दीवारें मोटी हो जाती हैं। इस कारण से रक्तदबाव तथा हृदय रोग की शिकायत उठ खड़ी होती है। एक जापानी डॉक्टर ने 20 देशों से खोजकर यह बताया था कि दक्षिणी अफ्रीका में हब्शी लोगों में एवं मासाई और सुम्बरू जाति के लोगों में हृदयरोग का नामोनिशान भी नहीं, कारण कि वे लोग चीनी बिल्कुल नहीं खाते।
अत्यधिक चीनी खाने से हाईपोग्लुकेमिया नामक रोग होता है जिसके कारण दुर्बलता लगती है, झूठी भूख लगती है, काँपकर रोगी कभी बेहोश हो जाता है। चीनी के पचते समय एसिड उत्पन्न होता है जिसके कारण पेट और छोटी अँतड़ी में एक प्रकार की जलन होती है। कूटे हुए पदार्थ बीस प्रतिशत अधिक एसिडिटी करते हैं। चीनी खानेवाले बालक के दाँत में एसिड और बेक्टेरिया उत्पन्न होकर दाँतों को हानि पहुँचाते हैं। चमड़ी के रोग भी चीनी के कारण ही होते हैं। अमेरिका के डॉ. हेनिंग्ट ने शोध की है कि चॉकलेट में निहित टायरामीन नामक पदार्थ सिरदर्द पैदा करता है। चीनी और चॉकलेट आधाशीशी का दर्द उत्पन्न करती है।
अतः बच्चों को पीपरमेंट-गोली, चॉकलेट आदि शक्करयुक्त पदार्थों से दूर रखने की सलाह दी जाती है। अमेरिका में 98 प्रतिशत बच्चों को दाँतों का रोग है जिसमें शक्कर तथा इससे बने पदार्थ जिम्मेदार माने जाते हैं।
परिष्कृतिकरण के कारण शक्कर में किसी प्रकार के खनिज, लवण, विटामिन्स या एंजाइम्स शेष नहीं रह जाते। जिससे उसके निरन्तर प्रयोग से अनेक प्रकार की बीमारियाँ एवं विकृतियाँ पनपने लगती हैं।
अधिक शक्कर अथवा मीठा खाने से शरीर में कैल्शियम तथा फासफोरस का संतुलन बिगड़ता है जो सामान्यतया 5 और 2 के अनुपात में होता है। शक्कर पचाने के लिए शरीर में कैल्शियम की आवश्यकता होती है तथा इसकी कमी से आर्थराइटिस, कैंसर, वायरस संक्रमण आदि रोगों की संभावना बढ़ जाती है। अधिक मीठा खाने से शरीर के पाचन तंत्र में विटामिन बी काम्पलेक्स की कमी होने लगती है जो अपच, अजीर्ण, चर्मरोग, हृदयरोग, कोलाइटिस, स्नायुतन्त्र संबंधी बीमारियों की वृद्धि में सहायक होती है।
शक्कर के अधिक सेवन से लीवर में ग्लाइकोजिन की मात्रा घटती है जिससे थकान, उद्वग्निता, घबराहट, सिरदर्द, दमा, डायबिटीज आदि विविध व्याधियाँ घेरकर असमय ही काल के गाल में ले जाती हैं।
लन्दन मेडिकल कॉलेज के प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. लुईकिन अधिकांश हृदयरोग के लिए शक्कर को उत्तरदायी मानते हैं। वे शरीर की ऊर्जाप्राप्ति के लिए गुड़, खजूर, मुनक्का, अंगूर, शहद, आम, केला, मोसम्मी, खरबूजा, पपीता, गन्ना, शकरकंद आदि लेने का सुझाव देते

चीनी के संबंध में वैज्ञानिकों के मत -

"हृदयरोग के लिए चर्बी जितनी ही जिम्मेदार चीनी है। कॉफी पीने वाले को कॉफी इतनी हानिकारक नहीं जितनी उसमें चीनी हानि करती है।"
प्रो. ज्होन युडकीन, लंदन।
"श्वेत चीनी एक प्रकार का नशा है और शरीर पर वह गहरा गंभीर प्रभाव डालता है।"
प्रो. लिडा क्लार्क
"सफेद चीनी को चमकदार बनाने की क्रिया में चूना, कार्बन डायोक्साइड, कैल्शियम, फास्फेट, फास्फोरिक एसिड, अल्ट्रामरिन ब्लू तथा पशुओं की हड्डियों का चूर्ण उपयोग में लिया जाता है। चीनी को इतना गर्म किया जाता है कि प्रोटीन नष्ट हो जाता है। अमृत मिटकर विष बन जाता है।
सफेद चीनी लाल मिर्च से भी अधिक हानिकारक है। उससे वीर्य पानी सा पतला होकर स्वप्नदोष, रक्तदबाव, प्रमेह और मूत्रविकार का जन्म होता है। वीर्यदोष से ग्रस्त पुरुष और प्रदररोग से ग्रस्त महिलाएँ चीनी का त्याग करके अदभुत लाभ उठाती हैं।"
डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद
"भोजन में से चीनी को निकाले बिना दाँतों के रोग कभी न मिट सकेंगे।"
डॉ. फिलिप, मिचिगन विश्वविद्यालय
"बालक के साथ दुर्व्यवहार करने वाला माता-पिता को यदि दण्ड देना उचित समझा जाता हो तो बच्चों को चीनी और चीनी से बनी मिठाइयाँ तथा आइसक्रीम खिलाने वाले माता पिता को जेल मे ही डाल दिना चाहिए।"
फ्रेंक विलसन
इसी प्रकार नमक (सोडियम क्लोराइड) का प्रचलन भोजन में दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। चटपटे और मसालेदार खाद्य पदार्थों का सेवन नित्य-नियमितरूप से बढ़ता जा रहा है। शक्कर की तरह नमक भी हमारे शरीर के लिए अत्यधिक हानिकारक है। यह शरीर के लिए अनिवार्य है लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक लवण की मात्रा तो हमें प्राकृतिक रूप से खाद्य पदार्थों द्वारा ही मिल जाती है। हमारे द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली हरी सब्जियों से, अंकुरित बीजों आदि से हमारे शरीर में लवण की पूर्ति स्वतः ही हो जाती है।
कुछ वर्षों पूर्व ही एक ख्यातिप्राप्त समाचार पत्र ने अपने आलेख में प्रकाशित कर इस कथन की पुष्टि की थी कि नमक शरीर के लिए जहर से भी अधिक खतरनाक होता है। चिकित्सा विज्ञान के शोधकर्ताओं ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है कि रक्तचाप के रोगों का प्रमुख कारण ही नमक है, इसलिए हाई ब्लडप्रेशरवाले रोगियों को भोजन में नमक पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है। नमक छोड़नेवाले इस रोग से मुक्त हो जाते हैं और जो नहीं छोड़ते वे इससे त्रस्त रहते हैं।
एक सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि सुदूर वन्य एवं पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले अनेक आदिवासियों के आहारक्रम में नमक का कोई स्थान नहीं है। आधुनिक सुविधाओं से वंचित् वे लोग स्वास्थ्य की दृष्टि से आज भी हमसे अधिक हृष्ट-पुष्ट एवं स्वस्थ हैं। शक्कर व नमक की पूर्ति वे खाद्य पदार्थों से ही कर लेते हैं।
नमक और शक्कर के अधिक सेवन से शरीर की रोगप्रतिकारक क्षमता का ह्रास होता है तथा उसे अनेक रोगों से जूझना पड़ता है।
अतः जिन्हें दीर्घायु होना है, सदैव स्वस्थ व प्रसन्न बने रहना है, साधनामय जीवन बिताना है, ऐसे लोग शक्कर एवं नमक को पूर्णरूपेण त्याग देवें अथवा सप्ताह में एक या दो बार नमक-शक्कररहित आहार लेते हुए, दैनिक जीवन में इनका अत्यल्प सेवन करें।
साधक परिवारों में खाद्य पदार्थों में नमक-शक्कर का अत्यन्त अल्प सेवन करना चाहिए। इससे आरोग्यता, प्रसन्नता बनी रहेगी तथा ईश्वरभक्ति में अधिक मदद मिलेगी।
शक्कर-नमकः कितने खतरनाक ! ----------
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वैज्ञानिक तकनीक के विकास के पूर्व कहीं भी शक्कर खाद्य पदार्थों में प्रयुक्त नहीं की जाती थी। मीठे फलों अथवा शर्करायुक्त पदार्थों की शर्करा कम-से-कम रूपान्तरित कर उपयुक्त मात्रा में प्रयुक्त की जाती थी। इसी कारण पुराने लोग दीर्घजीवी तथा जीवन के अंतिम क्षणों तक कार्यसक्षम बने रहते थे।

आजकल लोगों में भ्रांति बैठ गई है कि सफेद चीनी खाना सभ्य लोगों की निशानी है तथा गुड़, शीरा आदि सस्ते शर्करायुक्त खाद्य पदार्थ गरीबों के लिए हैं। यही कारण है कि अधिकांशतः उच्च या मध्यम वर्ग के लोगों में ही मधुमेह रोग पाया जाता है।
श्वेत चीनी शरीर को कोई पोषक तत्त्व नहीं देती अपितु उसके पाचन के लिए शरीर को शक्ति खर्चनी पड़ती है और बदले में शक्ति का भण्डार शून्य होता है। उलटे वह शरीर के तत्वों का शोषण करके महत्व के तत्वों का नाश करती है। सफेद चीनी इन्स्युलिन बनाने वाली ग्रंथि पर ऐसा प्रभाव डालती है कि उसमें से इन्स्युलिन बनाने की शक्ति नष्ट हो जाती है। फलस्वरूप मधुप्रमेह जैसे रोग होते हैं।
शरीर में ऊर्जा के लिए कार्बोहाइड्रेटस में शर्करा का योगदान प्रमुख है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि परिष्कृत शक्कर का ही उपयोग करें। शक्कर एक धीमा एवं श्वेत विष (Slow and White Poison) है जो लोग गुड़ छोड़कर शक्कर खा रहे हैं उनके स्वास्थ्य में भी निरन्तर गिरावट आई है ऐसी एक सर्वेक्षण रिपोर्ट है।
ब्रिटेन के प्रोफेसर ज्होन युडकीन चीनी को श्वेत विष कहते हैं। उन्होंने सिद्ध किया है कि शारीरिक दृष्टि से चीनी की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य जितना दूध, फल, अनाज और शाकभाजी उपयोग में लेता है उससे शरीर को जितनी चाहिए उतनी शक्कर मिल जाती है। बहुत से लोग ऐसा मानते हैं कि चीनी से त्वरित शक्ति मिलती है परन्तु यह बात बिल्कुल भ्रमजनित मान्यता है, वास्तविकता से बहुत दूर है।
चीनी में मात्र मिठास है और विटामिन की दृष्टि से यह मात्र कचरा ही है। चीनी खाने से रक्त में कोलेस्टरोल बढ़ जाता है जिसके कारण रक्तवाहिनियों की दीवारें मोटी हो जाती हैं। इस कारण से रक्तदबाव तथा हृदय रोग की शिकायत उठ खड़ी होती है। एक जापानी डॉक्टर ने 20 देशों से खोजकर यह बताया था कि दक्षिणी अफ्रीका में हब्शी लोगों में एवं मासाई और सुम्बरू जाति के लोगों में हृदयरोग का नामोनिशान भी नहीं, कारण कि वे लोग चीनी बिल्कुल नहीं खाते।
अत्यधिक चीनी खाने से हाईपोग्लुकेमिया नामक रोग होता है जिसके कारण दुर्बलता लगती है, झूठी भूख लगती है, काँपकर रोगी कभी बेहोश हो जाता है। चीनी के पचते समय एसिड उत्पन्न होता है जिसके कारण पेट और छोटी अँतड़ी में एक प्रकार की जलन होती है। कूटे हुए पदार्थ बीस प्रतिशत अधिक एसिडिटी करते हैं। चीनी खानेवाले बालक के दाँत में एसिड और बेक्टेरिया उत्पन्न होकर दाँतों को हानि पहुँचाते हैं। चमड़ी के रोग भी चीनी के कारण ही होते हैं। अमेरिका के डॉ. हेनिंग्ट ने शोध की है कि चॉकलेट में निहित टायरामीन नामक पदार्थ सिरदर्द पैदा करता है। चीनी और चॉकलेट आधाशीशी का दर्द उत्पन्न करती है।
अतः बच्चों को पीपरमेंट-गोली, चॉकलेट आदि शक्करयुक्त पदार्थों से दूर रखने की सलाह दी जाती है। अमेरिका में 98 प्रतिशत बच्चों को दाँतों का रोग है जिसमें शक्कर तथा इससे बने पदार्थ जिम्मेदार माने जाते हैं।
परिष्कृतिकरण के कारण शक्कर में किसी प्रकार के खनिज, लवण, विटामिन्स या एंजाइम्स शेष नहीं रह जाते। जिससे उसके निरन्तर प्रयोग से अनेक प्रकार की बीमारियाँ एवं विकृतियाँ पनपने लगती हैं।
अधिक शक्कर अथवा मीठा खाने से शरीर में कैल्शियम तथा फासफोरस का संतुलन बिगड़ता है जो सामान्यतया 5 और 2 के अनुपात में होता है। शक्कर पचाने के लिए शरीर में कैल्शियम की आवश्यकता होती है तथा इसकी कमी से आर्थराइटिस, कैंसर, वायरस संक्रमण आदि रोगों की संभावना बढ़ जाती है। अधिक मीठा खाने से शरीर के पाचन तंत्र में विटामिन बी काम्पलेक्स की कमी होने लगती है जो अपच, अजीर्ण, चर्मरोग, हृदयरोग, कोलाइटिस, स्नायुतन्त्र संबंधी बीमारियों की वृद्धि में सहायक होती है।
शक्कर के अधिक सेवन से लीवर में ग्लाइकोजिन की मात्रा घटती है जिससे थकान, उद्वग्निता, घबराहट, सिरदर्द, दमा, डायबिटीज आदि विविध व्याधियाँ घेरकर असमय ही काल के गाल में ले जाती हैं।
लन्दन मेडिकल कॉलेज के प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ. लुईकिन अधिकांश हृदयरोग के लिए शक्कर को उत्तरदायी मानते हैं। वे शरीर की ऊर्जाप्राप्ति के लिए गुड़, खजूर, मुनक्का, अंगूर, शहद, आम, केला, मोसम्मी, खरबूजा, पपीता, गन्ना, शकरकंद आदि लेने का सुझाव देते

चीनी के संबंध में वैज्ञानिकों के मत -

"हृदयरोग के लिए चर्बी जितनी ही जिम्मेदार चीनी है। कॉफी पीने वाले को कॉफी इतनी हानिकारक नहीं जितनी उसमें चीनी हानि करती है।"
प्रो. ज्होन युडकीन, लंदन।
"श्वेत चीनी एक प्रकार का नशा है और शरीर पर वह गहरा गंभीर प्रभाव डालता है।"
प्रो. लिडा क्लार्क
"सफेद चीनी को चमकदार बनाने की क्रिया में चूना, कार्बन डायोक्साइड, कैल्शियम, फास्फेट, फास्फोरिक एसिड, अल्ट्रामरिन ब्लू तथा पशुओं की हड्डियों का चूर्ण उपयोग में लिया जाता है। चीनी को इतना गर्म किया जाता है कि प्रोटीन नष्ट हो जाता है। अमृत मिटकर विष बन जाता है।
सफेद चीनी लाल मिर्च से भी अधिक हानिकारक है। उससे वीर्य पानी सा पतला होकर स्वप्नदोष, रक्तदबाव, प्रमेह और मूत्रविकार का जन्म होता है। वीर्यदोष से ग्रस्त पुरुष और प्रदररोग से ग्रस्त महिलाएँ चीनी का त्याग करके अदभुत लाभ उठाती हैं।"
डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद
"भोजन में से चीनी को निकाले बिना दाँतों के रोग कभी न मिट सकेंगे।"
डॉ. फिलिप, मिचिगन विश्वविद्यालय
"बालक के साथ दुर्व्यवहार करने वाला माता-पिता को यदि दण्ड देना उचित समझा जाता हो तो बच्चों को चीनी और चीनी से बनी मिठाइयाँ तथा आइसक्रीम खिलाने वाले माता पिता को जेल मे ही डाल दिना चाहिए।"
फ्रेंक विलसन
इसी प्रकार नमक (सोडियम क्लोराइड) का प्रचलन भोजन में दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। चटपटे और मसालेदार खाद्य पदार्थों का सेवन नित्य-नियमितरूप से बढ़ता जा रहा है। शक्कर की तरह नमक भी हमारे शरीर के लिए अत्यधिक हानिकारक है। यह शरीर के लिए अनिवार्य है लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक लवण की मात्रा तो हमें प्राकृतिक रूप से खाद्य पदार्थों द्वारा ही मिल जाती है। हमारे द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली हरी सब्जियों से, अंकुरित बीजों आदि से हमारे शरीर में लवण की पूर्ति स्वतः ही हो जाती है।
कुछ वर्षों पूर्व ही एक ख्यातिप्राप्त समाचार पत्र ने अपने आलेख में प्रकाशित कर इस कथन की पुष्टि की थी कि नमक शरीर के लिए जहर से भी अधिक खतरनाक होता है। चिकित्सा विज्ञान के शोधकर्ताओं ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है कि रक्तचाप के रोगों का प्रमुख कारण ही नमक है, इसलिए हाई ब्लडप्रेशरवाले रोगियों को भोजन में नमक पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है। नमक छोड़नेवाले इस रोग से मुक्त हो जाते हैं और जो नहीं छोड़ते वे इससे त्रस्त रहते हैं।
एक सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ कि सुदूर वन्य एवं पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले अनेक आदिवासियों के आहारक्रम में नमक का कोई स्थान नहीं है। आधुनिक सुविधाओं से वंचित् वे लोग स्वास्थ्य की दृष्टि से आज भी हमसे अधिक हृष्ट-पुष्ट एवं स्वस्थ हैं। शक्कर व नमक की पूर्ति वे खाद्य पदार्थों से ही कर लेते हैं।
नमक और शक्कर के अधिक सेवन से शरीर की रोगप्रतिकारक क्षमता का ह्रास होता है तथा उसे अनेक रोगों से जूझना पड़ता है।
अतः जिन्हें दीर्घायु होना है, सदैव स्वस्थ व प्रसन्न बने रहना है, साधनामय जीवन बिताना है, ऐसे लोग शक्कर एवं नमक को पूर्णरूपेण त्याग देवें अथवा सप्ताह में एक या दो बार नमक-शक्कररहित आहार लेते हुए, दैनिक जीवन में इनका अत्यल्प सेवन करें।
साधक परिवारों में खाद्य पदार्थों में नमक-शक्कर का अत्यन्त अल्प सेवन करना चाहिए। इससे आरोग्यता, प्रसन्नता बनी रहेगी तथा ईश्वरभक्ति में अधिक मदद मिलेगी।
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चाकलेट के दुष्परिणाम


चाकलेट ह्रदय, मस्तिष्क, मन व बुद्धि पर विपरीत प्रभाव डालता है | इसका सेवन कई घातक बीमारियों का कारण है | इसमें पाये जानेवाले हानिकारक तत्त्व है :

(१) कैफीन : व्यक्ति को चाकलेट खाने के अधीन करता है | इससे चित्त अधिक विचलित होता है | नींद बिगड़ती है | सिरदर्द व आँतों के विकार उत्पन्न होते है | ह्रदय, रक्त-संचरण, ग्रंथियों से संबंधित तकलीफें, तंत्रिका-विकार, अस्थि-भंगुरता (osteoporosis), महिलाओं में प्रसव-संबंधी तकलीफें तथा अन्य रोग होते हैं|

(२) सीसा ( Lead ) : यह एक अत्यंत हानिकारक खनिज है, जो बोद्धिक विकास रोकता है | इससे बुद्धि -गुणांक ( IQ ) कम होता है | ह्रदय की गति में अतिरिक्त वृद्धी होती है |

(३) थियोब्रोमाइन : असामान्य ग्रंथि-वृद्धि, अवसाद, बेचैनी, अनिंद्रा, पाचनतंत्र के रोग और खुजली जैसे कई रोग होते हैं |

(४) वेसोएक्टिव एमाइन्स : मस्तिष्क की रक्तवाहिनियों को प्रसारित कर सिरदर्द कराते हैं |

(५) सेच्युरेटेड फेट्स व अतिरिक्त शर्करा : कोलेस्ट्राल व ब्लडप्रेशर बढ़ाते हैं | ह्रदय की रक्तवाहिनियों को अवरुद्ध कर ह्रदयरोग उत्पन्न करते हैं | इनसे मोटापा, दाँतों के रोग व कील-मुंहासे होते हैं |

(६) थियोफालीन : पेट की तकलीफें व तंत्रिका-विकार होते हैं |

( ७) टिरपटोंफेन : शुरू में ख़ुशी व स्फूर्ति का एहसास दिलाकर बाद में थकाता है | अत: हानिकारक द्रव्यों से युक्त ऐसे चाकलेट का सेवन करने की अपेक्षा स्वास्थ्य, बुद्धि व बलवर्धक तुलसी-गोलियों का सेवन करें |



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