विचारों के अनुरूप ही मनुष्य की स्थिति और गति होती है। श्रेष्ठ विचार सौभाग्य का द्वार हैं, जबकि निकृष्ट विचार दुर्भाग्य का,आपको इस ब्लॉग पर प्रेरक कहानी,वीडियो, गीत,संगीत,शॉर्ट्स, गाना, भजन, प्रवचन, घरेलू उपचार इत्यादि मिलेगा । The state and movement of man depends on his thoughts. Good thoughts are the door to good fortune, while bad thoughts are the door to misfortune, you will find moral story, videos, songs, music, shorts, songs, bhajans, sermons, home remedies etc. in this blog.
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
हर समस्या का निदान - पत्नी पुराण
शेर की शादी में चूहे को देखकर हाथी ने पूछा - "भाई तुम इस शादी में किस हैसियत से आये हो ?" चूहा बोला, " जिस शेर की शादी हो रही है, वह मेरा छोटा भाई है ।" हाथी का मुँह खुला का खुला रह गया, बोला, "शेर और तुम्हारा छोटा भाई ? " चूहा - "क्या कहूँ ? शादी के पहले मैं भी शेर ही था ।" यह तो हुई मजाक की बात, लेकिन पुराने समय से ही दुनिया का मोह छोड़कर, सच की तलाश में भटकनेवाले भगोडों को सही रास्ते पर लाने के लिए, शादी कराने का रिवाज हमारे समाज में रहा है । कई बिगडैल कुँवारों को इसी पद्धति से आज भी रास्ते पर लाया जाता है । हम सबने कई बार देखा-सुना है कि तथाकथित सत्य की तलाश में भटकने को तत्पर आत्मा, शादी के बाद पत्नी को प्रसन्न करने के लिए लगातार भटकती रहती है । कहते भी हैं कि "शादी वह संस्था है जिसमें मर्द अपनी 'बैचलर डिग्री' खो देता है और स्त्री 'मास्टर डिग्री' हासिल कर लेती है ।"
प्रायः शादी के पहले की जिंदगी पत्नी को पाने के लिए होती है और शादी के बाद की जिंदगी पत्नी को खुश रखने के लिए । तकरीबन हर पति के लिए पत्नी को खुश रखना एक अहम और ज्वलंत समस्या होती है और यह समस्या चूँकि सर्वव्यापी है अतः इसे हम चाहें तो राष्ट्रीय (या अंतर्राष्ट्रीय) समस्या भी कह सकते हैं । लगभग प्रत्येक पति दिन-रात इसी समस्या के समाधान में लगा रहता है, पर कामयाबी बिरलों के भाग्य में ही होती है । सच तो यह है कि आदमी की पूरी जिंदगी पत्नी को ही समर्पित रहती है और पत्नी है कि खुश होने का नाम ही नहीं लेती । अगर खुश हो जाएगी तो उसका बीवीपन खत्म हो जाएगा, फिर उसके आगे-पीछे कौन घूमेगा? किसी ने ठीक ही तो कहा है कि "शादी और प्याज में कोई खास अन्तर नहीं - आनंद और आँसू साथ-साथ नसीब होते हैं ।"
पत्नी को खुश रखना इस सभ्यता की संभवतः सबसे प्राचीन समस्या है । सभी कालखंडों में पति अपनी पत्नी को खुश रखने के आधुनिकतम तरीकों का इस्तेमाल करता रहा है और दूसरी ओर पत्नी भी नाराज होने की नई-नई तरकीबों का ईजाद करती रहती है । एक बार एक कामयाब और संतुष्ट-से दिखाई देनेवाले पति से मैंने पूछा- 'क्यों भाई पत्नी को खुश रखने का उपाय क्या है ?' वह नाराज होकर बोला- 'यह प्रश्न ही गलत है । यह सवाल यूँ होना चाहिए था कि पत्नी को भी कोई खुश रख सकता है क्या ?' उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि "शादी और युद्ध में सिर्फ एक अन्तर है कि शादी के बाद आप दुश्मन के बगल में सो सकते हैं ।"
जिस पत्नी को सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हों, वह इस बात को लेकर नाराज रहती है कि उसका पति उसे समय ही नहीं देता । अब बेचारा पति करे तो क्या करे ? सुख-सुविधाएँ जुटाए या पत्नी को समय दे ? इसके बरअक्स कई पत्नियों को यह शिकायत रहती है कि मेरे पति आफिस के बाद हमेशा घर में ही डटे रहते हैं । इसी प्रकार के आदर्श-पतिनुमा एक इन्सान(?) से जब मैंने पूछा कि 'पत्नी को खुश रखने का क्या उपाय है ?' तो उसने तपाक से उत्तर दिया-'तलाक ।' मुझे लगा कि कहीं यह आदमी मेरी ही बात तो नहीं कह रहा है ? मैं सोचने लगा " 'विवाह' और 'विवाद' में केवल एक अक्षर का अन्तर है शायद इसलिए दोनों में इतना भावनात्मक साहचर्य और अपनापन है ।"
पतिव्रता नारियों का युग अब प्रायः समाप्ति की ओर है और पत्नीव्रत पुरुषों की संख्या, प्रभुत्व और वर्चस्व लगातार बढ़त की ओर है । यदि इसका सर्वेक्षण कराया जाय तो प्रायः हर दूसरा पति आपको पत्नीव्रत मिलेगा । मैंने सोचा क्यों न किसी अनुभवी पत्नीव्रत पति से मुलाकात करके पत्नी को खुश रखने का सूत्र सीखा जाए । सौभाग्य से इस प्रकार के एक महामानव से मुलाक़ात हो ही गई, जो इस क्षेत्र में पर्याप्त तजुर्बेकार थे । मैंने अपनी जिज्ञासा जाहिर की तो उन्होंने जो भी बताया, उसे अक्षरशः नीचे लिखने जा रहा हूँ, ताकि हर उस पति का कल्याण हो सके, जो पत्नी-प्रताड़ना से परेशान हैं -
१ - ब्रह्ममुहुर्त में उठकर पूरे मनोयोग से चाय बनाकर पत्नी के लिए 'बेड टी' का प्रबंध करें । इससे आपकी पत्नी का 'मूड नार्मल' रहेगा और बात-बात पर पूरे दिन आपको उनकी झिडकियों से निजात मिलेगी । वैसे भी, किसी भी पत्नी के लिए पति से अच्छा और विश्वासपात्र नौकर मिलना मुश्किल है, इसलिए इसे बोझस्वरूप न लें, बल्कि सहजता से युगधर्म की तरह स्वीकार करें । कहा भी गया है कि "सर्कस की तरह विवाह में भी तीन रिंग होते हैं - एंगेजमेंट रिंग, वेडिंग रिंग और सफरिंग ।"
२ - अगर आपका वास्ता किसी तेज-तर्रार किस्म की पत्नी से है तो उनके तेज में अपना तेज (अगर अबतक बचा हो तो) सहर्ष मिलाकर स्वयं निस्तेज हो जाएँ । क्योंकि कोई भी पत्नी तेज-तर्रार पति की वनिस्पत ढुलमुल पति को ही ज्यादा पसंद करती है । इसका यह फायदा होगा कि आप पत्नी से गैरजरूरी टकराव से बच जाएँगे, अब तो जो भी कहना होगा, पत्नी कहेगी । आपको तो बस आत्मसमर्पण की मुद्रा अपनानी है ।
३- आपकी पत्नी कितनी ही बदसूरत क्यों न हो, आप प्रयास करके, मीठी-मीठी बातों से यह यकीन दिलाएँ कि विश्व-सुंदरी उनसे उन्नीस पड़ती है । पत्नी द्वारा बनाया गया भोजन (हलाँकि यह सौभाग्य कम ही पतियों को प्राप्त है) चाहे कितना ही बेस्वाद क्यों न हो, उसे पाकशास्त्र की खास उपलब्धि बताते हुए पानी पी-पीकर निवाले को गले के नीचे उतारें । ध्यान रहे, ऐसा करते समय चेहरे पर शिकायत के भाव उभारना वर्जित है, क्योंकि "विवाह वह प्रणाली है, जो अकेलापन महसूस किए बिना अकेले जीने की सामर्थ्य प्रदान करती है ।"
४ - पत्नी के मायकेवाले यदि रावण की तरह भी दिखाई दे तो भी अपने वाकचातुर्य और प्रत्यक्ष क्रियाकलाप से उन्हें 'रामावतार' सिद्ध करने की कोशिश में सतत सचेष्ट रहना चाहिए ।
५ - आप जो कुछ कमाएँ, उसे चुपचाप 'नेकी कर दरिया में डाल' की नीति के अनुसार बिल्कुल सहज समर्पित भाव से अपनी पत्नी के करकमलों में अर्पित कर दें और प्रतिदिन आफिस जाते समय बच्चों की तरह गिडगिडाकर दो-चार रूपयों की माँग करें । पत्नी समझेगी कि मेरा पति कितना बकलोल है कि कमाता खुद है और रूपये-दो रूपयों के लिए रोज मेरी खुशामद करता रहता है । एक हालिया सर्वे के अनुसार लगभग पचहत्तर प्रतिशत पति इसी श्रेणी में आते हैं । मैं अपील करता हूँ कि शेष पच्चीस प्रतिशत भी इस विधि को अपनाकर राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित हो जाएँ और सुरक्षित जीवन-यापन करें ।
अंत में उस अनुभवी महामानव ने अपने इस प्रवचन के सार-संक्षेप के रूप में यह बताया कि उक्त विधियों को अपनाकर आप भले दुखी हो जाएँ, लेकिन आपकी पत्नी प्रसन्न रहेगी और उनकी मेहरबानी के फूल आप पर बरसते रहेंगे । किसी ने बिलकुल ठीक कहा है कि "प्यार अंधा होता है और शादी आँखें खोल देती है ।" मेरी भी आँखें खुल गईं । कलम घिसने का रोग जबसे लगा, साहित्यिक मित्रों की आवाजाही घर पर बढ़ गई । चाय-पानी के चक्कर में जब पत्नी मुझे पूतना की तरह देखती तो मेरी रूह काँप जाती थी । मैंने इससे निजात पाने का रास्ता ढूँढ ही लिया ।
आपने फूल कई रंगों के देखे होंगे, लेकिन साँवले या काले रंग के फूल प्रायः नहीं दिखते । मैंने अपने नाम 'श्यामल' के आगे पत्नी का नाम 'सुमन' जोड़ लिया । हमारे साहित्यिक मित्र मुझे 'सुमनजी-सुमनजी' कहकर बुलाते हुए घर आते । धीरे-धीरे नम्रतापूर्वक मैंने अपनी पत्नी को विश्वास दिलाने में आश्चर्यजनक रूप से सफलता पाई कि मेरे उक्त क्रियाकलाप से आखिर उनका ही नाम तो यशस्वी होता है । अब मेरे घर में ऐसे मित्रों भले ही स्वागत-सत्कार कम होता हो, पर मैं निश्चिंत हूँ कि अब उनका अपमान नहीं होगा । किसी ने ठीक ही कहा है कि "विवाह वह साहसिक-कार्य है जो कोई बुजदिल पुरुष ही कर सकता है ।"
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
रुद्राक्ष की महिमा
रुद्राक्ष की महिमा
एक बार देवर्षि नारद ने भगवान नारायण से पूछा-“दयानिधान! रुद्राक्ष को श्रेष्ठ क्यों माना जाता है? इसकी क्या महिमा है? सभी के लिए यह पूजनीय क्यों है? रुद्राक्ष की महिमा को आप विस्तार से बताकर मेरी जिज्ञासा शांत करें।” देवर्षि नारद की बात सुनकर भगवान् नारायण बोले-“हे देवर्षि! प्राचीन समय में यही प्रश्न कार्तिकेय ने भगवान् महादेव से पूछा था। तब उन्होंने जो कुछ बताया था, वही मैं तुम्हें बताता हूँ:
“एक बार पृथ्वी पर त्रिपुर नामक एक भयंकर दैत्य उत्पन्न हो गया। वह बहुत बलशाली और पराक्रमी था। कोई भी देवता उसे पराजित नहीं कर सका। तब ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र आदि देवता भगवान शिव की शरण में गए और उनसे रक्षा की प्रार्थना लगने लगे।
भगवान शिव के पास ‘अघोर’ नाम का एक दिव्य अस्त्र है। वह अस्त्र बहुत विशाल और तेजयुक्त है। उसे सम्पूर्ण देवताओं की आकृति माना जाता है। त्रिपुर का वध करने के उद्देश्य से शिव ने नेत्र बंद करके अघोर अस्त्र का चिंतन किया। अधिक समय तक नेत्र बंद रहने के कारण उनके नेत्रों से जल की कुछ बूंदें निकलकर भूमि पर गिर गईं। उन्हीं बूंदों से महान रुद्राक्ष के वृक्ष उत्पन्न हुए। फिर भगवान शिव की आज्ञा से उन वृक्षों पर रुद्राक्ष फलों के रूप में प्रकट हो गए।
ये रुद्राक्ष अड़तीस प्रकार के थे। इनमें कत्थई वाले बारह प्रकार के रुद्राक्षों की सूर्य के नेत्रों से, श्वेतवर्ण के सोलह प्रकार के रुद्राक्षों की चन्द्रमा के नेत्रों से तथा कृष्ण वर्ण वाले दस प्रकार के रुद्राक्षों की उत्पत्ति अग्नि के नेत्रों से मानी जाती है। ये ही इनके अड़तीस भेद हैं।
ब्राह्मण को श्वेतवर्ण वाले रुद्राक्ष, क्षत्रिय को रक्तवर्ण वाले रुद्राक्ष, वैश्य को मिश्रित रंग वाले रुद्राक्ष और शूद्र को कृष्णवर्ण वाले रुद्राक्ष धारण करने चाहिए। रुद्राक्ष धारण करने पर बड़ा पुण्य प्राप्त होता है। जो मनुष्य अपने कण्ठ में बत्तीस, मस्तक पर चालीस, दोनों कानों में छः-छः, दोनों हाथों में बारह-बारह, दोनों भुजाओं में सोलह-सोलह, शिखा में एक और वक्ष पर एक सौ आठ रुद्राक्षों को धारण करता है, वह साक्षात भगवान नीलकण्ठ समझा जाता है।
उसके जीवन में सुख-शांति बनी रहती है। रुद्राक्ष धारण करना भगवान शिव के दिव्य-ज्ञान को प्राप्त करने का साधन है। सभी वर्ण के मनुष्य रुद्राक्ष धारण कर सकते हैं। रुद्राक्ष धारण करने वाला मनुष्य समाज में मान-सम्मान पाता है।
रुद्राक्ष के पचास या सत्ताईस मनकों की माला बनाकर धारण करके जप करने से अनन्त फल की प्राप्ति होती है। ग्रहण, संक्रांति, अमावस्या और पूर्णमासी आदि पर्वों और पुण्य दिवसों पर रुद्राक्ष अवश्य धारण किया करें। रुद्राक्ष धारण करने वाले के लिए मांस-मदिरा आदि पदार्थों का सेवन वर्जित होता है।”
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
मानवता ही सबसे बड़ा धन है
खरा सौदा
किसी गांव में एक साहूकार रहता था। उसके तीन बेटे थे-रामलाल, श्यामलाल, मोहन कुमार। साहूकार के पास रुपए पैसे की कमी न थीं। किंतु अब उसकी उम्र बढ़ रही थी। वह अधिक मेहनत नहीं कर पाता था। इसलिए उसने सोचा कि चलो अपना व्यापार बेटों को सौंप दूं।
साहूकार चाहता था कि उसका धन गलत हाथों में पड़कर बर्बाद न हो जाए। इसलिए उसने अपने बेटों की परीक्षा लेने का मन बनाया। उसने बातों-बातों में कहा-‘ईश्वर तो सब जगह रहता है। वह तुम्हारी रक्षा करेगा। तुम लोग मुझे ऐसी जगह से एक-एक अशर्फी लाकर दो, जहां कोई देख न रहा हो।’
तीनों बेटे पिता की बात सुनकर चल पड़े। रामलाल को पता था के पिता जी पैसा कहां रखते हैं? जब साहूकार सो रहा था तो उसने एक अशर्फी चुपके से उठा ली। इसी तरह श्यामलाल ने मां की संदूकची में से अशर्फी चुराई। लेकिन मोहन को पिता की बात भूली न थी।
उसने सोचा-‘पिता जी ने कहा था कि ईश्वर सब जगह रहता है फिर तो वह मेरी चोरी देख लेगा?’ उसने कहीं से भी अशर्फी नहीं ली। दोनों भाइयों ने बड़ी शान से अपनी अक्लमंदी पिता को बताई। जब मोहन ने अपनी बात बताई तो साहूकार ने उसे गले से लगा लिया। मोहन पिता जी की परीक्षा में खरा उतरा।
फिर साहूकार ने तीनों बेटों को एक-एक रुपया देकर कहा, ‘जाओ, ऐसा खरा सौदा करना कि माल से कमरा भर जाए?’ पहला बेटा रामलाल बाजार गया। बहुत दिमाग लड़ाने के बाद उसने एक रुपये का भूसा खरीद लिया। भूसे को फैलाकर कमरे में बिखेर दिया। कमरा भर गया। अपने उत्साह में उसने राह में बैठे भूखे भिखारी को लात मार दी।
श्यामलाल को भी राह में वही भिखारी मिला। उसे भी खरा सौदा करने की जल्दी थी। उसने भिखारी को दुत्कार दिया। एक रुपए की रुई खरीदी और बैलगाड़ी में लदवाकर घर ले गया। कमरे में रूई ठूंस दी उसका कमरा भी लद गया।
तब मोहन ने बचे हुए पैसों से एक माचिस व मोमबत्ती खरीद ली। जब साहूकार देखने आया तो उसने वही मोमबत्ती अपने कमरे में जला दी। सारा कमरा रोशनी से जगमगा उठा। दरअसल, साहूकार ही भिखारी बनकर राह में बैठा, बेटों की परीक्षा ले रहा था।
उसे बड़े दो बेटों से बहुत निराशा हुई। वह मोहन से बोला-‘वाह बेटा! तुमने किया है खरा सौदा।’
इंसान वही है, जो दूसरों के दुख पहले दूर करे और बाद में अपने लिए सोचे। साहूकार ने मोहन को अपनी सारी संपत्ति सौंप दी।
मोहन ने कहा-‘पिता जी, हम तीनों भाई मिलकर आपके काम ही देख-रेख करेंगे।’ साहूकार की आंखें खुशी से भर आईं। बड़े भाइयों ने भी मोहन से मानवता की सीख ली और सब मिल-जुलकर रहने लगे।
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जय श्री राम
लालच ने ली ब्राह्मण के बेटे की जान
लोभ का कुफल
किसी नगर में हरिदत्त नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी खेती साधारण ही थी, अतः अधिकांश समय वह खाली ही रहता था। एक बार ग्रीष्म ऋतु में वह इसी प्रकार अपने खेत पर वृक्ष की शीतल छाया में लेटा हुआ था।
सोए-सोए उसने अपने समीप ही सर्प का बिल देखा, उस पर सर्प फन फैलाए बैठा था। उसको देखकर वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि हो-न-हो, यही मेरे क्षेत्र का देवता है। मैंने कभी इसकी पूजा नहीं की। अतः मैं आज अवश्य इसकी पूजा करूंगा। यह विचार मन में आते ही वह उठा और कहां से जाकर दूध मांग लाया।
उसे उसने एक मिट्टी के सकोरे में रखा और बिल के समीप जाकर बोला, “हे क्षेत्रपाल! आज तक मुझे आपके विषय में मालूम नहीं था, इसलिए मैं किसी प्रकार की पूजा-अर्चना नहीं कर पाया। आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे धन-धान्य से समृद्ध कीजिए।”
इस प्रकार प्रार्थना करके उसने उस दूध को वहीं पर रख दिया और फिर अपने घर को लौट गया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब वह अपने खेत पर आया तो सर्वप्रथम उसी स्थान पर गया। वहां उसने देखा कि जिस सकोरे में उसने दूध रखा था उसमें एक स्वर्णमुद्रा रखी हुई है। उसने उस मुद्रा को उठाकर रख लिया। उस दिन भी उसने उसी प्रकार सर्प की पूजा की और उसके लिए दूध रखकर चला गया। अगले दिन प्रातःकाल उसको फिर एक स्वर्णमुद्रा मिली।
इस प्रकार अब नित्य वह पूजा करता और अगले दिन उसको एक स्वर्णमुद्रा मिल जाया करती थी। कुछ दिनों बाद उसको किसी कार्य से अन्य ग्राम में जाना पड़ा। उसने अपने पुत्र को उस स्थान पर दूध रखने का निर्देश दिया। तदनुसार उस दिन उसका पुत्र गया और वहां दूध रख आया। दूसरे दिन जब वह पुनः दूध रखने के लिए गया तो देखा कि वहां स्वर्णमुद्रा रखी हुई है। उसने उस मुद्रा को उठा लिया और वह मन-ही-मन सोचने लगा कि निश्चित ही इस बिल के अंदर स्वर्णमुद्राओं का भण्डार है।
मन में यह विचार आते ही उसने निश्चय किया कि बिल को खोदकर सारी मुद्राएं ले ली जाएं। सर्प का भय था। किन्तु जब दूध पीने के लिए सर्प बाहर निकला तो उसने उसके सिर पर लाठी का प्रहार किया। इससे सर्प तो नहीं मरा नहीं लेकिन सर्प ने क्रुद्ध होकर ब्राह्मण-पुत्र को अपने विषभरे दांतों से काट लिया जिससे ब्राह्मण-पुत्र की तत्काल मृत्यु हो गई।
उसके सम्बधियों ने उस लड़के को वहीं उसी खेत पर जला दिया। जब ब्राह्मण ने अपने की का मृत्यु का समाचार सुना तो उसने कहा, “यह ठीक ही हुआ है। क्योंकि शरणागत जीवों को जो व्यक्ति रक्षा नहीं करता उसके विभव आदि उसके हाथ से उसी प्रकार चले जाते हैं। जिस प्रकार पद्मसर में रहने वाले राजा के हाथ से हंस निकल गए थे।”
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जय श्री राम
कैसे हुआ गंगा का पृथ्वी पर आगमन?
गंगा का पृथ्वी पर आगमन
राजा सगर की केशिनी व महती नामक दो सुंदर रानियां थीं। एक दिन महर्षि और्व ने उन्हें वर देते हुए कहा- “तुम्हारी एक रानी को साठ हज़ार पुत्र प्राप्त होंगे, जबिक दूसरी को मात्र एक पुत्र! किंतु वंश चलानेवाला दूसरी रानी का ही पुत्र होगा। इसलिए इन दो वरों में जिसकी जो इच्छा हो, वह वही ले ले।” तब रानी केशिनी ने एक पुत्र वाला और महती ने साठ हज़ार पुत्रों वाला वर स्वीकार कर लिया।
कुछ समय बाद केशिनी ने एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम असमंजस रखा गया। दूसरी रानी महती के गर्भ से बीजों से भरी एक थैली उत्पन्न हुई। उसमें बीज के आकर के साठ हज़ार अंडे थे। सगर ने उन्हें घी से भरे हुए घड़ों में रखवा दिया और उनका पोषण करने के लिए साठ हज़ार सेविकाएं नियुक्त कर दीं। उचित समय आने पर उनमें साठ हज़ार बालक उत्पन्न हुए। वे सभी बालक अति वीर, बलशाली और पराक्रमी थे। सगर इतने पुत्रों को देखकर हर्षित हो गए।
एक बार राजा सगर के मन में अश्वमेध यज्ञ करने का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने अपने मंत्रियों को यज्ञ की तैयारी करने का आदेश दे दिया। शुभ मुहूर्त पर यज्ञ आरम्भ हुआ। यज्ञ-अश्व को छोड़ा गया. देवराज इन्द्र ने सोचा कि अश्वमेध यज्ञ करके राजा सगर कहीं उनका राजसिंहासन न हथिया ले। अतः उन्होंने दैत्य का रूप धारण कर यज्ञ अश्व को चुरा लिया और भगवान विष्णु के अंशावतार कपिल मुनि के आश्रम में छुपा दिया। अश्व का हरण होने पर ऋषि-मुनियों ने सगर से अतिशीघ्र यज्ञ-अश्व ढूंढने के लिए कहा।
राजा सगर ने अपने साठ हज़ार पुत्रों को यज्ञ का अश्व खोजने के लिए भेजा। उन्होंने सारी पृथ्वी छान डाली, किंतु उन्हें यज्ञ का अश्व कहीं भी दिखाई नहीं दिया। तब उन्होंने अपनी बलिष्ठ भुजाओं से पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। उनके भीषण प्रहारों से पृथ्वी सहित वहां रहने वाले नागों, दैत्यों और अन्य प्राणियों की करुण चीत्कारें गूंजने लगीं।
सगर-पुत्र भूमि खोदते हुए महर्षि कपिल के आश्रम के निकट पहुंच गए। वहां उन्हें यज्ञ का अश्व बंधा हुआ दिखाई दिया। उन्होंने सोचा कि यज्ञ में विघ्न डालने के लिए कपिल मुनि ने ही यज्ञ-अश्व का हरण किया, अतः उन्होंने भगवान विष्णु अंशावतार महर्षि कपिल को अपशब्द कह दिए। तब मुनि ने क्रुद्ध होकर उन्हें भस्म कर डाला।
यह समाचार सुनकर सगर शोक में डूब गए। तब उनके पौत्र अंशुमान ने महर्षि कपिल की स्तुति कर उनका क्रोध शांत किया। महर्षि कपिल ने प्रसन्न होकर यज्ञ अश्व लौटा दिया। महर्षि को प्रसन्न देखकर अंशुमान ने उनसे मृत सगर-पुत्रों के उद्धार के विषय में पूछा। उन्होंने कहा कि गंगा की पवित्र जलधारा ही सगर-पुत्रों का उद्धार कर सकती है।
महर्षि कपिल के परामर्श के अनुसार राजा सगर गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तप करने लगे। उनकी मृत्यु के बाद अंशुमान ने और इसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने अनेक वर्षों तक कठोर तप किया। किंतु वे गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफल नहीं हुए। अंत में अंशुमान के पौत्र भागीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए भगवान विष्णु की कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए।
भगवान के दर्शन पाकर भागीरथ श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर भागीरथ से कहा-“वत्स! तुम्हारी कठोर तपस्या से मैं अति प्रसन्न हूँ। तुम्हें अभिलषित वह प्रदान करने के लिए ही मैं यहाँ प्रकट हुआ हूँ। तुम निःसंकोच इच्छित वर माँग लो।”
भागीरथ बोले-“भगवन! अनेक वर्षों पूर्व कपिल मुनि ने अपने शाप से मेरे पूर्वजों को भस्म कर दिया था। तभी से मेरे पूर्वज प्रेत योनि में भटक रहे हैं। कपिल मुनि ने कहा था कि यदि गंगा पृथ्वीलोक में आकर अपने पवित्र जल से उनकी शुद्धि कर दें तो प्रेत योनि से उनका उद्धार हो जाएगा और वे आपके परम पद के अधिकारी हो जाएँगे।
भगवन! गंगा माता को पृथ्वी पर लाने के लिए मेरे परदादा राजा सगर, दादा अंशुमान और पिता दिलीप ने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या की। किंतु वे इसमें सफल नहीं हुए और तपस्या करते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिए। तब मैंने उनके कार्य को सम्पन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। प्रभु! यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो गंगा देवी को पृथ्वी पर भेजने की कृपा करें।”
उसकी बात सुनकर भगवान विष्णु ने देवी गंगा से कहा-“गंगे! तुम अभी नदी के रूप में पृथ्वी पर जाओ और सगर के सभी पुत्रों का उद्धार करो। तुम्हारे स्पर्श से वे सभी राजकुमार मेरे परम धाम को प्राप्त होंगे। पृथ्वी पर जो भी पापी तुम्हारे जल में स्नान करेगा, उसके सभी पापों का नाश हो जाएगा। पर्वों और विशेष पुण्य तिथियों पर तुम्हारे जल में स्नान करने वाले प्राणियों को सुख-सम्पत्ति, भोग और ऐश्वर्य के अतिरिक्त मृत्यु के बाद मोक्ष प्राप्त होगा। सूर्य-ग्रहण के समय तुम्हारे पवित्र जल में स्नान करने वालों को पुण्य और सुखों की प्राप्ति होगी। तुम्हारे स्मरण-मात्र से ही प्राणियों के समस्त दुखों और कष्टों का अंत हो जाएगा।”
यह सुनकर गंगा हाथ जोड़कर बोलीं-“प्रभु! आपकी आज्ञा मुझे स्वीकार है। किंतु मुझे पृथ्वीलोक पर कितने वर्षों तक रहना होगा? स्नान करके पापीजन अपने पाप मुझे दे देंगे। ऐसी स्थिति में मेरे उन पापों का नाश किस प्रकार होगा? दयानिधान! आप सर्वज्ञ हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता हैं। संसार की कोई बात आप से छिपी नहीं है। इसलिए मेरी इन शंकाओं का समाधान करें?”
भगवान विष्णु बोले-“हे गंगे! तुम नदी-रूप में पृथ्वीलोक पर रहोगी। मेरे अंशस्वरूप समुद्र तम्हारे पति होंगे। सभी नदियों में तुम सबसे श्रेष्ठ, सौभाग्यवती और पुण्यदायी होगी। हे देवी! कलियुग के पाँच हजार वर्षों तक तुम्हें भू-लोक में रहना पड़ेगा। सभी प्राणी देवी के रूप में तुम्हारी पूजा-अर्चना और स्तुति करेंगे। जो भी मनुष्य भक्तिपूर्वक तुम्हारी स्तुति-वंदना करेगा, उसे अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होगा। गंगा शब्द का निरंतर जाप करने वाले भक्तों के पूर्वजन्मों के भी समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे और मृत्यु के बाद वे मेरे परमधाम वैकुण्ठ को प्राप्त करेंगे।”
जब भगवान विष्णु ने गंगा की सभी शंकाओं पर समाप्त कर दिया, तब वे भागीरथ से बोलीं-“राजन! भगवान विष्णु की आज्ञा और आपके कठोर तप के फलस्वरूप मैं आपके साथ पृथ्वी पर चलने को तैयार हूँ। किंतु राजन! जब मैं स्वर्ग से धरातल पर आऊँगी, तो मेरा वेग बहुत तेज़ होगा। मेरे तीव्र वेग से पृथ्वी पाताल में पहुँच जाएगी। इसलिए राजन! यदि आप अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहते हैं तो पहले इस समस्या का समाधान करें।”
गंगा की बात सुनकर भागीरथ ने भगवान विष्णु से इसका समाधान करने की प्रार्थना की। तब भगवान विष्णु शिवजी से बोले-“महादेव! भागीरथ की इस समस्या का उपाय केवल आप ही कर सकते हैं। तीव्र वेग से धरातल पर उतरती गंगा का आप अपनी विशाल जटाओं में बाँध लें। इससे गंगा का वेग कम हो जाएगा और पृथ्वी पाताल में धँसने से बच जाएगी।”
शिवजी इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए। तब गंगा देवी ने भगवान विष्णु को प्रणाम किया और नदी के रूप में धरातल की ओर चल पड़ीं। धरातल की ओर जाते समय उनकी गति अत्यंत तेज़ हो गई। ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो प्रलयकाल आ गया हो। मेघ भीषण गर्जन करने लगे। गंगा के वेग को देखकर पृथ्वी काँप उठी।
तभी भगवान विष्णु की प्रेरणा से शिवजी गंगा के मार्ग में आ गए और वे पूर्ण वेग से शिवजी की जटाओं में समा गईं। तब भगवान शिव ने अपनी जटा की एक लट खोलकर उनकी एक जलधारा पृथ्वी की ओर छोड़ दी। गंगा बड़ी धीमी गति से धरातल पर गिरने लगीं। इस प्रकार गंगा का आवेग कम हो जाने के कारण पृथ्वी पाताल लोक में धँसने से बच गई।
गंगा के धरातल पर पहुँचते ही राजा भागीरथ उनकी स्तुति करते हुए बोले-“हे परम कल्याणी देवी गंगा! पापियों के पाप धोने वाली पुण्यमयी देवी! आपको मेरा कोटि-कोटि नमन। माते! आपकी कृपा से संतानहीन को संतान की प्राप्ति हो। बंधन में पड़े हुए व्यक्ति के सभी बंधन कट जाएँ। पापियों के पाप, पुण्यों में बदल जाएँ। ये वर दें।”
इस प्रकार स्तुति-वंदना करते हुए भागीरथ गंगा को लेकर उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ उनके पूर्वज कपिल मुनि की क्रोधाग्नि से जलकर भस्म हो गए थे। पवित्र गंगा का स्पर्श पाते ही वे सभी मुक्त होकर वैकुण्ठ लोक चले गए।
इस प्रकार परम पावन गंगा का पृथ्वी पर आगमन हुआ। राजा भागीरथ के प्रयत्न से ही पुण्यमयी गंगा पृथ्वी पर आ सकी थीं, इसलिए उन्हें ‘भगीरथी’ भी कहा जाने लगा।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
कर्म के आगे खुद भगवान भी झुके
कर्म किए जा
एक बार की बात है, भगवान और देवराज इंद्र में इस बात पर बहस छिड़ गई कि दोनों में से श्रेष्ठ कौन हैं? उनका विवाद बढ़ गया तब इंद्र ने यह सोचकर वर्षा करनी बंद कर दी कि यदि वे बारह वर्षों तक पृथ्वी पर वर्षा नहीं करेंगे तो भगवान पृथ्वीवासियों को कैसे जीवित रख पाएंगे।
इंद्र की आज्ञा से मेघों ने जल बरसाना बंद कर दिया। किंतु किसानों ने सोचा कि यदि यह लड़ाई बारह वर्षों तक चलती रही तो वे अपना कर्म ही भूल बैठेंगे। उनके पुत्र भी सब कुछ भूल जाएंगे। अतः उन्हें अपना कर्म करते रहना चाहिए। यह सोचकर उन्होंने कृषि कार्य शुरू कर दिया। वे अपने-अपने खेत जोतने लगे।
तभी मिट्टी के नीचे छिपा कर मेढ़क बाहर आया और किसानों को खेती करते देख आश्चर्यचकित होकर बोला- “इंद्र देव और भगवान में श्रेष्ठता की लड़ाई छिड़ी हुई है। इसी कारण इंद्र देव ने बारह वर्षों तक पृथ्वी पर वर्षा न करने का निश्चय किया है। फिर भी आप लोग खेत जोत रहे हैं! यदि वर्षा ही न हुई तो खेत जोतने का क्या लाभ?”
किसान बोले-“मेढ़क भाई! यदि उनकी लड़ाई वर्षों तक चलती रही तो हम अपनी कर्म ही भूल जाएंगे। इसलिए हमें अपना कर्म तो करते ही रहना चाहिए।”
मेढ़क ने सोचा- ‘तो मैं भी टर्राता हूं, नहीं तो मैं भी टर्राना भूल जाऊंगा। तब वह भी टर्राने लगा।’ उसने टर्राना शुरू किया तो मोर ने भी इंद्र एवं भगवान के मध्य लड़ाई की बात कही। मेढ़क बोला-“मोर भाई! हमें तो अपना कर्म करते ही रहना चाहिए, चाहे दूसरे अपने कार्य भूल जाएं।
क्योंकि यदि हम अपने कर्म भूल जाएंगे तो आने वाली पीढ़ी को कैसे मालूम होगा कि उन्हें क्या कर्म करने हैं। अतः सबको अपना कर्म करने चाहिएं। फल क्या और कब मिलता है, यह ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए।” मेढ़क की बात सुनकर मोर भी पिहू-पिहू बोलने लगा।
देवराज इंद्र ने जब देखा कि सभी प्राणी अपने-अपने कार्य में लगे हैं तो उन्होंने सोचा कि ‘शायद इन्हें ज्ञात नहीं है कि मैं बारह वर्षों तक नहीं बरसूंगा। इसलिए ये अपने कर्म कर रहे हैं। मुझे जाकर इन्हें सत्य बताना चाहिए।’
यह सोचकर वे पृथ्वी पर आए और किसानों से बोले-“ये क्या कर रहे हो?”
किसान बोले- “भगवन! हमारा कर्म ही ईश्वर है। आप अपना कार्य करें अथवा न करें, हमें तो अपना कर्म करते ही रहना है।”
किसानों की बात सुन देवराज इंद्र ने अपनी जिस छोड़ते हुए बादलों को आदेश दिया कि वे पृथ्वी पर घनघोर वरसे।
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जय श्री राम
दुष्ट शेर के चंगुल में फंसा निर्दोष ब्राह्मण
दुष्ट शेर
एक अय्यर ब्राह्मण घने वन से गुजर रहा था। तभी उसकी नजर पिंजरे पर पड़ी। पिंजरे में एक शेर बंद था। शेर ने ब्राह्मण से विनती की-‘आप मुझे पिंजरे से निकाल दें। भूख-प्यास से मेरी जान जा रही है। मैं कुछ खा-पीकर पुनः पिंजरे में लौट आऊंगा।’ ब्राह्मण महाशय परेशान हो गए। यदि पिंजरा खोलते हैं तो शर उन्हें खा सकता है। यदि नहीं खोलते हैं तो बेचारा पशु मारा जाएगा। अंत में उनकी दयालुता की जीत हुई। उन्होंने पिंजरे का दरवाजा खोल दिया।
शेर बाहर आते ही गरजकर बोला-‘मूर्ख मनुष्य, तूने गलती की है। उसकी सजा भुगत। मैं तुझे ही खाऊंगा।’ ब्राह्मण भय के कारण थर-थर कांपने लगा। परंतु मन-ही-मन वह बचने का उपाय भी सोच रहा था। जैसे ही शेर ने झपट्टा मारने की कोशिश की, ब्राह्मण ने हिम्मत बटोरकर कांपते स्वर में कहा, खाने से पहले मुझको चार लोगों से सलाह लेनी हैं-
यदि वे कहें कि
यही न्याय है
तो मैं स्वयं काटूंगा
अपने गला।
अब जंगल में और लोग कहां से आते? चार वन्य प्राणियों से राय लेने का निश्चय हुआ। एक बूढ़ा-सा ऊंट सामने से गुजरा तो उससे राय पूछी गई। वह मुंह बिचकाकर बोला-‘अरे ये इंसान कहीं दया के योग्य होते हैं? मेरे मालिक को ही देखो, मैं जवान था तो खूब काम करता था। अब शरीर में ताकत नहीं है तो वह मुझे डंडों से मारता है।’ शेर की आंखें खुशी से चमकनें लगीं। किंतु अभी तीन जजों की सलाह और लेनी थी।
पास में ही बरगद का विशाल वृक्ष था। उसे भी अपने मन की भड़ास निकालने का अवसर मिल गया। लंबी बांहें फैलकर बोला- ‘मनुष्य बहुत लोभी होता है। सूरज की तपती धूप से मैं इसकी रक्षा करता हूं। सारी दोपहर मेरी छांव में बिताकर यह शाम को मेरी टहनियां काटकर ले जाता है। मेरी राय में तो सभी मनुष्यों को जान से मार देना चाहिए।’ यह उत्तर सुनकर ब्राह्मण की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा।
तभी ढेंचू-ढेंचू की आवाज सुनाई दी। ब्राह्मण को कुछ आशा बंधी। एक लंगड़ा गधा रेंकता हुआ उसी ओर आ रहा था। शेर ने उनसे भी प्रश्न किया। क्या वह ब्राह्मण को खा सकता है? गधेराम तो पहले से ही जले-भुने बैठे थे। शायद अभी पिटाई खाकर आ रहे थे। गुस्से से भरकर बोले-‘देखो न, मैं दिन-भर मालिक का बोझा ढोता हूं। मैं उफ तक नहीं करता। जो भी रूखा-सूखा मिल जाता है, वह खुशी से खा लेता हूं पर आज....। कहकर वह रोने लगा।’ शेर को गधे से क्या लेना-देना था? उसने अपना प्रश्न दुहराया, ‘क्या ब्राह्मण को खा लूं?’ गधे ने आंसू पोंछकर कहा- ‘अवश्य मेरे मित्र, इसे बिलकुल मत छोड़ना। इन मनुष्यों ने हमारी नाक में दम कर रखा है।’
अब एक ही पशु की राय और लेनी थी। शेर की निगाहें तेजी से इधर-उधर दौड़ने लगीं। एक लोमड़ी वहीं खड़ी होकर सब कुछ देख रही थी। वह पास आई और बोली- ‘फैसला तो मैं कर दूंगी पर पहले अपने-अपने स्थान पर खड़े हो जाओ। मुझे तो विश्वास ही नहीं होता कि इतना बड़ा शेर पिंजरे में कैसे समा गया? शेर ने जोश में आकर छलांग लगाई और पिंजरे में जा पहुंचा।
लोमड़ी ने झट से दरवाजा बंद कर दिया और ब्राह्मण से बोली, ‘आप अपने घर जाएं और जंगली पशुओं से बचकर रहें। इस शेर की हरकतों से तंग आकर ही इसे बंद किया गया था। आगे से बिना सोचे-समझे कोई काम मत करना।’ ऐसा कहकर लोमड़ी जंगल में लौट गई।
दुष्ट शेर ने पिंजरे में ही भूख-प्यास से दम तोड़ दिया। उसे उसके किए की सजा मिल गई थी।
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जय श्री राम
कैसे आया सूरज आकाश में? How did the sun come into the sky?
कैसे आया सूरज आकाश में...
सत्ता के अधिकार के लिए दैत्य और देवताओं में शत्रुता उत्पन्न होने के कारण दैत्य सदा देवताओं पर आक्रमण कर युद्ध करते रहते थे। इसी बात को लेकर एक बार दैत्य और देवताओं के बीच भयानक युद्ध हुआ। यह युद्ध अनेक वर्षों तक चला। इस युद्ध के कारण देवताओं और सृष्टि का अस्तित्व संकट में पड़ गया। अंत में दैत्यों से पराजित होकर देवगण जान बचाकर वन-वन भटकने लगे। देवताओं की यह दुर्दशा देखकर उनके पिता महर्षि कश्यप और माता अदिति दुःखी रहने लगे।
एक बार देवर्षि नारद घूमते-घूमते कश्यपजी के आश्रम की ओर आ निकले। वहाँ देव माता अदिति और महर्षि कश्यप को व्याकुल देखकर उन्होंने उनसे चिंतित होने का कारण पूछा। अदिति बोलीं-“देवर्षि! दैत्यों ने युद्ध में देवताओं को पराजित कर दिया है। इन्द्रादि देवगण वन-वन भटक रहे हैं। हमें उनकी रक्षा करने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा। इसलिए हम चिंतित और व्याकुल हैं।”
अदिति का कथन सुनकर नारदजी बोले-“माते! इस संकट से बचने का केवल एक उपाय है। आप उपासना करके भगवान सूर्य को प्रसन्न करें और उनसे पुत्र रूप में प्रकट होने का वर प्राप्त करें। सूर्यदेव के तेज के समक्ष ही दैत्य पराजित हो सकते हैं और देवताओं की रक्षा हो सकती है।” इस प्रकार अदिति को भगवान सूर्य की तपस्या करने के लिए प्रेरित कर देवर्षि नारद वहाँ से चले गए। तत्पश्चात अदिति कठोर तप करने लगीं। अनेक वर्ष बीत गए। अंत में भगवान सूर्यदेव साक्षात प्रकट हुए और उनसे मनोवांछित वरदान माँगने के लिए कहा।
अदिति ने उनकी स्तुति की। तत्पश्चात बोली-“सूर्यदेव! आप भक्तों की समस्त इच्छाएँ पूर्ण करते हैं। आपकी पूजा-उपासना करने वाला कभी निराश नहीं होता। मेरी केवल यह विनती है कि आप मेरे पुत्र के रूप में उत्पन्न होकर देवताओं की रक्षा करें।” अदिति को मनोवांछित फल देकर सूर्य भगवान अंतर्धान हो गए। कुछ दिनों के बाद सूर्य भगवान का तेज अदिति के गर्भ में स्थापित हो गया।
एक बार महर्षि कश्यप और अदिति कुटिया में बैठे थे। तभी किसी बात पर क्रोधित होकर कश्यप ने अदिति के गर्भस्थ शिशु के लिए ‘मृत’ शब्द का प्रयोग कर दिया। कश्यप ने जैसे ही ‘मृत’ शब्द का उच्चारण किया, तभी अदिति के शरीर से एक दिव्य प्रकाश पुंज निकला। उस प्रकाश पुंज को देखकर कश्यप मुनि भयभीत हो गए और सूर्यदेव से अपने अपराध की क्षमा माँगने लगे। तभी एक दिव्य आकाशवाणी हुई-“मुनिवर! मैं तुम्हारे अपराध को क्षमा करता हूँ। मेरी आज्ञा से तुम इस पुंज की नियमित उपासना करो। उचित समय पर इसमें से एक दिव्य बालक जन्म लेगा और तुम्हारी सभी इच्छाओं को पूर्ण करने के बाद ब्रह्माण्ड के मध्य में स्थित हो जाएगा।”
महर्षि कश्यप और अदिति ने वेद मंत्रों द्वारा प्रकाश पुंज की स्तुति आरंभ कर दी। उचित समय आने पर उसमें से एक तेजस्वी बालक उत्पन्न हुआ। उसके शरीर से दिव्य तेज निकल रहा था। यही बाल ‘आदित्य’ और ‘मार्तण्ड’ आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ।
आदित्य वन- वन जाकर देवताओं को एकत्रित करने लगा। आदित्य के तेजस्वी और बलशाली स्वरूप को देख इन्द्र आदि देवता अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने आदित्य को अपना सेनापति नियुक्त कर दैत्यों पर आक्रमण कर दिया। आदित्य के तेज के समक्ष दैत्य अधिक देर तक नहीं टिक पाए और शीघ्र ही उनके पाँव उखड़ गए। वे अपने प्राण बचाकर पाताल लोक में छिप गए।
सूर्यदेव के आशीर्वाद से स्वर्ग लोक पर पुनः देवताओं का अधिकार हो गया। सभी देवताओं ने आदित्य को जगत पालक और ग्रहराज के रूप में स्वीकार किया।
सृष्टि को दैत्यों के अत्याचारों से मुक्त कर भगवान आदित्य सूर्यदेव के रूप में ब्रह्माण्ड के मध्य भाग में स्थित हो गए और वहीं से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का कार्य-संचालन करने लगे।
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प्रत्येक रिश्ते की अहमियत
मैं घर की नई बहू थी और एक निजी बैंक में एक अच्छी पद पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर, श्री गुप्ता...