विचारों के अनुरूप ही मनुष्य की स्थिति और गति होती है। श्रेष्ठ विचार सौभाग्य का द्वार हैं, जबकि निकृष्ट विचार दुर्भाग्य का,आपको इस ब्लॉग पर प्रेरक कहानी,वीडियो, गीत,संगीत,शॉर्ट्स, गाना, भजन, प्रवचन, घरेलू उपचार इत्यादि मिलेगा । The state and movement of man depends on his thoughts. Good thoughts are the door to good fortune, while bad thoughts are the door to misfortune, you will find moral story, videos, songs, music, shorts, songs, bhajans, sermons, home remedies etc. in this blog.
1 . एक का अर्थ है...
इश्वर एक है !
2 . दो का अर्थ है...
इश्वर और जीव के मिलने से सृष्टि बनी !
3 . तीन का अर्थ है...
तीन लोक माने गए है - स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक, पाताल लोक !
4 . चार का अर्थ है ...
वेद- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद !
5 . पांच का अर्थ है...
तत्त्व पांच होते है- छिति, जल, पावक, गगन, समीर !
6 . छः का अर्थ है...
ऋतुए छः होती है- बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशर !
7 . सात का अर्थ है...
संगीत के सुर सात होते है - सा, रे, गा, म, प, ध, नि, !
8 . आठ का अर्थ है...
दिन और रात मिलकर आठ पहर होते है !
9 . नौ का अर्थ है...
"नवधा भक्ति"...तात्पर्य वर्ष में आने वाली दो नवरात्रियों से भी है !
10 . दस का अर्थ है...
दिशाएँ दस होती है-पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आकाश, पाताल, नैरित्य, वायव्य और आग्नेय. इसके अलावा दिग्पाल भी दस होते है- इन्द्र, यम, कुबेर, वरुण, ब्रम्हा, विष्णु, रूद्र, अग्नि, नैर्त्य और पवन !
शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।
लेकिन हिंदुओं के साधुजनों और ब्राह्मणों ने मिलकर सब कुछ मटियामेट कर दिया। अब चार की जगह चालीस शंकराचार्य होंगे और उन सभी की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियाँ और ठाठ-बाट है क्योंकि उनके पीछे चलने वाले उनके चेले-चपाटियों की भरमार है जो उनके अहंकार को पोषित करते रहते हैं।
शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहाँ हुआ। मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं। चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-
शंकराचार्य के चार शिष्य : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)। माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।
ग्रंथ : शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया।
दसनामी सम्प्रदाय : शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।
दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। कठिन योग साधना और धर्मप्रचार में ही उनका सारा जीवन बितता है। दसनामी संप्रदाय में शैव और वैष्णव दोनों ही तरह के साधु होते हैं।
यह दस संप्रदाय निम्न हैं : 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।
हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी अवधेशानंद गिरि।
शंकराचार्य का दर्शन : शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में है।
अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।
जिस प्रकार अचानक किसी के
सामने आ जाने से हम अपने वाहन पर काबू कर लेते हैंऔर दुर्घटना को घटने से बचा लेते
हैं, उसी प्रकार दुःख के आने पर हमें
अपने ह्रदय, विचारशक्ति एवं सहनशीलता पर काबू करना सीखना होगा. ताकि हम आनेवाले
समय को बड़ी विपदा से बचा सकें.
अक्सर घर के अंदर और बाहर की साफ-सफाई पर तो ध्यान दिया जाता है लेकिन छत पर गंदगी पड़ी रहती है। वास्तु के अनुसार घर की छत पर पड़ी गंदगी का भी पैसों की तंगी को बढ़ा सकती है। परिवार की बरकत पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
यह जरूरी है कि घर की साफ-सफाई अंदर और बाहर अच्छी तरह से ही की जाना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि यदि घर की छत पर फालतू सामान, गंदगी पड़ी रहती है तो इसके दुष्प्रभाव परिवार की आर्थिक स्थिति पर पड़ते हैं। इसके साथ ही स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक ही है। किसी भी प्रकार की गंदगी का हमारे जीवन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ता है।
जिन लोगों के घरों की छत पर ऐसे अनुपयोगी सामान रखे होते हैं वहां नकारात्मक शक्तियां अधिक सक्रिय रहती हैं। उस घर में रहने वाले लोगों के विचार नेगेटिव अधिक रहते हैं। वे किसी भी कार्य में सकारात्मक रूप से सोच भी नहीं पाते हैं। इसी वजह से कार्यों में सफलता और तनाव मिलता है। परिवार में भी मन-मुटाव की स्थितियां निर्मित होती हैं।
शास्त्रों के अनुसार धन की देवी महालक्ष्मी का वास ऐसे ही घरों में होता है जहां पूरी तरह से साफ-सफाई और स्वच्छता बनी रहती है। जहां गंदगी होती है वहां से लक्ष्मी चली जाती है और दरिद्रता का वास हो जाता है।
ज्योतिष शास्त्रों के मुताबिक न्यायाधीश शनि सद्कर्मों और पुरुषार्थ से जीवन को सुखी बनाने की प्रेरणा देते हैं। शनि का कठोर स्वभाव दरअसल अनुशासन, संयम, पवित्रता और संकल्प के साथ लक्ष्यों को पाने की सीख देता है। किंतु जब इंसान के विचार, कर्म और व्यवहार में दोष आते हैं तो शनि दण्ड के जरिए एहसास कराने से भी नहीं चूकते।
यही कारण है कि शनि कृपा जहां भाग्य संवारने वाली तो दण्ड पीड़ादायी होता है। शनि कृपा से लाभ पाने और साढ़े साती, ढैय्या या शनि के अशुभ प्रभाव को रोकने के लिये शास्त्रों में हर दिन कुछ सरल उपाय भी बताए गए हैं। जिनको अपनाकर शनि के साथ अन्य देवताओं की कृपा भी सुख-संपत्ति देने वाली साबित हो सकती है। जानिए, ये छोटे-छोटे उपाय-
- जल में काले तिल डाल स्नान करें। देववृक्ष पीपल की जड़ में दूध व काली तिल चढ़ाएं।
- शनिवार को शनि को सरसों का तेल, काले वस्त्र, काली उड़द, काले तिल चढ़ाएं। शनि मंत्रों का जप करें। तेल के पकवान का भोग लगाएं। भैंसे को अन्ऩ, चारा खिलाएं।
- सोमवार को शिव पूजा व मंत्र जप करें।
- गुरुवार को इष्ट या गुरु मंत्रों का ध्यान करें।
- मंगलवार, शनिवार को श्री हनुमान या भैरवनाथ को सिंदूर का चोला चढ़ाएं। कुत्तों को तेल की पुरियां खिलाएं।
- बुधवार को श्री गणेश को दूर्वा व मोदक का भोग लगाएं।
- शुक्रवार को नवदुर्गा की उपासना कर घर में बनी खीर का भोग लगाएं।
हमारे आसपास दो प्रकार के लोग होते हैं एक तो सज्जन या अच्छे लोग और दूसरे हैं दुर्जन या बुरे लोग। सज्जन लोगों के साथ किसी को कोई परेशानी नहीं रहती है। जबकि दुर्जनों लोगों का साथ हमेशा ही दुख और परेशानियां देने वाला होता है। दुर्जन लोगों के लिए आचार्य चाणक्य ने कहा है कि-
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जन:।
सर्पो दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे।।
अर्थात् दुर्जन और सांप दोनों ही जहरीले होते हैं फिर भी दुर्जनों की तुलना में सांप ज्यादा अच्छे होते हैं। क्योंकि सांप मौका मिलते ही केवल एक ही बार डंसता है जबकि दुर्जन लोग हर पल काटते हैं।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि हमारे आसपास जो दुर्जन लोग हैं वे सांपों से अधिक जहरीले होते हैं और हानिकारक रहते हैं। जो लोग कपटी और नीच होते हैं उनसे दूर ही रहना चाहिए। सांप केवल तभी हमला करता है जब उसे स्वयं के प्राणों का संकट दिखाई देता है। सांप केवल एक ही बार डंसता है। इसके विपरित जो भी लोग कपटी, नीच और दुराचारी होते हैं वे सदैव दूसरों को कष्ट पहुंचाते रहते हैं। इन लोगों की वजह से कई बार निर्दोष व्यक्ति भी बड़ी परेशानियों में उलझ जाता है। कपटी इंसान हर पल समस्याएं खड़ी करते रहते हैं। इसी वजह से ऐसे लोगों सांपों से भी अधिक खतरनाक होते हैं। इन लोगों से दूर रहने में ही भलाई होती है।
आपके साथ यह समस्या होती है कि जूते-चप्पल काफी कम समय में ही टूट जाते हैं। ज्योतिष के अनुसार बार-बार जूते-चप्पल चोरी होना या खो जाना भी कुछ इशारा करता है। इनके खोने पर आर्थिक हानि तो होती है साथ ही यह शनि दोष की संभावना को भी व्यक्त करता है।
क्या आप जानते हैं कि हमारे शरीर में शनि का वास पैरों में होता है। शनि ग्रह को क्रूर ग्रह माना गया है, इन्हें देवताओं में न्यायाधिश का पद प्राप्त है। सभी के अच्छे-बुरे कर्मों का फल शनिदेव ही देते हैं। ज्योतिष के अनुसार हमारे शरीर में भी सभी ग्रहों के अलग-अलग विशेष स्थान बताए गए हैं। जैसे शनि ग्रह हमारे पैरों का प्रतिनिधित्व करता है।
यदि व्यक्ति के जूते-चप्पल का बार-बार टूट जाते हैं या गुम हो जाते हैं तो समझना चाहिए कि शनि उसके विपक्ष में है। कुंडली में जब शनि अशुभ स्थिति में होता है तो इस प्रकार जूते-चप्पल टूट जाते हैं। पैरों का प्रतिनिधित्व करने वाला शनि अपना अशुभ प्रभाव दिखाने के लिए ऐसा करवाता है। जब ज्यादातर ऐसा होने लगे तो समझ जाना चाहिए शनि देव आपकी बदकिस्मती की ओर इशारा कर रहे हैं। यानी समझें आपके परेशानियों भरे दिन आने वाले हैं।
जब ऐसा बार-बार होने लगे तो शनि संबंधी दोषों को दूर करने के लिए विशेष उपाय करने चाहिए। साथ ही किसी ज्योतिष विशेषज्ञ को कुंडली दिखाकर आवश्यक पूजन आदि करने चाहिए। शनि से बचने के लिए सबसे सरल उपाय है कि प्रति शनिवार शनिदेव को तेल चढ़ाएं। एक कटोरी में तेल लेकर उसमें अपना चेहरा देखें और इस तेल को किसी गरीब व्यक्ति को दान करें।a>
अंतरिक्ष तथा वायुमंडल में सौरमंडल के चारों ओर ग्रहों की गति से जो शोर हो रहा है वह ॐ की ध्वनि की परिणति है। ॐ ब्रह्माण्ड के अंदर नियमित ध्वनि है। सूक्ष्म इंद्रियों द्वारा ध्यान लगाने पर इसकी अनुभूति हो सकती है।
सर्वत्र व्याप्त होने के कारण इस ध्वनि (ॐ) को ईश्वर (प्रणव) की संज्ञा दी गई है। जो ॐ के अर्थ को जानता है, वह अपने आप को जान लेता है और जो अपने आप को जान लेता है वह ईश्वर को जान लेता है। इसलिए ॐ का ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है। समस्त वेद इसी ॐ की व्याख्या करते हैं।
वैदिक चिंतन में परमात्मा के सर्वोत्तम नाम ॐ की मान्यता है। महाभारत काल के पश्चात इससे भिन्न विचारधाएं चल पड़ीं। बौद्ध तथा जैन विचारधाराओं में ॐ की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आई तथा शैव-संप्रदाय में भी ॐ की प्रतिष्ठा बनी रही। शैव संप्रदाय में 'ॐ नमः शिवायः' मंत्र का प्रचार है जो वेदों के अनुकूल है। शाक्त संप्रदाय भी ॐ का परित्याग नहीं कर सका।
शक्ति की प्रधानता होते हुए भी तांत्रिक मंत्रों में सर्वत्र ॐ का प्रथम उच्चारण होता है। सिक्ख पंथ में एक औंकार की मान्यता है। इसके अतिरिक्त पारसी, यहूदी तथा अन्य मतों में भी किसी न किसी रूप में ॐ के चिह्नों की मान्यता है। कहने का अर्थ है कि ॐ का अस्तित्व सर्वकालीन तथा सार्वभौमिक है।
परमात्मा की स्तुति भूः, भुवः और स्वः इन्हीं तीन मात्राओं से निकली है। सृष्टि, स्थिति और प्रलय का संपादन भी इन्हीं तीन मात्राओं से होता है। सत् चित् आनंद की तीन सत्ताएं भी इन्हीं से प्रकट होती हैं। सभी वैदिक मंत्रों का आरंभ ॐ का उच्चारण कर ही किया जाता है। जैसे नारी नर के बिना फलीभूत नहीं होती इसी प्रकार वेदों की ऋचाएं, श्रुतियां ॐ के उच्चारण के बिना पूर्ण नहीं होतीं।
अधिभौतिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के दुःखों की शांति का सूचक मंत्र है- ॐ।'
ॐ (ईश्वर) की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहते हैं- 'ईश्वर पूर्ण है, जीव भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है और पूर्ण में पूर्ण निकल जाने के बाद पूर्ण ही शेष रह जाता है। माता के शरीर से संतान के उत्पन्न हो जाने पर शिशु और माता दोनों ही पूर्ण रहते हैं।
कौशल्या सुप्रजा राम। पूर्व संध्या प्रवर्तते, उठिस्ता। नरसारदुला।
तिरुमाला पर्वत पर स्थित भगवान बालाजी के मंदिर की महत्ता कौन नहीं जानता। इस बार धर्मयात्रा में वेबदुनिया आपके लिए लेकर आया है तिरुपति बालाजी मंदिर। भगवान व्यंकटेश स्वामी को संपूर्ण ब्रह्मांड का स्वामी माना जाता है। हर साल करोड़ों लोग इस मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं। साल के बारह महीनों में एक भी दिन ऐसा नहीं जाता जब यहाँ वेंकटेश्वरस्वामी के दर्शन करने के लिए भक्तों का ताँता न लगा हो। ऐसा माना जाता है कि यह स्थान भारत के सबसे अधिक तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केंद्र है। इसके साथ ही इसे विश्व के सर्वाधिक धनी धार्मिक स्थानों में से भी एक माना जाता है।
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मंदिर के विषय में अनुश्रुति -
प्रभु वेंकटेश्वर या बालाजी को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि प्रभु विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे निवास किया था। यह तालाब तिरुमाला के पास स्थित है। तिरुमाला- तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ, शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिरि' कहलाती हैं। श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है, जो वेंकटाद्री नाम से प्रसिद्ध है।
वहीं एक दूसरी अनुश्रुति के अनुसार, 11वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुपति की इस सातवीं पहाड़ी पर चढ़ाई की थी। प्रभु श्रीनिवास (वेंकटेश्वर का दूसरा नाम) उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया। ऐसा माना जाता है कि प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वे 120 वर्ष की आयु तक जीवित रहे और जगह-जगह घूमकर वेंकटेश्वर भगवान की ख्याति फैलाई।
वैकुंठ एकादशी के अवसर पर लोग यहाँ पर प्रभु के दर्शन के लिए आते हैं, जहाँ पर आने के पश्चात उनके सभी पाप धुल जाते हैं। मान्यता है कि यहाँ आने के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
मंदिर का इतिहास -
माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास 9वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है, जब काँचीपुरम के शासक वंश पल्लवों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था, परंतु 15 सदी के विजयनगर वंश के शासन के पश्चात भी इस मंदिर की ख्याति सीमित रही। 15 सदी के पश्चात इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैलनी शुरू हो गई। 1843 से 1933 ई. तक अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत इस मंदिर का प्रबंधन हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला। 1933 में इस मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और एक स्वतंत्र प्रबंधन समिति 'तिरुमाला-तिरुपति' के हाथ में इस मंदिर का प्रबंधन सौंप दिया। आंध्रप्रदेश के राज्य बनने के पश्चात इस समिति का पुनर्गठन हुआ और एक प्रशासनिक अधिकारी को आंध्रप्रदेश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया गया।
मुख्य मंदिर - श्री वेंकटेश्वर का यह पवित्र व प्राचीन मंदिर पर्वत की वेंकटाद्रि नामक सातवीं चोटी पर स्थित है, जो श्री स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे स्थित है। इसी कारण यहाँ पर बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह भारत के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जिसके पट सभी धर्मानुयायियों के लिए खुले हुए हैं। पुराण व अल्वर के लेख जैसे प्राचीन साहित्य स्रोतों के अनुसार कलियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही मुक्ति संभव है। पचास हजार से भी अधिक श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। इन तीर्थयात्रियों की देखरेख पूर्णतः टीटीडी के संरक्षण में है।मंदिर की चढ़ाई - पैदल यात्रियों हेतु पहाड़ी पर चढ़ने के लिए तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम नामक एक विशेष मार्ग बनाया गया है। इसके द्वारा प्रभु तक पहुँचने की चाह की पूर्ति होती है। साथ ही अलिपिरी से तिरुमाला के लिए भी एक मार्ग है।
केशदान- इसके अंतर्गत श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं। पुराने समय में यह संस्कार घरों में ही नाई के द्वारा संपन्न किया जाता था, पर समय के साथ-साथ इस संस्कार का भी केंद्रीकरण हो गया और मंदिर के पास स्थित 'कल्याण कट्टा' नामक स्थान पर यह सामूहिक रूप से संपन्न किया जाने लगा। अब सभी नाई इस स्थान पर ही बैठते हैं। केशदान के पश्चात यहीं पर स्नान करते हैं और फिर पुष्करिणी में स्नान के पश्चात मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते हैं।
श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं।
सर्वदर्शनम- सर्वदर्शनम से अभिप्राय है 'सभी के लिए दर्शन'। सर्वदर्शनम के लिए प्रवेश द्वार वैकुंठम काम्प्लेक्स है। वर्तमान में टिकट लेने के लिए यहाँ कम्प्यूटरीकृत व्यवस्था है। यहाँ पर निःशुल्क व सशुल्क दर्शन की भी व्यवस्था है। साथ ही विकलांग लोगों के लिए 'महाद्वारम' नामक मुख्य द्वार से प्रवेश की व्यवस्था है, जहाँ पर उनकी सहायता के लिए सहायक भी होते हैं।
प्रसादम- यहाँ पर प्रसाद के रूप में अन्न प्रसाद की व्यवस्था है जिसके अंतर्गत चरणामृत, मीठी पोंगल, दही-चावल जैसे प्रसाद तीर्थयात्रियों को दर्शन के पश्चात दिया जाता है।
लड्डू- पनयारम यानी लड्डू मंदिर के बाहर बेचे जाते हैं, जो यहाँ पर प्रभु के प्रसाद रूप में चढ़ाने के लिए खरीदे जाते हैं। इन्हें खरीदने के लिए पंक्तियों में लगकर टोकन लेना पड़ता है। श्रद्धालु दर्शन के उपरांत लड्डू मंदिर परिसर के बाहर से खरीद सकते हैं।
ब्रह्मोत्सव- तिरुपति का सबसे प्रमुख पर्व 'ब्रह्मोत्सवम' है जिसे मूलतः प्रसन्नता का पर्व माना जाता है। नौ दिनों तक चलने वाला यह पर्व साल में एक बार तब मनाया जाता है, जब कन्या राशि में सूर्य का आगमन होता है (सितंबर, अक्टूबर)। इसके साथ ही यहाँ पर मनाए जाने वाले अन्य पर्व हैं - वसंतोत्सव, तपोत्सव, पवित्रोत्सव, अधिकामासम आदि।
विवाह संस्कार- यहाँ पर एक 'पुरोहित संघम' है, जहाँ पर विभिन्न संस्कारों औऱ रिवाजों को संपन्न किया जाता है। इसमें से प्रमुख संस्कार विवाह संस्कार, नामकरण संस्कार, उपनयन संस्कार आदि संपन्न किए जाते हैं। यहाँ पर सभी संस्कार उत्तर व दक्षिण भारत के सभी रिवाजों के अनुसार संपन्न किए जाते हैं।
रहने की व्यवस्था- तिरुमाला में मंदिर के आसपास रहने की काफी अच्छी व्यवस्था है। विभिन्न श्रेणियों के होटल व धर्मशाला यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। इनकी पहले से बुकिंग टीटीडी के केंद्रीय कार्यालय से कराई जा सकती है। सामान्यतः पूर्व बुकिंग के लिए अग्रिम धनराशि के साथ एक पत्र व सौ रुपए का एक ड्राफ्ट यहाँ पर भेजना पड़ता है।
शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है मध्यप्रदेश के उज्जैन में स्थित महाकाल मंदिर। यह दुनिया का एकमात्र दक्षिणमुखी शिवलिंग है। तंत्र की दृष्टि से इसे बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार महाकाल की स्तुति महाभारत कालीन वेदव्यास से लेकर कालिदास, बाणभट्ट और राजा भोज आदि ने की है।
प्राचीन श्री महाकाल मंदिर का पुनर्निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था। इसके तकरीबन 140 साल बाद दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने उज्जैन पर आक्रमण कर श्री महाकाल मंदिर को क्षतिग्रस्त कर दिया था। वर्तमान मंदिर मराठाकालीन माना जाता है। इसका जीर्णोद्धार आज से करीब 250 साल पूर्व सिंधिया राजघराने के दीवान बाबा रामचंद्र शैणवी ने करवाया था।
महाकालेश्वर की चित्रमय झलकियाँ
‘‘दूषण नामक दैत्य के अत्याचार से जब उज्जयिनी के निवासी त्रस्त हो गए, तो उन्होंने अपनी रक्षा के लिए शिव की आराधना की। आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ज्योति के रूप में प्रकट हुए। दैत्य का संहार किया और भक्तों के आग्रह पर लिंग के रूप में उज्जयिनी में प्रतिष्ठित हो गए।’’ - शिवपुराण में वर्णित कथा से उद्धृत
महाकाल शिवलिंग दुनिया का एकमात्र शिवलिंग है, जहाँ भस्म आरती की जाती है। यह आरती बेहद अलौकिक होती है। प्रातः 4 से 6 बजे तक वैदिक मंत्रों, स्तोत्र पाठ, वाद्य-यंत्रों, शंख, डमरू और घंटी-घड़ियालों के साथ भस्म आरती की जाती है। बम-बम भोले के जयघोष के साथ यह आरती आपकी अंतःचेतना को जाग्रत करती है। इस आरती में भाग लेने के लिए क्या आम- क्या खास हर व्यक्ति आतुर रहता है।
भस्म आरती के समय पूजा-अर्चना के लिए साधारण वस्त्र धारण कर गर्भगृह में जाने की अनुमति नहीं है। पुरुषों को रेशमी सोला (धोती) और महिलाओं को साड़ी पहनने के बाद ही गर्भगृह में जाने दिया जाता है। मुख्य आरती में सिर्फ पुरुष शामिल होते हैं। इस समय यहाँ स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है। गर्भगृह के बाहर बने नंदी हॉ़ल में दर्शनार्थी इस भस्म आरती का अलौकिक आनंद ले सकते हैं।
“ पहले यहाँ मुर्दों की चिताभस्म से भोलेनाथ का श्रृंगार किया जाता था, लेकिन एक बार चिता की ताजी भस्म नहीं मिलने के कारण महाकाल के पुजारी ने अपने जीवित पुत्र को अग्नि के हवाले कर दिया था और बालक की चिताभस्म से भूतभावन का श्रृंगार किया था। तबसे यहाँ मुर्दे की भस्म की जगह गाय के गोबर के कंडों से बनी भस्म से शिव का श्रृंगार किया जाता है।”