कामना 'प्रेम' का विरोधी तत्व है ! लेने-देने का नाम व्यापार है! जिसमे सब कुछ देने पर भी तृप्ति न हो, वही प्रेम है ! संसार में कोई व्यक्ति किसी से इसलिए प्रेम नहीं कर सकता क्योकि प्रत्येक जीव स्वार्थी है ! वह आनंद चाहता है, अस्तु लेने की भावना रखता है! जब दोनों पछ लेने-देने की घात में है तो मैत्री कितने छण चलेगी ? तभी तो स्त्री-पति, बाप-बेटे में दिन में दस बार टक्कर हो जाती है ! जहाँ दोनों लेने-देने के चक्कर में है, वहा टक्कर होना स्वाभाविक ही है और जहाँ टक्कर हुई, वहीं वह नाटकीय स्वार्थजन्य प्रेम समाप्त हो जाता है! वास्तव में कामयुक्त प्रेम प्रतिछण घटमान होता है ! कामना अन्धकार स्वरुप है, प्रेम प्रकाश स्वरुप है!
एक घातक को देखिये, वह कितना निष्काम प्रेम करता है ! वह बारह मास अपने प्रियतम से प्यार करता है, जब की हम लोग कोई सांसारिक आपत्ति आई तब मंदिरों या महात्माओ के पास दौड़ते है ! एवं जैसे ही सांसारिक कामना पूर्ति हो गई फिर कभी जाने का नाम भी नहीं लेते! यदि कोई पूछता की तुम आजकल मंदिरों या सत्संग में नहीं जाते तो कह देता की मुझे तो अपने अन्दर ही सब कुछ मिल जाता, दिखावा करने से क्या लाभ, इत्यादि ! सच तो यह है की वह सांसारिक कामनाओ का उपासक है, उसने इश्वर-तत्व को समझा ही नहीं है ! अतएव, चातक से हमें शिछा लेनी चाहिए ! जैसे वह बारह मास उपासना करता हुआ भी स्वाति में ही जल पीता है, उसी प्रकार हम भी प्रेमास्पद कि इच्छा रखें एवं निरंतर प्रेम करें-
जाचे बारह मास पिए पपीहा स्वाति जल !
एक बात और है कि हम लोग संसार में जो प्रेम करते है, चूँकि उसमे स्वार्थ निहित रहता है अतएव स्वार्थ-हानि होते ही प्रेम तो समाप्त हो ही जाता है, साथ ही शत्रुता भी उत्पन्न हो जाती है, किन्तु चातक ऐसा प्रेम नहीं करता !
पवि पाहन दामिनि गरजि, झरि झकोर खरी खिझी !
रोष न प्रियतम दोष लखि, तुलसी रागही रीझी !!
अर्थात चातक का प्रेमास्पद यह परीछा लेने के लिए (कि यह मुझसे कुछ स्वार्थ रखता है या नहीं ) गरजता है यानि डांटता है, अपमानित करता है, चमकता है यानि चिढाता है, ओले गिराता है, बिजली गिराता है परन्तु पपीहा इन दुर्व्यवहारों को नहीं देखता, इन व्यवहारों से उसे क्रोध नहीं आता, अपितु और अधिक प्रसन्नता होती है ! इससे हमें शिछा लेनी चाहिए कि यदि सांसारि आपत्ति आवे तो हम प्रसन्न हो, अशांत या क्रुद्ध न हो ! इतना ही नहीं एक पपीहा भूखा-प्यासा, हारा-थका उड़ते-उड़ते एक पेड़ पर बैठ गया ज्योही उसे होश आया कि उस वृछ के निचे बाण साधे बैठे ब्याध ने बाण मार दिया ! वह वृछ गंगा जी के तट पर था अतएव वह चातक बाण से बिंधा हुआ गंगा जी ही में जा गिरा ! गिरते समय उसने सोचा, 'चलो यह भी अच्छा हुआ ; पुरे जीवन प्रेम निभाया एवं मरते समय गंगा जी का जल मुख में जाएगा जिससे मुक्ति हो जाएगी', ऐसा सोच ही रहा था कि पुनः उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा कि यदि तू गंगाजल पी लेगा एवं मुक्त हो जाएगा तो प्रेम के उज्जवल वस्त्र पर कलंक लग जाएगा ! बस, फिर क्या था, उस चातक ने अपनी चोंच ऊपर उठा ली और उसी झटके में उसके प्राण-पखेरू उड़ गए उसने मरते-मरते भी प्रेम को निष्कलंक ही रखा ! इसी आशय से तुलसीदास जी ने लिखा कि-
बध्यो बधिक पर्यो पुन्य जल , उलटी उठाई चोंच !
तुलसी चातक प्रेम-पट , मरतहूँ लगी न खोंच !!
इसी से आप समझ गए होंगे और इसी से आपको भी शिछा लेनी है ! अस्तु, मुक्ति के चक्कर में पड़कर प्रेम-रस को नहीं खोना है, क्योंकि-
भक्ति करत सोई मुक्ति गुसाई ! अनइच्छित आवत वारी आई !!
भक्ति करने पर मुक्ति तो स्वमेव हो ही जाएगी ! जब भक्ति करने पर मुक्ति स्वंय ही हो जाएगी तो भक्ति-रस से क्यों वंचित रह जाय ? क्योंकि मुक्ति होने पर भक्ति-रस पाना असंभव है किन्तु भक्ति पाने पर मुक्ति सहज सिद्ध है !
वास्तव में प्रेम में अपने प्रियतम के गुण भी देखना चाहिए ! वह भी कामना है ! यही कारण है कि संसार में हम जिस भी गुण के कारण प्रेम करते है उस गुण के समाप्त होते ही प्रेम भी नष्ट हो जाता है ! यथा, किसी ने सौन्दर्य से प्रेम किया तो सुन्दरता नष्ट होने पर प्रेम समाप्त हो जाएगा; किसी ने धन से प्रेम किया तो धन समाप्त होते ही प्रेम समाप्त हो जाएगा!
अर्थात अपने सुख कि इच्छा ही कामना है, वह अन्धकार स्वरुप है एवं प्रेमास्पद के सुख कि कामना होना ही प्रेम है, वह प्रकास स्वरुप है!!!
एक घातक को देखिये, वह कितना निष्काम प्रेम करता है ! वह बारह मास अपने प्रियतम से प्यार करता है, जब की हम लोग कोई सांसारिक आपत्ति आई तब मंदिरों या महात्माओ के पास दौड़ते है ! एवं जैसे ही सांसारिक कामना पूर्ति हो गई फिर कभी जाने का नाम भी नहीं लेते! यदि कोई पूछता की तुम आजकल मंदिरों या सत्संग में नहीं जाते तो कह देता की मुझे तो अपने अन्दर ही सब कुछ मिल जाता, दिखावा करने से क्या लाभ, इत्यादि ! सच तो यह है की वह सांसारिक कामनाओ का उपासक है, उसने इश्वर-तत्व को समझा ही नहीं है ! अतएव, चातक से हमें शिछा लेनी चाहिए ! जैसे वह बारह मास उपासना करता हुआ भी स्वाति में ही जल पीता है, उसी प्रकार हम भी प्रेमास्पद कि इच्छा रखें एवं निरंतर प्रेम करें-
जाचे बारह मास पिए पपीहा स्वाति जल !
एक बात और है कि हम लोग संसार में जो प्रेम करते है, चूँकि उसमे स्वार्थ निहित रहता है अतएव स्वार्थ-हानि होते ही प्रेम तो समाप्त हो ही जाता है, साथ ही शत्रुता भी उत्पन्न हो जाती है, किन्तु चातक ऐसा प्रेम नहीं करता !
पवि पाहन दामिनि गरजि, झरि झकोर खरी खिझी !
रोष न प्रियतम दोष लखि, तुलसी रागही रीझी !!
अर्थात चातक का प्रेमास्पद यह परीछा लेने के लिए (कि यह मुझसे कुछ स्वार्थ रखता है या नहीं ) गरजता है यानि डांटता है, अपमानित करता है, चमकता है यानि चिढाता है, ओले गिराता है, बिजली गिराता है परन्तु पपीहा इन दुर्व्यवहारों को नहीं देखता, इन व्यवहारों से उसे क्रोध नहीं आता, अपितु और अधिक प्रसन्नता होती है ! इससे हमें शिछा लेनी चाहिए कि यदि सांसारि आपत्ति आवे तो हम प्रसन्न हो, अशांत या क्रुद्ध न हो ! इतना ही नहीं एक पपीहा भूखा-प्यासा, हारा-थका उड़ते-उड़ते एक पेड़ पर बैठ गया ज्योही उसे होश आया कि उस वृछ के निचे बाण साधे बैठे ब्याध ने बाण मार दिया ! वह वृछ गंगा जी के तट पर था अतएव वह चातक बाण से बिंधा हुआ गंगा जी ही में जा गिरा ! गिरते समय उसने सोचा, 'चलो यह भी अच्छा हुआ ; पुरे जीवन प्रेम निभाया एवं मरते समय गंगा जी का जल मुख में जाएगा जिससे मुक्ति हो जाएगी', ऐसा सोच ही रहा था कि पुनः उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा कि यदि तू गंगाजल पी लेगा एवं मुक्त हो जाएगा तो प्रेम के उज्जवल वस्त्र पर कलंक लग जाएगा ! बस, फिर क्या था, उस चातक ने अपनी चोंच ऊपर उठा ली और उसी झटके में उसके प्राण-पखेरू उड़ गए उसने मरते-मरते भी प्रेम को निष्कलंक ही रखा ! इसी आशय से तुलसीदास जी ने लिखा कि-
बध्यो बधिक पर्यो पुन्य जल , उलटी उठाई चोंच !
तुलसी चातक प्रेम-पट , मरतहूँ लगी न खोंच !!
इसी से आप समझ गए होंगे और इसी से आपको भी शिछा लेनी है ! अस्तु, मुक्ति के चक्कर में पड़कर प्रेम-रस को नहीं खोना है, क्योंकि-
भक्ति करत सोई मुक्ति गुसाई ! अनइच्छित आवत वारी आई !!
भक्ति करने पर मुक्ति तो स्वमेव हो ही जाएगी ! जब भक्ति करने पर मुक्ति स्वंय ही हो जाएगी तो भक्ति-रस से क्यों वंचित रह जाय ? क्योंकि मुक्ति होने पर भक्ति-रस पाना असंभव है किन्तु भक्ति पाने पर मुक्ति सहज सिद्ध है !
वास्तव में प्रेम में अपने प्रियतम के गुण भी देखना चाहिए ! वह भी कामना है ! यही कारण है कि संसार में हम जिस भी गुण के कारण प्रेम करते है उस गुण के समाप्त होते ही प्रेम भी नष्ट हो जाता है ! यथा, किसी ने सौन्दर्य से प्रेम किया तो सुन्दरता नष्ट होने पर प्रेम समाप्त हो जाएगा; किसी ने धन से प्रेम किया तो धन समाप्त होते ही प्रेम समाप्त हो जाएगा!
अर्थात अपने सुख कि इच्छा ही कामना है, वह अन्धकार स्वरुप है एवं प्रेमास्पद के सुख कि कामना होना ही प्रेम है, वह प्रकास स्वरुप है!!!