सन्यासियों के प्रकार

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(1) भोगवार अर्थात वे संसार की समस्त वस्तुओं के प्रति उदासीन भाव रखते हैं। भोग उन सांसारिक वस्तुुओं का स्वाद लेने को कहते हैं जो जीवन के नितान्त आवश्यक नहीं हैं।
(2) कीटवार अथवा वे जो स्वल्पाहार करने का प्रयत्न करते है
(3) आनन्दवार अथवा वे जो भिक्षा की याचना से विरत रहते हैं और उतने ही पर निर्वाह करते है जितना उन्हे स्वतन्त्र रूप से मिल जाता है।
(4) भूरिवार अथवा वे जो जंगल में उत्पन्न होनेवाली वनस्पति आदि से अपना निर्वाह करते हैं।
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भगवान दत्तात्रेय Lord Dattatreya

धर्म ग्रंथों के अनुसार दत्तात्रेय भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। इनका जन्म मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को प्रदोषकाल में हुआ था। ऐसी मान्यता है कि भक्त के स्मरण करते ही भगवान दत्तात्रेय उसकी हर समस्या का निदान कर देते हैं इसलिए इन्हें स्मृतिगामी व स्मृतिमात्रानुगन्ता कहा जाता है। श्रीमद्भगावत आदि ग्रंथों के अनुसार इन्होंने चौबीस गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी।
भगवान दत्त के नाम पर दत्त संप्रदाय का उदय हुआ। गिरनारक्षेत्र श्रीदत्तात्रेय भगवान की सिद्धपीठ है। इनकी गुरुचरणपादुकाएं वाराणसी तथा आबूपर्वत आदि कई स्थानों पर हैं।

श्री दत्तात्रय याने अत्रि ऋषि और अनसूया के तपश्या का फल.
"दत्तात्रय " शब्द दत्त+अत्रेय की संधि से बना है। अत्रेय याने अत्रि ऋषि का पुत्र,ब्रह्मा,विष्णू व महेश इन तीन देवों का अवतार दत्तात्रया के रूप में होने से उन्हे तीन मुखहोना प्रसिध्द है व ये सत्व-रज-तम,उत्पत्ति-स्थिती-लय,जाग्रति-स्वप्न-सुषुप्ति के ध्योतक है।
ब्रह्मा,विष्णू व महेश का समावेश करनेवाले तीन मुख छ:हात में नीचे के दो हात ब्रह्मदेवके प्रतिक कमंडल व जयमाला,बीच के दो हात भगवान् शंकर के प्रतिक त्रिशूल व डमरू और उपर के दो हात विष्णू देवता के प्रतिक शंख व चक्र ऐसे रूप का वर्णन है।
श्री दत्तात्रय के बगल में एक झोली रहती है जो अंह नष्ट होने का प्रतिक है। घर घर भिक्षा मांगने से अंह कम होता है।
औदुंबर वृक्ष आद्य कलियुग से दत्तात्रय का प्रिय वृक्ष है। इसलिये दत्तात्रय के चित्र में और जहाँ जहाँ दत्तात्रय की मूर्ती या पादुका होगी वहाँ वहाँ अधिकतर औदुंबर वृक्ष दिखाई देता है।
श्री दत्तात्रयके पीछे माया का प्रतिक गायखडी होती है।
श्री दत्तात्रया के आस पास इच्छा,वासना,आशा व तृष्णा के प्रतिक चार श्वान होते हैं जो काम,क्रोध,मद आणि मत्सर श्री दत्तात्रयके काबू में होते हैं।
श्रीदत्तात्रय की विविध रूपों में उपासना की जाती है। इन्हे 'तीन मस्तक छ:हात'के स्वरूपमें पहचाना जाता है। उनके पीछे गाय पृथ्वीमाता की, चार कुत्ते वेदों के प्रतिक माने जाते है। इसलिये श्रीदत्तात्रय पवित्र पृथ्वी व पवित्र वेद इनका अधिष्ठाता देव है।
सोलह अवतार :
भक्त जनों के कल्याण के लिये दत्तात्रया के जो विविध अवतार हुये उनमें सोलह अवतारों को प्राधान्य दिया गया है। इन सोलह अवतारों के नाम नि हैं
1. योगिराज
2. अत्रिवरदा
3. दत्तात्रय
4. कालाग्निशमन
5. योगिजनवल्लभ
6. लीलाविश्वंभर
7. सिध्दराज
8. ग्यानसागर
9. विश्वंभरावधूत
10 मायामुक्तावधूत
11 मायायुक्तावधूत
12 आदिगुरू:
13. शिव
14 देवदेव
15 दिगंबर
16कमललोचन
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दशनाम

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तीर्थ-
त्रिवेणी संड्डमें तीर्थ तत्वमरयादि लक्षणौ। स्नायातत्दार्थ आवेन तीर्थ नामा च उच्यते।
"तत्वमसि" इस महाकाव्य रूपी त्रिवेणी के तीर्थ में जो तत्वान्वेषण भाव से स्नान करते हैं उन्हें तीर्थ कहते है।

आश्रम-
आश्रम ग्रहणे प्रौढ आशा पाश विवर्जिताः। यातायात विनिर्मुक्त एतदाश्रम लक्षणम।।
जाल से मुक्ति और आवागमन से मुक्ति और उक्त गुणों से युक्त सन्यासी को आश्रम कहते है

वन-आरण्य
सुरम्ये निर्झरदेश वने वासं करोति यः। आशा याशा विर्निमुक्तो वन नामा उच्यते।।
आशा रहित हो रमणीय झरना वाले वन प्रांत में वास करने वाले सन्यासी वन कहलाते है।

गिरि-
वासो गिरिश्वरे नित्ये गीताभ्यासे हितत्परः। शम्भीराचल बुदिध्श्रा नामा च उच्यते ।।
जो पर्वतो में रह कर बराबर गीता का पाठ करते हैं और गंभीर अटल बुद्धि वाले होते हैं वे गिरि हैं।

पर्वत-
बसेत पर्वत मूलेषू प्रौढो योध्यानधारणात। सारात सारं विजानाति पर्वतः परि कीर्तितः।।
जो पर्वतों में रहते हैं और ध्यान धारणादि में प्रौढ हैं और जीवन सार से परिचित है पर्वत कहे जाते है।

सागर-
वसेत सागर गंभीरो वन रत्न परिग्रहः। मध्र्यादाश्र न लंबे सागरः परि कीर्तितः।।
समुद्रक्त गंभीर, वन्यफूलमूलादि जीवी व मर्यादावान सन्यासी सागर कहे जाते है।

सरस्वती-
स्वरज्ञान वशोनित्यर स्वरवादी कवीश्ररः। संसार सागरे सराभिज्ञो यो हि सरस्वती।
स्वर ज्ञान वाले कविस्वर व संसार को असार मानने वाला सन्यासी सरस्वती कहा जाता है।

भारती-
विद्याभारेण सम्पूर्ण सर्वभारं परित्यजेत। दुख भारं न जानाति भारती पर कीर्तितः।।
विद्या से युक्त हो सभी सारो को छोड जो दुःख के बोझ को भी नहीं समझत वह भारती हैं।

पुरी-
ज्ञानत तत्वेण सम्पूर्णः पूर्णतत्व पदेस्थितः। पद ब्रह्मरता नित्य पुरी नामा स उच्यते।।
ज्ञान तत्व से युक्त पूर्ण तत्वज्ञ व शब्द ब्रह्ममें लीन में रहने वाला पुरी है।
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दशनाम नागा साधु

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भगवान शिव से जुड़ी मान्यताओं मे जिस तरह से उनके गणो का वर्णन है ठीक उन्ही की तरह दिखने वाले, हाथो मे चिलम लिए और चरस का कश लगते हुए इन साधुओं को देख कर आम आदमी एक बारगी हैरत और विस्मयकारी की मिलीजुली भावना से भर उठता है । ये लोग उग्र स्वभाओ के होते हैं, साधु संतो के बीच इनका एक प्रकार का आतंक होता है , नागा लोग हटी , गुस्सैल , अपने मे मगन और अड़ियल से नजर आते हैं , लेकिन सन्यासियों की इस परंपरा मे शामील होना बड़ा कठिन होता है और अखाड़े किसी को आसानी से नागा रूप मे स्वीकार नहीं करते ।वर्षो बकायदे परीक्षा ली जाती है जिसमे तप , ब्रहमचर्य , वैराग्य , ध्यान ,सन्यास और धर्म का अनुसासन तथा निस्ठा आदि प्रमुखता से परखे-देखे जाते हैं। फिर ये अपना श्रध्या , मुंडन और पिंडदान करते हैं तथा गुरु मंत्र लेकर सन्यास धर्म मे दीक्षित होते है इसके बाद इनका जीवन अखाड़ों , संत परम्पराओं और समाज के लिए समर्पित हो जाता है,अपना श्रध्या कर देने का मतलब होता है सांसरिक जीवन से पूरी तरह विरक्त हो जाना , इंद्रियों मे नियंत्रण करना और हर प्रकार की कामना का अंत कर देना होता है कहते हैं की नागा जीवन एक इतर जीवन का साक्षात ब्यौरा है और निस्सारता , नश्वरता को समझ लेने की एक प्रकट झांकी है । नागा साधुओं के बारे मे ये भी कहा जाता है की वे पूरी तरह निर्वस्त्र रह कर गुफाओं , कन्दराओं मे कठोर ताप करते हैं । प्राच्य विद्या सोसाइटी के अनुसार “नागा साधुओं के अनेक विशिष्ट संस्कारों मे ये भी शामिल है की इनकी कामेन्द्रियन भंग कर दी जाती हैं”। इस प्रकार से शारीरिक रूप से तो सभी नागा साधू विरक्त हो जाते हैं लेकिन उनकी मानसिक अवस्था उनके अपने तप बल निर्भर करती है ।

धूनी मल कर , नग्न रह कर और गुफाओं मे तप करने वाले नागा साधुओं का उल्लेख पौराणिक ग्रन्थों मे मिलता है । प्राचीन विवरणो के अनुसार संकराचार्य ने बौद्ध और जैन धर्म के बढ़ते प्रचार को रोकने के लिए और सनातन धर्म की रक्षा के लिए सन्यासी संघो का गठन किया था । कालांतर मे सन्यासियों के सबसे बड़े जूना आखाठे मे सन्यासियों के एक वर्ग को विशेष रूप से शस्त्र और शास्त्र दोनों मे पारंगत करके संस्थागत रूप प्रदान किया । उद्देश्य यह था की जो शास्त्र से न माने उन्हे शस्त्र से मनाया जाय । ये नग्ना अवस्था मे रहते थे , इन्हे त्रिशूल , भाला ,तलवार,मल्ल और छापा मार युद्ध मे प्रशिक्षिण दिया जाता था । इस तरह के भी उल्लेख मिलते हैं की औरंगजेब के खिलाफ युद्ध मे नागा लोगो ने शिवाजी का साथ दिया था , आज संतो के तेरह अखाड़ों मे सात सन्यासी अखाड़े (शैव) अपने अपने नागा साधू बनाते हैं :- ये हैं जूना , महानिर्वणी , निरंजनी , अटल ,अग्नि , आनंद और आवाहन आखाडा ।
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समुद्र मंथन के पश्चात् अमृत कलश

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पौराणिक कथाओं अनुसार देवता और राक्षसों के सहयोग से समुद्र मंथन के पश्चात् अमृत कलश की प्राप्ति हुई। जिस पर अधिकार जमाने को लेकर देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे निकलकर पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरी।

वे चार स्थान है : - प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। जिनमें प्रयाग गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर और हरिद्वार गंगा नदी के किनारे हैं, वहीं उज्जैन शिप्रा नदी और नासिक गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ है।

अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार बारह दिन तक युद्ध हुआ था। जो मनुष्यों के बारह वर्ष के समान हैं।

युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी, अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुम्भ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।

कुम्भ-अमृत स्नान और अमृतपान की बेला। इसी समय गंगा की पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होता है। इसी समय कुम्भ स्नान का संयोग बनता है। कुम्भ पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक है। विशेषकर उत्तराखंड की भूमि पर तीर्थ नगरी हरिद्वार का कुम्भ तो महाकुम्भ कहा जाता है।
Photo: कुम्भ मेला 

पौराणिक कथाओं अनुसार देवता और राक्षसों के सहयोग से समुद्र मंथन के पश्चात् अमृत कलश की प्राप्ति हुई। जिस पर अधिकार जमाने को लेकर देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदे निकलकर पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरी।

वे चार स्थान है : - प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। जिनमें प्रयाग गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर और हरिद्वार गंगा नदी के किनारे हैं, वहीं उज्जैन शिप्रा नदी और नासिक गोदावरी नदी के तट पर बसा हुआ है।

अमृत पर अधिकार को लेकर देवता और दानवों के बीच लगातार बारह दिन तक युद्ध हुआ था। जो मनुष्यों के बारह वर्ष के समान हैं।

युद्ध के दौरान सूर्य, चंद्र और शनि आदि देवताओं ने कलश की रक्षा की थी, अतः उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, तब कुम्भ का योग होता है और चारों पवित्र स्थलों पर प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल पर क्रमानुसार कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है।

कुम्भ-अमृत स्नान और अमृतपान की बेला। इसी समय गंगा की पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होता है। इसी समय कुम्भ स्नान का संयोग बनता है। कुम्भ पर्व भारतीय जनमानस की पर्व चेतना की विराटता का द्योतक है। विशेषकर उत्तराखंड की भूमि पर तीर्थ नगरी हरिद्वार का कुम्भ तो महाकुम्भ कहा जाता है।
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विश्वास है कि भगवान शिव

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शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि भगवान शिव ईश्वर हैं... जिनकी परम सत्ता, पराशिव, दिक्काल और रुप से परे है... योगी मौन रुप से उसे "नेति नेति" कहते हैं... जी हाँ... भगवान शिव ऐसे ही अबोधगम्य भगवान हैं...

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वाश है कि भगवान शिव ईश्वर हैं... जिनके प्रेम की सर्वव्यापी प्रकृति, पराशक्ति, आधारभूत, मूल तत्व या शुद्ध चेतना है... जो सभी स्वरुपों से ऊर्जा, अस्तित्व, ज्ञान और परमानन्द के रुप में बहती रहती है...

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि भगवान शिव ईश्वर हैं... जिनकी सर्वव्यापी प्रकृति परम् आत्मा, सर्वोपरि महादेव, परमेश्वर, वेदों एवं आगमों की प्रणेता तथा सभी सत्ताओं की कर्ता भर्ता एवं हर्ता हैं...

शिव के सभी अनुयायी शिव-शक्ति के पुत्र महादेव भगवान गणेश में विश्वास करते हैं तथा कोई भी पूजा या कार्य प्रारंभ करने से पूर्व उनकी पूजा अवश्य करते हैं... उनका नियम सहानुभूतिशील है... उनका विधान न्यायपूर्ण है... न्याय ही उनका मन है...

शिव के सभी अनुयायी शिव - शक्ति के पुत्र महादेव कार्तिकेय में विश्वास करते हैं... जिनकी कृपा का वेल अज्ञान के बंधन को नष्ट कर देता है... योगी पद्मासन में बैठकर मुरूगन की उपासना करते हैं... इस आत्मसंयम से... उनका मन शांत हो जाता है...

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि सभी आत्माओं की रचना भगवान शिव ने की है और वे तद्रूप (उन्ही जैसी) हैं तथा जब उनकी कृपा से अणव, कर्म और माया दूर हो जाएगी, तो सभी आत्माएं इस तद्रूपता का पूर्ण साक्षात्कार कर लेंगी...

शिव के सभी अनुयायी तीन लोकों में विश्वास करते हैं... स्थूल लोक [भूलोक] जहां सभी आत्माएं भौतिक शरीर धारण करती हैं... सूक्ष्म लोक [अंतर्लोक] जहां आत्माएं सूक्ष्म शरीर धारण करती हैं... तथा कारण लोक [शिवलोक] जहां आत्माएं अपने स्व-प्रकाशमान स्परुप में विद्यमान रहती हैं...

शिव के सभी अनुयायी कर्म के विधान में विश्वास करते हैं... कि सबको अपने सभी कर्मों का फल अवश्य मिलता है... और यह कि सभी कर्मों के नष्ट होने तक और मोक्ष या निर्वाण प्राप्त होने तक सभी आत्मा बार-बार शरीर धारण करती रहती हैं...

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि ज्ञान या प्रज्ञा प्राप्त करने के लिए चर्या या धार्मिक जीवन, क्रिया या मंदिर में पूजा और जीवित सत्गुरू की कृपा से योगाभ्यास अत्यावश्यक है... जो पराशिव की और ले जाता है...

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है अशुभ या अमंगल का कोई तात्त्विक अस्तित्व नहीं है... जब तक अशुभ के आभास का स्रोत अज्ञान स्वयं न हो, अशुभ का कोई स्रोत नहीं है... शैव हिन्दू वास्तव में दयालु होते हैं... वे जानते हैं कि अन्ततः कुछ भी शुभ या अशुभ नहीं है... सबकुछ शिव की इच्छा है...

शिव के सभी अनुयायियों का विश्वास है कि तीनों लोकों द्वारा सामंजस्यपूर्वक एक साथ कार्य करना धर्म है और यह कि यह सामंजस्य मंदिर में पूजा करके उत्पन्न किया जा सकता है... जहां पर तीनों लोकों की सत्ताएं संप्रेषण कर सकती हैं...

शिव के सभी अनुयायी पंचाक्षर मंत्र, पांच पवित्र अक्षरों से बने मंत्र "नमः शिवाय" में विश्वास करते हैं... जो शैव संप्रदाय का प्रमुख और अनिवार्य मंत्र है... "नमः शिवाय" का रहस्य इसे सही होठों से सही समय पर सुनना है...
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श्री स्वामी समर्थ आरती

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श्री स्वामी समर्थ आरती
जय जय सदगुरू स्वामी समर्था आरती करूं गुरुवर्या रे l
अगाध महिमा तव चरणांचा वर्णाया मति दे या रे ll धृ.ll
अक्कलकोटी वास करूनिया दाविली अघटित चर्चा रे l
लीलापाशे बद्ध करुनिया,तोडिले भवभया रे ll १ ll
यवने पुशिले स्वामि कहाँ है l
अक्कलकोटी पहा रे l समाधिसुख ते भोगुनि बोले, धन्य स्वामिवर्या रे ll २ ll जाणसि मनिचे सर्वसमर्था विनवु किती भवहरा रे l
इतुके देई दीनदयाळा नच तव पद अंतरा रे ll ३ ll
॥ श्री स्वामी समर्थ जय जय स्वामी समर्थ ॥
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हमारे दशनाम इस परकार है


हमारे दशनाम इस परकार है ः
(1)-वन, (2)-अरण्य, (3)-गिरि, (4)-सागर,
(5)-पर्वत, (6)-तीर्थ, (7)-आश्रम, (8)-पुरि,
(9)-भारती, (10)-सरस्वती हमारे समाज की 52 मढी है जो इस परकार
है----
गिरि,पर्वत,सागर ­ की 27 मढी है
ओर पुरियो की 16 मढी है,
ओर गुरू शंकरा चार्य सन्यासी वन की 4
मढी हैI ओर भारतीयो की 4 मढी है
ओर लामा गुरू की 1 मढी है जिनका विवरण इस परकार है:- {गिरि,पर्वत,साग ­र की 27मढी इस परकार
है -- 1-रामदत़ी, 2-ओंकार लाल नाथी, 3-
चन्दनाथी बोदला, 4-व्रहा नाथी, 5-
दुर्गा नाथी, 6-व्रहा नाथी, 7-सेज नाथी, 8-
जग जीवन नाथी, 9-पाटम्बर नाथी, 10-
ज्ञान नाथी- -11-अघोर नाथी, 12-भाव
नाथी, 13-ऋदि नाथी, 14-सागर नाथी, 15-चाँद नाथ बोदला, 16-कुसुम नाथी, 17-अपार
नाथी, 18-रत्न नाथी, 19-नागेन्द्र नाथी, 20-
रूद्र नाथी 21-महेश नाथी, 22-अजरज नाथी,
23-मेघ नाथी, 24-पर्वत नाथी, 25-मान
नाथी, 26-पारस नाथी, 27-दरिया नाथी पुरियो की 16 मढी इस परकार है:- 1-वैकुण्ठ पुरि, 2-केशव पुरि मुलतानी,3-
गंगा पुरि दरिया पुरि, 4-ञिलोक पुरि, 5-
वन मेघनाथ पुरि, 6-सेज पुरि, 7-भगवन्त
पुरि, 8-पू्रण पुरि 9-भण्डारी हनुमत पुरि,
10-जड भरत पुरि, 11-लदेर दरिया पुरि,
12-संग दरिया पुरि, 13-सोम दरिया पुरि 14-नील कण्ठ पुरि, 15-तामक
भियापुरि, 16-मुयापुरिनिरं ­जनी- गुरूशंकरा चार्य सन्यासी वन की 4 मढी इस
परकार ह:- 1-गंगासनी वन, 2-सिंहासनी वन, 3-वाल
वन कुण्डली श्री वन, 4-होड सारी वन-अत्म
वन, भारती की 4 मढी इस परकार है-
1-मन मुकुन्द भारती , 2-नृसिंह भारती, 3-
पदम नाथ भारती , 4-बाल किषन भारती , लामा गुरू की 1 मढी इस परकार है-
पाहरी की छाप लामा गुरु की मढी चीन में है॥ कृपया इस विवरण को समाज के
व्यक्तियो तक पहुचाऎ ताकि सभी हमारे
समाज के बारे में जान सके॥
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अपने पास ही छुपी हुई खूबसूरती

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हम सारी दुनिया घूमते और खूबसूरती तलाशते रहते हैं .. कभी मुड़ के भी नहीं देखते .. अपने पास ही छुपी हुई खूबसूरती की और,दुनिया की सबसे अच्छी और खूबसूरत चीजें कभी देखी या छुई नहीं गई, वे बस दिल के साथ घुल – मिल गईं|वह सुन्दरता श्रीहरी के बीना कहीं मिली नही आशु को|....

कभी भी कुछ सुंदर देखने का मौका मत छोडो, सच तो यह है कि खूबसूरती भगवान की लिखावट है .. हर चेहरे पर, धुले-धुले आसमान में, हर फूल में उसकी लिखावट नज़र आएगी .. और हे भगवान, इस सौंदर्य के लिये हम आपके आभारी हैं| ....
जो सुंदरता आंखों द्वारा देखी जाती है , वह कुछ ही पल कि होती है , यह जरूरी भी नहीं कि हमारे भीतर से भी वही खूबसूरती दिखाई दे,खूबसूरती चेहरे पर नही होती| ये तो दिल की रोशनी है, बहुत ध्यान से देखनी पड‍़ती है|...

बिना श्रृंगार के मन मोहती है,वास्तविक सोन्दर्य ह्रदय की पवित्रता में है,सुन्दर वही हो सकता है जो कल्याणकारी हो,वह सुन्दरता श्रीहरी के बीना कहीं मिली नही ...प्यारे श्रीहरी ये दिल दीवाना तेरा हैं.... .......हरी ॐ भगवान् को प्रिय है हरिनाम .... 
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दीन हुये बिना दीनदयाल

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दीन हुये बिना दीनदयाल मिले भी तो कैसे ...??जब तक संसारकी आशा नहीं छूटेगी तब तक दीनावस्था नहीं आयेगी और दीन हुये बिना दीनदयाल भी प्राप्त नहीं होंगे ! दीन परमात्माके प्रति अनन्य होता है, और अपने अनन्य भक्तोंके लिये भगवान् को भी अनन्य होना पड़ता है ! भगवान् गीतामें अपने श्रीमुखसे गीतामें कहते है ! "ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्" भगवान् कहते हैं कि जो जिस प्रकारसे मुझे भजता है मैं भी उसी प्रकारसे उसे भजता हुँ ! ...श्रीराधेश्याम...हरि हर
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Feetured Post

नारी शक्ति की सुरक्षा के लिये

 1. एक नारी को तब क्या करना चाहिये जब वह देर रात में किसी उँची इमारत की लिफ़्ट में किसी अजनबी के साथ स्वयं को अकेला पाये ?  जब आप लिफ़्ट में...