श्रीगुरु चरित्र में एक गुरु-शिष्य की कथा है | एक शिष्य को काशी विशेश्वर के मंदिर के बाहर बैठे एक कुष्ट रोगी में शिव के दर्शन हुए और वह उनकी सेवा करने लगा | उनकी घाव में प्रेमसे लेप लगाता , पट्टी करता तब गुरु उन्हें लातसे मारते और कहते तुम्हें मेरे घाव से घृणा होती है, जब उनके लिए भिक्षा मांगकर लाता और सड़े गले भोजन मार्ग में ही ग्रहण कर गुरुके लिए अच्छा भोजन लाता तो गुरु लांछन लगाते कि भिक्षा में जो अच्छा -अच्छा चीज मिलता है वह मार्ग में चोरी चोरी खा लेते हो और मेरे लिए सडी गली चीज लाकर देते हो ! इस प्रकार शिष्य गुरु की सेवा सारे लांछन सहकर आनंदपूर्वक करता रहा और एक दिवस उन्हें वह सब कुछ मिल गया जो उस शिष्य को चाहिए था क्योंकि उनके कुष्ट रोगी गुरु और कोई नहीं साक्षात शिव ही थे |
विचारों के अनुरूप ही मनुष्य की स्थिति और गति होती है। श्रेष्ठ विचार सौभाग्य का द्वार हैं, जबकि निकृष्ट विचार दुर्भाग्य का,आपको इस ब्लॉग पर प्रेरक कहानी,वीडियो, गीत,संगीत,शॉर्ट्स, गाना, भजन, प्रवचन, घरेलू उपचार इत्यादि मिलेगा । The state and movement of man depends on his thoughts. Good thoughts are the door to good fortune, while bad thoughts are the door to misfortune, you will find moral story, videos, songs, music, shorts, songs, bhajans, sermons, home remedies etc. in this blog.
मां बाप होने के नाते.
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1.माँ-बाप होने के नाते अपने बच्चों को खूब पढाना-लिखाना और पढा लिखा कर खूब लायक बनाना । मगर इतना लायक भी मत बना देना कि वह कल तुम्हें ही ‘नालायक’ समझने लगे । अगर तुमने आज यह भूल की तो कल बुढापे में तुम्हें बहुत रोना पछताना पडेगा । यह बात मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि कुछ लोग जिंदगी में यह भूल कर चुके है और वे आज रो रहे है । अब पछताने से क्या होगा जब चिड़िया चुग गई खेत ।
2.बच्चों के झगडे में बडों को और सास बहू के झगडों में बाप बेटे को कभी नहीं पडना चाहिये । संभव है कि दिन में सास बहू में कुछ कहा सुनी हो तो स्वाभाविक है कि वे इसकी शिकायत रात घर लौटे अपने पति से करेगी । पतियों को उनकी शिकायत गौर से सुननी चाहिये, सहानुभूति भी दिखानी चाहिये । मगर जब सोकर उठे तो आगे पाठ-पीछे सपाट की नीति ही अपनानी चाहिये, तभी घर में एकता कायम रह सकती है ।
1.माँ-बाप होने के नाते अपने बच्चों को खूब पढाना-लिखाना और पढा लिखा कर खूब लायक बनाना । मगर इतना लायक भी मत बना देना कि वह कल तुम्हें ही ‘नालायक’ समझने लगे । अगर तुमने आज यह भूल की तो कल बुढापे में तुम्हें बहुत रोना पछताना पडेगा । यह बात मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि कुछ लोग जिंदगी में यह भूल कर चुके है और वे आज रो रहे है । अब पछताने से क्या होगा जब चिड़िया चुग गई खेत ।
2.बच्चों के झगडे में बडों को और सास बहू के झगडों में बाप बेटे को कभी नहीं पडना चाहिये । संभव है कि दिन में सास बहू में कुछ कहा सुनी हो तो स्वाभाविक है कि वे इसकी शिकायत रात घर लौटे अपने पति से करेगी । पतियों को उनकी शिकायत गौर से सुननी चाहिये, सहानुभूति भी दिखानी चाहिये । मगर जब सोकर उठे तो आगे पाठ-पीछे सपाट की नीति ही अपनानी चाहिये, तभी घर में एकता कायम रह सकती है ।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
सात प्रकार के विवाह
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" ब्रह्मविवाह" " आर्षविवाह" " प्रजापत्य-विवाह" " असुर-विवाह" " गान्धर्व-विवाह" " पैशाच-विवाह " " राक्षस-विवाह" !
विवाह का वर्णन करते हुये ईश्वर कहते हैं----अपने समान गोत्र तथा समान प्रवर में उत्पन्न हुई कन्या का वंरण न करे! पिता से ऊपर की सात पीढ़ियों के साथ तथा माता से मंच पीढ़ियों के बाद की ही परम्परा में उसका जन्म होना चाहिये! उत्तम कुल तथा अच्छे स्वभाव के सदाचारी वर को घर पर बुला कर उसे कन्या का दान देना
" ब्रह्मविवाह" कहलाता है! वर के साथ एक गाय और एक बैल लेकर जो कन्यादान किया जाता है, उसे " आर्षविवाह" कहते हैं! जब किसी के मांगने पर उसे कन्या दी जाती है तो वह " प्रजापत्य-विवाह" कहलाता है! कीमत लेकर कन्या का देना " असुर-विवाह" है! [ इसे नीच श्रेणी का विवाह कहा गया है] वर और कन्या जब स्वेच्छापूर्वक एक-दूसरे को स्वीकार करते हैं तो उसे " गान्धर्व-विवाह" कहलाता है तथा कन्या को धोखा देकर उड़ा लेना " पैशाच-विवाह " माना है! युद्ध के द्वारा कन्या के हर लेने से " राक्षस-विवाह" कहलाता है!
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भगवान् हयग्रीव जी [विष्णु] कहते हैं---"ॐ ॐ हूं फट विष्णवे स्वाहा!" इस प्रकार मन्त्र-जप करके सो जाने पर यदि अच्छा स्वप्न हो तो सब शुभ होता है और यदि बुरा स्वप्न हुआ तो नरसिंह मन्त्र से हवन करनेपर शुभ होता है!
" ब्रह्मविवाह" " आर्षविवाह" " प्रजापत्य-विवाह" " असुर-विवाह" " गान्धर्व-विवाह" " पैशाच-विवाह " " राक्षस-विवाह" !
विवाह का वर्णन करते हुये ईश्वर कहते हैं----अपने समान गोत्र तथा समान प्रवर में उत्पन्न हुई कन्या का वंरण न करे! पिता से ऊपर की सात पीढ़ियों के साथ तथा माता से मंच पीढ़ियों के बाद की ही परम्परा में उसका जन्म होना चाहिये! उत्तम कुल तथा अच्छे स्वभाव के सदाचारी वर को घर पर बुला कर उसे कन्या का दान देना
" ब्रह्मविवाह" कहलाता है! वर के साथ एक गाय और एक बैल लेकर जो कन्यादान किया जाता है, उसे " आर्षविवाह" कहते हैं! जब किसी के मांगने पर उसे कन्या दी जाती है तो वह " प्रजापत्य-विवाह" कहलाता है! कीमत लेकर कन्या का देना " असुर-विवाह" है! [ इसे नीच श्रेणी का विवाह कहा गया है] वर और कन्या जब स्वेच्छापूर्वक एक-दूसरे को स्वीकार करते हैं तो उसे " गान्धर्व-विवाह" कहलाता है तथा कन्या को धोखा देकर उड़ा लेना " पैशाच-विवाह " माना है! युद्ध के द्वारा कन्या के हर लेने से " राक्षस-विवाह" कहलाता है!
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भगवान् हयग्रीव जी [विष्णु] कहते हैं---"ॐ ॐ हूं फट विष्णवे स्वाहा!" इस प्रकार मन्त्र-जप करके सो जाने पर यदि अच्छा स्वप्न हो तो सब शुभ होता है और यदि बुरा स्वप्न हुआ तो नरसिंह मन्त्र से हवन करनेपर शुभ होता है!
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तुम कौन हो
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जब तुम पैदा हुए तो जो पहला कपडा तुम्हे पहनाया गया वो तुम्हारा नहीं था.जब तुम स्कूल गए तो वो फीस,वो किताब पेंसिल तुम्हारी नहीं थी, जब तुम और बड़े हुए तो जो घर,गाडी तुमने ली वो भी तुमने पैदा नहीं की थी. जब तुम मर जाते हो तो जिन लकड़ियों में तुम्हे जलाया जाता है वो भी तुमने पैदा नहीं की होती........
तो फिर ये मेरा-मेरा क्या है ????
इस पर सोचो....
एसा क्या है जो यहाँ तुमने पैदा किया हो?
एसा क्या है जो तुमने यहाँ नष्ट किया हो?
सिर्फ ये जानने की कोशिश करो की तुम कौन हो और यहाँ क्यूँ
जब तुम पैदा हुए तो जो पहला कपडा तुम्हे पहनाया गया वो तुम्हारा नहीं था.जब तुम स्कूल गए तो वो फीस,वो किताब पेंसिल तुम्हारी नहीं थी, जब तुम और बड़े हुए तो जो घर,गाडी तुमने ली वो भी तुमने पैदा नहीं की थी. जब तुम मर जाते हो तो जिन लकड़ियों में तुम्हे जलाया जाता है वो भी तुमने पैदा नहीं की होती........
तो फिर ये मेरा-मेरा क्या है ????
इस पर सोचो....
एसा क्या है जो यहाँ तुमने पैदा किया हो?
एसा क्या है जो तुमने यहाँ नष्ट किया हो?
सिर्फ ये जानने की कोशिश करो की तुम कौन हो और यहाँ क्यूँ
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मनुष्य के लिए 'रिश्ता' शब्द The word 'relationship' for humans
किसी भी समाज से सरोकार रखने वाले मनुष्य के लिए 'रिश्ता' शब्द बड़ी अहमियत रखता है। हम परिवार में विभिन्न रिश्तों की डोर से बँधे होते हैं। लेकिन इन पारिवारिक रिश्तों के अलावा एक और महत्वपूर्ण रिश्ता हमारे जीवन में काफी महत्व रखता है और वह है दोस्ती अथवामित्रता का रिश्ता, जो विश्वास व सहयोग के आधार पर टिका होता है। मित्र राजदार भी होते हैं और सुख-दुःख के साथी भी।
जानिए मित्र/ मित्रता के बारे में चाणक्य, सुकरात, अरस्तु जैसे कुछ विचारकों के विचार-
* मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु हर स्थिति में अच्छा है।
* मित्र पाने की राह है, खुद किसी का मित्र बन जाना।
* मित्रता करने में धैर्य से काम लो। किंतु जब मित्रता कर ही लो तो उसे अचल और दृढ़ होकर निभाओ।
* अपने मित्र को एकांत में नसीहत दो, लेकिन प्रशंसा (सही) खुलेआम करो।
* तुम्हारा अपना व्यवहार ही शत्रु अथवा मित्र बनाने के लिए उत्तरदायी है।
* सच्चा मित्र वह है जो दर्पण की तरह तुम्हारे दोषों को तुम्हें दिखाए। जो तुम्हारे अवगुणों को गुण बताए वह तो खुशामदी है।
* विदेश में विद्या मित्र होती है, घर में पत्नी मित्र होती है, रोगी का मित्र औषधि व मृतक का मित्र धर्म होता है।
* मित्र वे दुर्लभ लोग होते हैं, जो हमारा हालचाल पूछते हैं और उत्तर सुनने को रुकते भी हैं।
* ज्ञानवान मित्र ही जीवन का सबसे बड़ा वरदान है।
* सच्चे मित्र हीरे की तरह कीमती और दुर्लभ होते हैं, झूठे दोस्त पतझड़ की पत्तियों की तरह हर कहीं मिल जाते हैं।
जानिए मित्र/ मित्रता के बारे में चाणक्य, सुकरात, अरस्तु जैसे कुछ विचारकों के विचार-
* मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु हर स्थिति में अच्छा है।
* मित्र पाने की राह है, खुद किसी का मित्र बन जाना।
* मित्रता करने में धैर्य से काम लो। किंतु जब मित्रता कर ही लो तो उसे अचल और दृढ़ होकर निभाओ।
* अपने मित्र को एकांत में नसीहत दो, लेकिन प्रशंसा (सही) खुलेआम करो।
* तुम्हारा अपना व्यवहार ही शत्रु अथवा मित्र बनाने के लिए उत्तरदायी है।
* सच्चा मित्र वह है जो दर्पण की तरह तुम्हारे दोषों को तुम्हें दिखाए। जो तुम्हारे अवगुणों को गुण बताए वह तो खुशामदी है।
* विदेश में विद्या मित्र होती है, घर में पत्नी मित्र होती है, रोगी का मित्र औषधि व मृतक का मित्र धर्म होता है।
* मित्र वे दुर्लभ लोग होते हैं, जो हमारा हालचाल पूछते हैं और उत्तर सुनने को रुकते भी हैं।
* ज्ञानवान मित्र ही जीवन का सबसे बड़ा वरदान है।
* सच्चे मित्र हीरे की तरह कीमती और दुर्लभ होते हैं, झूठे दोस्त पतझड़ की पत्तियों की तरह हर कहीं मिल जाते हैं।
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जीवन में कुछ परिवर्तन
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यदि आप अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करना चाहते है तो ऐसा नियमित रूप से करेगे तो इससे आप का भाग्
य और समय धीरे धीरे परिवर्तन होने लगेगा ....कार्तिक महिना का पावन पर्व चल रहा है इस महीने में ब्रह्म बेला में उठ कर इश्वर का नाम , ध्यान , योग और पूजा करने से अकस्मात् लाभ होता है
1. सूर्योदय से पूर्व ब्रह्मा बेला में उठे , और अपने दोनों हांथो की हंथेली को रगरे और हंथेली को देख कर अपने मुंह पर फेरे, क्योंकि :- शास्त्रों में कहा गया है की कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती । करमूले स्थिता गौरी, मंगलं करदर्शनम् ॥
हमारे हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, तथा हाथ के मूल मे सरस्वती का वास है अर्थात भगवान ने हमारे हाथों में इतनी ताकत दे रखी है,ज़िसके बल पर हम धन अर्थात लक्ष्मी अर्जित करतें हैं। जिसके बल पर हम विद्या सरस्वती प्राप्त करतें हैं।इतना ही नहीं सरस्वती तथा लक्ष्मी जो हम अर्जित करते हैं, उनका समन्वय स्थापित करने के लिए प्रभू स्वयं हाथ के मध्य में बैठे हैं। ऐसे में क्यों न सुबह अपनें हाथ के दर्शन कर प्रभू की दी हुई ताकत का अहसास करते हुए तथा प्रभू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए दिन की अच्छी शुरूवात करें।
2.मल , मूत्र , दातुन (मंजन) , भोजन करते समय मौन ( शांत ) रहे
3- . योग और प्राणायाम को नियमित जीवनचर्या में शामिल करे ,ऐसा करने से शरीर हमेशा निरोग रहता है,
4. . प्रातः अपने माता पिता गुरुजनों और अपने से बड़ों का आशीर्वाद ले , ऋषियों ने कहा है की जो भी माता बहन या भाई बंधू अपने घरों में रोज अपने से बड़ो या पति , सास -ससुर का रोज आशीर्वाद लेते है उनके घर में कभी अशांति नहीं आती है या कभी भी तलाक या महामरी नहीं हो टी है इशलिये अपने से बड़ो की इज्जत करें और उनका आशीर्वाद लें .
5 तिलक किये बिना और अपने सर को बिना ढके पूजा पाठ और पित्रकर्म या कोई भी शुभ कार्य न करें, जहाँ तक हो सके तिलक जरुर करें,
6. रोज नहा धोकर अपने शारीर को स्वक्ष करें , साफ वस्त्र पहने , गुरु और इश्वर का चिंतन करते हुए अपने काम को इश्वर की सेवा करते हुए करें, कुछ भी खाने पिने से पहले गाय, कुत्ता और कौवा का भोजन जरुर निकले, इश्को करने से आप के घर में अन्ना का भंडार हमेशा भरा रहेगा.
7.सोते समय अपना सिरहाना (सर ) दक्षिण दिशा की ओर रखने से धन व आयु की बढ़ोत्तरी होती है।उत्तर की ओर सिरहाना रखने से आयु की हानि होतीहै
8. कभी भी बीम या शहतीर के नीचे न बैठें और न ही सोयें । इससे देह पीड़ा या सिर दर्द होता है ।
9. अपने घर में तुलशी का पौधा लगायें ,
10-घर में पोछा लगाते समय पानी में नमक या सेंधा नमक डाल लें । घर में झाडू व पोंछा खुले स्थान पर न रखें ।
11-घर में टूटे-फूटे बतरन, टूटा दर्पण ( शीशा ), टूटी चारपाई या बैड न रखें । इनमें दरिद्रता का वास होता है।
12-यदि घर में कोइ घडी ठीक से नहीं चल रही हैं तो उन्हें ठीक करा लें ।बंद घड़ी गृहस्वामी के भाग्य को कम करती है ।
13-पूर्व की ओर मुंह करके भोजन करने से आयु, दक्षिण की ओर मुंह करके भोजन करने से प्रेत, पश्चिम की ओर मुंह करके भोजन करने से रोग व उत्तर की ओर मुंह करके भोजन करने से धन व आयु की प्राप्ति होती है ।
14- परोपकार का पालन करें, असहाय , गरीब और पशुओं और पर्यावरण की रक्षा करें
15- अपने धर्मं की रक्षा करें, मानव समाज की रक्षा करें, अपने देश और जन्मभूमि की रक्षा करें ,
16-मन वाणी और कर्म से सदाचार का पालन करें .
17- प्यार ही जीवन है खुद भी जियो और दूसरों को भी जीने दो
यदि आप अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करना चाहते है तो ऐसा नियमित रूप से करेगे तो इससे आप का भाग्
य और समय धीरे धीरे परिवर्तन होने लगेगा ....कार्तिक महिना का पावन पर्व चल रहा है इस महीने में ब्रह्म बेला में उठ कर इश्वर का नाम , ध्यान , योग और पूजा करने से अकस्मात् लाभ होता है
1. सूर्योदय से पूर्व ब्रह्मा बेला में उठे , और अपने दोनों हांथो की हंथेली को रगरे और हंथेली को देख कर अपने मुंह पर फेरे, क्योंकि :- शास्त्रों में कहा गया है की कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती । करमूले स्थिता गौरी, मंगलं करदर्शनम् ॥
हमारे हाथ के अग्र भाग में लक्ष्मी, तथा हाथ के मूल मे सरस्वती का वास है अर्थात भगवान ने हमारे हाथों में इतनी ताकत दे रखी है,ज़िसके बल पर हम धन अर्थात लक्ष्मी अर्जित करतें हैं। जिसके बल पर हम विद्या सरस्वती प्राप्त करतें हैं।इतना ही नहीं सरस्वती तथा लक्ष्मी जो हम अर्जित करते हैं, उनका समन्वय स्थापित करने के लिए प्रभू स्वयं हाथ के मध्य में बैठे हैं। ऐसे में क्यों न सुबह अपनें हाथ के दर्शन कर प्रभू की दी हुई ताकत का अहसास करते हुए तथा प्रभू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए दिन की अच्छी शुरूवात करें।
2.मल , मूत्र , दातुन (मंजन) , भोजन करते समय मौन ( शांत ) रहे
3- . योग और प्राणायाम को नियमित जीवनचर्या में शामिल करे ,ऐसा करने से शरीर हमेशा निरोग रहता है,
4. . प्रातः अपने माता पिता गुरुजनों और अपने से बड़ों का आशीर्वाद ले , ऋषियों ने कहा है की जो भी माता बहन या भाई बंधू अपने घरों में रोज अपने से बड़ो या पति , सास -ससुर का रोज आशीर्वाद लेते है उनके घर में कभी अशांति नहीं आती है या कभी भी तलाक या महामरी नहीं हो टी है इशलिये अपने से बड़ो की इज्जत करें और उनका आशीर्वाद लें .
5 तिलक किये बिना और अपने सर को बिना ढके पूजा पाठ और पित्रकर्म या कोई भी शुभ कार्य न करें, जहाँ तक हो सके तिलक जरुर करें,
6. रोज नहा धोकर अपने शारीर को स्वक्ष करें , साफ वस्त्र पहने , गुरु और इश्वर का चिंतन करते हुए अपने काम को इश्वर की सेवा करते हुए करें, कुछ भी खाने पिने से पहले गाय, कुत्ता और कौवा का भोजन जरुर निकले, इश्को करने से आप के घर में अन्ना का भंडार हमेशा भरा रहेगा.
7.सोते समय अपना सिरहाना (सर ) दक्षिण दिशा की ओर रखने से धन व आयु की बढ़ोत्तरी होती है।उत्तर की ओर सिरहाना रखने से आयु की हानि होतीहै
8. कभी भी बीम या शहतीर के नीचे न बैठें और न ही सोयें । इससे देह पीड़ा या सिर दर्द होता है ।
9. अपने घर में तुलशी का पौधा लगायें ,
10-घर में पोछा लगाते समय पानी में नमक या सेंधा नमक डाल लें । घर में झाडू व पोंछा खुले स्थान पर न रखें ।
11-घर में टूटे-फूटे बतरन, टूटा दर्पण ( शीशा ), टूटी चारपाई या बैड न रखें । इनमें दरिद्रता का वास होता है।
12-यदि घर में कोइ घडी ठीक से नहीं चल रही हैं तो उन्हें ठीक करा लें ।बंद घड़ी गृहस्वामी के भाग्य को कम करती है ।
13-पूर्व की ओर मुंह करके भोजन करने से आयु, दक्षिण की ओर मुंह करके भोजन करने से प्रेत, पश्चिम की ओर मुंह करके भोजन करने से रोग व उत्तर की ओर मुंह करके भोजन करने से धन व आयु की प्राप्ति होती है ।
14- परोपकार का पालन करें, असहाय , गरीब और पशुओं और पर्यावरण की रक्षा करें
15- अपने धर्मं की रक्षा करें, मानव समाज की रक्षा करें, अपने देश और जन्मभूमि की रक्षा करें ,
16-मन वाणी और कर्म से सदाचार का पालन करें .
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वेद और हिंदू नारी
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जिस कुल में नारियों कि पूजा, अर्थात सत्कार होता हैं, उस कुल में दिव्यगुण, दिव्य भोग और उत्तम संतान होते हैं और जिस कुल में स्त्रियों कि पूजा नहीं होती, वहां जानो उनकी सब क्रिया निष्फल हैं।
आज से दस हजार साल पहले आर्य या कहें कि वैदिक काल में नारी की स्थिति क्या थी यह सभी के लिए विचारणीय हो सकता है। नारी की स्थित से समाज और देश के सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर का पता चलता है। यदि नारी को धर्म, समाज और पुरुष के नियमों में बांधकर रखा गया है तो उसकी स्थिति बदतर ही मानी जा सकती है।
किंतु जिन्होंने वेद-गीता पढ़े हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि दस हजार वर्ष पूर्व जबकि मानव जंगली था, आर्य पूर्णत: एक सभ्य समाज में बदल चुके थे। तभी तो वेदों में जो नारी की स्थिति का वर्णन है उससे पता चलता है कि उनकी स्थिति आज के समाज से कहीं अधिक आदरणीय और स्वतंत्रतापूर्ण थी।
नारी की स्थिति :
1.वैदिक काल में कोई भी धार्मिक कार्य नारी की उपस्थिति के बगैर शुरू नहीं होता था। उक्त काल में यज्ञ और धार्मिक प्रार्थना में यज्ञकर्ता या प्रार्थनाकर्ता की पत्नी का होना आवश्यक माना जाता था।
2.नारियों को धर्म और राजनीति में भी पुरुष के समान ही समानता हासिल थी। वे वेद पढ़ती थीं और पढ़ाती भी थीं। मैत्रेयी, गार्गी जैसी नारियां इसका उदाहरण है। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। यही नहीं नारियां युद्ध कला में भी पारंगत होकर राजपाट भी संभालती थी।
3.शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि नारी नर की आत्मा का आधा भाग है। नारी के बिना नर का जीवन अधूरा है इस अधूरेपन को दूर करने और संसार को आगे चलाने के लिए नारी का होना जरूरी है। नारी को वैदिक युग में देवी का दर्जा प्राप्त था।
4.ऋग्वेद में वैदिक काल में नारियां बहुत विदुषी और नियम पूर्वक अपने पति के साथ मिलकर कार्य करने वाली और पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली होती थी। पति भी पत्नी की इच्छा और स्वतंत्रता का सम्मान करता था।
5.वैदिक काल में वर तलाश करने के लिए वधु की इच्छा सर्वोपरि होती थी। फिर भी कन्या पिता की इच्छा को भी महत्व देती थी। यदि पिता को कन्या के योग्यवर नहीं लगता था तो वह पिता की मर्जी को भी स्वीकार करती थीं।
6.बहुत-सी नारियां यदि अविवाहित रहना चाहती थीं तो अपने पिता के घर में सम्मान पूर्वक रहती थी। वह घर परिवार के हर कार्य में साथ देती थी। पिता की संम्पति में उनका भी हिस्सा होता था।
7.सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में जहां पुरुष के रूप में देवता और भगवानों की पूजा-प्रार्थना होती थी वहीं देवी के रूप में मां सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा का वर्णन मिलता है। वैदिक काल में नारियां मां, देवी, साध्वी, गृहिणी, पत्नी और बेटी के रूप में ससम्मान पूजनीय मानी जाती थीं।
8.बाल विवाह की प्रथा तब नहीं थी। नारी को पूर्ण रूप से शिक्षित किया जाता था। उसे हर वह विद्या सिखाई जाती थी जो पुरुष सीखता था- जैसे वेद ज्ञान, धनुर्विद्या, नृत्य, संगीत शास्त्र आदि। नारी को सभी कलाओं में दक्ष किया जाता था उसके बाद ही उसके विवाह के संबंध में सोचा जाता था। इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे।
ऐसे हुआ नारी का पतन :
महाभारत युद्ध के बाद नारी का पतन होना शुरू हुआ। इस युद्ध के बाद समाज बिखर गया, राष्ट्र राजनीतिक शून्य हो गया था और धर्म का पतन भी हो चला था। युद्ध में मारे गए पुरुषों की स्त्रीयां विधवा होकर बुरे दौर में फंस गई थी।
राजनीतिक शून्यता के चलते राज्य असुरक्षित होने लगे। असुरक्षित राज्य में अराजकता और मनमानी बढ़ गई। इसके चलते नारियां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण की शिकार होने लगी। फिर भी यह दौर नारियों के लिए उतना बुरा नहीं था जितना की मध्य काल रहा।
पुराने समय में पुरुष के साथ चलने वाली नारी मध्य काल में पुरुष की सम्पति की तरह समझी जाने लगी। इसी सोच के चलते नारियों की स्वतंत्रता खत्म हो गई। मध्य काल में नए नए जन्मे तथाकथित धर्मों ने नारी को धार्मिक तौर पर दबाना और शोषण करना शुरू किया।
धर्म और समाज के जंगली कानून ने नारी को पुरुष से नीचा और निम्न घोषित कर उसे उपभोग की वस्तु बनाकर रख दिया। वैदिक युग की नारी धीरे-धीरे अपने देवीय पद से नीचे खिसकर मध्यकाल के सामन्तवादी युग में दुर्बल होकर शोषण का शिकार होने लगी।
तथाकथित मध्यकालीन धर्म ने नारी को पुरुर्षों पर निर्भर बनाने के लिए उसे सामूहिक रूप से पतित अनधिकारी बताया गया। उसके मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाकर पुरुष को हर जगह बेहतर बताकर नारी के अवचेन में शक्तिहीन होने का अहसास जगाया गया जिसके चलते उसे आसानी से विद्याहीन, साहसहीन कर दिया जाए। समाज, देश और धर्म के नारी को अनुपयोगी बनाया गया ताकि वह अपने जीवन यापन, इज्जत और आत्मरक्षा के लिए पूर्णत: पुरुष पर निर्भर हो जाए।
इस सभी तरह के भय और दहशत के माहौल के चलते हिन्दुओं में भी पर्दाप्रथा, बाल विवाह प्रथा और नारियों को शिक्षा से दूर रखने का चलन बढ़ गया।
हे नारी! तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी हैं, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली हैं, देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर.। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली हैं, तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर। हे नारी! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वंस्त करने वाली हैं, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।-यजुर्वेद 5/10
जिस कुल में नारियों कि पूजा, अर्थात सत्कार होता हैं, उस कुल में दिव्यगुण, दिव्य भोग और उत्तम संतान होते हैं और जिस कुल में स्त्रियों कि पूजा नहीं होती, वहां जानो उनकी सब क्रिया निष्फल हैं।
आज से दस हजार साल पहले आर्य या कहें कि वैदिक काल में नारी की स्थिति क्या थी यह सभी के लिए विचारणीय हो सकता है। नारी की स्थित से समाज और देश के सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर का पता चलता है। यदि नारी को धर्म, समाज और पुरुष के नियमों में बांधकर रखा गया है तो उसकी स्थिति बदतर ही मानी जा सकती है।
किंतु जिन्होंने वेद-गीता पढ़े हैं वे अच्छी तरह जानते हैं कि दस हजार वर्ष पूर्व जबकि मानव जंगली था, आर्य पूर्णत: एक सभ्य समाज में बदल चुके थे। तभी तो वेदों में जो नारी की स्थिति का वर्णन है उससे पता चलता है कि उनकी स्थिति आज के समाज से कहीं अधिक आदरणीय और स्वतंत्रतापूर्ण थी।
नारी की स्थिति :
1.वैदिक काल में कोई भी धार्मिक कार्य नारी की उपस्थिति के बगैर शुरू नहीं होता था। उक्त काल में यज्ञ और धार्मिक प्रार्थना में यज्ञकर्ता या प्रार्थनाकर्ता की पत्नी का होना आवश्यक माना जाता था।
2.नारियों को धर्म और राजनीति में भी पुरुष के समान ही समानता हासिल थी। वे वेद पढ़ती थीं और पढ़ाती भी थीं। मैत्रेयी, गार्गी जैसी नारियां इसका उदाहरण है। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। यही नहीं नारियां युद्ध कला में भी पारंगत होकर राजपाट भी संभालती थी।
3.शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि नारी नर की आत्मा का आधा भाग है। नारी के बिना नर का जीवन अधूरा है इस अधूरेपन को दूर करने और संसार को आगे चलाने के लिए नारी का होना जरूरी है। नारी को वैदिक युग में देवी का दर्जा प्राप्त था।
4.ऋग्वेद में वैदिक काल में नारियां बहुत विदुषी और नियम पूर्वक अपने पति के साथ मिलकर कार्य करने वाली और पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली होती थी। पति भी पत्नी की इच्छा और स्वतंत्रता का सम्मान करता था।
5.वैदिक काल में वर तलाश करने के लिए वधु की इच्छा सर्वोपरि होती थी। फिर भी कन्या पिता की इच्छा को भी महत्व देती थी। यदि पिता को कन्या के योग्यवर नहीं लगता था तो वह पिता की मर्जी को भी स्वीकार करती थीं।
6.बहुत-सी नारियां यदि अविवाहित रहना चाहती थीं तो अपने पिता के घर में सम्मान पूर्वक रहती थी। वह घर परिवार के हर कार्य में साथ देती थी। पिता की संम्पति में उनका भी हिस्सा होता था।
7.सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में जहां पुरुष के रूप में देवता और भगवानों की पूजा-प्रार्थना होती थी वहीं देवी के रूप में मां सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा का वर्णन मिलता है। वैदिक काल में नारियां मां, देवी, साध्वी, गृहिणी, पत्नी और बेटी के रूप में ससम्मान पूजनीय मानी जाती थीं।
8.बाल विवाह की प्रथा तब नहीं थी। नारी को पूर्ण रूप से शिक्षित किया जाता था। उसे हर वह विद्या सिखाई जाती थी जो पुरुष सीखता था- जैसे वेद ज्ञान, धनुर्विद्या, नृत्य, संगीत शास्त्र आदि। नारी को सभी कलाओं में दक्ष किया जाता था उसके बाद ही उसके विवाह के संबंध में सोचा जाता था। इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे।
ऐसे हुआ नारी का पतन :
महाभारत युद्ध के बाद नारी का पतन होना शुरू हुआ। इस युद्ध के बाद समाज बिखर गया, राष्ट्र राजनीतिक शून्य हो गया था और धर्म का पतन भी हो चला था। युद्ध में मारे गए पुरुषों की स्त्रीयां विधवा होकर बुरे दौर में फंस गई थी।
राजनीतिक शून्यता के चलते राज्य असुरक्षित होने लगे। असुरक्षित राज्य में अराजकता और मनमानी बढ़ गई। इसके चलते नारियां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण की शिकार होने लगी। फिर भी यह दौर नारियों के लिए उतना बुरा नहीं था जितना की मध्य काल रहा।
पुराने समय में पुरुष के साथ चलने वाली नारी मध्य काल में पुरुष की सम्पति की तरह समझी जाने लगी। इसी सोच के चलते नारियों की स्वतंत्रता खत्म हो गई। मध्य काल में नए नए जन्मे तथाकथित धर्मों ने नारी को धार्मिक तौर पर दबाना और शोषण करना शुरू किया।
धर्म और समाज के जंगली कानून ने नारी को पुरुष से नीचा और निम्न घोषित कर उसे उपभोग की वस्तु बनाकर रख दिया। वैदिक युग की नारी धीरे-धीरे अपने देवीय पद से नीचे खिसकर मध्यकाल के सामन्तवादी युग में दुर्बल होकर शोषण का शिकार होने लगी।
तथाकथित मध्यकालीन धर्म ने नारी को पुरुर्षों पर निर्भर बनाने के लिए उसे सामूहिक रूप से पतित अनधिकारी बताया गया। उसके मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाकर पुरुष को हर जगह बेहतर बताकर नारी के अवचेन में शक्तिहीन होने का अहसास जगाया गया जिसके चलते उसे आसानी से विद्याहीन, साहसहीन कर दिया जाए। समाज, देश और धर्म के नारी को अनुपयोगी बनाया गया ताकि वह अपने जीवन यापन, इज्जत और आत्मरक्षा के लिए पूर्णत: पुरुष पर निर्भर हो जाए।
इस सभी तरह के भय और दहशत के माहौल के चलते हिन्दुओं में भी पर्दाप्रथा, बाल विवाह प्रथा और नारियों को शिक्षा से दूर रखने का चलन बढ़ गया।
हे नारी! तू स्वयं को पहचान। तू शेरनी हैं, तू शत्रु रूप मृगों का मर्दन करने वाली हैं, देवजनों के हितार्थ अपने अन्दर सामर्थ्य उत्पन्न कर.। हे नारी! तू अविद्या आदि दोषों पर शेरनी की तरह टूटने वाली हैं, तू दिव्य गुणों के प्रचारार्थ स्वयं को शुद्ध कर। हे नारी! तू दुष्कर्म एवं दुर्व्यसनों को शेरनी के समान विश्वंस्त करने वाली हैं, धार्मिक जनों के हितार्थ स्वयं को दिव्य गुणों से अलंकृत कर।-यजुर्वेद 5/10
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
हिंदू मंदिर का अर्थ
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मंदिर का अर्थ होता है- मन से दूर कोई स्थान। मंदिर का शाब्दिक अर्थ 'घर' है और मंदिर को द्वार भी कहते हैं- जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं जैसे की शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है वह मंदिर तो, उसके मायने बदल जाते हैं। मंदिर को अंग्रेजी में मंदिर ही कहते हैं टेम्पल नहीं। जो लोग टैम्पल कहते हैं वे मंदिर के विरोधी हो सकते हैं।
द्वारा किसी भगवान, देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।
मन से दूर रहकर निराकार ईश्वर की आराधना या ध्यान करने के स्थान को मंदिर कहते हैं। जिस तरह हम जूते उतारकर मंदिर में प्रवेश करते हैं उसी तरह मन और अहंकार को भी बाहर छोड़ दिया जाता है। जहां देवताओं की पूजा होती है उसे 'देवरा' या 'देव-स्थल' कहा जाता है। जहां पूजा होती है उसे पूजास्थल, जहां प्रार्थना होती है उसे प्रार्थनालय कहते हैं। वेदज्ञ मानते हैं कि भगवान प्रार्थना से प्रसन्न होते हैं पूजा से नहीं।
मंदिर का अर्थ होता है- मन से दूर कोई स्थान। मंदिर का शाब्दिक अर्थ 'घर' है और मंदिर को द्वार भी कहते हैं- जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को आलय भी कह सकते हैं जैसे की शिवालय, जिनालय। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है वह मंदिर तो, उसके मायने बदल जाते हैं। मंदिर को अंग्रेजी में मंदिर ही कहते हैं टेम्पल नहीं। जो लोग टैम्पल कहते हैं वे मंदिर के विरोधी हो सकते हैं।
द्वारा किसी भगवान, देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को मंदिर कहा जाता है जिसमें की किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।
मन से दूर रहकर निराकार ईश्वर की आराधना या ध्यान करने के स्थान को मंदिर कहते हैं। जिस तरह हम जूते उतारकर मंदिर में प्रवेश करते हैं उसी तरह मन और अहंकार को भी बाहर छोड़ दिया जाता है। जहां देवताओं की पूजा होती है उसे 'देवरा' या 'देव-स्थल' कहा जाता है। जहां पूजा होती है उसे पूजास्थल, जहां प्रार्थना होती है उसे प्रार्थनालय कहते हैं। वेदज्ञ मानते हैं कि भगवान प्रार्थना से प्रसन्न होते हैं पूजा से नहीं।
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हिंदू दशनामी संतों की मठ परंपरा
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गोसाईं या बाबाजीयों की दशनामी मठ परंपरा और समाज का प्रचलन शंकराचार्य के समय से चला आ रहा है। शंकराचार्य ने ही उक्त समाजों की स्थापनी की थी। उन्होंने ही देश के चार कोनों में चार मठ स्थापित किए। बाद में दशनामियों के दस संप्रदाय की शुरुआत हुई। उक्त संप्रदाय में हिंदुओं की सभी जाति के लोग शामिल हुए। यह जातिबंधन तोड़ने की शायद सबसे पुरानी कोशिश थी।
मठ की स्थापना के बाद दशनामियों ने 200 वर्षों बाद मठिकाओं की स्थापना की। इन्हें बाद में मढ़ी भी कहा गया। यह मढ़ियां संख्या में 52 थीं। 27 मढ़ियां भारतीयों की, चार मढ़ियां वनों की और एक मढ़ी लताओं की कहलाती है।
पर्वत, सागर और सरस्वती पदधारियों की कोई मढ़ी नहीं है। बावन मढ़ियों के अंतर्गत यह सारी संन्यास परंपरा समाजसेवा के लिए भी सक्रिय हैं। बाद में इनमें भी दंढी और गोसाई के दो भेद हुए। तीर्थ आश्रम सरस्वती एवं भारती नामधारी संन्यासी दंडी कहलाए। शेष गोसाइयों में गिने गए। बाद में इन्हीं दशनामी संन्यासियों के अनेक अखाड़े प्रसिद्ध हुए जिनमें से सात पंचायती अखाड़े आज भी सक्रिय हैं।
कुम्भ में स्नान के लिए श्रीपंचायती तपोनिधि, निरंजनी अखाड़ा, श्रीपंचायती आनंद अखाड़ा, श्रीपंचायती दशनाम जूना अखाड़ा, श्रीपंचायती आवाहन अखाड़ा, श्रीपंचायती अग्नि अखाड़ा, श्रीपंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा और श्रीपंचायती अटल अखाड़ा वर्षों से भाग लेते रहे हैं।
बाद में भक्तिकाल में इन शैव दशनामी अखाड़ों की तरह रामभक्त वैष्णव साधुओं के भी संगठन खड़े हुए। इन्हें अणि का नाम दिया गया। अणि यानि सेना। वैष्णव बैरागी साधुओं ने भी धर्म के संदर्भ में यह अखाड़े गठित किए, जिनमें तीन मुख्य थे। दिगम्बर अखाड़ा, श्रीनिर्वाणी अखाड़ा, श्री निर्मोही अखाड़ा। इनके अंतर्मन अनेक इकाइयां और भी थीं।
संन्यासियों और बैरागियों के लिए कुम्भ के स्नान को लेकर भी द्वंद्व का इतिहास रहा है। लेकिन आजकल इनकी संयुक्त समिति गठित होने और सरकार द्वारा मान्यता दिए जाने से संघर्ष की स्थिति खत्म हो गई है।
साधुओं की अखाड़ा परंपरा के बाद गुरु नामकदेव के पुत्र श्रीचंद्र द्वारा स्थापित उदासीन संप्रदाय भी श्रीपंचायती अखाड़ा, बड़ा उदासीन एवं श्रीपंचायती अखाड़ा नया उदासीन नाम से सक्रिय हैं।
पिछली शताब्दी में सिख साधुओं के नए संप्रदाय निर्मल संप्रदाय और उसके अधीन श्रीपंचायती निर्मल अखाड़ा भी अस्तित्व में आया। इन सभी अखाड़ों के लिए कुम्भ इस कारण भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इनके चुनाव व नई कार्यकारिणियों का इस दौरान गठन करने की परंपरा चली आ रही है।
गोसाईं या बाबाजीयों की दशनामी मठ परंपरा और समाज का प्रचलन शंकराचार्य के समय से चला आ रहा है। शंकराचार्य ने ही उक्त समाजों की स्थापनी की थी। उन्होंने ही देश के चार कोनों में चार मठ स्थापित किए। बाद में दशनामियों के दस संप्रदाय की शुरुआत हुई। उक्त संप्रदाय में हिंदुओं की सभी जाति के लोग शामिल हुए। यह जातिबंधन तोड़ने की शायद सबसे पुरानी कोशिश थी।
मठ की स्थापना के बाद दशनामियों ने 200 वर्षों बाद मठिकाओं की स्थापना की। इन्हें बाद में मढ़ी भी कहा गया। यह मढ़ियां संख्या में 52 थीं। 27 मढ़ियां भारतीयों की, चार मढ़ियां वनों की और एक मढ़ी लताओं की कहलाती है।
पर्वत, सागर और सरस्वती पदधारियों की कोई मढ़ी नहीं है। बावन मढ़ियों के अंतर्गत यह सारी संन्यास परंपरा समाजसेवा के लिए भी सक्रिय हैं। बाद में इनमें भी दंढी और गोसाई के दो भेद हुए। तीर्थ आश्रम सरस्वती एवं भारती नामधारी संन्यासी दंडी कहलाए। शेष गोसाइयों में गिने गए। बाद में इन्हीं दशनामी संन्यासियों के अनेक अखाड़े प्रसिद्ध हुए जिनमें से सात पंचायती अखाड़े आज भी सक्रिय हैं।
कुम्भ में स्नान के लिए श्रीपंचायती तपोनिधि, निरंजनी अखाड़ा, श्रीपंचायती आनंद अखाड़ा, श्रीपंचायती दशनाम जूना अखाड़ा, श्रीपंचायती आवाहन अखाड़ा, श्रीपंचायती अग्नि अखाड़ा, श्रीपंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा और श्रीपंचायती अटल अखाड़ा वर्षों से भाग लेते रहे हैं।
बाद में भक्तिकाल में इन शैव दशनामी अखाड़ों की तरह रामभक्त वैष्णव साधुओं के भी संगठन खड़े हुए। इन्हें अणि का नाम दिया गया। अणि यानि सेना। वैष्णव बैरागी साधुओं ने भी धर्म के संदर्भ में यह अखाड़े गठित किए, जिनमें तीन मुख्य थे। दिगम्बर अखाड़ा, श्रीनिर्वाणी अखाड़ा, श्री निर्मोही अखाड़ा। इनके अंतर्मन अनेक इकाइयां और भी थीं।
संन्यासियों और बैरागियों के लिए कुम्भ के स्नान को लेकर भी द्वंद्व का इतिहास रहा है। लेकिन आजकल इनकी संयुक्त समिति गठित होने और सरकार द्वारा मान्यता दिए जाने से संघर्ष की स्थिति खत्म हो गई है।
साधुओं की अखाड़ा परंपरा के बाद गुरु नामकदेव के पुत्र श्रीचंद्र द्वारा स्थापित उदासीन संप्रदाय भी श्रीपंचायती अखाड़ा, बड़ा उदासीन एवं श्रीपंचायती अखाड़ा नया उदासीन नाम से सक्रिय हैं।
पिछली शताब्दी में सिख साधुओं के नए संप्रदाय निर्मल संप्रदाय और उसके अधीन श्रीपंचायती निर्मल अखाड़ा भी अस्तित्व में आया। इन सभी अखाड़ों के लिए कुम्भ इस कारण भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इनके चुनाव व नई कार्यकारिणियों का इस दौरान गठन करने की परंपरा चली आ रही है।
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ऐसे बनता है नागा साधु के बाद महंत
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मेले का मुख्य आकर्षण शाही स्नान होता है। साधु संतों का शाही स्नान देखने के लिए देश-विदेश के लोग एकत्रित होते हैं। शाही स्नान के लिए लाखों की संख्या में जब संत निकलते हैं तो यह दृश्य लोगों में धार्मिक भावनाओं का संचार करता है।
18 विभिन्न अखाड़ों का प्रतिनिधित्व वैष्णवी अखाड़े के हाथ होता है। वैष्णवी अखाड़े में महंत की पदवी पाने के लिए नवागत संन्यासी को वर्षों तक सेवा करनी पड़ती है। इस के बाद ही उसको महंत की पदवी हासिल होती है।
वैष्णव अखाड़े की परंपरा के अनुसार जब भी नवागत व्यक्ति संन्यास ग्रहण करता है तो तीन साल की संतोषजनक सेवा 'टहल' करने के बाद उसे 'मुरेटिया' की पदवी प्राप्त होती है। इसके बाद तीन साल में वह संन्यासी 'टहलू' पद ग्रहण कर लेता है।
'टहलू' पद पर रहते हुए वह संत एवं महंतों की सेवा करता है। कई वर्ष के बाद आपसी सहमति से उसे 'नागा' पद मिलता है। एक नागा के ऊपर अखाड़े से संबंधित महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां होती हैं।
इन जिम्मेदारियों में खरा उतरने के बाद बाद उसे 'नागा अतीत' की पदवी से नवाजा जाता है। नागा अतीत के बाद 'पुजारी' का पद हासिल होता है। पुजारी पद मिलने के बाद किसी मंदिर, अखाड़ा, क्षेत्र या आश्रम का काम सौंपे जाने की स्थिति में आगे चलकर ये 'महंत' कहलाते हैं। -
मेले का मुख्य आकर्षण शाही स्नान होता है। साधु संतों का शाही स्नान देखने के लिए देश-विदेश के लोग एकत्रित होते हैं। शाही स्नान के लिए लाखों की संख्या में जब संत निकलते हैं तो यह दृश्य लोगों में धार्मिक भावनाओं का संचार करता है।
18 विभिन्न अखाड़ों का प्रतिनिधित्व वैष्णवी अखाड़े के हाथ होता है। वैष्णवी अखाड़े में महंत की पदवी पाने के लिए नवागत संन्यासी को वर्षों तक सेवा करनी पड़ती है। इस के बाद ही उसको महंत की पदवी हासिल होती है।
वैष्णव अखाड़े की परंपरा के अनुसार जब भी नवागत व्यक्ति संन्यास ग्रहण करता है तो तीन साल की संतोषजनक सेवा 'टहल' करने के बाद उसे 'मुरेटिया' की पदवी प्राप्त होती है। इसके बाद तीन साल में वह संन्यासी 'टहलू' पद ग्रहण कर लेता है।
'टहलू' पद पर रहते हुए वह संत एवं महंतों की सेवा करता है। कई वर्ष के बाद आपसी सहमति से उसे 'नागा' पद मिलता है। एक नागा के ऊपर अखाड़े से संबंधित महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां होती हैं।
इन जिम्मेदारियों में खरा उतरने के बाद बाद उसे 'नागा अतीत' की पदवी से नवाजा जाता है। नागा अतीत के बाद 'पुजारी' का पद हासिल होता है। पुजारी पद मिलने के बाद किसी मंदिर, अखाड़ा, क्षेत्र या आश्रम का काम सौंपे जाने की स्थिति में आगे चलकर ये 'महंत' कहलाते हैं। -
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