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श्रीगुरु चरित्र में एक गुरु-शिष्य की कथा है | एक शिष्य को काशी विशेश्वर के मंदिर के बाहर बैठे एक कुष्ट रोगी में शिव के दर्शन हुए और वह उनकी सेवा करने लगा | उनकी घाव में प्रेमसे लेप लगाता , पट्टी करता तब गुरु उन्हें लातसे मारते और कहते तुम्हें मेरे घाव से घृणा होती है, जब उनके लिए भिक्षा मांगकर लाता और सड़े गले भोजन मार्ग में ही ग्रहण कर गुरुके लिए अच्छा भोजन लाता तो गुरु लांछन लगाते कि भिक्षा में जो अच्छा -अच्छा चीज मिलता है वह मार्ग में चोरी चोरी खा लेते हो और मेरे लिए सडी गली चीज लाकर देते हो ! इस प्रकार शिष्य गुरु की सेवा सारे लांछन सहकर आनंदपूर्वक करता रहा और एक दिवस उन्हें वह सब कुछ मिल गया जो उस शिष्य को चाहिए था क्योंकि उनके कुष्ट रोगी गुरु और कोई नहीं साक्षात शिव ही थे |
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