वकील की ईमानदारी

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श्रीधर एक प्रसिद्ध डॉक्टर था। अचानक उसकी मृत्यु हो गई। श्रीधर ने जीवन-बीमा करा रखा था। बीमे की राशि लगभग दस हजार रुपये डॉक्टर की पत्नी रूपाली को मिल गई। रूपाली ने वह राशि डॉक्टर के एक वकील मित्र राजगोपाल को जमा करने के लिए दे दी। राजगोपाल ने वह राशि रूपाली के नाम से पंद्रह वर्ष के लिए एक प्रतिष्ठित कंपनी में जमा करा दी।

इस बात को सात साल बीत गए। अचानक रूपाली को रुपयों की जरूरत पड़ी। उसने राजगोपाल से अपने दस हजार रुपये मांगे। वकील राजगोपाल तो उन पैसों को भूल ही चुके थे उन्होंने अपने पुराने कागजात देखे। लेकिन उन्हें कहीं भी दस हजार रुपये जमा नहीं मिले। वह काफी परेशान हो गए। अगर वह रूपाली को झूठा बताते तो लोग उन पर एक विधवा के रुपये हड़प कर लेने का इल्जाम लगा सकते थे। अतः काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने स्वयं अपनी जेब से दस हजार रुपये रूपाली को दिए।

उधर कंपनी की पंद्रह वर्ष की मियाद पूरी हो जाने के बाद रूपाली के नाम जमा कराए दस हजार रुपये पचास हजार में तब्दील हो गए थे। कंपनी ने रूपाली को पत्र लिखकर सूचित किया। रूपाली को जब पत्र मिला तो वह बहुत हैरान हुई। वह कंपनी के अधिकारियों से जाकर मिली और उन्हें बताया कि उसने तो रुपये जमा ही नहीं कराए। तब रूपाली राजगोपाल से मिली और पूछताछ की। तब कहीं जाकर राजगोपाल को याद आया कि उसी ने वह रुपये रूपाली के नाम से उस कंपनी में जमा कराए थे।

कंपनी से रूपाली को पचास हजार रुपये मिल गए। रूपाली ने वह रुपये राजगोपाल को देने चाहे, क्योंकि वह तो अपने दस हजार रुपये ले चुकी थी। लेकिन वकील ने अपने दस हजार रुपये ही लिए।

सच में वह बल होता है कि एक दिन सामने आकर ही रहता है। रूपाली भी सच्ची थी और राजगोपाल भी। यह सच यदि छिपा रहता तो रूपाली के प्रति राजगोपाल के मन में संदेह का नाग जरूर फन उठाता। लेकिन राजगोपाल सच्चा होने के साथ ईमानदार भी था, इसीलिए उसने अपने 10 हजार रुपये ही वापस लिए।
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