श्रुति का पाठ तथा अभ्यास

हमारी सात मन्या तथा चार मठ हैं (मन्या शब्द को संस्कृत में आम्नाय कहते हैं, जिसका अर्थ होता है- श्रुति का पाठ तथा अभ्यास) । सातों मन्याओं में एक-एक वेद (मठों के अनुसार) तथा ४ महावाक्यों के प्रचार का विधान है ।

गोवर्धन मठ में ऋग्वेद तथा 'प्रज्ञानं ब्रह्म', शारदा मठ में सामवेद तथा 'तत् त्वम् असि', श्रृंगेरी मठ में यजुर्वेद तथा 'अहं ब्रह्मास्मि', एवं ज्योतिर्मठ में अथर्ववेद और 'अयमात्मा ब्रह्म' के प्रचार का नियम है ।

प्रथम मन्या-

पश्चिम की मन्या का मठ 'शारदा मठ' है । क्षेत्र द्वारिका है तथा देवी भद्र काली हैं । तीर्थ गंगा और गोमती नदी है । इस मन्या के सन्यासी तीर्थ और आश्रम नाम से जाने जाते हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी देवता हैं । शिवजी को ही सिद्धेश्वर (सुदेचर) देवता कहा जाता है । इस सम्प्रदाय का नाम कीटवार सम्प्रदाय है । प्राणियों पर सर्वदा जिसकी कृपा दृष्टि की भावना से कीट आदि जीव-जन्तु भी रुक जाते हैं, वह 'कीटवार' कहा जाता है ।

दूसरी मन्या-

दूसरी मन्या पूर्व दिशा की है । इसका मठ गोवर्धन है । इस मन्या के सन्यासी वन और आरण्य नाम से जाने जाते हैं । क्षेत्र पुरुषोत्तम है । देवता जगन्नाथ और बलभद्र जी हैं । देवी विमला (लक्ष्मी जी) हैं । आचार्य पद्माचार्य जी हैं । रोहिणी (नदी) तथा महोदधि (समुद्र) ही हमारे तीर्थ हैं । इस सम्प्रदाय का नाम भोगवार है । यतियों का वह सम्प्रदाय, जिसने प्राणियों के विषय भोगों का परित्याग कर दिया है, 'भोगवार सम्प्रदाय' कहा जाता है ।

तीसरी मन्या-

उत्तर दिशा की इस मन्या का मठ जोशी मठ है । क्षेत्र बद्रीनाथ आश्रम है । देवता नर-नारायण हैं । इस मन्या के सन्यासी गिरी, पर्वत तथा सागर नाम से जाने जाते हैं । इसके आचार्य ताटकाचार्य जी हैं तथा देवी पुन्नगिरी (पुण्य गिरि) है । अलकनन्दा नदी तीर्थ है, जो मुक्ति का क्षेत्र मानी जाती है । इस सम्प्रदाय का नाम आनन्दवार है । योगियों का वह सम्प्रदाय, जिसने प्राणियों के भोगों तथा विलासों का परित्याग कर दिया है, 'आनन्दवार सम्प्रदाय' कहलाता है ।

चौथी मन्या-

दक्षिण दिशा की इस मन्या का मठ श्रृंगेरी मठ है । इस मन्या के सन्यासी पुरी, भारती और सरस्वती नाम से जाने जाते हैं । इसका क्षेत्र रामेश्वर है । इसके आचार्य श्रृंगी ऋषि (पृथ्वीधराचार्य) हैं । शंकर जी तथा आदि वाराह इसके देवता हैं । देवी कामाक्षी हैं । तुंगभद्रा नदी तीर्थ है । इस सम्प्रदाय का नाम भूरिवार है । यतियों का वह सम्प्रदाय, जिसने शरीर धारी प्राणियों के बाह्य सौन्दर्य के मोह का परित्याग कर दिया है, भूरिवार कहा जाता है ।

आदि शंकराचार्य के सिद्धान्त को स्वीकार करने वाले सन्यासियों का एक ऐसा भी वर्ग था, जो दस नामों, चारों मठों तथा इनकी चार मन्याओं के लौकिक बन्धन को स्वीकार नहीं करता था, किन्तु परम्परा की मर्यादा के निर्वाह के लिए उन्होंने भी अपनी पद्धति बना ली । यद्यपि उन्होंने अपने किसी लौकिक मठ का निर्माण नहीं किया, फिर भी नाम निर्देश करना पड़ा । उनकी तीन मन्यायें भी बनी, जो उर्ध्वा, आत्मा और निष्कला नाम से कही जाती हैं । इनकी गणना पूर्व की चार मन्याओं के पश्चात् होती है । इनकी पद्धति इस प्रकार है -

पाँचवी मन्या-

इस मन्या का नाम उर्ध्वा है । इसका मठ सुमेरू (पर्वत) है । इस सम्प्रदाय का नाम काशी है । ज्ञान-क्षेत्र कैलाश है । देवता निरंजन है । देवी माया है तथा आचार्य ईश्वर है । मानसरोवर तीर्थ है ।

छठी मन्या-

इस मन्या की महिमा अगम और अगाध है । सम्पूर्ण दसनाम सन्यास मत की यह इष्ट (पूज्य) है । इस छठी मन्या का नाम आत्मा है तथा इसका मठ मूल परआतम है । इस सम्प्रदाय का नाम सत् सन्तुष्ट सम्प्रदाय है । नाभि कमल (मणि पूरक चक्र) ही क्षेत्र है तथा देवता परमहंस है । देवी मानसी माया है । सबमें व्यापक रहने वाले चैतन्य स्वरूप ही आचार्य हैं और इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना (गंगा, यमुना व सरस्वती) का संगम ही त्रिकुटी (त्रिवेणी) है, जो हमारा तीर्थ है । क्षेत्र मानसरोवर है ।

सातवीं मन्या-

ब्रह्मा के मानसी पुत्र शिखा हैं । सूत्र और शाखा भी वे ही हैं । विश्व रूप सच्चिदानन्द देवता हैं । सदगुरु आचार्य हैं तथा सत्य शास्त्रों का श्रवण ही तीर्थ है ।

प्रारम्भिक चार मठों के चारों ब्रह्मचारी आनन्द, स्वरूप, चैतन्य तथा प्रकाश नाम से जाने गये । सातों मन्याओं और सातों मठों के सन्यासियों का आध्यात्मिक स्तर चार प्रकार का होता है-

कुटीचर-

शिखा-सूत्र का त्याग किये बिना भगवे वस्त्र धारण कर घर पर ही विरक्त की तरह रहने वाले को कुटीचर कहते हैं । ये केवल अपने कुल-कुटुम्ब में ही भिक्षा मांग सकते हैं ।

बहुदक (बोध)-

ये बस्ती में नहीं रह सकते तथा शिखा-सूत्र से रहित होते हैं । इन्हें सात घरों से भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह करने का विधान है । ये योग-साधना करते हैं तथा सम्पूर्ण शरीर में भस्म लगाते हैं ।

हंस-

परिपूर्ण शुद्ध जीव को हंस कहते हैं । जिन विरक्त महात्माओं के हृदय से लौकिक वासनाएं पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती हैं, वे हंस कहलाते हैं । ये भी शिखा-सूत्र धारण नहीं करते हैं ।

परमहंस-

आध्यात्मिक उपलब्धि की यह सर्वोच्च अवस्था मानी गई है । ये सर्वदा लौकिक बन्धनों से परे रहकर ब्रह्मानन्द में निमग्न रहते हैं । राग-द्वेष की भावना इन्हें छूती भी नहीं है
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