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शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए संन्यासी संघों का गठन किया था। बाहरी आक्रमण से बचने के लिए कालांतर में संन्यासियों के सबसे बड़े संघ जूना आखाड़े में संन्यासियों के एक वर्ग को विशेष रूप से शस्त्र-अस्त्र में पारंगत करके संस्थागत रूप प्रदान किया।
वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई। ये नागा जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए।
आज संतों के तेरह-चौदह अखाड़ों में सात संन्यासी अखाड़े (शैव) अपने-अपने नागा साधु बनाते हैं:- ये हैं जूना, महानिर्वणी, निरंजनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा।
आदि शंकराचार्य ने देश के चार कोनों में बौद्ध विहारों की तर्ज पर दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में पूरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में मठ स्थापित किए। शंकराचार्य ने संन्यासियों की दस श्रेणियां- ‘गिरी, पूरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ और आश्रम’ बनाईं, जिसके चलते ये दशनामी संन्यास प्रचलित हुआ।
दशनामियों के दो कार्यक्षेत्र निश्चित किए- पहला शस्त्र और दूसरा शास्त्र।
यह भी कहा जाता है कि शंकराचार्य के सुधारवाद का तत्कालीन समाज में खूब विरोध भी हुआ था और साधु समाज को उग्र और हिंसक साम्प्रदायिक विरोध से जूझना पड़ता था। काफी सोच-विचार के बाद शंकराचार्य ने वनवासी समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ा, ताकि उग्र विरोध का सामना किया जा सके।
वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई। ये नागा जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए।
पश्चिम में द्वारिकापुरी स्थित शारदपीठ के साथ तीर्थ एव आश्रम नामधारी संन्यासियों को जोड़ा गया।
उत्तर स्थित बद्रीनाथ के ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी, पर्वत और सागर नामधारी संन्यासी जुड़े, तो सरस्वती, पुरी और भारती नामधारियों को दक्षिण के श्रृंगेरी मठ के साथ जोड़ा गया।
हिन्दुओं की आश्रम परम्परा के साथ अखाड़ों की परंपरा भी प्राचीनकाल से ही रही है। अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा ‘अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में सामने आया। इसका मुख्य कार्यालय काशी में है और शाखाएं सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं।
शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए संन्यासी संघों का गठन किया था। बाहरी आक्रमण से बचने के लिए कालांतर में संन्यासियों के सबसे बड़े संघ जूना आखाड़े में संन्यासियों के एक वर्ग को विशेष रूप से शस्त्र-अस्त्र में पारंगत करके संस्थागत रूप प्रदान किया।
वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई। ये नागा जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए।
आज संतों के तेरह-चौदह अखाड़ों में सात संन्यासी अखाड़े (शैव) अपने-अपने नागा साधु बनाते हैं:- ये हैं जूना, महानिर्वणी, निरंजनी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन अखाड़ा।
आदि शंकराचार्य ने देश के चार कोनों में बौद्ध विहारों की तर्ज पर दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में पूरी, पश्चिम में द्वारका व उत्तर में बद्रीनाथ में मठ स्थापित किए। शंकराचार्य ने संन्यासियों की दस श्रेणियां- ‘गिरी, पूरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ और आश्रम’ बनाईं, जिसके चलते ये दशनामी संन्यास प्रचलित हुआ।
दशनामियों के दो कार्यक्षेत्र निश्चित किए- पहला शस्त्र और दूसरा शास्त्र।
यह भी कहा जाता है कि शंकराचार्य के सुधारवाद का तत्कालीन समाज में खूब विरोध भी हुआ था और साधु समाज को उग्र और हिंसक साम्प्रदायिक विरोध से जूझना पड़ता था। काफी सोच-विचार के बाद शंकराचार्य ने वनवासी समाज को दशनामी परम्परा से जोड़ा, ताकि उग्र विरोध का सामना किया जा सके।
वनवासी समाज के लोग अपनी रक्षा करने में समर्थ थे, और शस्त्र प्रवीण भी। इन्हीं शस्त्रधारी वनवासियों की जमात नागा साधुओं के रूप में सामने आई। ये नागा जैन और बौद्ध धर्म भी सनातन हिन्दू परम्परा से ही निकले थे। वन, अरण्य, नामधारी संन्यासी उड़ीसा के जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन पीठ से संयुक्त हुए।
पश्चिम में द्वारिकापुरी स्थित शारदपीठ के साथ तीर्थ एव आश्रम नामधारी संन्यासियों को जोड़ा गया।
उत्तर स्थित बद्रीनाथ के ज्योतिर्पीठ के साथ गिरी, पर्वत और सागर नामधारी संन्यासी जुड़े, तो सरस्वती, पुरी और भारती नामधारियों को दक्षिण के श्रृंगेरी मठ के साथ जोड़ा गया।
हिन्दुओं की आश्रम परम्परा के साथ अखाड़ों की परंपरा भी प्राचीनकाल से ही रही है। अखाड़ों का आज जो स्वरूप है उस रूप में पहला अखाड़ा ‘अखंड आह्वान अखाड़ा’ सन् 547 ई. में सामने आया। इसका मुख्य कार्यालय काशी में है और शाखाएं सभी कुम्भ तीर्थों पर हैं।
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