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मनुष्य को तीन चीजें कुदरत से मिलती हैं। शरीर, मन और आत्मा। हमें शरीर से श्रम साधना है। हम शरीर बदल नहीं पाएंगे, जो है उसी का उपयोग करना है। मन भी हमें जन्म से मिला है। इसका भी किसी से एक्सचेंज ऑफर नहीं हो सकेगा।
जो भी सुधार करना है, इसके मूल स्वरूप में हमें ही करना है और आत्मा तो हमारा वास्तविक स्वरूप है। जीवन में जितना इसके निकट जाएंगे, अपने होने का आनंद उठा पाएंगे। ये तीनों तयशुदा हैं। हमें सारा ताना-बाना इन्हीं के आसपास बुनना है। अब इन तीनों के अलावा जो सांसारिक संपदा है, वह चौथी वस्तु हमें स्वयं अर्जित करनी है; यह ईश्वर नहीं देता। इसकी कमाई हमें ही करनी है।
हां, परमात्मा इनके उपयोग, दुरुपयोग में भले ही अपना हस्तक्षेप कर दे; पर अर्जित करना हमारा दायित्व होगा। इसे कहते हैं जैसा बोएंगे वैसा काटेंगे। शरीर, मन, आत्मा बीज की तरह हैं, इन्हें तपाकर हम अपना वर्चस्व प्राप्त कर सकते हैं। फिर इस वर्चस्व से हमें परिवार, समाज और राष्ट्र की सेवा करनी है। तप के बीज से सेवा का वृक्ष तैयार करना चाहिए। लेकिन जीवन यहीं नहीं रुकता। भारतीय संस्कृति मूल में विश्वास रखती है।
पश्चिम कहता है कि परिणाम पर टिक जाओ, बाहर जो मिले उसे भोगो। पूर्व कहता है परिणाम के साथ मूल को कभी मत भूलो, बाहर से भीतर जाने की प्रक्रिया बंद मत करो। इसे कहेंगे वृक्ष से वापस बीज बनाना। यह पूर्णरूपेण आध्यात्मिक क्रिया होगी। वृक्ष से जब बीज बनेगा, तो यह बहुत सूक्ष्म घटना होगी। गहराई में जाकर यह कृत्य पूरा होगा। इस गहराई में ही भौतिक ऊंचाई छिपी रहेगी।
मनुष्य को तीन चीजें कुदरत से मिलती हैं। शरीर, मन और आत्मा। हमें शरीर से श्रम साधना है। हम शरीर बदल नहीं पाएंगे, जो है उसी का उपयोग करना है। मन भी हमें जन्म से मिला है। इसका भी किसी से एक्सचेंज ऑफर नहीं हो सकेगा।
जो भी सुधार करना है, इसके मूल स्वरूप में हमें ही करना है और आत्मा तो हमारा वास्तविक स्वरूप है। जीवन में जितना इसके निकट जाएंगे, अपने होने का आनंद उठा पाएंगे। ये तीनों तयशुदा हैं। हमें सारा ताना-बाना इन्हीं के आसपास बुनना है। अब इन तीनों के अलावा जो सांसारिक संपदा है, वह चौथी वस्तु हमें स्वयं अर्जित करनी है; यह ईश्वर नहीं देता। इसकी कमाई हमें ही करनी है।
हां, परमात्मा इनके उपयोग, दुरुपयोग में भले ही अपना हस्तक्षेप कर दे; पर अर्जित करना हमारा दायित्व होगा। इसे कहते हैं जैसा बोएंगे वैसा काटेंगे। शरीर, मन, आत्मा बीज की तरह हैं, इन्हें तपाकर हम अपना वर्चस्व प्राप्त कर सकते हैं। फिर इस वर्चस्व से हमें परिवार, समाज और राष्ट्र की सेवा करनी है। तप के बीज से सेवा का वृक्ष तैयार करना चाहिए। लेकिन जीवन यहीं नहीं रुकता। भारतीय संस्कृति मूल में विश्वास रखती है।
पश्चिम कहता है कि परिणाम पर टिक जाओ, बाहर जो मिले उसे भोगो। पूर्व कहता है परिणाम के साथ मूल को कभी मत भूलो, बाहर से भीतर जाने की प्रक्रिया बंद मत करो। इसे कहेंगे वृक्ष से वापस बीज बनाना। यह पूर्णरूपेण आध्यात्मिक क्रिया होगी। वृक्ष से जब बीज बनेगा, तो यह बहुत सूक्ष्म घटना होगी। गहराई में जाकर यह कृत्य पूरा होगा। इस गहराई में ही भौतिक ऊंचाई छिपी रहेगी।
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