संयम विहीन जीवन बेकार

संयम ही जीवन का श्रृंगार है। मनुष्य संयम धारण कर सकता है, इसलिए समस्त जीवों में वह श्रेष्ठ है। जिसके जीवन में संयम नहीं, उसका जीवन बिना ब्रेक की गाड़ी जैसा है। उक्त उद्‍गार परम पूज्य 108 आचार्यश्री विशुद्घसागरजी महाराज ने पर्वाधिराज पर्युषण पर्व के अंतर्गत उत्तम संयम धर्म आराधना के अवसर पर व्यक्त किए।

संयम बिना प्राणी अधूरा : जीवन रूपी नदी के लिए संयम धर्म का पालन करना जरूरी है। संयम को हम बंधन कह सकते हैं। लेकिन यह बंधन सांसारिक प्राणी के लिए दुखदाई नहीं वरन्‌ दुखों से छुटकारा दिलाने वाला है। नदी बहती है पर तटों का होना जरूरी है।

यदि नदी बिना तटों के बहती है तो वह अपने लक्ष्य से भटककर सागर तक नहीं पहुँचती और सूख जाती। इसी प्रकार संयमी जीवन ही अपने अनंत सुखों को प्राप्त कर सकता है। संयम को धारण करने का हमें पूर्ण अधिकार मिला है लेकिन सांसारिक प्राणी पंचेन्द्रिय विषय के वशीभूत होकर इससे दूर भागते हैं। जिससे वह जीवन रूपी गाड़ी में सफल नहीं हो पाते।

प्राणी और इन्द्रीय संयम के भेद से यह दो प्रकार का है। प्राणियों की रक्षा करना प्राणी संयम है। जबकि पंचेन्द्रिय विषयों से विरक्ति और मन की आकांक्षाओं पर नियंत्रण इन्द्रीय संयम है। इसीलिए सांसारिक प्राणी को संयम का पालन करना जरूरी है। उन्होंने कहा कि जो इंद्रिय पर

विजय प्राप्त कर लेता है, वह निर्वाण प्राप्त कर सकता है।

उन्होंने कहा कि संयम के दिन को बंधन का दिन भी कह सकते हैं। पर यह वंदन दुखदायी नहीं, दुःखों से छुटकारा पाने के लिए बंधन अभिनंदन के रूप में है। जीवन में नियंत्रण जरूरी है, अश्व को लगाम, हाथी को अंकुश, ऊँट को नुकील और वाहन के लिए ब्रेक जरूरी है। ब्रेक है तो सुरक्षा नहीं तो दुर्घटना होना पक्का है।
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