13 December 2011

भगवान दत्तात्रेय विष्णु के अवतार - आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी

मार्गशीर्ष का महीना विवाह पंचमी, गीता जयंती आदि विशेष पर्वों के कारण महत्व तो रखता ही है साथ ही इस महीने की पूर्णता दत्तात्रेय जयंती के रूप में पूर्णमासी को होने के कारण विशेष महत्व रखता है। सनातन वैदिक उपासना एवं सन्यास धर्म में दत्तात्रेय भगवान का विशेष महत्व है। इस पर्व के दिन सद्गृहस्थों के यहां व्रत पूजन तो होता ही है लेकिन दशनाम सन्यासियों के अखाड़ों में विशेष अध्यात्मिक प्रवचन भी चलते हैं जिससे आराधाना और साधना से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।

महायोगीश्वर दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को प्रदोष काल में हुआ। अतः इस दिन बड़े समारोहपूर्वक दत्त जयंती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत में आया है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रिके व्रत करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान्‌ स दत्तः' मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया-विष्णु के ऐसा कहने से भगवान विष्णु ही अत्रि के पुत्र रूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाए। अत्रिपुत्र होने से ये आत्रेय कहलाते हैं।

दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका दत्तात्रेय नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनसूया है, उनका पतिव्रता धर्म संसार में प्रसिद्ध है। पुराणों में कथा आती है, ब्रह्माणी, रुद्राणी और लक्ष्मी को अपने पतिव्रत धर्म पर गर्व हो गया। भगवान को अपने भक्त का अभिमान सहन नहीं होता तब उन्होंने एक अद्भुत लीला करने की सोची।

भक्त वत्सल भगवान ने देवर्षि नारद के मन में प्रेरणा उत्पन्न की। नारद घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों के पास बारी-बारी जाकर कहा-अत्रिपत्नी अनसूया के समक्ष आपको सतीत्व नगण्य है। तीनों देवियों ने अपने स्वामियों-विष्णु, महेश और ब्रह्मा से देवर्षि नारद की यह बात बताई और उनसे अनसूया के पातिव्रत्य की परीक्षा करने को कहा।


देवताओं ने बहुत समझाया परंतु उन देवियों के हठ के सामने उनकी एक न चली। अन्ततः साधुवेश बनाकर वे तीनों देव अत्रिमुनि के आश्रम में पहुंचे। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। अतिथियों को आया देख देवी अनसूया ने उन्हें प्रणामकर अर्घ्य, कंदमूलादि अर्पित किए किंतु वे बोले हम लोग तब तक आतिथ्य स्वीकार न करेंगे जब तक आप हमें अपने गोद में बिठाकर भोजन नहीं कराती।

यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनसूया अवाक्‌ रह गईं किंतु आतिथ्य धर्म की महिमा का लोप न जए इस दृष्टि से उन्होंने नारायण का ध्यान किया। अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान की लीला समझकर वे बोलीं- यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छह-छह मास के शिशु हो जाएं। इतना कहना ही था कि तीनों देव छह मास के शिशु हो रुदन करने लगे।

तब माता ने उन्हें गोद में लेकर दुग्ध पान कराया फिर पालने में झुलाने लगीं। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया। इधर देवलोक में जब तीनों देव वापस न आए तो तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो गईं। फलतः नारद आए और उन्होंने संपूर्ण हाल कह सुनाया। तीनों देवियां अनसूया के पास आईं और उन्होंने उनसे क्षमा मांगी।

देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनसूया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं-आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। तथास्तु- कहकर तीनों देव और देवियां अपने-अपने लोक को चले गए।

कालांतर में ये ही तीनों देव अनसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय श्रीविष्णु भगवान के ही अवतार हैं और इन्हीं के आविर्भाव की तिथि दत्तात्रेय जयंती कहलाती है। भगवान दत्तात्रेय कृपा की मूर्ति कहे जाते हैं।

परम भक्त वत्सल दत्तात्रेय भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुंच जाते हैं। इसीलिए इन्हें स्मृतिगामी तथा स्मृतिमात्रानुगन्ता भी कहा गया है। ये विद्या के परम आचार्य हैं। भगवान दत्तजी के नाम पर दत्त संप्रदाय दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है।

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