प्रेम कैसा होता है

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आजतक जिस जिसने प्रेम के विषयमें वर्णन किया है, या अपने अनुभवको बतलाया है कि यह प्रेमका स्वरूप है अथवा यह प्रेमका स्वरूप नहीं है - जो ऐसी बातें कहते है, वे वेद-शास्त्रका अध्यन करनेपर भी प्रेमके विषयमें कुछ नहीं जानते ! तात्पर्य यह है कि प्रेमका स्वरूप अनिवर्चनीय है ! जिस समय तक हृदयमें विचार करनेकी सोच रहती है, उस समय तक प्रेमकी स्तिथि नहीं हो सकती ! अन्य विषयोंके विचारोको बतलाना तो दूर रहे,प्रीतीके स्वरूपके प्रति विचारशील व्यक्ति भी प्रीतीका अधिकारी नहीं हो सकता ! यदि एकमात्र प्रियतमकी सुख कामनाके अन्य कोई भी ज्ञान हृदयमें रहता है, तो उस हृदयमें प्रेमका अंकुर नहीं फुटता ! "क्या करनेसे प्रियतम सुखी हो सकता है " इस चिंतामें तन्मय होनेकी अवस्थाका नाम ही प्रेम है ! इस अवस्थामें विचार बोध रह ही नहीं सकता ! जीवके जो विचार कहते है, उनसे प्रेमका अनुभव प्राप्त हो ही नहीं सकता ! सही मायनेमें विचारके द्वारा सभी शास्त्रोंको तो जाना जा सकता है, परन्तु प्रेमको नहीं ! 
यदि कोई व्यक्ति प्रेमतत्व जाननेके इच्छुक किसी अन्य व्यक्तिको प्रेम समझानेकी चेष्ठा करता है, तब वह जो कुछ भी समझाता है अथवा उसका जो कुछ अनुभव होता है, वह मात्र विडम्बनामात्र है ! प्रेम एक अनिवर्चनीय श्रेष्ठ वस्तु है ! तात्पर्य यह है कि प्रेम स्वानुभव तथा निरुपम है, इसे भाषाके द्वारा बतलाया जा ही नहीं सकता !...श्रीराधेश्याम...हरि हर
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