विचारों के अनुरूप ही मनुष्य की स्थिति और गति होती है। श्रेष्ठ विचार सौभाग्य का द्वार हैं, जबकि निकृष्ट विचार दुर्भाग्य का,आपको इस ब्लॉग पर प्रेरक कहानी,वीडियो, गीत,संगीत,शॉर्ट्स, गाना, भजन, प्रवचन, घरेलू उपचार इत्यादि मिलेगा । The state and movement of man depends on his thoughts. Good thoughts are the door to good fortune, while bad thoughts are the door to misfortune, you will find moral story, videos, songs, music, shorts, songs, bhajans, sermons, home remedies etc. in this blog.
जीवन मूल्यों को दर्शाते धर्म के संदेश
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प्रत्येक धर्म के मूल में प्रेम, निःस्वार्थ व्यवहार, जीवन के प्रति पूरी आस्था, सह-अस्तित्व जैसे जीवन के आवश्यक मूल्य निहित हैं। त्योहारों का उद्देश्य जीवन मूल्यों के पथ पर होने वाले किसी भी भटकाव को आंकने और उसे सुधार लेने का अवसर देना होता है। धार्मिक त्योहार इस मायने में अधिक प्रासंगिक और प्रभावी होते हैं।
धर्म कौन-सा इससे ज्यादा फर्क इसलिए नहीं पड़ता है। दया, परोपकार, सहिष्णुता अस्तित्व को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई वे मूल संप्रदाय हैं जो भारतीय समाज की प्रमुख रचना करते हैं। इसके अलावा समुदाय, संप्रदाय, जाति वर्ग के आधार पर मौजूद भिन्नताएं भी समाज की रचना के महत्वपूर्ण हिस्से हैं। इतनी विविधता में भी अस्तित्व सुनिश्चित है।
कल्पना कीजिए कि उपर्युक्त जीवन मूल्यों का अभाव होता। सहिष्णुता नहीं होती। जीवन में आस्था नहीं होती। स्वार्थ ही होता, निःस्वार्थ नहीं। तब क्या संभव था कि कोई किसी को जीवित रहने देता? चूंकि जीने की इच्छा प्राणीमात्र की सबसे बड़ी और सर्वाधिक प्रबल लालसा होती है, अतः धर्म रचना में पहला बिन्दु अस्तित्व को कायम रखने का पाया जाता है। इस बिन्दु की याद वह हर पर्व-त्योहार दिलवाता है जो किसी न किसी धार्मिक आस्था से जुड़ा होता है।
यह समय ईसाइयत के प्रणेता यीशु मसीह के जन्मदिन का पर्व मनाने का है। ईसाइयत विश्व का सबसे बड़ा धर्म है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि इस वक्त ईसाई धर्म के अनुयायियों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। लगभग दो हजार वर्षों से ईसा मसीह के 'निःस्वार्थ प्रेम' के मूलमंत्र के अनुसार ईसाइयत आगे बढ़ रही है।
दूसरा प्रसंग स्कंदपुराण में से देखिए, 'केवल शरीर के मैल को उतार देने से ही मनुष्य निर्मल नहीं हो जाता है। मानसिक मैल का परित्याग करने पर ही वह भीतर से निर्मल होता है।'
समाज में सकारात्मक सह-अस्तित्व को स्थापित करने में धर्मों को कितनी सफलता मिली, यह आकलन का एक बड़ा विषय है। धर्म इस उद्देश्य की पूर्ति में सतत लगे हैं, पूरी पारदर्शिता के साथ, यह पहली आवश्यकता है।
इस दायित्व में तिनका भर विचलन भी परिणामों की नकारात्मकता को बड़ा रूप दे सकता है। स्वस्थ दृष्टिकोण कहता है कि इनकमियों को दूर करते हुए आगे बढ़ना ही विकास का पहला अर्थ है।
यदि धर्म की मौजूदगी के बाद भी हिंसा, परस्पर वैमनस्य, लालच, स्वार्थ बढ़ रहे हैं तो यह पता लगाया जाना आवश्यक है कि सकारात्मक अस्तित्व को स्थापित करने की प्रक्रिया में कहीं कोई कमी या गड़बड़ी आई है।
ऐसी कमियों को अनदेखा कर आगे बढ़ा जाता है तो कहते हैं कि धर्म का विवेकशील अनुपालन नहीं हो रहा है। अंधविश्वास का भी यही अर्थ होता है। अतीत में जीना और वर्तमान से कटे रहना भी इसी को कह सकते हैं।
यह आग्रह प्रत्येक धर्म का है, चाहे वह जीवन धर्म ही क्यों न हो, कि समय के साथ जीवन मूल्यों का सम्मान बनाए रखकर आगे बढ़ते जाना ही जीवन है।
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