बालों की नेचुरल ब्यूटी के लिए For natural beauty of hair

इसमें कोई दो राय नहीं है कि सुन्दर काले व चमकदार बाल नारी की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। पुराने समय में बालों के रखरखाव व निखार के लिए नारियां अनेक तरीके इस्तेमाल में लाती थीं, जिनसे बाल वास्तव में ही काले, घने, मजबूत और चमकदार बनते थ

आज के युग में कई तरह के साबुन और अन्य चीजों को बालों की सार-संभाल के लिए प्रयोग में लाया जाने लगा है। इनसे बाल पोषक तत्व हासिल करने के स्थान पर समय से पूर्व टूट कर गिरने लगते हैं, साथ ही सफेद होने लगते हैं। इस लेख में हम अपने पाठकों को बालों के रख रखाव के बारे में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियां दे रहे हैं, जिन्हें इस्तेमाल में लाकर बालों को सुदृढ़, काले और चमकदार बनाया जा सकता है।

* खट्टी दही में चुटकी भर फिटकरी मिला लें, साथ ही थोड़ी सी हल्दी भी मिला लें। इस मिश्रण को सिर के बालों में लगाने से सिर की गंदगी तो दूर होती ही, साथ ही सिर में फैला संक्रमण भी दूर होता है। इस क्रिया को करने से सिर के बाल निखर उठते हैं।

* बालों को धोने के बाद गोलाकार कंघी से बालों में भली प्रकार से ब्रश करना चाहिए। इसके बाद सिर के बालों की जड़ों में उंगली घुमाते हुए अपना हाथ ऊपर से नीचे की ओर फिराएं। ऐसा करने से आपके बाल हमेशा मुलायम बने रहेंगे।

* हफ्ते में कम से कम एक बार अपने सिर के बालों में जैतून के तेल की मालिश अवश्य करें। ऐसा करने से सिर के बाल सफेद होने बंद होते हैं और मजबूती पाते हैं।

* धूल और प्रदूषण के प्रभाव से सिर के बाल रूखे और बेजान से हो जाते हैं। इनसे छुटकारा पाने के लिए हमेशा अच्छे शैम्पू से बालों को धोना चाहिए और अच्छा हेयर टॉनिक लगाना चाहिए।

* कुदरती साधनों के इस्तेमाल से बालों को सुंदर बनाया जा सकता है। बालों को अच्छी तरह धोने के बाद बालों में ताजी मेहंदी पीसकर लगानी चाहिए। कुछ वक्त बाद बालों को पानी से धो लेना चाहिए। 

* हफ्ते में एक बार बालों में तेल की मालिश जरूर करनी चाहिए। ऐसा करने से बालों की बेहतर कसरत हो जाती है। और सिर में खून का दौरा भी सुचारु रूप से होता रहता है।

* भूलकर भी अपने सिर के बालों के साथ ज्यादा एक्सपेरिमेंट न करें। ऐसा करने से बाल कमजोर होकर असमय टूटने लगते हैं।


* बालों की साफ-सफाई में लापरवाही न बरतें। याद रखें कि पसीना बालों की जड़ों में पहुंचने पर बालों को नुकसान पहुंचाता है। इससे बचने के लिए हफ्ते में कम से कम दो बार बालों की सफाई जरूर करें।

* बालों में अक्सर रूसी की समस्या उत्पन्न हो जाया करती है जिससे बाल बेजान होकर टूटने लगते हैं। इससे छुटकारा पाने के लिए सबसे पहले बालों में अच्छी तरह तेल लगा लें, ‍फिर गर्म पानी में भीगे तौलिए से बालों को भाप दें। ऐसा करने से बालों की रूसी खत्म हो जाएगी।

* प्रयोग में लाई गई चाय की पत्ती को थोड़े से पानी में उबाल लें। इसके ठंडा होने पर इसे बालों में लगाएं। हफ्ते में कम से कम एक बार इस क्रिया को जरूर करें। इस क्रिया को करने से बाल मजबूत हो जाएंगे।

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सत्य की राह पर चलकर मिटे संताप सत्य से जन्मती सकारात्मक ऊर्जा


शास्त्रों में आत्मा, परमात्मा, प्रेम और धर्म को सत्य माना गया है। सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं। सत्य के साथ रहने से मन हल्का और प्रसन्न चित्त रहता है। मन के हल्का और प्रसंन्न चित्त रहने से शरीर स्वस्थ और निरोगी रहता है। सत्य की उपयोगिता और क्षमता को बहुत कम ही लोग समझ पाते हैं। सत्य बोलने से व्यक्ति को सद्गति मिलती है। गति का अर्थ सभी जानते हैं।

योग का प्रथम अंग 'यम' है धर्म का मूल। यम से मन मजबूत और पवित्र होता है। मानसिक शक्ति बढ़ती है। इससे संकल्प और स्वयं के प्रति आस्था का विकास होता है। यम के पांच प्रकार हैं- (1)अहिंसा, (2)सत्य, (3)अस्तेय, (4)ब्रह्मचर्य और (5)अपरिग्रह। यहां प्रस्तुत है सत्य के बारे में संक्षिप्त जानकारी।

सत्य क्या है : सत्य को जानना कठिन है। ईश्वर ही सत्य है। सत्य बोलना भी सत्य है। सत्य बातों का समर्थन करना भी सत्य है। सत्य समझना, सुनना और सत्य आचरण करना कठिन जरूर है लेकिन अभ्यास से यह सरल हो जाता है। जो भी दिखाई दे रहा है वह सत्य नहीं है, लेकिन उसे समझना सत्य है अर्थात जो-जो असत्य है उसे जान लेना ही सत्य है। असत्य को जानकर ही व्यक्ति सत्य की सच्ची राह पर आ जाता है।

जब व्यक्ति सत्य की राह से दूर रहता है तो वह अपने जीवन में संकट खड़े कर लेता है। असत्यभाषी व्यक्ति के मन में भ्रम और द्वंद्व रहता है, जिसके कारण मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। मानसिक रोगों का शरीर पर घातक असर पड़ता है। ऐसे में सत्य को समझने के लिए एक तार्किक बुद्धि की आवश्यकता होती है। तार्किक‍ बुद्धि आती है भ्रम और द्वंद्व के मिटने से। भ्रम और द्वंद्व मिटता है मन, वचन और कर्म से एक समान रहने से।

सत्य का आमतौर पर अर्थ माना जाता है झूठ न बोलना, लेकिन सत् और तत् धातु से मिलकर बना है सत्य, जिसका अर्थ होता है यह और वह- अर्थात यह भी और वह भी, क्योंकि सत्य पूर्ण रूप से एकतरफा नहीं होता। रस्सी को देखकर सर्प मान लेना सत्य नहीं है, किंतु उसे देखकर जो प्रतीति और भय उत्पन हुआ, वह सत्य है। अर्थात रस्सी सर्प नहीं है, लेकिन भय का होना सत्य है। दरअसल हमने कोई झूठ नहीं देखा, लेकिन हम गफलत में एक झूठ को सत्य मान बैठे और उससे हमने स्वयं को रोगग्रस्त कर लिया।

तो सत्य को समझने के लिए जरूरी है तार्किक बुद्धि, सत्य वचन बोलना और होशो-हवास में जीना। जीवन के दुख और सुख सत्य नहीं है, लेकिन उनकी प्रतीति होना सत्य है। उनकी प्रतीति अर्थात अनुभव भी तभी तक होता है जब तक कि आप दुख और सुख को सत्य मानकर जी रहे हैं।

सत्य के लाभ : सत्य बोलने और हमेशा सत्य आचरण करते रहने से व्यक्ति का आत्मबल बढ़ता है। मन स्वस्थ और शक्तिशाली महसूस करता है। डिप्रेशन और टेंडन भरे जीवन से मुक्ति मिलती है। शरीर में किसी भी प्रकार के रोग से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। सुख और दुख में व्यक्ति सम भाव रहकर निश्चिंत और खुशहाल जीवन को आमंत्रित कर लेता है। सभी तरह के रोग और शोक का निदान होता है।

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क्या आप जानते हैं उम्र के नौ खास पड़ाव कौन-सा ग्रह कब देता है देगा धोखा

जन्म से लेकर 48 वर्ष की उम्र तक सभी ग्रहों का उम्र के प्रत्येक वर्ष में अलग-अलग प्रभाव होता है। उनमें से नौ ऐसे विशेष वर्ष होते हैं, जो ग्रह से संबंधित वर्ष माने गए हैं जिन पर उस ग्रह का शुभ या अशुभ प्रभाव विशेष रूप से रहता है। लाल किताब अनुसार कौन-सा ग्रह उम्र के किस वर्ष में विशेष फल देता है इससे संबंधित जानकारी प्रस्तुत है।

1) बृहस्पति :- सर्वप्रथम बृहस्पति ग्रह का असर हमारे जीवन में रहता है। उम्र का 16वां साल बृहस्पति का साल माना गया है। यही उम्र बिगड़ने की और यही उम्र सुधरने की है। बृहस्पति यदि चतुर्थ भाव में स्थित है तो 16वें वर्ष में व्यक्ति शिक्षा के क्षेत्र में लाभ पाता है और यदि छठे भाव में है तो हानि संभव हो सकती है।

2) सूर्य :- सूर्य ग्रह का असर आयु के 22वें वर्ष में नजर आता है। यदि उच्च का है तो सरकार से संबंधित कार्यों में पूर्ण लाभ मिलेगा और यदि अशुभ है तो सरकारी कार्यों में बाधा उत्पन्न हो सकती है।

3) चंद्रमा :- चंद्र ग्रह का असर आयु के 24वें वर्ष में नजर आता है। उच्च या शुभ स्थिति में होने पर माता एवं अन्य सांसारिक सुखों की प्राप्ति होती है। अशुभ या नीच का होने पर माता के विषय में विपरीत फल की प्राप्ति एवं मानसिक तनाव मिल सकता है।

4) शुक्र :- शुक्र का असर आयु के 25वें वर्ष में विशेष रूप से दिखाता है। शुक्र के अच्छा होने पर पत्नी और सांसारिक सुख मिलेगा। यदि शुक्र नीच का है तो सुख में बाधा आएगी।

5) मंगल :- मंगल ग्रह का असर आयु के 28वें वर्ष में दिखता है। मंगल का अच्छा होने पर भाई, मकान, जमीन-जायदाद से संबंधित कार्यों में लाभ मिलने का योग हैं। जबकि खराब होने पर उपरोक्त विषयों में कमी हो सकती है।

6) बुध :- बुध ग्रह का असर आयु के 34वें वर्ष में दिखता है। यदि अच्छा है तो व्यापार आदि में लाभ और खराब है तो हानि की सम्भावना है।

7) शनि :- शनि ग्रह का असर आयु के 36वें वर्ष में नजर आता है। यदि अच्छा है तो मकान, व्यवसाय और राजनीति में लाभ लेकिन यदि अशुभ हो तो हानि देता है।

8) राहु :- राहु ग्रह अपना असर आयु के 42वें वर्ष में प्रदान करता है। यदि शुभ स्थित में हो राजनीति आदि के क्षेत्र में विशेष लाभ, लेकिन यदि अशुभ हो तो व्यक्ति षडयन्त्र का शिकार बनकर मानसिक तनाव झेलता रहता है।

9) केतु :- केतु ग्रह अपना असर आयु के 42वें वर्ष में दिखाता है। यदि शुभ हो तो संतान एवं मामा के संबंध में विशेष लाभ और यदि अशुभ हो तो हानि।
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मौत के बाद क्या होता है?

'न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।'- भगवान कृष्ण

जब शरीर छूटता है तो व्यक्ति के साथ क्या होता है यह सवाल सदियों पुराना है। इस संबंध में जनमानस के चित्त पर रहस्य का पर्दा आज भी कायम है जबकि इसका हल खोज लिया गया है। फिर भी यह बात विज्ञान सम्मत नहीं मानी जाती, क्योंकि यह धर्म का विषय है।

मुख्यत: तीन तरह के शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्ति जब मरता है तो स्थूल शरीर छोड़कर पूर्णत: सूक्ष्म में ही विराजमान हो जाता है। सूक्ष्म शरीर के विसरित होने के बाद व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है, लेकिन कारण शरीर बीज रूप है जो अनंत जन्मों तक हमारे साथ रहता है।

आत्मा पर छाई धुंध : व्यक्ति रोज मरता है और रोज पैदा होता है, लेकिन उसे इस बात का आभास नहीं होता। प्रतिपल व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और फिर सुषुप्ति अवस्था में जिता है। मरने के बाद क्या होता है यह जानने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति के चित्त की अवस्था जानना जरूरी है या कहना चाहिए की आत्मा के ऊपर छाई भाव, विचार, पदार्थ और इंद्रियों के अनुभव की धुंध का जानना जरूरी है।

आत्मा शरीर में रहकर चार स्तर से गुजरती है : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2)स्वप्न (3)सुषुप्ति और (4)तुरीय अवस्था।

तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है, लेकिन चौथे स्तर में वही होता है जो ‍आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होता है जहां न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सु‍षुप्ति ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं- जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।

होश का स्तर तय करता गति : प्रथम तीनों अवस्थाओं के कई स्तर है। कोई जाग्रत रहकर भी स्वप्न जैसा जीवन जिता है, जैसे खयाली राम या कल्पना में ही जीने वाला। कोई चलते-फिरते भी नींद में रहता है, जैसे कोई नशे में धुत्त, चिंताओं से घिरा या फिर जिसे कहते हैं तामसिक।

हमारे आसपास जो पशु-पक्षी हैं वे भी जाग्रत हैं, लेकिन हम उनसे कुछ ज्यादा होश में हैं तभी तो हम मानव हैं। जब होश का स्तर गिरता है तब हम पशुवत हो जाते हैं। कहते भी हैं कि व्यक्ति नशे में व्यक्ति जानवर बन जाता है।

पेड़-पौधे और भी गहरी बेहोशी में हैं। मरने के बाद व्यक्ति का जागरण, स्मृति कोष और भाव तय करता है कि इसे किस योनी में जन्म लेना चाहिए। इसीलिए वेद कहते हैं कि जागने का सतत अभ्यास करो। जागरण ही तुम्हें प्रकृति से मुक्त कर सकता है।

क्या होता है मरने के बाद : सामान्य व्यक्ति जैसे ही शरीर छोड़ता है, सर्वप्रथम तो उसकी आंखों के सामने गहरा अंधेरा छा जाता है, जहां उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। कुछ समय तक कुछ आवाजें सुनाई देती है कुछ दृश्य दिखाई देते हैं जैसा कि स्वप्न में होता है और फिर धीरे-धीरे वह गहरी सुषुप्ति में खो जाता है, जैसे कोई कोमा में चला जाता है।

गहरी सुषुप्ति में कुछ लोग अनंतकाल के लिए खो जाते हैं, तो कुछ इस अवस्था में ही किसी दूसरे गर्भ में जन्म ले लेते हैं। प्रकृ‍ति उन्हें उनके भाव, विचार और जागरण की अवस्था अनुसार गर्भ उपलब्ध करा देती है। जिसकी जैसी योग्यता वैसा गर्भ या जिसकी जैसी गति वैसी सुगति या दुर्गति। गति का संबंध मति से होता है। सुमति तो सुगति।

लेकिन यदि व्यक्ति स्मृतिवान (चाहे अच्छा हो या बुरा) है तो सु‍षुप्ति में जागकर चीजों को समझने का प्रयास करता है। फिर भी वह जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भेद नहीं कर पाता है। वह कुछ-कुछ जागा हुआ और कुछ-कुछ सोया हुआ सा रहता है, लेकिन उसे उसके मरने की खबर रहती है। ऐसा व्यक्ति तब तक जन्म नहीं ले सकता जब तक की उसकी इस जन्म की स्मृतियों का नाश नहीं हो जाता। कुछ अपवाद स्वरूप जन्म ले लेते हैं जिन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।

लेकिन जो व्यक्ति बहुत ही ज्यादा स्मृतिवान, जाग्रत या ध्यानी है उसके लिए दूसरा जन्म लेने में कठिनाइयां खड़ी हो जाता है, क्योंकि प्राकृतिक प्रोसेस अनुसार दूसरे जन्म के लिए बेहोश और स्मृतिहीन रहना जरूरी है।

इनमें से कुछ लोग जो सिर्फ स्मृतिवान हैं वे भूत, प्रेत या पितर योनी में रहते हैं और जो जाग्रत हैं वे कुछ काल तक अच्छे गर्भ की तलाश का इंतजार करते हैं। लेकिन जो सिर्फ ध्यानी है या जिन्होंने गहरा ध्यान किया है वे अपनी इच्छा अनुसार कहीं भी और कभी भी जन्म लेने के लिए स्वतंत्र हैं। यह प्राथमिक तौर पर किए गए तीन तरह के विभाजन है। विभाजन और भी होते हैं जिनका वेदों में उल्लेख मिलता है।

जब हम गति की बात करते हैं तो तीन तरह की गति होती है। सामान्य गति, सद्गगति और दुर्गति। तामसिक प्रवृत्ति व कर्म से दुर्गति ही प्राप्त होती है, अर्थात इसकी कोई ग्यारंटी नहीं है कि व्यक्ति कब, कहां और कैसी योनी में जन्म ले। यह चेतना में डिमोशन जैसा है, लेकिन कभी-कभी व्यक्ति की किस्मत भी काम कर जाती है।

सचमुच प्रकृति में किसी भी प्रकार का कोई नियम काम नहीं करता क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति की योग्यता भी असफलता का द्वार खोल देती है और अयोग्य व्यक्ति यदि अच्छी चाहत और सकारात्म विचारों वाला है तो सद्गति को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति को चाहिए जागरण, समर्पण और संकल्प। तो संकल्प लें की आज से हम विचार और भाव के जाल को काटकर सिर्फ दृष्टा होने का अभ्यास करेंगे।
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वराह कल्प का पहला मानव 'स्वायंभुव' :भारतीय कुल का इतिहास भाग-2

अभगच्छत राजेन्द्र देविकां विश्रुताम्।
प्रसूर्तित्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ॥- महाभारत

अर्थात्- सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई।

स्वायंभुव 'मनु' को आदि भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। सभी भाषाओं के मनुष्य-वाची शब्द मैन, मनुज, मानव, आदम, आदमी आदि सभी मनु शब्द से प्रभावित है। यह समस्त मानव जाति के प्रथम संदेशवाहक हैं। इन्हें प्रथम मानने के कई कारण हैं।

संसार के प्रथम पुरुष स्वायंभुव मनु और प्रथम स्त्री थी शतरूपा। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव कहलाए।

मानव उसे कहते हैं जिसमें जड़ और प्राण से कहीं ज्यादा सक्रिय है- मन। मनुष्य में मन की ताकत है, विचार करने की ताकत है, इसीलिए उसे मनुष्य कहते हैं। चूँकि यह सभी 'मनु' की संतानें हैं इसीलिए मनुष्‍य को मानव भी कहा जाता है।

हिंदू धर्म में स्वायंभुव मनु के ही कुल में आगे चलकर स्वायंभुव सहित कुल क्रमश: 14 मनु हुए। महाभारत में 8 मनुओं का उल्लेख मिलता है। श्वेतवराह कल्प में 14 मनुओं का उल्लेख है। इन चौदह मनुओं को ही जैन धर्म में कुलकर कहा गया है।

चौदह मनुओं के नाम: 1. स्वायम्भु 2. स्वरोचिष 3. औत्तमी 4. तामस मनु 5. रैवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्वत 8. सावर्णि 9. दक्ष सावर्णि 10. ब्रह्म सावर्णि 11. धर्म सावर्णि 12. रुद्र सावर्णि 13. रौच्य या देव सावर्णि 14. भौत या इन्द्र सावर्णि।

स्वायंभुव मनु एवं शतरूपा के कुल पाँच सन्तानें थीं जिनमें से दो पुत्र प्रियव्रत एवं उत्तानपाद तथा तीन कन्याएँ आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह प्रजापति कर्दम के साथ हुआ। कपिल ऋषि देवहूति की संतान थे। हिंदू पुराणों अनुसार इन्हीं तीन कन्याओं से संसार के मानवों में वृद्धि हुई।

दो पुत्र- प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद की सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नी थीं। राजा उत्तानपाद के सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव ने बहुत प्रसिद्धि हासिल की थी। स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिससे उनको दस पुत्र हुए थे।

महाराज मनु ने बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। इन्हीं ने 'मनु स्मृति' की रचना की थी जो आज मूल रूप में नहीं मिलती। उसके अर्थ का अनर्थ ही होता रहा है। उस काल में वर्ण का अर्थ रंग होता था और आज जाति।

प्रजा का पालन करते हुए जब महाराज मनु को मोक्ष की अभिलाषा हुई तो वे संपूर्ण राजपाट अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को सौंपकर एकान्त में अपनी पत्नी शतरूपा के साथ नैमिषारण्य तीर्थ चले गए लेकिन उत्तानपाद की अपेक्षा उनके दूसरे पुत्र राजा प्रियव्रत की प्रसिद्धि ही अधिक रही।

स्वायम्भु मनु के काल के ऋषि मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलह, कृतु, पुलस्त्य, और वशिष्ठ हुए। राजा मनु सहित उक्त ऋषियों ने ही मानव को सभ्य, सुविधा संपन्न, श्रमसाध्य और सुसंस्कृत बनाने का कार्य किया।
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हिंदू धर्म : दैनिक कार्यों के नियम-भोजन-पानी के हिन्दू नियम


पशु, पक्षी, पितर, दानव और देवताओं की जीवन चर्या के नियम होते हैं, लेकिन मानव अनियमित जीवन शैली के चलते धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से अलग हो चला है। रोग और शोक की गिरफ्त में आकर समय पूर्व ही वह दुनिया को अलविदा कह जाता है। नियम विरुद्ध जीवन जीने वाला व्यक्ति ही दुनिया को खराब करने का जिम्मेदार है। शास्त्र कहते हैं कि 'नियम ी धर्म है।'

सनातन धर्म ने हर एक हरकत को नियम में बाँधा है और हर एक नियम को धर्म में। यह नियम ऐसे हैं जिससे आप किसी भी प्रकार का बंधन महसूस नहीं करेंगे, बल्कि यह नियम आपको सफल और ‍निरोगी ही बनाएँगे। नियम से जीना ही धर्म है।

भोजन के नियम : 
भोजन की थाली को पाट पर रखकर भोजन किसी कुश के आसन पर सुखासन में (आल्की-पाल्की मारकर) बैठकर ही करना चाहिए। भोजन करते वक्त मौन रहने से लाभ मिलता है। भोजन भोजनकक्ष में ही करना चाहिए। भोजन करते वक्त मुख दक्षिण दिशा में नहीं होना चाहिए। जल का ग्लास हमेशा दाईं ओर रखना चाहिए। भोजन अँगूठे सहित चारो अँगुलियों के मेल से करना चाहिए। परिवार के सभी सदस्यों को साथ मिल-बैठकर ही भोजन करना चाहिए। भोजन का समय निर्धारित होना चाहिए।

शास्त्र कहते हैं कि योगी एक बार और भोगी दो बार भोजन ग्रहण करता है। रात्रि का भोजन निषेध माना गया है। भोजन करते वक्त थाली में से तीन ग्रास (कोल) निकाल कर अलग रखें जाते हैं तथा अँजुली में जल भरकर भोजन की थाली के आसपास दाएँ से बाएँ गोल घुमाकर अँगुली से जल को छोड़ दिया जाता है।

अँगुली से छोड़ा गया जल देवताओं के लिए और अँगूठे से छोड़ा गया जल पितरों के लिए होता है। यहाँ सिर्फ देवताओं के लिए जल छोड़ा जाता है। यह तीन कोल ब्रह्मा, विष्णु और महेष के लिए या मन कथन अनुसार गाय, कव्वा और कुत्ते के लिए भी रखा जा सकता है।

भोजन के तीन प्रकार :
जैसा खाओगे अन्न वैसा बनेगा मन। भोजन शुद्ध और सात्विक होना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि सात्विक भोजन से व्यक्ति का मन सकारात्मक सोच वाला व मस्तिष्क शांतिमय बनता है। इससे शरीर स्वस्थ रहकर निरोगी बनता है। राजसिक भोजन से उत्तेजना का संचार होता है, जिसके कारण व्यक्ति में क्रोध तथा चंचलता बनी रहती है। तामसिक भोजन द्वारा आलस्य, अति नींद, उदासी, सेक्स भाव और नकारात्मक धारणाओं से व्यक्ति ग्रसित होकर चेतना को गिरा लेता है।

सात्विक भोजन से व्यक्ति चेतना के तल से उपर उठकर निर्भिक तथा होशवान बनता है और ता‍मसिक भोजन से चेतना में गिरावट आती है जिससे व्यक्ति मूढ़ बनकर भोजन तथा संभोग में ही रत रहने वाला बन जाता है। राजसिक भोजन व्यक्ति को जीवन पर्यंत तनावग्रस्त, चंचल, भयभीत और अति भावुक बनाए रखकर सांसार में उलझाए रखता है।

जल के नियम :
भोजन के पूर्व जल का सेवन करना उत्तम, मध्य में मध्यम और भोजन पश्चात करना निम्नतम माना गया है। भोजन के एक घंटा पश्चात जल सेवन किया जा सकता है। भोजन के पश्चात थाली या पत्तल में हाथ धोना भोजन का अपमान माना गया है। दो वक्त का भोजन करने वाले के लिए जरूरी है कि वह समय के पाबंद रहें। संध्या काल के अस्त के पश्चात भोजन और जल का त्याग कर दिया जाता है।

पानी छना हुआ होना चाहिए और हमेशा बैठकर ही पानी पीया जाता है। खड़े रहकर या चलते फिरते पानी पीने से ब्लॉडर और किडनी पर जोर पड़ता है। पानी ग्लास में घुंट-घुंट ही पीना चाहिए। अँजुली में भरकर पीए गए पानी में मीठास उत्पन्न हो जाती है। जहाँ पानी रखा गया है वह स्थान ईशान कोण का हो तथा साफ-सुधरा होना चाहिए। पानी की शुद्धता जरूरी है।

विशेष : भोजन खाते या पानी पीते वक्त भाव और विचार निर्मल और सकारात्मक होना चाहिए। कारण की पानी में बहुत से रोगों को समाप्त करने की क्षमता होती है और भोजन-पानी आपकी भावदशा अनुसार अपने गुण बदलते रहते हैं।

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'शतायु' हिंदू संत धारा को जानें Know the 'Shatayu' Hindu Saint Section

वर्तमान दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथा वाचकों की फौज खड़ी हो गई है और हिंदुजन भी हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेकर उसका बड़ा-सा फोटो घर में लगाकर उसकी पूजा करता है। उसका नाम या फोटो जड़ित लाकेट गले में पहनता है। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाएगा।

हिंदू संत बनना बहुत कठिन है ‍क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है। इस कठिनाई, अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधु और संत कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिंदू समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है। हालाँकि इनमें से कमतर ही सच्चे संत होते हैं।

हिंदू संन्यास की कुछ पद्धतियाँ है। इन पद्धतियों के सम्प्रदायों में ‍दीक्षित व्यक्ति को ही हिंदुओं का संत माना जाता है। इस संन्यास परम्परा से जो बाहर है वे संत जरूर हो सकते हैं, लेकिन हिंदू संत नहीं। इस संत धारा से जो बाहर है उनमें से ज्यादातर ने हिंदू धर्म की मनमानी व्याखाएँ करके अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर रखी है और यह भी कि उन्होंने हिंदुजन को भरमाकर उनका शोषण कर स्वयं के धार्मिक व्यापार को विस्तार दिया है।

स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने वालों में जैसे संत आसाराम, दादा लेखराज, सत्यसाँई बाबा, महर्षि महेष योगी, श्रीराम शर्मा आचार्य, श्रीश्री रविशंकर आदि असंख्य लोग हैं। इनमें कौन सही और कौन गलत है यह तो जनता ही तय करती है।

हिंदू संत समाज तीन भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियाँ हैं, लेकिन तीनों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है। यह तीन सम्प्रदाय है- A. वैष्णव B.शैव औरC.स्मृति। वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्‍गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्वणव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है। हालाँकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियाँ प्रचलन में थी।

A) शैव संप्रदाय :
शिव को मानने वाले शैव संप्रदाय वाले हैं। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत और दसनामी अधिक प्रसिद्ध हैं। शाक्त और नाथ संप्रदाय भी शैव संप्रदाय का ही अंग है। सभी में दसनामी संप्रदाय ही अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध है। शाक्त और नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति तो शैव और वैष्णव संप्रदाय में समन्वय की भावना से हुई थी।

*दसनामी संप्रदाय :
हिंदू संन्यास की दसनामी पद्धतियों में से किसी एक पद्धति में हिंदू व्यक्ति जब संन्यास लेता है तो उसको नया नाम दिया जाता है। नए नाम के आगे स्वामी और नाम के साथ आनंद जुड़ा होता है अंत में जिस भी पद्धति से संन्यास लिया है उसका नाम होता है। जैसे कि स्वामी अवधेशानंद गिरि- इसमें 'स्वामी' स्वयं के मालिक होने का सूचक है जो सभी दसनामी संतों के नाम के पूर्व जोड़ा जाता है अवधेशानंद में से 'अवधेश' व्यक्ति को दिया गया नाम है जिसमें 'आनंद' जोड़ा जाता है जोकि सभी संतों के नाम के बाद जोड़ा जाता है। अंत में 'गिरि' दसनामी सम्प्रदायों में से एक संप्रदाय का नाम है।



इसी तरह नाथ शब्द का उपयोग भी वही कर सकता है जो कि हिंदू संन्यास पद्धति से दीक्षित हुआ है। अन्य किसी को भी इन शब्दों का इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है, लेकिन मनमानी स्वतंत्रता और राजनीतिज्ञ संवरक्षण के चलते हर कोई स्वामी, आचार्य और आनंद शब्द का इस्तेमाल कर लेता है। जो जानकार है वे जानबूझ कर भी उक्त शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन जिसे हिंदू धर्म की परवाह नहीं है वे ही ऐसा करते हैं।

*संत नाम विशेषण और प्रत्यय : परमहंस, महर्षि, ऋषि, स्वामी, आचार्य, महंत, संन्यासी, नाथ और आनंद आदि। 
*दसनामी संप्रदाय : गिरि, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम।

*दसनामी पद्धति :
शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। यह भारत के दस भाग का हिस्सा भी है। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे जो दस क्षेत्रों में बँटें थे जिनके एक एक मठाधीश थे।

दसनामी व्यक्तित्व : दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। हर सुबह वे ललाट पर राख से तीन या दो क्षैतिज रेखाएँ बना लेते। तीन रेखाएँ शिव के त्रिशूल का प्रतीक होती है, दो रेखाओं के साथ एक बिन्दी ऊपर या नीचे बनाते, जो शिवलिंग का प्रतीक होती है। इनमें निर्वस्त्रधारियों को नगा बाबा कहते हैं। दसनामी संत 'नमो नारायण' या 'नम: शिवाय' से शिव की आराधना करते हैं।

नाथ सम्प्रदाय : प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरख नाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं:- 

नाथ व्यक्ति : परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।

इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं...
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ॐ के उच्चारण का रहस्य :ॐ है एक मात्र मंत्र, यही है आत्मा का संगीत Secret of pronunciation of Om: Om is the only mantra, this is the music of the soul.

ॐ को ओम लिखने की मजबूरी है अन्यथा तो यह ॐ ही है। अब आप ही सोचे इसे कैसे उच्चारित करें? ओम का यह चिन्ह 'ॐ' अद्भुत है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है। बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार, फैलाव और फैलना। ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं। यह अनादि और अनंत तथा निर्वाण की अवस्था का प्रतीक है।

आइंसटाइन भी यही कह कर गए हैं कि ब्राह्मांड फैल रहा है। आइंसटाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था। महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है। महावीर ने वेदों को पढ़कर नहीं कहा, उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा।

ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक्त 'ओ' पर ज्यादा जोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। यही है √ मंत्र बाकी सभी × है। इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।

तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम।

साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है ॐ का उच्चारण करते रहना।

*त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक : 
ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है। 

*बीमारी दूर भगाएँ : तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं।

सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।

*उच्चारण की विधि : प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं। 

*इसके लाभ : इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं। इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है।

*शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव : 
प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं। अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज हो जाती है जिससे रक्त में 'टॉक्सिक' पदार्थ पैदा होने लगते हैं। इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरह आल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है।
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धर्मी, अधर्मी और विधर्मी :सनातन धर्म और वेद को जानें


सनातन हिंदू धर्म में धर्मी, अधर्मी और विधर्मी- यह तीन शब्द अक्सर सुनने में आते हैं लेकिन इनका अर्थ क्या है यह शायद सभी नहीं जानते हों। आमतौर पर धर्मी वह होता है जो धर्म सम्मत आचरण करे, अधर्मी वह होता है जो धर्म विरुद्ध आचरण करे और विधर्मी वह होता है जो स्वयं का धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपना ले।

1.धर्मी : धर्मी वह जो धर्म सम्मत आचरण करे। क्या है धर्म सम्मत आचरण? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर परायण। मूलत: उक्त आचरण को ही धर्म सम्मत आचरण माना जाता है। लेकिन इसे बहुत कम ही लोग अपनाते या समझते हैं। धार्मिक आचरण का मतलब लोगों को सामाजिक बुराइयों से दूर कर सच्चे मार्ग पर लाना है।

उक्त आचरण के अलावा दया, क्षमा, ध्यान, नम्रता, मधुर स्वभाव, इंद्रियों पर नियंत्रण, मौन, उपवास, वेद सम्मत यज्ञ, गुरु सेवा, धर्म सेवा, धर्म की प्रशंसा, मातृमूमि के प्रति प्रेम, धर्म की रक्षा और समानता का व्यवहार (अर्थात किसी को ऊँचा या नीचा न समझना, जाति ना मानना) भी धार्मिक आचरण है।

क्रोध न करना, लाचल ना करना, धोका ना देना, आलस्य ना करना, एक पति या पत्नीव्रत धारण करना, रात्रि के सभी कार्य त्यागना, सामाजिक उत्तरदायित्व को समझना, बच्चों के सहायक बनना, शराब, जुआ, सट्टा, माँस भक्षण और वेश्यागमन से दूर रहना आदि भी धार्मिक आचरण कहे गए हैं।

2.अधर्मी : जो व्यक्ति रात्रि के कर्म- जैसे रात्रि को पूजा-पाठ, अनुष्ठान, टोटका, तांत्रिक क्रिया, संस्कार आदि क्रिया करता है उसे निशाचरियों के धर्म का माना जाता है। धर्म की बुराई करने वाला, देवता, पितर, गुरु और माता-पिता का मजाक उड़ाना, अपने ही धर्म के लोगों को ऊँचा या नीच समझने वाला भी अधार्मिक कहा गया है। लालच के लिए धर्म, देश, मातृभूमि, परिवार, समाज आदि के साथ धोका करना या उसे बदनाम करना भी अधार्मिक कृत्य है।

ज्योतिष, भाट, वेश्या, शराब और जुए के लिए पैसा खर्च करने वाला भी अधर्मी माना जाता है। शास्त्र विरुद्ध मनमाने देवता, मंदिर, परंपरा, पूजा, आरती, भजन और रीति-रिवाजों को मानने वाला भी अधर्मी है। ज्योतिष विद्या, यज्ञ, पूजा-पाठ, कथा आदि के माध्यम से जीविका चलाने वाला भी अधर्मी है। धर्म के संबंध में असत्य बोलकर या मनमाना वक्तव्य देकर भ्रम फैलाने वाला या धर्म की मनमानी व्याख्या करने वाले भी अधर्मी है। अधर्मी है वह व्यक्ति जो धर्म के ज्ञान का अभिमान और बखान करता है।

उक्त समस्त प्रकार के व्यक्तियों को मार उसी तरह गिरा देती है जिस तरह आँधियाँ सूखे वृक्षों को।

3.विधर्मी : अधर्मी ही कभी भी विधर्मी हो सकता है। भय, लालच या स्वयं के धर्म को न जान पाने के कारण कुछ लोग धर्म बदल लेते हैं। कुछ लोग स्वयं के धर्म को बुरा, भ्रमित करने वाला, अस्पष्ट, बहुदेववादी, मूर्तिपूजक आदि मानकर भी धर्म बदल लेते हैं।

दूसरे का धर्म अपनाकर व्यक्ति अपने कुल का नाश तो करता ही है साथ ही वह मातृभूमि, धर्म, समाज, रिश्ते, पुर्वज और परिवार सभी को धोका देने वाला सिद्ध होता है। ऐसे व्यक्ति को पितरों का शाप तो झेलना ही पड़ता है साथ ही वह मृत्यु के बाद अनंतकाल तक अंधकार में पड़ा रहता है या वह प्रेत योनि में चला जाता। ऐसा व्यक्ति यदि अपनी गलती स्वीकार कर पुन: स्वयं के धर्म में आना चाहे तो जो इस पर एतराज करता है वह अधर्मी कहलाता है।
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हिन्दू धर्म : तीर्थ करना है जरूरी :चार धाम है हिंदू तीर्थ

तीर्थ करने का बहुत पुण्य है। कौन-सा है एक मात्र तीर्थ? तीर्थाटन का समय क्या है? अयोध्‍या, काशी, मथुरा, प्रयाग, चार धाम और कैलाश में कैलाश की महिमा ही अधिक है वही प्रमुख तीर्थ है। हिंदू धर्म के चार संप्रदाय हैं- 1.वैष्णव 2.शैव, 3.शाक्त और 4.ब्रह्म (अन्य)। चारों के तीर्थ हैं

जो मनमानें तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थ से ही वैराग्य और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। तीर्थ यात्रा का समय संक्रांति के बाद माना गया है जबकि सुर्य उत्तरायण होता है। तीर्थ में सबसे प्रमुख कैलाश मानसरोवर को माना गया है। इसके बाद क्रमश: चार धाम, द्वादश ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ, सप्तपुरी का नंबर आता है।

1.कैलाश मानसरोवर
2.चार धाम : बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम, जगन्नाथ पुरी।
3.द्वादश ज्योतिर्लिंग : सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ 
विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर, बैद्यनाथ। 

4.इक्कावन शक्तिपीठ : हिंगुल या हिंगलाज, शर्कररे, सुगंध, अमरनाथ, ज्वाला जी, त्रिपुरमालिनी भीषण, जय दुर्गा बैद्यनाथधाम, गुजयेश्वरी मंदिर, दाक्षायनी नि अमर मानसरोवर, बिराज नाभि विमला जगन्नाथ, गण्डकी चण्डी चक्रपाणि, देवी बाहुला भीरुक, चंद्रिका कपिलांबर, त्रिपुर सुंदरी त्रिपुरेश, छत्राल भवानी चंद्रशेखर, त्रिस्रोत भ्रामरी अंबर, कामाख्या उमानंद, जुगाड्या क्षीर खंडक, कालीपीठ कालिका नकुलीश, ललिता भव, जयंती क्रमादीश्वर, विमला सांवर्त, मणिकर्णिका विशालाक्षी एवं मणिकर्णी काल भैरव, भद्रकाली श्रवणी निमिष, सावित्री स्थनु, मणिबन्ध गायत्री सर्वानंद, श्री शैल महालक्ष्मी शंभरानंद, कांची देवगर्भ रुरु, काली असितांग, नर्मदा भद्रसेन, वक्ष शिवानी चंदा, उमा भूतेश, शुचि नारायणी संहार, वाराही महारुद्र, अर्पण वामन, श्री संदरी सुंदरानंद, कपालिनी (भीमरूप) शर्वानंद, चंद्रभागा वक्रतुण्ड, अवंति लम्बकर्ण, भ्रामरी विकृताक्ष, सर्वशैल राकिनी/विश्वेश्वरी वत्सनाभ/दण्डपाणि, बिरात अम्बिका अमृतेश्वर, रत्नावली कुमारी शिवा, उमा महोदर, कलिका देवी योगेश, कर्नाट जयदुर्गा अभिरु, महिषमर्दिनी वक्रनाथ, यशोरेश्वरी चंदा, अट्टहास फुल्लरा विश्वेश, नंदिनी नंदिकेश्वर, इंद्रक्षी राक्षसेश्वर।

5.सप्तपुरी : काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया, कांची और अवंति (उज्जैन)।




6. अन्य तीर्थ :
दुर्गा के प्रमुख तीर्थ :- दाक्षायनी (मानसरोवर), माँ वैष्णोदेवी (जम्मू-कटरा), मनसादेवी (हरिद्वार), काली माता (पावागढ़), नयना देवी (नैनीताल), शारदा मैया (मैयर), कालका माता (कोलकाता), ज्वालामुखी (काँगड़ा), भवानी माता (पूना), तुलजा भवानी (तुलजापुर), चामुंडा देवी (धर्मशाला, जोधपुर और देवास), अम्बाजी मंदिर (माउंट आबू के पास), अर्बुदा देवी (नीलगिरि माउंट आबू पर्वत), तुलजा-चामुंडा (देवास माता टेकरी), बिजासन टेकरी (इंदौर), गढ़ कालिका-हरसिद्धि (उज्जैन), मुम्बादेवी (मुंबई), सप्तश्रृंगी देवी (नासिक के पास), माँ मनुदेवी (भुसावल-यावल आड़गाव), त्रिशक्ति पीठम (अमरावती, आंध्रप्रदेश विजयवाड़ा), आट्टुकाल भगवती (तिरुवनंतपुरम), श्रीलयराई देवी (गोवा), कामाख्या (गुवाहाटी), गुह्म कालिका (नेपाल), महाकाली (काशी), कौशिकी देवी (अल्मोड़ा), सातमात्रा (ओंकारेश्वर), कालका (देहली-शिमला रोड पर), नगरकोट की देवी (काँगड़ा पठानकोट-योगीन्द्रनगर लाइन पर भगवती विद्येश्वरी), भगवती कालिका (चित्तौड़), भगवती पटेश्वरी, योगमाया-कालिका (कुतुबमीनार के पास दूसरा ओखला नामक ग्राम में), पथकोट की देवी (पठानकोट), ललिता देवी (इलाहबाद-कड़ा), पूर्णागिरि (नेपाल की सरहद पर शारदानदी के किनारे), माता कुडि़या (चेन्नई), देवी चामुंडा-भेरुण्डा (मैसूर), श्रीविन्ध्यवासिनी (विन्ध्याचल), तारादेवी (कण्डाघाट स्टेशन)।

और भी :- तिरुपति बालाजी, शिर्डी, बाबा रामदेवजी (रामद्वारा), श्रीनाथजी, गजानंद महाराज, दादा धूनी वाले, शिलनाथ (देवास), गोगा महाराज, पंढरपुर दत्तात्रेय महाराज आदि।

हिंदू धर्म में कैलाश मानसरोवर और चार धाम की यात्रा का ही महत्व माना गया है। इनकी यात्रा करते हुए ज्योतिर्लिंग व सप्तपुरियों की यात्रा स्वत: ही हो जाती है। इसके अलावा अन्य किसी तीर्थ की यात्रा करना या नहीं करना अपनी-अपनी श्रद्धा का मामला है, किंतु चार धाम अवश्य करना चाहिए।

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 1. एक नारी को तब क्या करना चाहिये जब वह देर रात में किसी उँची इमारत की लिफ़्ट में किसी अजनबी के साथ स्वयं को अकेला पाये ?  जब आप लिफ़्ट में...