धर्मी, अधर्मी और विधर्मी :सनातन धर्म और वेद को जानें


सनातन हिंदू धर्म में धर्मी, अधर्मी और विधर्मी- यह तीन शब्द अक्सर सुनने में आते हैं लेकिन इनका अर्थ क्या है यह शायद सभी नहीं जानते हों। आमतौर पर धर्मी वह होता है जो धर्म सम्मत आचरण करे, अधर्मी वह होता है जो धर्म विरुद्ध आचरण करे और विधर्मी वह होता है जो स्वयं का धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपना ले।

1.धर्मी : धर्मी वह जो धर्म सम्मत आचरण करे। क्या है धर्म सम्मत आचरण? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर परायण। मूलत: उक्त आचरण को ही धर्म सम्मत आचरण माना जाता है। लेकिन इसे बहुत कम ही लोग अपनाते या समझते हैं। धार्मिक आचरण का मतलब लोगों को सामाजिक बुराइयों से दूर कर सच्चे मार्ग पर लाना है।

उक्त आचरण के अलावा दया, क्षमा, ध्यान, नम्रता, मधुर स्वभाव, इंद्रियों पर नियंत्रण, मौन, उपवास, वेद सम्मत यज्ञ, गुरु सेवा, धर्म सेवा, धर्म की प्रशंसा, मातृमूमि के प्रति प्रेम, धर्म की रक्षा और समानता का व्यवहार (अर्थात किसी को ऊँचा या नीचा न समझना, जाति ना मानना) भी धार्मिक आचरण है।

क्रोध न करना, लाचल ना करना, धोका ना देना, आलस्य ना करना, एक पति या पत्नीव्रत धारण करना, रात्रि के सभी कार्य त्यागना, सामाजिक उत्तरदायित्व को समझना, बच्चों के सहायक बनना, शराब, जुआ, सट्टा, माँस भक्षण और वेश्यागमन से दूर रहना आदि भी धार्मिक आचरण कहे गए हैं।

2.अधर्मी : जो व्यक्ति रात्रि के कर्म- जैसे रात्रि को पूजा-पाठ, अनुष्ठान, टोटका, तांत्रिक क्रिया, संस्कार आदि क्रिया करता है उसे निशाचरियों के धर्म का माना जाता है। धर्म की बुराई करने वाला, देवता, पितर, गुरु और माता-पिता का मजाक उड़ाना, अपने ही धर्म के लोगों को ऊँचा या नीच समझने वाला भी अधार्मिक कहा गया है। लालच के लिए धर्म, देश, मातृभूमि, परिवार, समाज आदि के साथ धोका करना या उसे बदनाम करना भी अधार्मिक कृत्य है।

ज्योतिष, भाट, वेश्या, शराब और जुए के लिए पैसा खर्च करने वाला भी अधर्मी माना जाता है। शास्त्र विरुद्ध मनमाने देवता, मंदिर, परंपरा, पूजा, आरती, भजन और रीति-रिवाजों को मानने वाला भी अधर्मी है। ज्योतिष विद्या, यज्ञ, पूजा-पाठ, कथा आदि के माध्यम से जीविका चलाने वाला भी अधर्मी है। धर्म के संबंध में असत्य बोलकर या मनमाना वक्तव्य देकर भ्रम फैलाने वाला या धर्म की मनमानी व्याख्या करने वाले भी अधर्मी है। अधर्मी है वह व्यक्ति जो धर्म के ज्ञान का अभिमान और बखान करता है।

उक्त समस्त प्रकार के व्यक्तियों को मार उसी तरह गिरा देती है जिस तरह आँधियाँ सूखे वृक्षों को।

3.विधर्मी : अधर्मी ही कभी भी विधर्मी हो सकता है। भय, लालच या स्वयं के धर्म को न जान पाने के कारण कुछ लोग धर्म बदल लेते हैं। कुछ लोग स्वयं के धर्म को बुरा, भ्रमित करने वाला, अस्पष्ट, बहुदेववादी, मूर्तिपूजक आदि मानकर भी धर्म बदल लेते हैं।

दूसरे का धर्म अपनाकर व्यक्ति अपने कुल का नाश तो करता ही है साथ ही वह मातृभूमि, धर्म, समाज, रिश्ते, पुर्वज और परिवार सभी को धोका देने वाला सिद्ध होता है। ऐसे व्यक्ति को पितरों का शाप तो झेलना ही पड़ता है साथ ही वह मृत्यु के बाद अनंतकाल तक अंधकार में पड़ा रहता है या वह प्रेत योनि में चला जाता। ऐसा व्यक्ति यदि अपनी गलती स्वीकार कर पुन: स्वयं के धर्म में आना चाहे तो जो इस पर एतराज करता है वह अधर्मी कहलाता है।
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