द्वंद्व का सामान्य अर्थ होता है दिमाग में दो तरह के विचार के बीच निर्णय नहीं ले पाना। जैसे उदाहरण के तौर पर कभी ईश्वर के अस्तित्व को मानना और कभी नहीं। कभी किसी को या खुद को गलत समझना और कभी नहीं। अनिर्णय की स्थिति में चले जाना या सही व गलत को समझ नहीं पाना। यदि इस तरह की स्थिति लंबे समय तक बनी रहती है तो यह मस्तिष्क विकार का कारण बन जाती है। द्वंद्व का जितना असर मस्तिष्क पर पड़ता है उससे कहीं ज्यादा असर शरीर पर पड़ता है। द्वंद्व हमारी सेहत के लिए खतरनाक है।
जिनके दिमाग में द्वंद्व है, वह हमेशा चिंता, भय और संशय में ही जीते रहते हैं। प्यार में भय, परीक्षा का भय, नौकरी का भय, दुनिया का भय और खुद से भी भयभीत रहने की आदत से जीवन एक संघर्ष ही नजर आता है, आनंद नहीं। इनसे दिमाग में द्वंद्व का विकास होता है जो निर्णय लेने की क्षमता को खतम कर देता है। इस द्वंद्व की स्थिति से निजात पाई जा सकती है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए द्वंद्व से मुक्त होना आवश्यक है।
*कैसे जन्मता है द्वंद्व : बचपन में आपके ऊपर प्रत्येक तरह के संस्कार लादे गए हैं, आप खुद भी लाद लेते हैं। फिर थोड़े बढ़े हुए तो सोचने लगे, तब संस्कारों के खिलाफ भी सोचने लगे, क्योंकि आधुनिक युग कुछ और ही शिक्षा देता है, लेकिन फिर डर के मारे संस्कारों के पक्ष में तर्क जुटाने लगे। इससे आप तर्कबाज हो गए। अब दिमाग में दो चीज हो गई- संस्कार और विचार।
फिर थोड़े और बढ़े हुए तो कुछ खट्टे-मिठे अनुभव भी हुए। आपने सोचा की अनुभव कुछ और, बचपन में सिखाई गई बातें कुछ और है। अब दिमाग में तीन चीज हो गई- संस्कार, विचार और अनुभव। संस्कार कुछ और कहता है, विचार कुछ और और अनुभव कुछ और। इन तीनों के झगड़ने में ज्ञान तो उपज ही नहीं पाता और द्वंद्व बना रहता है।
*द्वंद्ध से मुक्त का उपाय :
योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:।- योगसूत्र
चित्तवृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त अर्थात बुद्धि, अहंकार और मन नामक वृत्ति के क्रियाकलापों से बनने वाला अंत:करण। चाहें तो इसे अचेतन मन कह सकते हैं, लेकिन यह अंत:करण इससे भी सूक्ष्म माना गया है। इस पर बहुत सारी बातें चिपक जाती है।
दुनिया के सारे धर्म इस चित्त पर ही कब्जा करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने तरह-तरह के नियम, क्रियाकांड, ग्रह-नक्षत्र, लालच और ईश्वर के प्रति भय को उत्पन्न कर लोगों को अपने-अपने धर्म से जकड़े रखा है। उन्होंने अलग-अलग धार्मिक स्कूल खोल रखें हैं। पातंजलि कहते हैं कि इस चित्त को ही खत्म करो। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
चित्त को राह पर लाने के लिए प्रतिदिन 10 मिनट का प्राणायाम और ध्यान करें। तीन माह तक लगातार ऐसा करते रहने से दिमाग शांत और द्वंद्व रहित होने लगेगा। जब भी कोई विचार आते हैं अच्छे या बुरे दोनों की ही उपेक्षा करना सिखें और व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाएं अर्थात सत्य समझ और बोध में है विचार में नहीं।
*योगा पैकेज : आहार का शरीर से ज्यादा मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है, तो आप क्या खाते हैं इस पर गौर करें। अच्छा खाएँ और शरीर की इच्छा से खाएँ, मन की इच्छा से नहीं। यौगिक आहार को जानना चाहें तो अवश्य जानें। आहार के बाद आसन के महत्व को समझें और तीसरा प्राणायाम व ध्यान नियमित करें। आसन से शरीर, प्राणायाम-ध्यान से मन-मस्तिष्क और आहार से दोनों का संतुलन बरकरार रहेगा।
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