श्रीमद् भागवत गीता में कहा गया है कि राष्ट्र का चरित्र बदलना है तो राष्ट्र के सर्वोच्च स्थान पर बैठे हुए व्यक्ति का चरित्र बदलना होगा, क्योंकि श्रेष्ठजन जैसा आचरण करते हैं, बाकी के लोग उनका अनुसरण करते हैं। इसलिए हम सब लोगों को उन लोगों के आदर्श देखना चाहिए जो गरीबी में भले ही पले हों, लेकिन अपने जीवन के सिद्धांतों का पालन करने का यत्न कर रहे हों।
गांव में ऐसे लोगों को ढूंढकर ऐसे सम्मेलनों में लाएं जो अध्यापक रहे हों, जो छोटे कार्य कर किसानी करते हों, लेकिन भूलकर भी अपनी ईमानदारी के साथ सौदा न किया हो, ऐसे लोगों का सम्मान फिर से इस देश में होना चाहिए। ईमानदार व्यक्ति को भी लगेगा कि मेरी उपयोगिता है। मैं एक आदर्श हूं। मैं समाज को तिल-तिल जलकर भी कुछ दे सकता हूं। अंधेरे से लड़ सकता हूं। सामान्य प्रकाश में बहुत बड़ा बल होता है।
देश और समाज की परिस्थिति का चिंतन करते-करते निराशा जागी। ऐसी निराशा में बैठा हुआ था कि एक छोटा-सा जीव मेरी आंखों के सामने से गुजरा। उसके भीतर से प्रकाश निकल रहा था, वह जुगनू था, मानो कह रहा हो- ओ संन्यासी, तुम अंधेरे से डरते हो? मैं अंधेरे को चुनौती देते हुए सदियों से निरंतर चमकता रहता हूं। दीप से दीप जलाने का कार्य हमें निरंतर करना है, भले हम खद्योन बने, दीपक लेकिन अंधकार से हमारा संघर्ष चलते रहना चाहिए। संघर्ष जीवन का दूसरा नाम है।
जब विकलांग और विष्णु में कोई अंतर न रह जाए तो समझना चाहिए कि पूजा सार्थक हो गई। अपने स्वार्थों में जकड़ा हुआ यह समाज पुण्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की विधियों का पालन भले ही न करे, लेकिन अंतरशुद्धि के लिए सेवा का मार्ग न अपना सके तो विधियां लौकिक प्रशंसा तो दिला सकेंगी।
अंतर की शुद्धि, अंतर्यामी की सन्निधि प्राप्त नहीं होगी। आज इस देश को आवश्यकता है हमारे भीतर आत्म संतोष जागे। आत्मसंतुष्टि सेवा और संस्कार के द्वारा जितनी प्राप्त होती है, उतनी किसी और प्रकार से नहीं होती है। एक पत्रकार ने विदेश में मुझसे पूछा कि आपको देश का भविष्य कैसा लग रहा है? मैंने कहा कि वर्तमान परिस्थितियों को देखेंगे तो बहुत धूमिल लग रहा है। लेकिन ऐसी धूमिल अवस्थाओं का सामना बहुत बार हम कर चुके हैं।
इसलिए ऐसा लग रहा है कि अंधकार के पीछे से सूर्य वहीं अकुला रहा है। अपनी अरुणाई बिखेरने के लिए, अपनी प्राची को पवित्र करने के लिए अरुणोदय मानों झांक रहा है। यह उससे पूर्व का अंधकार है, इसलिए उससे डरना नहीं चाहिए।
उच्च कोटि का जीवन जीने में ही सार्थकता है। ऊपर उठने के लिए मनुष्य को कुछ प्रयत्न करना पड़ेगा। क्योंकि मानव परमात्मा की सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। यदि मानव-जीवन श्रेष्ठ नहीं होता तो उसकी वंदना क्यों की जाती? उसके सम्मान में गीत क्यों गाए जाते? उसकी मूर्तियां-प्रतिमाएं क्यों स्थापित की जातीं?
मेरी दृष्टि में, शास्त्रों की दृष्टि में, संसार के सारे श्रेष्ठ पुरुषों की दृष्टि से मानव का तन तभी श्रेष्ठ है, जब वह नारायण की सेवा करने का प्रयत्न करे। लोगों को दुःख से मुक्त करना सबसे बड़ी सेवा है। नर के द्वारा यह नारायण की ही सेवा है।
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