जिस तरह ब्रह्मचर्य में ग्रहस्थ की, ग्रहस्थ में वानप्रस्थ की तैयारी होती है उसी तरह वानप्रस्थ में संन्यास की तैयारी होती है। तब वन के आश्रम का भी त्याग हो जाता है।- ऐसी अवस्था को ही परिवाज्रक कहा गया है।
परिव्राजक विचरण करता है। उसे ही ब्रह्म निष्ठ कहा गया है। यही मोक्ष है। संन्यास आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम की पुनरावृत्ति है। प्राचीन भारत में ऋषि-मुनि वन में कुटी बनाकर रहते थे। जहाँ वे ध्यान और तपस्या करते थे। उक्त जगह पर समाज के लोग अपने बालकों को वेदों का अध्ययन करने के अलावा अन्य विद्याएँ सीखने के लिए भेजते थे। धीरे-धीरे यह आश्रम संन्यासियों, त्यागियों, विरक्तों धार्मिक यात्रियों और अन्य लोगों के लिए शरण स्थली बनता गया।
सनातन धर्म में संन्यास को बहुत महत्व दिया गया है। संन्यासी को साधु, ऋषि, मुनि, महात्मा, स्वामी या परिव्राजक कहा जाता है। संन्यासियों के भी कई भेद बताए गए हैं, लेकिन पुराणकारों के अनुसार संन्यास आश्रम के दो भेद हैं।
संन्यास आश्रम में रहने वाले व्यक्ति को पारमेष्ठिक या योगी कहा जाता है। योगाभ्यास द्वारा अपनी इन्द्रियों और मन को जीतने वाला तथा मोक्ष की कामना रखने वाला व्यक्ति पारमेष्ठिक संन्यासी कहलाता है। लेकिन व्यक्ति ब्रह्म का साक्षात्कार कर अपनी आत्मा में ही परमात्मा के दिव्य स्वरूप का दर्शन करता है, तो उसे 'योगी संन्यासी' कहा जाता है।
वैष्णव, शैव, शाक्त, दसनामी और नाथ संप्रदाय में साधुओं के अलग-अलग भेद हैं, लेकिन कहलाते सभी संन्यासी ही है। संन्यासी होने के लिए संन्यासी भाव का होना जरूरी है तभी संन्यास आश्रम मोक्षदायी सिद्ध होता है। संन्यास की श्रेष्ठ अवस्था है परमहंस हो जाना।
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