खुद का ट्रीटमेंट यानी हम खुद जानें कि हमारी समस्या क्या है? इसे हम आत्मसम्मोहन व आत्मचिंतन भी कह सकते हैं। इसकी मदद से आपके शरीर तथा दिमाग दोनों सही परिणाम देने लगेंगे। हालांकि निगेटिव विचार तनावपूर्ण परिस्थितियों की देन होते हैं, लेकिन आप अपने अंदर संतुलन पैदा कर आत्म सुझावों द्वारा उनका सामना कर सकते हैं।
इसके लिए कुछ लोग मंत्रों को मन ही मन पढ़ते या फिर बोलकर उच्चारण भी करते हैं, ताकि मन को शांति एवं नई दिशा व सजगता मिल सके। मंत्रों के शब्द मन के अंदर एक जबर्दस्त पवित्र छाप छोड़ते हैं। ये शब्द दिलो-दिमाग पर गूंजते हैं, जिससे पूरा शरीर प्रभावित होता है।
अब जब संतुलन ही अहम चीज है, तो यहां हम कुछ ऐसी बातों का जिक्र करने जा रहे हैं, जिन पर अमल कर शुरू से ही आप अपने शरीर को संतुलित और स्वस्थ बना सकते हैं। आयुर्वेद ने इस संबंध में एक प्रणाली का उल्लेख किया हुआ है, जिसे हम सेल्फ रेफरल कहते हैं। सेल्फ-रेफरल का मतलब है- अपने अंदर झांकना या आत्मनिरीक्षण करना और फिर आत्मचिंतन करना।
जब आपको सुख का अनुभव हो, तो समझिए कि आप आत्मचिंतन कर रहे हैं और जब डर, चिंता, नाराजगी- जैसे भाव आने लगें, तो समझिए कि आप आत्मचिंतन से बाहर आ गए हैं और आप वस्तु चिंतन कर रहे हैं, क्योंकि इन भावनाओं की उत्पत्ति का कारण ही वस्तु-चिंतन है। और वस्तु चिंतन कुंठा एवं मानसिक स्थिति ठीक न होने के कारण होता है। इससे न सिर्फ सफलता की राह में रुकावट आती है, बल्कि आपके शरीर को कहीं न कहीं नुकसान भी पहुंचता है।
मनुष्य लगभग 10 हजार तरह की गंधों को पहचान सकता है और गंध संबंधी कोशिकाएं नाक के अंदर मौजूद झिल्ली पर होती हैं। यही कोशिकाएं गंध संबंधी खबर सीधे मस्तिष्क के अंदर स्थित हाइपोथैलमस के पास भेजती है। हाइपोथैलमस मस्तिष्क का एक बहुत छोटा-सा भाग है, मगर वह शरीर की दर्जनों प्रक्रियाओं के लिए जिम्मेदार होता है।
जैसे- शरीर का तापमान, प्यास, खून में शर्करा का स्तर, विकास, नींद, जागना, भावनाएँ और पाचन। इस तरह गंध की कोई खबर सबसे पहले हाइपोथैलमस को प्रभावित कर, उसकी कार्य विधियों को सही रखती है।
ऐसे में खास-खास किस्म की गंधों के जरिए तीनों दोषों (वात, कफ, पित्त) को भी संतुलित किया जा सकता है। जैसी तुलसी, संतरा-मौसंबी और लौंग की गंध वात को प्रभावित करती है, वैसे ही चंदन, गुलाब, पुदीना और दालचीनी की मीठी-ठंडी खुशबू से पित्त संतुलित रहता है। और लौंग, काली मिर्च, मिंट आदि की गंध कफ को संतुलित करती है। अन्य जरूरतों के लिए भी कई गंधों के मिश्रण तैयार किए जा सकते हैं।
एक तरह से देखा जाए, तो आपका शरीर हमेशा उस वातावरण को ग्रहण करता रहता है, जिसमें आप रहते हैं और यह कार्य आपकी इंद्रियां करती हैं। लिहाजा, शारीरिक संतुलन के लिए शरीर का मन से संतुलन बनाए रखना भी जरूरी होता है। इसके लिए आत्म-सम्मोहन विधि सबसे ज्यादा उपयोगी साबित होती है।
इसके अनुसार आत्म-सम्मोहन के दौरान ओंकार संगीतमय ध्वनि से आपके शरीर और दिमाग का संतुलन तो ठीक होता ही है, इर्द-गिर्द का वातावरण भी संतुलित होता है। इसमें कोई शक नहीं कि ध्वनि का मन और शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
बिस्तर पर जाने से पहले या फिर तनाव की स्थिति में संगीत सुनने से मन आत्मचिंतन की प्रेरणा पाता है और प्रतिदिन आत्म-सम्मोहन के सफल अभ्यास से नकारात्मक भावनाएं दूर होती हैं और शरीर व मन स्वस्थ हो जाता है।
इसके लिए आवश्यक है कि अनुभवी व जानकार सम्मोहन चिकित्सक से 7 से 10 दिन तक लगातार सम्मोहन की विधि सीखी जाए। जो लोग एक या दो दिन में सिखाने का दावा करते हैं वे केवल इस विधि का आपको प्रारंभिक ज्ञान दे सकते हैं, इसके वास्तविक लाभ का अनुभव नहीं करा सकते।
इसके लिए कुछ लोग मंत्रों को मन ही मन पढ़ते या फिर बोलकर उच्चारण भी करते हैं, ताकि मन को शांति एवं नई दिशा व सजगता मिल सके। मंत्रों के शब्द मन के अंदर एक जबर्दस्त पवित्र छाप छोड़ते हैं। ये शब्द दिलो-दिमाग पर गूंजते हैं, जिससे पूरा शरीर प्रभावित होता है।
अब जब संतुलन ही अहम चीज है, तो यहां हम कुछ ऐसी बातों का जिक्र करने जा रहे हैं, जिन पर अमल कर शुरू से ही आप अपने शरीर को संतुलित और स्वस्थ बना सकते हैं। आयुर्वेद ने इस संबंध में एक प्रणाली का उल्लेख किया हुआ है, जिसे हम सेल्फ रेफरल कहते हैं। सेल्फ-रेफरल का मतलब है- अपने अंदर झांकना या आत्मनिरीक्षण करना और फिर आत्मचिंतन करना।
जब आपको सुख का अनुभव हो, तो समझिए कि आप आत्मचिंतन कर रहे हैं और जब डर, चिंता, नाराजगी- जैसे भाव आने लगें, तो समझिए कि आप आत्मचिंतन से बाहर आ गए हैं और आप वस्तु चिंतन कर रहे हैं, क्योंकि इन भावनाओं की उत्पत्ति का कारण ही वस्तु-चिंतन है। और वस्तु चिंतन कुंठा एवं मानसिक स्थिति ठीक न होने के कारण होता है। इससे न सिर्फ सफलता की राह में रुकावट आती है, बल्कि आपके शरीर को कहीं न कहीं नुकसान भी पहुंचता है।
मनुष्य लगभग 10 हजार तरह की गंधों को पहचान सकता है और गंध संबंधी कोशिकाएं नाक के अंदर मौजूद झिल्ली पर होती हैं। यही कोशिकाएं गंध संबंधी खबर सीधे मस्तिष्क के अंदर स्थित हाइपोथैलमस के पास भेजती है। हाइपोथैलमस मस्तिष्क का एक बहुत छोटा-सा भाग है, मगर वह शरीर की दर्जनों प्रक्रियाओं के लिए जिम्मेदार होता है।
जैसे- शरीर का तापमान, प्यास, खून में शर्करा का स्तर, विकास, नींद, जागना, भावनाएँ और पाचन। इस तरह गंध की कोई खबर सबसे पहले हाइपोथैलमस को प्रभावित कर, उसकी कार्य विधियों को सही रखती है।
ऐसे में खास-खास किस्म की गंधों के जरिए तीनों दोषों (वात, कफ, पित्त) को भी संतुलित किया जा सकता है। जैसी तुलसी, संतरा-मौसंबी और लौंग की गंध वात को प्रभावित करती है, वैसे ही चंदन, गुलाब, पुदीना और दालचीनी की मीठी-ठंडी खुशबू से पित्त संतुलित रहता है। और लौंग, काली मिर्च, मिंट आदि की गंध कफ को संतुलित करती है। अन्य जरूरतों के लिए भी कई गंधों के मिश्रण तैयार किए जा सकते हैं।
एक तरह से देखा जाए, तो आपका शरीर हमेशा उस वातावरण को ग्रहण करता रहता है, जिसमें आप रहते हैं और यह कार्य आपकी इंद्रियां करती हैं। लिहाजा, शारीरिक संतुलन के लिए शरीर का मन से संतुलन बनाए रखना भी जरूरी होता है। इसके लिए आत्म-सम्मोहन विधि सबसे ज्यादा उपयोगी साबित होती है।
इसके अनुसार आत्म-सम्मोहन के दौरान ओंकार संगीतमय ध्वनि से आपके शरीर और दिमाग का संतुलन तो ठीक होता ही है, इर्द-गिर्द का वातावरण भी संतुलित होता है। इसमें कोई शक नहीं कि ध्वनि का मन और शरीर पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
बिस्तर पर जाने से पहले या फिर तनाव की स्थिति में संगीत सुनने से मन आत्मचिंतन की प्रेरणा पाता है और प्रतिदिन आत्म-सम्मोहन के सफल अभ्यास से नकारात्मक भावनाएं दूर होती हैं और शरीर व मन स्वस्थ हो जाता है।
इसके लिए आवश्यक है कि अनुभवी व जानकार सम्मोहन चिकित्सक से 7 से 10 दिन तक लगातार सम्मोहन की विधि सीखी जाए। जो लोग एक या दो दिन में सिखाने का दावा करते हैं वे केवल इस विधि का आपको प्रारंभिक ज्ञान दे सकते हैं, इसके वास्तविक लाभ का अनुभव नहीं करा सकते।
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