डॉ.ए.ए. शर्मा
आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में रोग पहचानने के कई तरीके हैं। नाभि स्पंदन से रोग की पहचान का उल्लेख हमें हमारे आयुर्वेद व प्राकृतिक उपचार चिकित्सा पद्धतियों में मिल जाता है। परंतु इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हम हमारी अमूल्य धरोहर को न संभाल सके।
कैसे होती है नाभि स्पंदन से रोगों की पहचान :
यदि नाभि का स्पंदन ऊपर की तरफ चल रहा है याने छाती की तरफ तो अग्न्याष्य खराब होने लगता है। इससे फेफड़ों पर गलत प्रभाव होता है। मधुमेह, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं। यदि यह स्पंदन नीचे की तरफ चली जाए तो पतले दस्त होने लगते हैं। बाईं ओर खिसकने से शीतलता की कमी होने लगती है, सर्दी-जुकाम, खाँसी, कफजनित रोग जल्दी-जल्दी होते हैं।
यदि यह ज्यादा दिनों तक रहेगी तो स्थायी रूप से बीमारियाँ घर कर लेती हैं। दाहिनी तरफ हटने पर लीवर खराब होकर मंदाग्नि हो सकती है। पित्ताधिक्य, एसिड, जलन आदि की शिकायतें होने लगती हैं। इससे सूर्य चक्र निष्प्रभावी हो जाता है। गर्मी-सर्दी का संतुलन शरीर में बिगड़ जाता है। मंदाग्नि, अपच, अफरा जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं। यदि नाभि पेट के ऊपर की तरफ आ जाए यानी रीढ़ के विपरीत, तो मोटापा हो जाता है। वायु विकार हो जाता है। यदि नाभि नीचे की ओर (रीढ़ की हड्डी की तरफ) चली जाए तो व्यक्ति कुछ भी खाए, वह दुबला होता चला जाएगा।
नाभि के खिसकने से मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमताएँ कम हो जाती हैं। नाभि को पाताल लोक भी कहा गया है। कहते हैं मृत्यु के बाद भी प्राण नाभि में छः मिनट तक रहते है। यदि नाभि ठीक मध्यमा स्तर के बीच में चलती है तब स्त्रियाँ गर्भधारण योग्य होती हैं। यदि यही मध्यमा स्तर से खिसककर नीचे रीढ़ की तरफ चली जाए तो ऐसी स्त्रियाँ गर्भ धारण नहीं कर सकतीं।
अकसर यदि नाभि बिलकुल नीचे रीढ़ की तरफ चली जाती है तो फैलोपियन ट्यूब नहीं खुलती और इस कारण स्त्रियाँ गर्भधारण नहीं कर सकतीं। कई वंध्या स्त्रियों पर प्रयोग कर नाभि को मध्यमा स्तर पर लाया गया। इससे वंध्या स्त्रियाँ भी गर्भधारण योग्य हो गईं। कुछ मामलों में उपचार वर्षों से चल रहा था एवं चिकित्सकों ने यह कह दिया था कि यह गर्भधारण नहीं कर सकती किन्तु नाभि-चिकित्सा के जानकारों ने इलाज किया।
उपचार पद्धति आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों में पूर्व से ही विद्यमान रही है। नाभि को यथास्थान लाना एक कठिन कार्य है। थोड़ी-सी गड़बड़ी किसी नई बीमारी को जन्म दे सकती है। नाभि-नाड़ियों का संबंध शरीर के आंतरिक अंगों की सूचना प्रणाली से होता है।
यदि गलत जगह पर खिसक जाए व स्थायी हो जाए तो परिणाम अत्यधिक खराब हो सकता है। इसलिए नाभि नाड़ी को यथास्थल बैठाने के लिए इसके योग्य व जानकार चिकित्सकों का ही सहारा लिया जाना चाहिए। नाभि को यथास्थान लाने के लिए रोगी को रात्रि में कुछ खाने को न दें। सुबह खाली पेट उपचार के लिए जाना चाहिए। क्योंकि खाली पेट ही नाभि नाड़ी की स्थिति का पता लग सकता है।
कैसे होती है नाभि स्पंदन से रोगों की पहचान :
यदि नाभि का स्पंदन ऊपर की तरफ चल रहा है याने छाती की तरफ तो अग्न्याष्य खराब होने लगता है। इससे फेफड़ों पर गलत प्रभाव होता है। मधुमेह, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं। यदि यह स्पंदन नीचे की तरफ चली जाए तो पतले दस्त होने लगते हैं। बाईं ओर खिसकने से शीतलता की कमी होने लगती है, सर्दी-जुकाम, खाँसी, कफजनित रोग जल्दी-जल्दी होते हैं।
यदि यह ज्यादा दिनों तक रहेगी तो स्थायी रूप से बीमारियाँ घर कर लेती हैं। दाहिनी तरफ हटने पर लीवर खराब होकर मंदाग्नि हो सकती है। पित्ताधिक्य, एसिड, जलन आदि की शिकायतें होने लगती हैं। इससे सूर्य चक्र निष्प्रभावी हो जाता है। गर्मी-सर्दी का संतुलन शरीर में बिगड़ जाता है। मंदाग्नि, अपच, अफरा जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं। यदि नाभि पेट के ऊपर की तरफ आ जाए यानी रीढ़ के विपरीत, तो मोटापा हो जाता है। वायु विकार हो जाता है। यदि नाभि नीचे की ओर (रीढ़ की हड्डी की तरफ) चली जाए तो व्यक्ति कुछ भी खाए, वह दुबला होता चला जाएगा।
नाभि के खिसकने से मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमताएँ कम हो जाती हैं। नाभि को पाताल लोक भी कहा गया है। कहते हैं मृत्यु के बाद भी प्राण नाभि में छः मिनट तक रहते है। यदि नाभि ठीक मध्यमा स्तर के बीच में चलती है तब स्त्रियाँ गर्भधारण योग्य होती हैं। यदि यही मध्यमा स्तर से खिसककर नीचे रीढ़ की तरफ चली जाए तो ऐसी स्त्रियाँ गर्भ धारण नहीं कर सकतीं।
अकसर यदि नाभि बिलकुल नीचे रीढ़ की तरफ चली जाती है तो फैलोपियन ट्यूब नहीं खुलती और इस कारण स्त्रियाँ गर्भधारण नहीं कर सकतीं। कई वंध्या स्त्रियों पर प्रयोग कर नाभि को मध्यमा स्तर पर लाया गया। इससे वंध्या स्त्रियाँ भी गर्भधारण योग्य हो गईं। कुछ मामलों में उपचार वर्षों से चल रहा था एवं चिकित्सकों ने यह कह दिया था कि यह गर्भधारण नहीं कर सकती किन्तु नाभि-चिकित्सा के जानकारों ने इलाज किया।
उपचार पद्धति आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों में पूर्व से ही विद्यमान रही है। नाभि को यथास्थान लाना एक कठिन कार्य है। थोड़ी-सी गड़बड़ी किसी नई बीमारी को जन्म दे सकती है। नाभि-नाड़ियों का संबंध शरीर के आंतरिक अंगों की सूचना प्रणाली से होता है।
यदि गलत जगह पर खिसक जाए व स्थायी हो जाए तो परिणाम अत्यधिक खराब हो सकता है। इसलिए नाभि नाड़ी को यथास्थल बैठाने के लिए इसके योग्य व जानकार चिकित्सकों का ही सहारा लिया जाना चाहिए। नाभि को यथास्थान लाने के लिए रोगी को रात्रि में कुछ खाने को न दें। सुबह खाली पेट उपचार के लिए जाना चाहिए। क्योंकि खाली पेट ही नाभि नाड़ी की स्थिति का पता लग सकता है।
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