बेटे-बहू संग माँ का रिश्ता


आज फिर सुबह से ही शिवानी भाभी के रसोईघर से पकवानों की खुशबू आ रही है। लगता है बेटा-बहू बेंगलुरू से आने वाले हैं। बस अब तीन-चार दिन तक यही सिलसिला चलता रहेगा। शिवानी भाभी मेरे बगल वाले फ्लैट में रहती हैं। उनका बड़ा बेटा व बहू दोनों बेंगलुरू में जॉब करते हैं। 

कोई बड़ा त्योहार या अधिक दिन की छुट्टियाँ होते ही माँ से मिलने आ जाते हैं। बेसन के लड्डू, मठरी, पापड़, अचार व अन्य कई तरह की चीजें बनाने लग जाती हैं, शिवानी भाभी- 'ये मेरे बेटे को पसंद है ये मेरी बहू को पसंद है' कहकर। 

जब भाभी से सामना हुआ तो मैं मुस्करा पड़ी, 'क्यों भाभी कब आ रहे हैं रोहित और अन्नू?' भाभी भी मुस्करा पड़ीं, 'बस अगले हफ्ते ही आने वाले हैं। उनके साथ बैठती नहीं हूँ तो दोनों नाराज हो जाते हैं। कहते हैं कि हम इतनी दूर से आए हैं और आपको फुर्सत ही नहीं है!' मैंने कहा- 'सही तो बोलते हैं।' 'अरे! इसलिए ही तो अब उनकी पसंद की सारी चीजें बनाकर, पैक करके चैन से बैठूँगी।' भाभी ने कहा।

समय बदला है, सोच बदली है और बदली-सी भूमिका में है आज की सास-बहू का रिश्ता। मुझे याद आ रहा है ऐसी ही कुछ तैयारियाँ माँ किया करती हैं छुट्टियों में जब मैं मायके जाती हूँ, पर बदलते परिवेश में यह नजारा भी आम हो चला है। 

सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह देखने में आया है कि पुरानी पीढ़ी की सोच पर अब ये बातें हावी नहीं हैं कि हमारे जमाने में तो ऐसा नहीं होता था या हमने तो वही किया जो घर के बड़े-बुजुर्ग चाहते थे। इस सोच से वे पूर्णतः मुक्त हैं।
अधिकांश परिवार बेटे-बहू अपनी जॉब के सिलसिले में दूसरे शहरों में रह रहे हैं और किन्हीं कारणों से माता-पिता का वहाँ जाना असंभव है। वहाँ सास की भूमिका कुुछ इसी तरह नजर आ रही है। 

समय के साथ रिश्तों का स्वरूप चाहे हर युग में बदलता रहे मगर ममता का स्वरूप नहीं बदला। ऐसी हर स्थिति के लिए लगभग वे तैयार भी हैं। बाकी अपवाद तो हर जगह होते ही हैं। समय के साथ स्वयं को ढाल लेने में ही समझदारी है। यह बात आज की पीढ़ी अच्छी तरह समझती है।

सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह देखने में आया है कि पुरानी पीढ़ी की सोच पर अब ये बातें हावी नहीं हैं कि हमारे जमाने में तो ऐसा नहीं होता था या हमने तो वही किया जो घर के बड़े-बुजुर्ग चाहते थे। इस सोच से वे पूर्णतः मुक्त हैं। आज पढ़ाई-लिखाई का स्तर बढ़ने के साथ ही जॉब में अच्छे अवसर उपलब्ध हैं, जिन्हें युवा खोना नहीं चाहते हैं। अतः अभिभावकों का पूर्ण सहयोग भी उन्हें प्राप्त है, जिससे वे ऊँचे आयामों को छू लेने में सक्षम हैं। 

पीढ़ियों का अंतर तो है लेकिन वैचारिक मतभेद नहीं है यानी समय के साथ कदमताल बैठाना सबको आ गया है। यही वक्त की माँग भी है कि लकीर का फकीर बनने से अच्छा है, जमाने के साथ चला जाए। इस बात को शिवानी भाभी जैसी सासू माँ अच्छी तरह से जानती हैं। 

यही अपनत्व की डोर है जो रिश्तों को बाँधकर रखती है। तभी तो बेटे-बहू की प्यारभरी आगवानी होती है और वैसी ही बिदाई भी। वे भी गर्व से बताते नहीं चूकते कि 'माँ के हाथ की बनी चीज की बात ही कुछ और है।' कुछ पल अपने के साथ बिताने पर यकीनन भावनात्मक संबल तो मिलता ही है, एक कड़ी से जुड़े रहने का। साथ ही विश्वास भी मजबूत होता है, तभी तो रिश्तों की महक बरकरार रहती है।

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