ज्ञान और अज्ञान में इतना ही भेद है कि बीच में एक भ्रम का परदा लगा हुआ है। जहां परदा खुल गया, अज्ञान समाप्त हो गया, ज्ञान की ज्योति जग गई, मनुष्य जो अपने आपको भूला हुआ था, होश में आ गया कि मैं कौन हूं? मेरा लक्ष्य क्या है? मैं क्या करने आया था और क्या करने लगा? मैं क्या लेकर आया था और मुझे क्या लेकर जाना है?
इस प्रकार अज्ञान रूपी अंधकार में फंसा हुआ जीव प्रकाश होते ही सत्य को देखने लगता है। यह बात अत्यंत विचारणीय है कि- हे मनुष्य, तू हंस स्वरूप हैं। जब तक तू कर्तापन के भ्रम में फंसा हुआ है कि तू नर है या नारी, बूढ़ा है या जवान है, पूजा-पाठ, क्रिया-कर्म, गीता-भागवत, रामायण, वेद शास्त्र, उपन्यास जितना मर्जी पढ़ लो लेकिन ज्ञान के बिना सब अधूरा है क्योंकि ज्ञान में ही सब लय है। अगर ज्ञान नहीं है तो सब कुछ अधूरा-सा ही लगेगा।
इसलिए हे मनुष्य! तू चेतन है, पहले अपने होश में तू आ जा। 'कहां से तू आया कहां लपटायो?'
'निर्गुण से हंस आयो, सर्गुण में समायो, काया गढ़ की बंधी माया में समाया।'
सर्गुण माने यह स्वर जो चल रहा है। निर्गुण से आकर यह स्वर में प्रवेश किया। बहुत से लोग सर्गुण इस शरीर को मानते हैं या वह जो मूर्ति प्रतिमा दिखाई देते हैं उन्हें सर्गुण मानते हैं, पर वह सर्गुण नहीं है। जो यह स्वर चल रहा है और इसका गुणों में प्रवेश है, उसे सर्गुण कहते हैं।
सर्गुण में समायो और कायागढ़ की बंधी माया में आकर डेरा डाला, मकान जो बना था उसमें डेरा डाला और जो काया से माया तक का विस्तार हुआ था इसमें तू लपटा गया तो सब कुछ भूल गया, होश नहीं रहा, फिर कोई संत मिले और चेतावनी दी कि- हे मनुष्य! तू कहां भरमा था, देख तू कौन है?
पांच तत्व में तू कोई तत्व ही नहीं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश में तू कुछ भी नहीं। तू न रजो गुण है, न सतो गुण और न तमो गुण है। फिर तू क्या है? 'चेतन जीव आधार है, सोहंग आप ही आप।'
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