ज्योतिर्मय सूर्य जगद्गुरु शंकराचार्य...







एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र 7 वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था।
ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा।
उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत्‌ जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- 'शंकर', जो आगे चलकर 'जगद्गुरु शंकराचार्य' के नाम से विख्यात हुआ।
इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की।
आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- 'वर माँगो।' शिवगुरु ने अपने इष्टप्रभु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- 'वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?' तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुनः कहा- 'वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।'
कुछ समय के पश्चात ई. सन्‌ 686 में वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया) के दिन मध्याह्नकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चिह्न, ललाट पर नेत्र चिह्न तथा स्कंध पर शूल चिह्न परिलक्षित कर उसे शिवावतार निरूपित किया और उसका नाम 'शंकर' रखा। इन्हीं शंकराचार्यजी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है।
जिस समय जगद्गुरु शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ, उस समय भारत में वैदिक धर्म म्लान हो रहा था तथा मानवता बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के भास्कर प्रकाश स्तंभ बनकर प्रकट हुए। मात्र 32 वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई।शंकराचार्यजी तीन वर्ष की अवस्था में मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। इनके पिता चाहते थे कि ये संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। परंतु पिता की अकाल मृत्यु होने से शैशवावस्था में ही शंकर के सिर से पिता की छत्रछाया उठ गई और सारा बोझ शंकरजी की माता के कंधों पर आ पड़ा। लेकिन उनकी माता ने कर्तव्य पालन में कमी नहीं रखी॥ पाँच वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया गया। ये प्रारंभ से ही प्रतिभा संपन्न थे, अतः इनकी प्रतिभा से इनके गुरु भी बेहद चकित थे।
अप्रतिम प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने मात्र 2 वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। तत्पश्चात गुरु से सम्मानित होकर घर लौट आए और माता की सेवा करने लगे। उनकी मातृभक्ति इतनी विलक्षण थी कि उनकी प्रार्थना पर आलवाई (पूर्णा) नदी, जो उनके गाँव से बहुत दूर बहती थी, अपना रुख बदल कर कालाड़ी ग्राम के निकट बहने लगी, जिससे उनकी माता को नदी स्नान में सुविधा हो गई।
कुछ समय बाद इनकी माता ने इनके विवाह की सोची। पर आचार्य शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर रहना चाहते थे। एक ज्योतिषी ने जन्म-पत्री देखकर बताया भी था कि अल्पायु में इनकी मृत्यु का योग है। ऐसा जानकर आचार्य शंकर के मन में संन्यास लेकर लोक-सेवा की भावना प्रबल हो गई थी। संन्यास के लिए उन्होंने माँ से हठ किया और बालक शंकर ने 7 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया। फिर जीवन का उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माता से अनुमति लेकर घर से निकल पड़े।....
वे केरल प्रदेश से लंबी पदयात्रा करके नर्मदा तट स्थित ओंकारनाथ पहुँचे। वहाँ गुरु गोविंदपाद से योग शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। तीन वर्ष तक आचार्य शंकर अद्वैत तत्व की साधना करते रहे। तत्पश्चात गुरु आज्ञा से वे काशी विश्वनाथजी के दर्शन के लिए निकल पड़े। जब वे काशी जा रहे थे कि एक चांडाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने क्रोधित हो चांडाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला- 'हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे मार्ग से आप हट जाएँ।'
चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभावित होकर कहा-'आपने मुझे ज्ञान दिया है, अतः आप मेरे गुरु हुए।' यह कहकर आचार्य शंकर ने उन्हें प्रणाम किया तो चांडाल के स्थान पर शिव तथा चार देवों के उन्हें दर्शन हुए।
काशी में कुछ दिन रहने के दौरान वे माहिष्मति नगरी में आचार्य मंडल मिश्र से मिलने गए। आचार्य मिश्र के घर जो पालतू मैना थी वह भी वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी। मिश्रजी के घर जाकर आचार्य शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया। पति आचार्य मिश्र को हारता देख पत्नी आचार्य शंकर से बोलीं- 'महात्मन्‌! अभी आपने आधे ही अंग को जीता है। अपनी युक्तियों से मुझे पराजित करके ही आप विजयी कहला सकेंगे।' 
तब मिश्रजी की पत्नी शारदा ने कामशास्त्र पर प्रश्न करने प्रारंभ किए। किंतु आचार्य शंकर तो बाल-ब्रह्मचारी थे, अतः काम से संबंधित उनके प्रश्नों के उत्तर कहाँ से देते? इस पर उन्होंने शारदा देवी से कुछ दिनों का समय माँगा तथा पर-काया में प्रवेश कर उस विषय की सारी जानकारी प्राप्त की। इसके बाद आचार्य शंकर ने शारदा को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया।काशी में प्रवास के दौरान उन्होंने और भी बड़े-बड़े ज्ञानी पंडितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुए। अनेक शिष्यों ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वे धर्म का प्रचार करने लगे। वेदांत प्रचार में संलग्न रहकर उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना भी की।
अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे और ब्रह्मज्ञान में ही निमग्न रहते थे। एक बार वे ब्रह्म मुहूर्त में अपने शिष्यों के साथ एक अति सँकरी गली से स्नान हेतु मणिकर्णिका घाट जा रहे थे। रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लिए विलाप करती हुई बैठी थी। आचार्य शंकर के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन वह स्त्री उसे अनसुना कर रुदन करती रही।
तब स्वयं आचार्य ने उससे वह शव हटाने का अनुरोध किया। उनका आग्रह सुनकर वह स्त्री कहने लगी- 'हे संन्यासी! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं। आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते?' यह सुनकर आचार्य बोले- 'हे देवी! आप शोक में कदाचित यह भी भूल गईं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति ही नहीं है।' स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- 'महात्मन्‌ आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है। फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता?' उस स्त्री का ऐसा गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण वाक्य सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। उन्हें समाधि लग गई। अंतःचक्षु में उन्होंने देखा- सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और मुख से मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर फूट पड़ी। 
अब आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए, जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है।
उन्होंने 'ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या' का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, 'सौन्दर्य लहरी', 'विवेक चूड़ामणि' जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भाष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भारत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया- 

'
दुर्जनः सज्जनो भूयात सज्जनः शांतिमाप्नुयात्‌।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्तः चान्यान्‌ विमोच्येत्‌॥' 
अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। अपना प्रयोजन पूरा होने बाद तैंतीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया।
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ज्योतिर्मय सूर्य जगद्गुरु शंकराचार्य...







एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र 7 वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था।
ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा।
उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत्‌ जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- 'शंकर', जो आगे चलकर 'जगद्गुरु शंकराचार्य' के नाम से विख्यात हुआ।
इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की।
आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- 'वर माँगो।' शिवगुरु ने अपने इष्टप्रभु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- 'वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?' तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुनः कहा- 'वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।'
कुछ समय के पश्चात ई. सन्‌ 686 में वैशाख शुक्ल पंचमी (कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीया) के दिन मध्याह्नकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाशरूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चिह्न, ललाट पर नेत्र चिह्न तथा स्कंध पर शूल चिह्न परिलक्षित कर उसे शिवावतार निरूपित किया और उसका नाम 'शंकर' रखा। इन्हीं शंकराचार्यजी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है।
जिस समय जगद्गुरु शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ, उस समय भारत में वैदिक धर्म म्लान हो रहा था तथा मानवता बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के भास्कर प्रकाश स्तंभ बनकर प्रकट हुए। मात्र 32 वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई।शंकराचार्यजी तीन वर्ष की अवस्था में मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। इनके पिता चाहते थे कि ये संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। परंतु पिता की अकाल मृत्यु होने से शैशवावस्था में ही शंकर के सिर से पिता की छत्रछाया उठ गई और सारा बोझ शंकरजी की माता के कंधों पर आ पड़ा। लेकिन उनकी माता ने कर्तव्य पालन में कमी नहीं रखी॥ पाँच वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया गया। ये प्रारंभ से ही प्रतिभा संपन्न थे, अतः इनकी प्रतिभा से इनके गुरु भी बेहद चकित थे।
अप्रतिम प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने मात्र 2 वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। तत्पश्चात गुरु से सम्मानित होकर घर लौट आए और माता की सेवा करने लगे। उनकी मातृभक्ति इतनी विलक्षण थी कि उनकी प्रार्थना पर आलवाई (पूर्णा) नदी, जो उनके गाँव से बहुत दूर बहती थी, अपना रुख बदल कर कालाड़ी ग्राम के निकट बहने लगी, जिससे उनकी माता को नदी स्नान में सुविधा हो गई।
कुछ समय बाद इनकी माता ने इनके विवाह की सोची। पर आचार्य शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर रहना चाहते थे। एक ज्योतिषी ने जन्म-पत्री देखकर बताया भी था कि अल्पायु में इनकी मृत्यु का योग है। ऐसा जानकर आचार्य शंकर के मन में संन्यास लेकर लोक-सेवा की भावना प्रबल हो गई थी। संन्यास के लिए उन्होंने माँ से हठ किया और बालक शंकर ने 7 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया। फिर जीवन का उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माता से अनुमति लेकर घर से निकल पड़े।....
वे केरल प्रदेश से लंबी पदयात्रा करके नर्मदा तट स्थित ओंकारनाथ पहुँचे। वहाँ गुरु गोविंदपाद से योग शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। तीन वर्ष तक आचार्य शंकर अद्वैत तत्व की साधना करते रहे। तत्पश्चात गुरु आज्ञा से वे काशी विश्वनाथजी के दर्शन के लिए निकल पड़े। जब वे काशी जा रहे थे कि एक चांडाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने क्रोधित हो चांडाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला- 'हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे मार्ग से आप हट जाएँ।'
चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभावित होकर कहा-'आपने मुझे ज्ञान दिया है, अतः आप मेरे गुरु हुए।' यह कहकर आचार्य शंकर ने उन्हें प्रणाम किया तो चांडाल के स्थान पर शिव तथा चार देवों के उन्हें दर्शन हुए।
काशी में कुछ दिन रहने के दौरान वे माहिष्मति नगरी में आचार्य मंडल मिश्र से मिलने गए। आचार्य मिश्र के घर जो पालतू मैना थी वह भी वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी। मिश्रजी के घर जाकर आचार्य शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया। पति आचार्य मिश्र को हारता देख पत्नी आचार्य शंकर से बोलीं- 'महात्मन्‌! अभी आपने आधे ही अंग को जीता है। अपनी युक्तियों से मुझे पराजित करके ही आप विजयी कहला सकेंगे।' 
तब मिश्रजी की पत्नी शारदा ने कामशास्त्र पर प्रश्न करने प्रारंभ किए। किंतु आचार्य शंकर तो बाल-ब्रह्मचारी थे, अतः काम से संबंधित उनके प्रश्नों के उत्तर कहाँ से देते? इस पर उन्होंने शारदा देवी से कुछ दिनों का समय माँगा तथा पर-काया में प्रवेश कर उस विषय की सारी जानकारी प्राप्त की। इसके बाद आचार्य शंकर ने शारदा को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया।काशी में प्रवास के दौरान उन्होंने और भी बड़े-बड़े ज्ञानी पंडितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुए। अनेक शिष्यों ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वे धर्म का प्रचार करने लगे। वेदांत प्रचार में संलग्न रहकर उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना भी की।
अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे और ब्रह्मज्ञान में ही निमग्न रहते थे। एक बार वे ब्रह्म मुहूर्त में अपने शिष्यों के साथ एक अति सँकरी गली से स्नान हेतु मणिकर्णिका घाट जा रहे थे। रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लिए विलाप करती हुई बैठी थी। आचार्य शंकर के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन वह स्त्री उसे अनसुना कर रुदन करती रही।
तब स्वयं आचार्य ने उससे वह शव हटाने का अनुरोध किया। उनका आग्रह सुनकर वह स्त्री कहने लगी- 'हे संन्यासी! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं। आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते?' यह सुनकर आचार्य बोले- 'हे देवी! आप शोक में कदाचित यह भी भूल गईं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति ही नहीं है।' स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- 'महात्मन्‌ आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है। फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता?' उस स्त्री का ऐसा गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण वाक्य सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। उन्हें समाधि लग गई। अंतःचक्षु में उन्होंने देखा- सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और मुख से मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर फूट पड़ी। 
अब आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए, जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है।
उन्होंने 'ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या' का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, 'सौन्दर्य लहरी', 'विवेक चूड़ामणि' जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भाष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भारत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया- 

'
दुर्जनः सज्जनो भूयात सज्जनः शांतिमाप्नुयात्‌।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्तः चान्यान्‌ विमोच्येत्‌॥' 
अर्थात दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। अपना प्रयोजन पूरा होने बाद तैंतीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया।
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*****अयोध्या*******

बाबर ने मुस्लिम धर्म के प्रसार के लिए मंदिर को मस्जिद बनाने का आदेश दे दिया ! मंदिर तोड़ दिया गया ! उसी के अवशेषों से तथा हिन्दुओं के रक्त से सने हुए गारे से मस्जिद का निर्माण प्रारंभ हुआ ! 
जब मस्जिद की दीवार १ फुट उचाई तक पहुचते पहुचते *दैवीय शक्ति * के कारण अनेको बार गिरी, तब कज़ल  अब्बास  कलंदर ने पुजारी श्यामानंद को प्रताड़ित कर, तरह तरह की यातनायें देकर दीवार बनाए जाने की पद्दति मालूम की ! तब पुजारी श्यामानंद जी ने जो जानकारियां दी थी वो इस प्रकार है -

1 . मस्जिद के मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर चन्दन की सिल्ली पर लिखवाए..  *'सीता पाक है'*  !  यह चन्दन की सिल्ली वर्तमान में भी है !
2 . मस्जिद के बगल में बजू करने के लिए *कुआं* न बनाया जाए !  (दुनिया की सभी प्रमुख मस्जिदों के बगल में हों..जरुरी है )
3 . मंदिर की *परिक्रमा* प्रणाली मस्जिद में भी जारी की जाए  !
4 . मस्जिद का गुम्बद मंदिरों की तरह बनाया जाए !

उपर्युक्त राज़ जानने के बाद कज़ल अब्बास कलंदर ने पुजारी श्यामानंद महाराज की गर्दन कलम करवा दी और अनेको परिवर्तन कराने के पश्चात् मस्जिद बनवाने में सफल हो सकां !
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क्या है .....धर्म , योग और ज्ञान ?

मानव-जीवन में सफलता की पहली-सीढी है.."धर्म-तत्व" का यथार्थ-ज्ञान..!
जिस "धर्म" को आज इस भौतिक-जगत में जान-समुदाय ने अपना रखा है..वह सांसारिक-धर्म है..इसलिए इससे जीवन का यथार्थ-लक्ष्य प्रतिबिंबित नहीं होता.!!
जिस "धर्म-तत्व" को महान-पुरुषो ने स्वयं जाना और जान कर उसको अपने जीवन में अपनाया और उसका प्रचार-प्रसार जन-समुदाय को भी अपनाने के लिए प्रेरित किया..वही धर्म-तत्व का ज्ञान आज हर मानव को जानना ...और प्राप्त करना चाहिए..!
"धर्म" वह है..जो बांधता नहीं..अपितु मुक्त करता है..!
"योग" वह है..जो "धर्म" को जीवन से जोड़ता है..!
"ज्ञान" वह है..जो जन्म-मरण  के चक्र से मुक्त कर देता है..!
यही वेदों का सार-तत्व है..!
***धर्म ते विरति..योग ते ज्ञाना..ज्ञान मोक्ष पद वेद बखाना..!!
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जीव का चरम लक्ष्य...!

विश्व का प्रत्येक जीव बिना किसी प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करता, यह एक अनुभवशिद्ध सिद्धांत है ! दर्शनशास्त्र कहता है, 'प्रयोजनमनुद्दीश्य मंदोंपि न प्रवर्तते'  अर्थात घोर से घोर मुर्ख भी बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करता ! अतएव प्रत्येकक कार्य का अलग अलग प्रयोजन भी स्वाभाविक होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है ! कार्य अनंत होते हुए भी प्रयोजन एक ही है ! सुनने में ये बात विचित्र सी है किन्तु विचार करने पर साधारण एवं स्वाभाविक है !
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इश्वर दर्शन कैसे हो ....

जैसे अत्यंत पिपासा से व्याकुल होकर मनुष्य जल की बूंद के लिए छटपटाता है और एक छण की देर भी सहन नहीं कर सकता वैसी दस जब भगवान्  के दर्शन के लिए भक्त की हो जाती है तब भगवान् को भी एक छण का विलम्ब असत्य हो जाता है और वे अपने सारे ऐश्वर्य वैभव को भुलाकर उस नगण्य मानव के सामने प्रगट हो कर उसे कृतार्थ करते है ......!
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श्रीमद भागवद कथा रूपी जड़ी बूटी

हम लोग दत्तचित्त होकर जब भगवत कथा में बैठते है, श्रवण करते है तो कलि यहाँ प्रवेश नहीं कर सकता ! जैसे राजा परिक्छित ने कलि का निग्रह किया है, यह कथा कलि का निग्रह करती है १ लेकिन जब तक भगवान् की अनुग्रह न हो तब तक कथा में प्रवेश नहीं होता ! 
जीवन है सर्प और नेवले के बीच का युद्ध :  सुना है की जब सर्प और नेवले के बीच युद्ध होता है और जब सर्प नेवले को काट लेता है, जहर फैलने लगता है तब वह भागता है, और एक जड़ी बूटी होती है, उसको सूंघ लेता है, तो उसका ज़हर उतर जाता है ! उस जड़ी बूटी में ऐसा गुण है ! फिर आ जाता है वह सर्प के साथ युद्ध करने, उसे मोका मिलता है तो सर्प को नोचता है, इस प्रकार युद्ध करता हुआ नेवला अंततः सर्प पर विजय प्राप्त कर लेता है, ठीक उसी प्रकार संसार यह है वह सर्प है और हमारा युद्ध चल रहा है संसार सर्प के साथ ! संशय, संसार, काम और काल को सर्प कहा है -
                               " काम भुजंग डसत जब जाहीं !
                                विषय नीम कटु लागत नाहीं !!"

जब शुकदेव जी महाराज की वंदना करते है सूत जी भागवत के अंत में तो कहते है -
                             "योगिन्द्राय नमतस्मऐ शुके ब्रम्हरुपिणऐ !
                               संसारसर्पदस्तंग यो विष्णुरातममुमूचते !!"

तो जब जब यह काम, काल सर्प, संशय सर्प, संसार सर्प, हमें डसता है हममें और जीवन में ज़हर फ़ैल जाता है तब तब उस बुद्धिमान नेवले की भांति हमें भी चाहिए की हम जड़ी बूटी को सूंघ लें ताकि ज़हर उतर जाए, और उस जड़ी बूटी का नाम है "श्रीमद भागवत " !
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Feetured Post

नारी शक्ति की सुरक्षा के लिये

 1. एक नारी को तब क्या करना चाहिये जब वह देर रात में किसी उँची इमारत की लिफ़्ट में किसी अजनबी के साथ स्वयं को अकेला पाये ?  जब आप लिफ़्ट में...