आस्तिक भावना और ईश्वर में विश्वास

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श्रीहरि हज़ारों ऐब हैं मुझमें, नहीं कोई हुनर बेशक
मेरी ख़ामी को यूँ ख़ूबी में तू तब्दील कर देना
मेरी हस्ती है इक खारे समंदर-सी मेरे श्रीहरि!
तू अपनी रहमतों से इसको मीठी झील कर देना...मस्त ♥♥ आशु

एक बीज बढ़ते हुए कभी कोई आवाज नहीं करता,
मगर एक पेड़ जब गिरता है तो
जबरदस्त शोर और प्रचार के साथ,
विनाश में शोर है,
सृजन हमेशा मौन रहकर समृद्धि पाता है...मस्त ♥♥ आशु

आस्तिक भावना और ईश्वर में विश्वास
भारतीय संस्कृति का मुख्य अंग है,
हिंदू संस्कृति आध्यात्मिकता की
अमर आधारशिला पर आधारित है।
भारत की एकता का मुख्य आधार है एक संस्कृति,
जिसका उत्साह कभी नहीं टूटा।
यही इसकी विशेषता है। भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण है,
क्योंकि भारतीय संस्कृति की धारा
निरंतर बहती रही है और बहेगी।
आधुनिकता की सबसे बड़ी समस्या यह है कि
हमारी संस्कृति विज्ञान
जितनी प्रगति नहीं कर पाई है ..
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तन्मय

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तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस और वाल्मीकि रचित रामायण में रावण को विलेन का रोल अदा करते हुए दिखाया गया है। जिसका वध रामजी ने किया। ये सब प्रतीक हैं, जिनका खुलासा करना जरूरी है। इन ग्रंथों में वर्णित रावण के दस सिर असल में दस नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। ये प्रवृत्तियां हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष एवं भय। काम का अर्थ है- पुत्रैषणा अर्थात स्त्री संभोग की चाह, वित्तैषणा अर्थात धन कमाने की चाह, लोकैषणा यानी यश कमाने की चाह।

गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, तू पूरी शक्ति से इस काम रूपी दुर्जय शत्रु को मार। उन्होंने बताया कि किस प्रकार काम से क्रोध तथा अन्य दुष्प्रवृत्तियों का जन्म होता है और इससे मनुष्य के भीतर मौजूद प्राण तत्व का स्तर एक आवश्यक स्तर से नीचे चला जाता है। इससे मानव शरीर में विभिन्न तरह के रोगों के पनपने की जमीन तैयार हो जाती है। इनमें आधुनिक रोग जैसे डायबिटीज, ब्लडप्रेशर, दिल का दौरा, टीबी, पक्षाघात, कैंसर और एड्स जैसी बीमारियां भी शामिल हैं।



मान लीजिए किसी गांव में तीन सौ लोग रहते हैं। वहां हैजा फैलता है तो सौ लोग बीमार होकर मर जाते हैं, दूसरे सौ लोग बीमार होते हैं, पर ठीक हो जाते हैं। परंतु सौ लोग ऐसे भी हैं जो बीमार ही नहीं होते। इसका कारण यही है कि तीनों प्रकार के लोगों में काम, क्रोध आदि रूपी रावण के कारण उनके प्राणिक स्तर अलग-अलग थे। मक्खी वहीं बैठती है, जहां गंदगी होती है। बैक्टीरिया या वायरस तभी असर करते हैं, जब रावण द्वारा उनको पनपने के लिए जमीन तैयार मिलती है अर्थात जब दस मनोभावों द्वारा मन और शरीर दूषित हो चुका होता है।

रामायण और महाभारत के लेखन का उद्देश्य वेद के गूढ़ ज्ञान को सरल करना था। भाव यह था कि आम लोगों को ये बातें कथाओं के रूप में सरल भाषा में समझाई जाएं ताकि उन्हें उनके कर्तव्यों की शिक्षा दी जा सके। इनमें वर्णित घटनाएं हर युग में घटित होती हैं, बस उनके नाम एवं रूप बदल जाते हैं। सीता हरण एवं द्रोपदी चीर हरण, असत्य, छल, कपट, घोटाले जैसी घटनाएं आज भी हो रही हैं। जब ऐसा होता है, तब समाज का विनाश होता है।
डा. फिटजोफ कापरा ने अपनी पुस्तक 'ताओ ऑफ फिजिक्स' में कहा हैै : 'भारतीय धर्म के गूढ़ ज्ञानियों, विशेषकर हिंदुओं ने ज्ञान को कहानियों, अलंकारों एवं प्रतीकों की भाषा में लिखा है। उन्होंने अपनी श्रेष्ठ कल्पना शक्ति से अनेकों देवी-देवताओं की कल्पना की, जो इन कहानियों के पात्र बने और इन्हें इन दो महाकाव्यों में संग्रह किया।'

वेद की मुख्य शिक्षा है कि इन दस नकारात्मक प्रवृत्तियों के कारण ही जीवात्मा को मृत्यु के बाद चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते हुए अनेक प्रकार की यातनाएं झेलनी पड़ती हैं और जीवन-मृत्यु के अनंत चक्कर लगाने पड़ते हैं। इसलिए इसी मानव योनि में पूरा प्रयास करके मोक्ष पा लेना चाहिए। ऋषि जन यह समझा-समझा कर थक गए, तब उन्हें भगवान राम और भगवान विष्णु की कहानी गढ़नी पड़ी। जो बात ऋषि कह रहे थे, उसी को दोनों भगवानों के मुख से कहलवा दिया।

वेद हिंदुओं का आधारभूत ग्रंथ है। उसमें कहीं भी राम और कृष्ण का जिक्र नहीं है। इस प्रकार के लेखन का उद्देश्य था कि समाज में पापाचार कम से कम हों और जनमानस एक पीढ़ी में न सही, तो धीरे-धीरे प्रयास करते संस्कारित हो। इसलिए उन्होंने प्रतीकों का जाल तैयार किया तथा मूर्ति पूजा का विधान बनाकर सनातन धर्म की स्थापना की। पूरे समाज को आस्था एवं विश्वास के बल पर श्रीराम एवं श्रीकृष्ण की भक्ति का संदेश देकर मोक्ष के स्थान पर मुक्ति पाने का सुगम मार्ग बतलाया।
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प्रेम कैसा होता है

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आजतक जिस जिसने प्रेम के विषयमें वर्णन किया है, या अपने अनुभवको बतलाया है कि यह प्रेमका स्वरूप है अथवा यह प्रेमका स्वरूप नहीं है - जो ऐसी बातें कहते है, वे वेद-शास्त्रका अध्यन करनेपर भी प्रेमके विषयमें कुछ नहीं जानते ! तात्पर्य यह है कि प्रेमका स्वरूप अनिवर्चनीय है ! जिस समय तक हृदयमें विचार करनेकी सोच रहती है, उस समय तक प्रेमकी स्तिथि नहीं हो सकती ! अन्य विषयोंके विचारोको बतलाना तो दूर रहे,प्रीतीके स्वरूपके प्रति विचारशील व्यक्ति भी प्रीतीका अधिकारी नहीं हो सकता ! यदि एकमात्र प्रियतमकी सुख कामनाके अन्य कोई भी ज्ञान हृदयमें रहता है, तो उस हृदयमें प्रेमका अंकुर नहीं फुटता ! "क्या करनेसे प्रियतम सुखी हो सकता है " इस चिंतामें तन्मय होनेकी अवस्थाका नाम ही प्रेम है ! इस अवस्थामें विचार बोध रह ही नहीं सकता ! जीवके जो विचार कहते है, उनसे प्रेमका अनुभव प्राप्त हो ही नहीं सकता ! सही मायनेमें विचारके द्वारा सभी शास्त्रोंको तो जाना जा सकता है, परन्तु प्रेमको नहीं ! 
यदि कोई व्यक्ति प्रेमतत्व जाननेके इच्छुक किसी अन्य व्यक्तिको प्रेम समझानेकी चेष्ठा करता है, तब वह जो कुछ भी समझाता है अथवा उसका जो कुछ अनुभव होता है, वह मात्र विडम्बनामात्र है ! प्रेम एक अनिवर्चनीय श्रेष्ठ वस्तु है ! तात्पर्य यह है कि प्रेम स्वानुभव तथा निरुपम है, इसे भाषाके द्वारा बतलाया जा ही नहीं सकता !...श्रीराधेश्याम...हरि हर
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Aj ka Sandesh

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Aj ka Sandesh
Eshwer ka noor her jaga her insan main majud hai,
to ager hum ek baat apny ander main jaan len
k Malik sab k ander hai,
to bhala hum kesy kisi ko dukh de sakty hyn
ya kisi ka bura kar sakty hyn
is liye Tujh main hari hy,
mujh main hari samaya hai.
sub ko samj de bhagwan
hare krishna
Aj ka Sandesh  
Eshwer ka noor her jaga her insan main majud hai, 
to ager hum ek baat  apny ander main jaan len
 k Malik sab k ander hai,
 to bhala hum kesy kisi ko dukh de sakty hyn
 ya kisi ka bura kar sakty hyn 
is liye Tujh main hari hy,
 mujh main hari samaya hai.
sub ko samj de bhagwan 
hare krishna
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‎"श्री हरि कहते हैं

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श्रीहरि कहते हैं कार्य के परिणाम के लिये
जिम्मेदार सभी हैं लेकिन सतर्कता बरती जाय तो
शर्मसार होने से बचा जा सकता है"........ मस्त आशु.... ♥♥

मोक्ष क्या है ...?
क्या जीते जी भी कभी किसी कोमोक्ष प्राप्त हुआ है ...??
साधारण शब्दोंमें अगर मोक्षकीव्याख्याकी जाये तो,
मोहके क्षयको मोक्ष कहते है !
जीव अपने जीवनमें जीते जी भीमोक्ष प्राप्त कर सकता है,
इसका एक उदाहरण श्रीजनकजी महाराज है .... मस्त आशु.... ♥♥

parmatma prem swaroop, shukh swaroop,
shanti swaroop, prakhash swaroop,
pavitr swaroop hai
parmatma ka jo bhi roop hame aakarsit
kare hamari vrutti ke anusar
hume parmatma ka swaroop achha lage
usika vichar karenge
ki me prem swaroop Aatma parmatmaki santan hu
ki me shukh swaroop Aatma parmatmaki santan hu
ki me shanti swaroop Aatma parmatmaki santan hu
ki me prakash swaroop Aatma parmatmaki santan hu
bas yahi vichar hame parmatma se
1 pal bhi alag nahi hone dega
jese ye vichar dradh hoga hum Aatma
parmatma ke swaroop bante jayenge......Asuu

our sabse mahatv purn hai
jab vichar dradh hote hote Aatma prem swaroop
shukh swaroop shanti swaroop
prakash swaroop ko prapt karta hei tab
prmatma ke sabse mahatv purn swaroop
pavitr swaroop ko bhi prapt kar leta hai
ohho ab me aatma na koi kamna na koi ichha
na koi vichar sirf ab me pavitr swaroop aatma hu
ab me sariri hote huve meri aatma
parmatma ki masti me mast hai
bas sayad yahi samadhi ki avstha he
yahi prapti he kyu ki me parmatma balak
unke pancho swaroop rupi varsa prapt kar
atyant mast avstha me sadaiv rehta hu..
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'क्रोध को जीतो।'

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उन दिनों पांडव, द्रोणाचार्य से शिक्षा ले रहे थे। एक दिन उनका पाठ था, 'क्रोध को जीतो।' पाठ पढ़ाने के बाद द्रोणाचार्य ने अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव और युधिष्ठिर, सभी से पूछा, 'पाठ याद हो गया?' युधिष्ठिर को छोड़ सभी ने उत्तर दिया, 'याद हो गया।' लेकिन युधिष्ठिर ने कहा, 'याद नहीं हुआ।' द्रोणाचार्य ने विस्मय के साथ पूछा, 'क्या बात है, इतना सीधा-सादा पाठ तुम्हें याद नहीं हुआ? युधिष्ठिर का उत्तर था, 'नहीं हुआ।'

द्रोण ने कहा, 'ठीक है कल याद करके आना।' अगले दिन द्रोण ने पूछा, 'याद हो गया?' युधिष्ठिर का उत्तर था, 'नहीं हुआ।' द्रोण क्रोधित होकर बोले, 'तुम्हारे दिमाग में बुद्धि है या भूसा भरा है?' युधिष्ठिर ने बिना हिचकिचाहट के कहा, 'नहीं, मुझे पाठ याद नहीं हुआ।' द्रोण ने गरजते हुए कहा, 'तुमने दो दिन बर्बाद कर दिए। यदि तुम कल पाठ याद कर के नहीं आए तो तुम्हें दंडित होना पड़ेगा।'

तीसरे दिन भी युधिष्ठिर ने 'नहीं' उत्तर दिया। तब द्रोण ने युधिष्ठिर के गाल पर एक चांटा मारा। युधिष्ठिर कुछ देर चुपचाप खड़े रहे, फिर बोले, 'पाठ याद हो गया।' द्रोण बोले, 'मुझे पता नहीं था कि चांटा खाकर तुम्हें पाठ याद होगा अन्यथा पहले ही दिन तुम्हें चांटा खिला देता।' विनम्र स्वर में युधिष्ठिर ने कहा, 'गुरुदेव, ऐसी बात नहीं थी, मुझे अपने पर भरोसा नहीं था। आपने बड़े प्रेम से पाठ पढ़ाया तो मेरे मन ने कहा कोई प्यार से बात करे तो क्रोध का सवाल ही नहीं उठता। हो सकता है, तीखी भाषा में बोले तो क्रोध आ जाए।



अगले दिन जब आपने कहा कि मेरे दिमाग में बुद्धि है या भूसा, तब भी मुझे क्रोध नहीं आया। लेकिन मेरे मन ने कहा अभी एक और परीक्षा बाकी है, कोई बल प्रयोग करे तो क्रोध आ जाए। आज आपने जब चांटा मारा फिर भी मुझे क्रोध नहीं आया। तब मैं समझा कि मुझे पाठ याद हो गया।' द्रोण ने युधिष्ठिर को गले लगा लिया।
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शांति की तलाश

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कई लोग जीवनभर खूब मेहनत करते हैं, फिर जब मन भारी होता है वे तीर्थों, पहाड़ों या हील स्टेशनों का रास्ता पकड़ते हैं। शांति की तलाश में दुनिया घूम लेते हैं लेकिन एक जगह जाना भूल जाते हैं। खुद के भीतर। जिस शांति की तलाश में दुनिया भटक रही है, वह हमारे अपने भीतर ही है। बस जरूरत है उसे पहचानने की, उसकी ओर आगे बढऩे की, खुद के भीतर झांकने की। हम अपनी सारी ऊर्जा खत्म कर देते हैं, शांति की खोज में, जबकि शांति का सबसे सीधा और आसान तरीका है भीतर की ऊर्जा का रूप बदलना। जिन्हें शान्ति की खोज करना है उन्हें अपने भीतर की ऊर्जा को जानना होगा। 

हम ज्यादातर अपनी जीवन ऊर्जा का उपयोग कर ही नहीं पाते हैं। इसका सबसे अच्छा उपयोग है इसका रूपान्तरण करना। यह ऊर्जा अधिकांशत: मूलाधार चक्र पर पड़ी रहती है। इसे कल्पना के साथ सांस का प्रयोग करते हुए नीचे से ऊपर के चक्रों पर लाकर सहस्त्रार चक्र पर छोडऩा है। बिना किसी तनाव के इसको अपनी दिनचर्या में जोड़ लें और धैर्य के साथ करें। ऊर्जा जितने ऊपर के चक्रों पर है हम उतने ही पवित्र रहेंगे और हम जितने पवित्र हैं उतने ही शान्त होंगे।

इसीलिए शान्ति की खोज बाहर न करके भीतर ही की जाए।पहले तो ऊर्जा को ऊपर उठाइए तथा दूसरा इसके अपव्यय को रोकें। ऊर्जा को बेकार के खर्च होने से रोकने के लिए अच्छा तरीका है मंत्रजप करें। व्यर्थ होती ऊर्जा सार्थक हो जाएगी। जब आप ऊर्जा के रूपान्तरण में लगेंगे तो पहली बाधा बाहर से नहीं भीतर से ही आएगी और यह कार्य करेगा हमारा मन। इसलिए अपने मन पर हमेशा संदेह रखें। हम एक भूल और कर जाते हैं इस मन को हम अपना समझ लेते हैं, जबकि इसका निर्माण हमारे लिए दूसरों ने किया है। माता-पिता, मित्र, रिश्तेदार, शिक्षक आदि ने।

जो हमारा बीता समय है, उसने हमारे मन को बनाया है। ये अतीत की स्मृतियां हमारे वर्तमान को आहत करती हैं, इसी कारण हमारा मन या तो अतीत से बंधा है या भविष्य से जुड़ा रहेगा। मन वर्तमान से सम्बन्ध बनाने में परहेज रखता है। मन जितना वर्तमान से जुड़ेगा, उतने ही हम शान्त रहेंगे। इसी को जागरण कहा गया है। तो जाग्रत रहें और ऊर्जा को ऊपर उठाएं, फिर संसार की कोई परिस्थिति आपको अशान्त नहीं कर सकती। इन दोनों काम में जिससे आपको मदद मिल सकती है।
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मेरे कान्हा

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मेरे कान्हा अगर तुम न हो,
न जादू,न खुशी ,न ख्वाब,न ज़िन्दगी,
न मोहब्बत,न कोई नज़्म.......
बस मैं हूँ और मेरे सवाल कि –
जब कुछ नहीं तो मेरा होना भी
कोई भरम तो नहीं.........मस्त आशु

मेरे कान्हा तुम से शुरू और
तुम पे ही आकर रुकी है
मेरी हर नज़्म......
तुमसे जुदा कोई बात
नज़्म सी लगती नहीं ,
क्या करूँ !!........मस्त आशु

मेरे कान्हा मैं नही कहती हु
मोहन के तुम जरूर आना
पर इतना ध्यान रखना
के हम तेरे दरस प्यासे
कबसे कर रहे तेरा इंतज़ार हैं
जन्मो जन्मो से लगी
हैं मोहन तेरे दरस की आस".
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जरा सोच कर ये सोचो कि

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ईश्वर तो अपने अन्दर भी है और बाहर भी सर्वव्यापक है ।
अरे ढ़ूढ़ा तो उसे जाता है जो खो गया हो लेकिन भगवाग कोई खोया तो है नहीँ इस भगवान को बजाय खोजने के उसका अनुभव करने का प्रयत्न करना काफी उचित है ।और ये सही भी है ।

ॐ सोहं
ॐ तत् सत्
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आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे Acharya Chanakya was such a great personality

आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और क्षमताओं के बल पर भारतीय इतिहास की धारा को बदल दिया। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में भी विश्वविख्‍यात हुए। 



इतनी सदियां गुजरने के बाद आज भी यदि चाणक्य के द्वारा बताए गए सिद्धांत ‍और नीतियां प्रासंगिक हैं, तो मात्र इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने गहन अध्‍ययन, चिंतन और जीवानानुभवों से अर्जित अमूल्य ज्ञान को, पूरी तरह नि:स्वार्थ होकर मानवीय कल्याण के उद्‍देश्य से अभिव्यक्त किया।



* ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल दूसरों की सेवा करना है। ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे विद्या ग्रहण करें। राजा का कर्तव्य है कि वे सैनिकों द्वारा अपने बल को बढ़ाते रहें। वैश्यों का कर्तव्य है कि वे व्यापार द्वारा धन बढ़ाएं, शूद्रों का कर्तव्य श्रेष्ठ लोगों की सेवा करना है।
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Feetured Post

नारी शक्ति की सुरक्षा के लिये

 1. एक नारी को तब क्या करना चाहिये जब वह देर रात में किसी उँची इमारत की लिफ़्ट में किसी अजनबी के साथ स्वयं को अकेला पाये ?  जब आप लिफ़्ट में...