असंख्य शिवलिंग एवं शिवालय

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भारतवर्ष में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक सभी जगह असंख्य शिवलिंग एवं शिवालय हैं। शायद ही ऐसा कोई शहर या गांव हो, जहां शिवलिंग किसी ना किसी रूप मे विराजमान न हों। शिवलिंग पूजन का विधान प्राचीनकाल से ही रहा है। इसके प्रमाण हड़प्पा सभ्यता से भी मिलते हैं। रोम और यूनान मे भी क्रमशः 'प्रियेपस' और 'फल्लूस' नाम से लिंग पूजा होती थी।

चीन और जापान के प्राचीन साहित्य में भी लिंगपूजा के साक्ष्य मिलते हैं। यहूदियों के देवता 'बेलफेगो' की पूजा भी लिंग रूप में होती थी। वैदिक साहित्य में भी शिव की उपासना का सर्वाधिक वर्णन लिंगरूप में ही हुआ है। अधिकतर लिंग मूर्तियां मंदिर के गर्भगृह में स्थापित की जाती हैं, तथा लिंग के निचले हिस्से को पीठ रूप में स्थित रखा जाता है, जो कि योनि का रूप माना जाता है। वास्तव में शिवलिंग सृष्टि की उतपत्ति का मूल कारण पुरूष और प्रकृति का प्रतीक है। शिवलिंग पूजन का रहस्य समझने के लिए शिवलिंगों के विविध रूपों को जानना परमावश्यक है।

बाणलिंग : यह शिवलिंग नर्मदा नदी के गर्भ से प्राकृतिक रूप में मिलते हैं, जिन्हें नर्मदेश्वर भी कहा जाता है।

मानुषलिंग : यह शिवलिंग मनुष्य द्वारा स्वयं तैयार किए जाते हैं तथा इनका निचला भाग चैकोर होता है।

मुखलिंग : ऐसे शिवलिंगों मे पूजा के भाग पर मुखों की आकृतियां बनी होती हैं, जिनकी संख्या पांच तक हो सकती है।

गंगाधर मूर्ति : इनमें शिव की जटाओं में गंगा का निवास प्रदर्शित किया जाता है।

अर्द्धनारीश्वर मूर्ति : इनमें पुरूष एवं प्रकृति का मिश्रित रूप दर्शाया जाता है। इसका बायां भाग नारी तथा दायां भाग पुरूष का होता है।

कल्याण सुंदर मूर्ति : इसमें शिव-पार्वती के विवाह का दृश्य प्रकट होता है।

हरिहर मूर्ति : इनमें श्रीविष्णु एवं शिव का मिश्रित रूप होता है। बायां भाग श्रीविष्णु (हरि) का तथा दायां भाग शिवजी (हर) का होता

है।

महेश मूर्ति : ये मूर्तियां दो प्रकार की होती हैं। तीन सिरों वाली अथवा पांच सिरों वाली।

धर्म मूर्ति : इनमें चार मुख एवं हाथ होते हैं।

भिक्षाटन मूर्ति : इनमें शिव के बाएं हाथ में कंकाल एवं ध्वज तथा दाएं हाथ में भिक्षापात्र (खप्पर) होता है।

एकपद मूर्ति : इनमें शिवजी एक पांव पर खड़े होते हैं।

शिव और पार्वती संपूर्ण सृष्टि के माता-पिता हैं तथा एक-दूसरे के पूरक हैं। शिवलिंग की पूजा उसके आधार पीठ के बिना नहीं की जाती है। शिवलिंग में लिंग को शिव तथा आधार पीठ को पार्वती का रूप माना जाता है। शिवलिंग के आधार पीठ (जलधारी) का झुकाव हमेशा उत्तर दिशा की ओर होता है। अतः शिवलिंग का एक रहस्य दिशाबोध भी है। जलाधारी को पांव का रूप माना जाता है, इसलिए इसमें शयन की स्थिति का ज्ञान होता है। वैदिक संस्कृति में सोते समय सिर दक्षिण दिशा की ओर तथा पांव उत्तर दिशा की ओर होने चाहिए। प्रातः काल शिवलिंग की पूजा करते समय श्रद्धालु को इस प्रकार खड़े होना चाहिए कि जलाधारी उसके बाएं हाथ पर हो। यह शिव के उगते सूर्य के दर्शन माने जाते हैं तथा प्रदोषकाल (सायंकाल) में पूजन करते समय जलाधारी का झुकाव दाएं हाथ की ओर होना चाहिए, यह शिव के डूबते सूर्य के दर्शन माने जाते हैं।

अधिकतर मंदिरों में पूर्वमुखी अथवा पश्चिममुखी लिंग के दर्शन होते हैं। दक्षिणमुखी लिंग महाकाल का प्रतीक होता है। इसी प्रकार पांचमुखी शिवलिंग को पशुपतिनाथ कहा जाता है। शिवलिंग की पूजा भक्त की आवश्यकता के अनुसार किसी दिशा में बैठ कर की जा सकती है। शिव के पांच मुखों के नाम इस प्रकार हैं -

पूर्वामुख शिव : सोजात शिव। यह सृष्टि के निर्माता होते है।

पश्चिमीमुख शिव : अघोर शिव। यह सृष्टि के संहारकर्ता हैं।

उत्तरमुखी शिव : कामदेव शिव। यह सृष्टि के पालनकर्ता हैं।

दक्षिणमुखी शिव : तत्पुरूष शिव यह मुक्तिदाता होते हैं।

उर्ध्वमुखी शिव : ईशानदेव शिव। यह कृपाकर्ता हैं। प्राचीनकाल से ही प्रकृति की पूजा भिन्न-भिन्न रूपों में की जाती रही है, जिसके प्रमाण हमें सिंधु एवं वैदिक संस्कृति से प्राप्त होते हैं। कालिदास के शब्दों में शिवत्व के आठ भेद बताए गए हैं - जल, अग्नि, वायु, ध्वनि, सूर्य, चंद्र, पृथ्वी एवं पर्वत। इन्हीं आठों का सम्मिश्रण प्रत्येक शिवलिंग में विराजमान रहता है। अतः एक शिवलिंग उपासना से प्रकृति के सभी रूपों का पूजन स्वतः ही हो जाता है।
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गृहस्थ दशनामी

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हम गृहस्थ दशनामी है यह कोइ साधारन बात नहि है । एक कथा आपको सुनाते है। लाहिडी महाश्य गृहस्थ थे सामान्य धोती कुर्त्ता व पहनते थे नौकरी करते थे । एक बार वो एक बहुत बड़े फिट पुरूष त्रेलंग स्वामी को मिलने गए । स्वामी जी अपने हजारों शिष्यों के साथ बैठे थे । उनको आना देखकर स्वामी जी जो उठ खड़े हुए व सम्मान पूर्वक लोहड़ी जी को बैढ़ाया । शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के इतना सम्मान क्यों । स्वामी जी ने बताया कि जिसके पाने के लिए मुझ वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी व रोटी का भी त्याग करना पड़ा, जी गृहस्थ में रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं आज के युग में जहां खान-पान व पहनावा इतना अधिक प्रदूषित हो गया है गृहस्थ सन्यासी की भूमिका सर्वोत्तम जान पड़ती है ।
युग ऋषि श्री राम आचर्य जी के उनके गुरू महायोगी सर्वेश्वशनन्द जी ने गृहस्थ सन्यासी की तरह रहने का आदेश दिया । आचार्य जी का जीवन एक गृहस्थ के लिए की अनुकरणायं है व एक सन्यासी के लिए इतना सुन्दर गृहस्थ जिससे आश्रय परम्परा की हजारों शिष्य उस परम्परा के लाभान्वित हुए । दूसरी ओर इतना प्रचण्ड तप, इतना बड़ा पुरूषार्थ लोक कल्याण के विभिन्न इतिहास में ऐसा उदाहरण कठिनता से ही देखेन को मिलता है । यह किसी भी सन्यासी का आदर्श हो सकता है । युग के अनुकूल धर्म व परम्पराओं का निर्वाह सर्वोत्तम होता है । ब्रहमचारी को नगें पेर रहना चाहिए यह सोचकर बिनोबा जी ने चप्पल जूता त्याग दिया । शीघ्र ही उनके पता चला कि यह युग के अनुकूल नहीं है इसमें दुख अधिक है व लाभ कम ।
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(ॐ ) शब्द को परमात्मा का पर्याय माना गया

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पांच अवयव- ‘अ’ से अकार, ‘उ’ से उकार एवं ‘म’ से मकार, ‘नाद’ और ‘बिंदु’ इन पांचों को मिलाकर ‘ओम’ एकाक्षरी मंत्र बनता है।

श्रीमद्भागवत गीता में ओम (ॐ ) शब्द को परमात्मा का पर्याय माना गया है। अनेक ऋषियों, मुनियों और संतों ने माना है कि ओम शब्द का निरंतर वाणी और मन से उच्चारण करने पर हृदय में पवित्र विचार आते हैं। बुद्धि और मन शुद्ध होकर सकारात्मक कार्यों के लिये प्रवृत्त होता हैं। ओम शब्द के वाणी से उच्चारण करने पर शरीर के सारे अंगों पर ऐसा प्रभाव होता है कि अंतर्मन में अद्भुत प्रकाश दीप प्रज्जवलित हो उठता है। उनके विचार तथा व्यवहार में यह प्रकाश विसर्जित दूसरे लोगों को भी प्रसन्नता देता हैं जिन लोगों को संस्कृत के श्लोक मन ही मन दोहराने में परेशानी होती है वह चाहें तो केवल ओम शब्द का जाप करें।
अथर्ववेद में कहा गया है कि

त्रयः सुपर्णास्त्रिवृता यदायत्रेकाक्षस्मभि-संभूय शका शका।
प्रत्यौहन्मृत्युमृतेन सत्कमन्तर्दधान्त दुरितानी विश्वा।।
हिन्दी में भावार्थ-जब समर्थ तीन सुवर्ण तिहरे होकर एक अक्षर में सब प्रकार मिल रहे हैं। वे अमृत के साथ सब अनिष्टों को मिटाकर मृत्यु को दूर करते हैं।
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धर्मध्वजा का इतिहास

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सनातम धर्म की रक्षा के लिए ’’धर्मध्वजा‘‘ की कमान अखाडों ने इलाहाबाद के कुम्भ में राजा हर्षवर्धन के समय में संभाली थी। राजा हर्षवर्धन ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये अपनी फौज में धर्मध्वजा स्थापित की थी। जब हर्षवर्धन कीफौज कमजोर पडने लगी तथा उन्होने ’धर्मध्वजा‘ को संभाल पाने में असमर्थता जताई तब सन्यासियं ने कुम्भ पर्व ’’इलाहाबाद संगम प्रयाग‘‘में भार उठाया और तब से लगातार हिन्दू धर्म की रक्षा का दायित्व उठा रखा है। उसी समय से नागा संन्यासी अखाडों की परम्परा में धर्मध्वजा फहराने का प्रचलन शुरू हो गया। सर्वप्रथम नागा संन्यासिय द्वारा ध्वज फहराया गया। बाद में इस धर्मध्वजा को फहराने की परम्परा को बैरागी, उदासीन व निर्मल अखाडो ने भी अपनाया । दशनाम संन्यासी परम्परा के अखाडे व अन्य संप्रदायों के अखाडे द्वारा फहरायी जाने धर्मध्वजा की लम्बाई ५२ हाथ इसीलिये होती ह क्योंकि दशनामी, [हिं०दश+नाम] संन्यासियों के 52 मठी का प्रतीक है। राजा हर्षवर्धन ने उन्हें ५२ हाथ लंबी धर्मध्वजा प्रदान की थी,। जिस प्रकार सेना का अपना ध्वज होता है। उसी प्रकार अखाडो की भी अपनी ’ध्वजा‘ होती है। जिसे ’’धर्मध्वजा‘‘ कहा जाता है जिसके नचे अखाडो के साधु एक जुट होकर ’धर्म‘ की रक्षा के लिये डटे रहते हैं। धर्म ध्वजा की स्थापना के साथ ही अखाडों की कुम्भ मेलें में धार्मिक रीतिरिवाज की शुरूआत हो जाती है। धर्मध्वजा की स्थापना के बाद अखाडों की पेशवाई शुरू होती है। जो नगर का बडे जुलूस के रूप भ्रमण करते हुए अपनी-अपनी छावनियों में प्रवेश कर जाती है। पेशवाई में बैंडबाजे, घोडे हाथी, ऊॅट, ढोल नगाडे, तुरही, नागफनी, शंख, घंटे घडियाल, झांकियॅा सम्मिलित होती है। हाथी के ऊपर बडे-बडे सोने चांदी के सिंहासन होते है। जिनमें अखाडो के श्रीमहंत, महंत, आचार्य महामंडलेश्वर, महामण्डलेश्वर विराजमान होते ह। इस तरह पेशवाई में शामिल महंत ’महाराज‘ हो जाते है। यानि ’राजाओं के राजा ’महाराजा‘। पेशवाईयों की धाक देखते ही बनती है। नागा साधु भस्म लगाकर और अन्य साधु श्रृंगार करके पेशवाई में भाग लेते है। अखाडों की पेशवाई का कुम्भ नगरी हरिद्वार के लोग हर ग्यारह साल बाद कुम्भ महापर्व पडने पर बेसब्री से इन्तजार करते है। और पेशवाई का पुष्प बरसाकर जोरदार स्वागत करते है।
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परम पद को पा लेता है

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यत्र काले त्वनावृत्तिम् आवृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥२३॥
वह कौन सा समय है जब देह छोड़ कर योगी फिर से जन्म नहीँ लेते, और वह कौन सा समय है जब मृत्यु होने पर फिर जन्म लेना होता है – भरत श्रेष्ठ, अब मैँ तुझे यह बताता हूँ.

अग्निर् ज्योतिर् अहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥२४॥
अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण के छः मास – ऐसे मेँ जाएँ तो ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म को पाते हैँ.

धूमो रात्रिस् तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर् योगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥
धूम क्षेत्र, रात, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन के छः महीने – ऐसे मेँ जाने पर योगी चंद्रलोक के प्रकाश को पा कर फिर लौट आता है.

शुक्ल-कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्य् अनावृत्तिम् अन्ययावर्तते पुनः ॥२६॥
इस संसार के ये दो शुक्ल और कृष्ण मार्ग सनातन माने गए हैँ. एक से जाने पर वापसी नहीँ होती. दूसरे से जाने पर लौट कर आना होता है.

नैते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु योग-युक्तो भवार्जुन ॥२७॥
पार्थ, इन दोनोँ मार्गोँ को जानने वाला योगी भ्रमित नहीँ होता. इस लिए, अर्जुन, तू हर काल मेँ योगी बन.

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्य-फलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वम् इदं विदित्वा योगी परं स्थानम् उपैति चाद्यम् ॥२८॥
वेद, यज्ञ, तपस्या और दान – ये सब पुण्य कर्म हैँ. इन्हेँ करने से अच्छा फल मिलता है. लेकिन जो योगी मेरे द्वारा बताई गई सब बातेँ जानता है, वह इन के फलोँ को त्याग कर आगे निकल जाता है और परम पद को पा लेता है.

जय दशनाम !
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सब माया है

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भारत में मायावाद का प्रसिद्ध विवरण है-- "ब्रह्म सत्यम, जगत्‌ मिथ्या"। इस व्यवस्था में जीवात्मा का स्थान कहाँ है? यह भी जगत्‌ का अंश है, ज्ञाता नहीं, आप आभास है। ब्रह्म माया से आप्त होता है और अपने शुद्ध स्वरूप को छोड़कर ईश्वर बन जाता है। ईश्वर, जीव और बाह्म पदार्थ, प्राप्त ब्रह्म के ही तीन प्रकाशन हैं। ब्रह्म के अतिरिक्त तो कुछ ही नहीं, यह सारा खेल होता क्यों है? एक विचार के अनुसार मायावी अपनी दिल्लगी के लिये खेल खेलता है, दूसरे विचार के अनुसार माया एक परदा है जो शुद्ध ब्रह्म को ढक देती है। पहले विचार के अनुसार माया ब्रह्म की शक्ति है, दूसरे के अनुसार उसकी अशक्ति की प्रतीक है। सामान्य विचार के अनुसार मायावाद का सिद्धांत उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद गीता में प्रतिपादित है। इसका प्रसार प्रमुख रूप से शंकराचार्य ने किया। उपनिषदों में मायावाद का स्पष्ट वर्णन नहीं, माया शब्द भी एक दो बार ही प्रयुक्त हुआ है। ब्रह्मसूत्रों में शंकर ने अद्वैत को देखा, रामानुज ने इसे नहीं देखा, और बहुतेरे विचारकों के लिये रामानुज की व्याख्या अधिक विश्वास करने के योग्य है। भगवद्गीता दार्शनिक कविता है, दर्शन नहीं। शंकर की स्थिति प्राय: भाष्यकार की है। मायावाद के समर्थन में गौड़पाद की कारिकाओं का स्थान विशेष महत्व का है, इसपर कुछ विचार करें।
गौड़पाद कारिकाओं के आरंभ में ही कहता है।
स्वप्न में जो कुछ दिखाई देता है, वह शरीर के अंदर ही स्थित होता है, वहाँ उसके लिये पर्याप्त स्थान नहीं। स्वप्न देखनेवाला स्वप्न में दूर के स्थानों में जाकर दृश्य देखता है, परंतु जो काल इसमें लगता है वह उन स्थानों में पहुँचने के लिये पर्याप्त नहीं और जागने पर वह वहाँ विद्यमान नहीं होता।
देश के संकोच के कारण हमें मानना पड़ता है कि स्वप्न में देखे हुए पदार्थ वस्तुगत अस्तित्व नहीं रखते, काल का संकोच भी बताता है कि स्वप्न के दृश्य वास्तविक नहीं। इसके बाद गौडपाद कहता है कि स्वप्न और जागृत अवस्थाओं में कोई भेद नहीं, दानों एक समान अस्थिर हैं। वर्तमान प्रतीति से पूर्व का अभाव स्वीकृत है, इसके पीछेश् आने वाले अनुभव का भाव अभी हुआ नहीं; जो आदि और अंत में नहीं है, वह वर्तमान में भी वैसा ही है "जिस प्रकार स्वप्न और माया देखे जाते हैं, जैसे गंधर्वनगर दिखता है, उसी तरह पंडितों ने वेदांत में इस जगत्‌ को देखा है।'
गौड़पाद के तर्क में दो भाग हैं--
स्वप्न के दृश्य मिथ्या हैं, क्योंकि उनके लिये पर्याप्त देश और काल विद्यमान नहीं।
स्वप्न तथा जागरण अवस्थाओं में मौलिक भेद नहीं स्वप्न में देश और काल को अपर्याप्त कहने में गौड़पाद जागरण के अनुभव को मापक और कसौटी मान रहा है। उसकी यह प्रतिज्ञा कि स्वप्न और जागरण में कोई मौलिक भेद नहीं, इस से खंडित हो जाती है।

जागरण और स्वप्न में कई मौलिक भेद हैं--
जागरण का अनुभव मूल है, स्वप्न का अनुभव उसकी नकल है। जन्म का अंधा स्वप्न में देख नहीं सकता, बहरा सुन नहीं सकता।
स्वप्न में चित्रों का संयोग अनिर्णीत होता है, जागरण में यह निर्णीत भी होता है। स्वप्न कल्पना का खेल है, इसमें बुद्धि काम नहीं करती। स्वप्न रूपक और कल्पना की भाषा का प्रयोग करता है, जागरण में प्रत्ययों की भाषा भी प्रयुक्त होती है।
स्वप्न में प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी दुनिया में विचरता है, जागरण में हम साझी दुनिया मेें रहते हैं। इस दूसरी दुनिया में व्यवस्था प्रमुख है। प्रतिदिन भ्रमण में अनेक पदार्थों को एक ही क्रम में स्थित देखता हूँ, मेरे साथी भी उन्हें उसी क्रम में देखते हैं; दूसरी ओर कोई दो मनुष्य एक ही स्वप्न नहीं देखते, न ही एक मनुष्य के स्वप्न एक दूसरे को दुहराते हैं।
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भिक्षुकोपनिषद ज्ञान । Knowledge Of Bhikshuka Upanishad

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भिक्षुकोपनिषद संन्यासियों के महत्व एवं उनके कार्यों पर प्रकाश डालता है. उपनिषद में मोक्ष की इच्छा रखने वाले भिक्षुओं के स्वरूप का आंकलन किया गया है. यहां पर इन्हें चार श्रेणियों कुटीचक, बहूदक, हंस एवं परमहंस में बांटा गया है जिसमें से सर्वप्रथम है,

कुटीचक
कुटीचक्र भिक्षु योग द्वारा मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करते हैं उनके लिए भोजन केवल इतना ही होता है कि जिससे वह अपने शरीर की रक्षा कर सकें अपने को कठिन साधना मार्ग द्वारा स्थिर करने का प्रयास करते हैं. गौतम, भारद्वाज, याज्ञवल्क्य एवं वसिष्ठ ऋषियों की भांति आठ ग्रास भोजन ग्रहण करते हैं तथा साधना में लीन रहते हैं.

बहूदक
बहूदक संन्यासियों का एक भेद है यह एक ऎसे संन्यासी होते हैं जो सात घरों से भिक्षा मांगकर अपना निर्वाह करते हैं, इनके लिये त्रिदंड, कमंडलु, गात्राच्छादन, कंथा, पादुका, शिक्य, कौपीन, छत्र, पवित्र, काषाय वस्त्र, रुद्राक्षमाला, बहिर्वास, एवं कृपाण को धारण करने का विधान है.

इन्हें सर्वांग में भस्म तथा मस्तक पर त्रिपुंड धारण करते हैं इन्हें शिखासूत्र नहीं त्याग करना चाहिए इन्हें योग्याभ्यास द्वारा अपने मार्ग का चयन करना आना चाहिए. भौतिक वासनाओं का त्याग लोभ से मुक्ति इनके लिए आवश्यक है भिक्षा द्वारा आठ ग्रास भोजन ग्रहण करते हैं यदि एक ही जगह से भरपेट भोजन मिले तो भी नहीं लेना चाहिए योगमार्ग साधना द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं.

हंस
हंस वर्ग का संन्यासी बहूदक के बाद की श्रेणी का होता है हंस संन्यासी भिक्षु किसी ग्राम में एक रात्रि से अधिक नहीं रहता, किसी नगर में वह पांच रातों तक, किसी तीर्थक्षेत्र में सात रात्रि से अधिक निवास नहीं करता है. हंस भिक्षु गोमूत्र को ग्रहण करने वाला तथा नियमित रूप से चान्द्रायण व्रत का पालन करता है यह संन्यासी योग साधना के मार्ग पर चल कर मोक्ष की खोज करता है.

परमहंस
परमहंस श्रेणी का भिक्षु अपना निवास स्थान किसी वृक्ष के नीचे, किसी शून्य गृह में अथवा श्मशान में बनाते हैं. परमहंस आश्रम में प्रवेश करने पर संन्यासी समस्त बंधनों से मुक्त होइ जाता है उसे तर्पण, श्राद्ध, संध्या आदि की आवश्यकता नहीं होती देवार्चन भी उसके लिये नहीं हैं वह अध्यात्मनिष्ठ होकर निर्द्वद्वं एवं निराग्रह भाव से ब्रह्म में स्थित रहने का कार्य करता है.

परमहंस संन्यासी भिक्षु के लिए “द्वैत भाव” का कोई अभिमत नहीं होता सभी वस्तुएं समान हैं स्वर्ण हो या मिट्टी कोई भेद नहीं होता, सभी वर्णों में समान भाव से भिक्षावृत्ति करते हैं संवर्तक, आरूणि, श्वेतकेतु, जड़भरत, दत्तात्रेय, शुकदेव, वामदेव और हारीतक आदि की तरह आठ ग्रास भोजन ग्रहण करके योग साधना में प्रयत्नशील रहते हैं तथा समस्त प्राणियों में अपनी 'आत्मा' को पाते हैं, यह भिक्षुक शुद्ध मन से परमहंस वृत्ति का पालन करते हुए देह का त्याग करते हैं और मोक्ष को पाते हैं.

भिक्षुकोपनिषद महत्व
भिक्षुकोपनिषद संन्यासियों के विभिन्न भेदों का उल्लेख करता है अपने स्वरूप की भांति यह उपनिषद संन्यासी भिक्षु का भेद व्यक्त करता है. संन्यासी जो ज्ञान की परमावस्था को प्राप्त करने के लिए निम्न श्रेणीयों को पाता है तथा परमहंस होकर सच्चिदानंद ब्रह्म मैं ही हूँ' इस अर्थ को पूर्ण रूप से अनुभव करता है, कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस जो चार प्रकार के अवधूत कहे गए हैं जिन सबमें परमहंस सबसे श्रेष्ठ माना गया है. यह सभी वर्ग अपने अपने कार्यों द्वारा ब्रह्म को जानने का प्रयास करते हैं तथा मोक्ष को पाने की कामना रखते हैं.
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निर्वाण षटकम् Nirvana Shatakam

मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

[मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||

[न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||3||

[न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||4||

[न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||

[न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

[मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ...]

इति श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम सम्पूर्णं

ॐ नमः शिवाय.
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मोक्ष और ज्ञान के मार्गों पर चलने में बाधक

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पुराने समय से यह धारणा चली आ रही है कि घर-गृहस्थी भक्ति, मोक्ष और ज्ञान के मार्गों पर चलने में बाधक है। गृहस्थ जीवन को त्याग कर ही इन मार्गों पर चला जा सकता है। लेकिन यह धारणा सत्य नहीं है।

प्राचीन भारत के अधिकांश ऋषि-मुनि गृहस्थ ही थे। पत्नी-पुत्र आदि उनके तत्वचिन्तन में, उनके ऋषि जीवन में कभी बाधा नहीं बने, अपितु गृहस्थ उनके लिए आनन्द योग का सहायक ही सिद्ध हुआ। वे भी इन्दिय भोग भोगते थे, किन्तु उनका प्रभाव अपने चित्त पर नहीं पड़ने देते थे।

मनु और उनकी पत्नी शतरूपा ब्रह्मा जी के अलग अलग दो भागो से प्रगट हुए। इनकी तीन बेटिया हुई। आकूति , प्रसूति और देवहूति। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से हुआ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति से हुआ। ये वही दक्ष हैं जो माता पार्वती के पूर्वजन्म में उनके पिता थे और भगवान् शिव के पार्षद वीरभद्र ने जिनका यज्ञ विध्वंश किया था।

कर्दम मुनि का विवाह मनु जी की तीसरी बेटी देवहूति से हुआ। राजकुमारी देवहूति ने कर्दम ऋषि के साथ उस तपोवन में रहकर पति की सेवा करती रही। राजपुत्री होने का जरा भी उन्‍हें अभिमान नहीं था। कर्दम ऋषि काफी प्रसन्‍न एवं संतुष्‍ट हुए। उन्‍होंने पत्‍नी देवहूति को देवदुर्लभ सुख प्रदान किया।

परम तेजस्वी दम्पति के गृहस्‍थ धर्म में पहले नौ कन्याओं का जन्म हुआ। इन नौ कन्याओं का विवाह ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न नौ ऋषिओं से हुआ ।

(1) कला - मरीचि ऋषि के साथ विवाहित

(2) अनुसूया - अत्रि ऋषि के साथ विवाहित

(3) श्रद्धा - अड्गिंरा ऋषि के साथ विवाहित

(4) हविर्भू - पुलस्‍त ऋषि के साथ विवाहित

(5) गति - पुलह ऋषि के साथ विवाहित

(6) क्रिया - क्रत्तु ऋषि के साथ विवाहित

(7) ख्‍याति - भृगु ऋषि के साथ विवाहित

(8) अरूंधति - वशिष्‍ठ ऋषि के साथ विवाहित

(9) शान्ति देवी - अथर्वा ऋषि के साथ विवाहित

कर्दम ऋषि ने सन्‍यास लेना चाहा तो ब्रह्माजी ने उन्‍हें समझाया कि अब तुम्‍हारे पुत्र के रूप में स्‍वयं मधुकैटभ भगवान कपिलमुनि पधारने वाले हैं। प्रतीक्षा करो।

कर्दम एवं देवहूति की तपस्‍या के फलस्‍वरूप भगवान श्री कपिलमुनि उनके गर्भ से प्रकट हुए।

कहने का तात्पर्य यह है कि हम ग्रुहस्थ गोस्वामी और त्यागी मे कोइ अन्तर नहि है "जय दशनाम"
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दशनामी

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एक संन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र ७ वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण के घर भिक्षा माँगने पहुँचा। उस ब्राह्मण के घर में भिक्षा देने के लिए अन्न का दाना तक न था। ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आँवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में माँ लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण की विपदा हरने की प्रार्थना करने लगा। उसकी प्रार्थना पर प्रसन्न होकर माँ महालक्ष्मी ने उस परम निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आँवलों की वर्षा कर दी। जगत् जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था- ‘शंकर’, जी आगे चलकर ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’ के नाम से विख्यात हुआ।
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