धर्मध्वजा का इतिहास

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सनातम धर्म की रक्षा के लिए ’’धर्मध्वजा‘‘ की कमान अखाडों ने इलाहाबाद के कुम्भ में राजा हर्षवर्धन के समय में संभाली थी। राजा हर्षवर्धन ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिये अपनी फौज में धर्मध्वजा स्थापित की थी। जब हर्षवर्धन कीफौज कमजोर पडने लगी तथा उन्होने ’धर्मध्वजा‘ को संभाल पाने में असमर्थता जताई तब सन्यासियं ने कुम्भ पर्व ’’इलाहाबाद संगम प्रयाग‘‘में भार उठाया और तब से लगातार हिन्दू धर्म की रक्षा का दायित्व उठा रखा है। उसी समय से नागा संन्यासी अखाडों की परम्परा में धर्मध्वजा फहराने का प्रचलन शुरू हो गया। सर्वप्रथम नागा संन्यासिय द्वारा ध्वज फहराया गया। बाद में इस धर्मध्वजा को फहराने की परम्परा को बैरागी, उदासीन व निर्मल अखाडो ने भी अपनाया । दशनाम संन्यासी परम्परा के अखाडे व अन्य संप्रदायों के अखाडे द्वारा फहरायी जाने धर्मध्वजा की लम्बाई ५२ हाथ इसीलिये होती ह क्योंकि दशनामी, [हिं०दश+नाम] संन्यासियों के 52 मठी का प्रतीक है। राजा हर्षवर्धन ने उन्हें ५२ हाथ लंबी धर्मध्वजा प्रदान की थी,। जिस प्रकार सेना का अपना ध्वज होता है। उसी प्रकार अखाडो की भी अपनी ’ध्वजा‘ होती है। जिसे ’’धर्मध्वजा‘‘ कहा जाता है जिसके नचे अखाडो के साधु एक जुट होकर ’धर्म‘ की रक्षा के लिये डटे रहते हैं। धर्म ध्वजा की स्थापना के साथ ही अखाडों की कुम्भ मेलें में धार्मिक रीतिरिवाज की शुरूआत हो जाती है। धर्मध्वजा की स्थापना के बाद अखाडों की पेशवाई शुरू होती है। जो नगर का बडे जुलूस के रूप भ्रमण करते हुए अपनी-अपनी छावनियों में प्रवेश कर जाती है। पेशवाई में बैंडबाजे, घोडे हाथी, ऊॅट, ढोल नगाडे, तुरही, नागफनी, शंख, घंटे घडियाल, झांकियॅा सम्मिलित होती है। हाथी के ऊपर बडे-बडे सोने चांदी के सिंहासन होते है। जिनमें अखाडो के श्रीमहंत, महंत, आचार्य महामंडलेश्वर, महामण्डलेश्वर विराजमान होते ह। इस तरह पेशवाई में शामिल महंत ’महाराज‘ हो जाते है। यानि ’राजाओं के राजा ’महाराजा‘। पेशवाईयों की धाक देखते ही बनती है। नागा साधु भस्म लगाकर और अन्य साधु श्रृंगार करके पेशवाई में भाग लेते है। अखाडों की पेशवाई का कुम्भ नगरी हरिद्वार के लोग हर ग्यारह साल बाद कुम्भ महापर्व पडने पर बेसब्री से इन्तजार करते है। और पेशवाई का पुष्प बरसाकर जोरदार स्वागत करते है।
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