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यत्र काले त्वनावृत्तिम् आवृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥२३॥
वह कौन सा समय है जब देह छोड़ कर योगी फिर से जन्म नहीँ लेते, और वह कौन सा समय है जब मृत्यु होने पर फिर जन्म लेना होता है – भरत श्रेष्ठ, अब मैँ तुझे यह बताता हूँ.
अग्निर् ज्योतिर् अहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥२४॥
अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण के छः मास – ऐसे मेँ जाएँ तो ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म को पाते हैँ.
धूमो रात्रिस् तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर् योगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥
धूम क्षेत्र, रात, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन के छः महीने – ऐसे मेँ जाने पर योगी चंद्रलोक के प्रकाश को पा कर फिर लौट आता है.
शुक्ल-कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्य् अनावृत्तिम् अन्ययावर्तते पुनः ॥२६॥
इस संसार के ये दो शुक्ल और कृष्ण मार्ग सनातन माने गए हैँ. एक से जाने पर वापसी नहीँ होती. दूसरे से जाने पर लौट कर आना होता है.
नैते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु योग-युक्तो भवार्जुन ॥२७॥
पार्थ, इन दोनोँ मार्गोँ को जानने वाला योगी भ्रमित नहीँ होता. इस लिए, अर्जुन, तू हर काल मेँ योगी बन.
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्य-फलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वम् इदं विदित्वा योगी परं स्थानम् उपैति चाद्यम् ॥२८॥
वेद, यज्ञ, तपस्या और दान – ये सब पुण्य कर्म हैँ. इन्हेँ करने से अच्छा फल मिलता है. लेकिन जो योगी मेरे द्वारा बताई गई सब बातेँ जानता है, वह इन के फलोँ को त्याग कर आगे निकल जाता है और परम पद को पा लेता है.
जय दशनाम !
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥२३॥
वह कौन सा समय है जब देह छोड़ कर योगी फिर से जन्म नहीँ लेते, और वह कौन सा समय है जब मृत्यु होने पर फिर जन्म लेना होता है – भरत श्रेष्ठ, अब मैँ तुझे यह बताता हूँ.
अग्निर् ज्योतिर् अहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥२४॥
अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण के छः मास – ऐसे मेँ जाएँ तो ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म को पाते हैँ.
धूमो रात्रिस् तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर् योगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥
धूम क्षेत्र, रात, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन के छः महीने – ऐसे मेँ जाने पर योगी चंद्रलोक के प्रकाश को पा कर फिर लौट आता है.
शुक्ल-कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्य् अनावृत्तिम् अन्ययावर्तते पुनः ॥२६॥
इस संसार के ये दो शुक्ल और कृष्ण मार्ग सनातन माने गए हैँ. एक से जाने पर वापसी नहीँ होती. दूसरे से जाने पर लौट कर आना होता है.
नैते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु योग-युक्तो भवार्जुन ॥२७॥
पार्थ, इन दोनोँ मार्गोँ को जानने वाला योगी भ्रमित नहीँ होता. इस लिए, अर्जुन, तू हर काल मेँ योगी बन.
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्य-फलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत् सर्वम् इदं विदित्वा योगी परं स्थानम् उपैति चाद्यम् ॥२८॥
वेद, यज्ञ, तपस्या और दान – ये सब पुण्य कर्म हैँ. इन्हेँ करने से अच्छा फल मिलता है. लेकिन जो योगी मेरे द्वारा बताई गई सब बातेँ जानता है, वह इन के फलोँ को त्याग कर आगे निकल जाता है और परम पद को पा लेता है.
जय दशनाम !
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