विचारों के अनुरूप ही मनुष्य की स्थिति और गति होती है। श्रेष्ठ विचार सौभाग्य का द्वार हैं, जबकि निकृष्ट विचार दुर्भाग्य का,आपको इस ब्लॉग पर प्रेरक कहानी,वीडियो, गीत,संगीत,शॉर्ट्स, गाना, भजन, प्रवचन, घरेलू उपचार इत्यादि मिलेगा । The state and movement of man depends on his thoughts. Good thoughts are the door to good fortune, while bad thoughts are the door to misfortune, you will find moral story, videos, songs, music, shorts, songs, bhajans, sermons, home remedies etc. in this blog.
मानव-जीवन में सफलता की पहली-सीढी है.."धर्म-तत्व" का यथार्थ-ज्ञान..! जिस "धर्म" को आज इस भौतिक-जगत में जान-समुदाय ने अपना रखा है..वह सांसारिक-धर्म है..इसलिए इससे जीवन का यथार्थ-लक्ष्य प्रतिबिंबित नहीं होता.!! जिस "धर्म-तत्व" को महान-पुरुषो ने स्वयं जाना और जान कर उसको अपने जीवन में अपनाया और उसका प्रचार-प्रसार जन-समुदाय को भी अपनाने के लिए प्रेरित किया..वही धर्म-तत्व का ज्ञान आज हर मानव को जानना ...और प्राप्त करना चाहिए..!
"धर्म" वह है..जो बांधता नहीं..अपितु मुक्त करता है..!
"योग" वह है..जो "धर्म" को जीवन से जोड़ता है..!
"ज्ञान" वह है..जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त कर देता है..!
यही वेदों का सार-तत्व है..!
***धर्म ते विरति..योग ते ज्ञाना..ज्ञान मोक्ष पद वेद बखाना..!!
विश्व का प्रत्येक जीव बिना किसी प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करता, यह एक अनुभवशिद्ध सिद्धांत है ! दर्शनशास्त्र कहता है, 'प्रयोजनमनुद्दीश्य मंदोंपि न प्रवर्तते' अर्थात घोर से घोर मुर्ख भी बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करता ! अतएव प्रत्येकक कार्य का अलग अलग प्रयोजन भी स्वाभाविक होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है ! कार्य अनंत होते हुए भी प्रयोजन एक ही है ! सुनने में ये बात विचित्र सी है किन्तु विचार करने पर साधारण एवं स्वाभाविक है !
जैसे अत्यंत पिपासा से व्याकुल होकर मनुष्य जल की बूंद के लिए छटपटाता है और एक छण की देर भी सहन नहीं कर सकता वैसी दस जब भगवान् के दर्शन के लिए भक्त की हो जाती है तब भगवान् को भी एक छण का विलम्ब असत्य हो जाता है और वे अपने सारे ऐश्वर्य वैभव को भुलाकर उस नगण्य मानव के सामने प्रगट हो कर उसे कृतार्थ करते है ......!
हम लोग दत्तचित्त होकर जब भगवत कथा में बैठते है, श्रवण करते है तो कलि यहाँ प्रवेश नहीं कर सकता ! जैसे राजा परिक्छित ने कलि का निग्रह किया है, यह कथा कलि का निग्रह करती है १ लेकिन जब तक भगवान् की अनुग्रह न हो तब तक कथा में प्रवेश नहीं होता ! जीवन है सर्प और नेवले के बीच का युद्ध : सुना है की जब सर्प और नेवले के बीच युद्ध होता है और जब सर्प नेवले को काट लेता है, जहर फैलने लगता है तब वह भागता है, और एक जड़ी बूटी होती है, उसको सूंघ लेता है, तो उसका ज़हर उतर जाता है ! उस जड़ी बूटी में ऐसा गुण है ! फिर आ जाता है वह सर्प के साथ युद्ध करने, उसे मोका मिलता है तो सर्प को नोचता है, इस प्रकार युद्ध करता हुआ नेवला अंततः सर्प पर विजय प्राप्त कर लेता है, ठीक उसी प्रकार संसार यह है वह सर्प है और हमारा युद्ध चल रहा है संसार सर्प के साथ ! संशय, संसार, काम और काल को सर्प कहा है - " काम भुजंग डसत जब जाहीं ! विषय नीम कटु लागत नाहीं !!"
जब शुकदेव जी महाराज की वंदना करते है सूत जी भागवत के अंत में तो कहते है - "योगिन्द्राय नमतस्मऐ शुके ब्रम्हरुपिणऐ ! संसारसर्पदस्तंग यो विष्णुरातममुमूचते !!"
तो जब जब यह काम, काल सर्प, संशय सर्प, संसार सर्प, हमें डसता है हममें और जीवन में ज़हर फ़ैल जाता है तब तब उस बुद्धिमान नेवले की भांति हमें भी चाहिए की हम जड़ी बूटी को सूंघ लें ताकि ज़हर उतर जाए, और उस जड़ी बूटी का नाम है "श्रीमद भागवत " !
भोगो की प्राप्ति से दुखो का नाश नहीं होता, न भोगो के नाश में ही वस्तुत्व दुःख है ! दुःख के कारण तो हमारे मन के मनोरथ है एक भी भोग न रहे अति अवश्यक चीजो का भी अभाव हो परन्तु मन यदि अभाव का अनुभव न करके सदा संतुष्ट रहे, उसमे मनोरथ न उठे तो कोई भी दुःख नहीं रहेगा! इसी प्रकार भोगो की प्रचुर प्राप्ति होने पर भी जब तक किसी वस्तु के अभाव का अनुभव होता है और उसको प्राप्त करने की कामना रहती है, तब तक दुःख नहीं मिट सकते! हमारी आशाए हमें सदैव दुःख दिलाती है यदि व्यक्ति को ऐसा लगता है की हमारे दुःख के कारण इनमे से कुछ भी नहीं है तो उसे ये मानना चाहिए की ये हमारे पूर्व जन्म के प्राब्ध है!दुःख सहने की छमता यदि कम हो जाए या फिर जीवन दुखो से घबरा जाए तो उसे भगवान् श्री राम और भगवान् श्री कृष्ण के चरित्र का अनुकरण करना चाहिए! क्योंकि..... इस पृथ्वी पर भगवान राम और कृष्ण ने जो दुःख सहे है वो अकल्पनीय है और जो प्राचीन काल से ही जो लोग दुखो को सह गए आज भी पूजा उन्ही की होती है! बिना दुःख सहे कोई पूजनीय और बड़ा नहीं हो सकता, बिना दुःख सहे किसी के दुःख को नहीं समझ सकता! और श्रीमद भागवत में तो कुन्तीं ने बांके बिहारी से यहाँ तक कह दिया की प्रभु मुझे मेरे वरदान में मुझे दुःख ही दे दो, क्योकि जब-जब हम पे विपदा आई तब-तब आपके दर्शन हुए, सो हमारे लिए तो विपत्ति ही सच्ची संपत्ति है, जिस विपत्ति में सदैव आपके स्मरण हो उस विपत्ति से बड़ी और कोई संपत्ति हो ही नहीं सकती!
कैसे जियें और कैसे मरें ? कुछ लोग कहते है की ज़िन्दगी परछाई के सिवा कुछ नहीं है ! इन लोगो को अपने जीवन में निराशा, अंधकार और केवल मृत्यु के स्वप्न आते है ! दुनियादारी के बोझ तले दबे लोगो की यह प्रतिक्रिया है ! कुछ लोग कहते है की जीवन एक कला है ! ऐसे लोग प्रत्येक स्थिति में खुश रहना चाहते है ! ज़िन्दगी पतझड़ नहीं बसंत है ! ग़र जीने का सही ढंग जान गए तो अंत तक जीवन में बसंत ही रहेगी ! उसके लिए जीवन खिलते पुष्प सा होगा, पंछी की चहक सा होगा, झरने की तरह प्रसन्न होगा, संतो का जीवन ऐसा ही होता है १ देखिये सुखदेव जी भी कहते है- कृष्ण ही कला है और कला ही कृष्ण है ! कृष्ण का सम्पूर्ण जीवन कलकल बहता झरना है ! कृष्ण के स्मरण मात्र से ह्रदय मधुरता से भर जाता है !
कामना 'प्रेम' का विरोधी तत्व है ! लेने-देने का नाम व्यापार है! जिसमे सब कुछ देने पर भी तृप्ति न हो, वही प्रेम है ! संसार में कोई व्यक्ति किसी से इसलिए प्रेम नहीं कर सकता क्योकि प्रत्येक जीव स्वार्थी है ! वह आनंद चाहता है, अस्तु लेने की भावना रखता है! जब दोनों पछ लेने-देने की घात में है तो मैत्री कितने छण चलेगी ? तभी तो स्त्री-पति, बाप-बेटे में दिन में दस बार टक्कर हो जाती है ! जहाँ दोनों लेने-देने के चक्कर में है, वहा टक्कर होना स्वाभाविक ही है और जहाँ टक्कर हुई, वहीं वह नाटकीय स्वार्थजन्य प्रेम समाप्त हो जाता है! वास्तव में कामयुक्त प्रेम प्रतिछण घटमान होता है ! कामना अन्धकार स्वरुप है, प्रेम प्रकाश स्वरुप है! एक घातक को देखिये, वह कितना निष्काम प्रेम करता है ! वह बारह मास अपने प्रियतम से प्यार करता है, जब की हम लोग कोई सांसारिक आपत्ति आई तब मंदिरों या महात्माओ के पास दौड़ते है ! एवं जैसे ही सांसारिक कामना पूर्ति हो गई फिर कभी जाने का नाम भी नहीं लेते! यदि कोई पूछता की तुम आजकल मंदिरों या सत्संग में नहीं जाते तो कह देता की मुझे तो अपने अन्दर ही सब कुछ मिल जाता, दिखावा करने से क्या लाभ, इत्यादि ! सच तो यह है की वह सांसारिक कामनाओ का उपासक है, उसने इश्वर-तत्व को समझा ही नहीं है ! अतएव, चातक से हमें शिछा लेनी चाहिए ! जैसे वह बारह मास उपासना करता हुआ भी स्वाति में ही जल पीता है, उसी प्रकार हम भी प्रेमास्पद कि इच्छा रखें एवं निरंतर प्रेम करें-
जाचे बारह मास पिए पपीहा स्वाति जल !
एक बात और है कि हम लोग संसार में जो प्रेम करते है, चूँकि उसमे स्वार्थ निहित रहता है अतएव स्वार्थ-हानि होते ही प्रेम तो समाप्त हो ही जाता है, साथ ही शत्रुता भी उत्पन्न हो जाती है, किन्तु चातक ऐसा प्रेम नहीं करता !
अर्थात चातक का प्रेमास्पद यह परीछा लेने के लिए (कि यह मुझसे कुछ स्वार्थ रखता है या नहीं ) गरजता है यानि डांटता है, अपमानित करता है, चमकता है यानि चिढाता है, ओले गिराता है, बिजली गिराता है परन्तु पपीहा इन दुर्व्यवहारों को नहीं देखता, इन व्यवहारों से उसे क्रोध नहीं आता, अपितु और अधिक प्रसन्नता होती है ! इससे हमें शिछा लेनी चाहिए कि यदि सांसारि आपत्ति आवे तो हम प्रसन्न हो, अशांत या क्रुद्ध न हो ! इतना ही नहीं एक पपीहा भूखा-प्यासा, हारा-थका उड़ते-उड़ते एक पेड़ पर बैठ गया ज्योही उसे होश आया कि उस वृछ के निचे बाण साधे बैठे ब्याध ने बाण मार दिया ! वह वृछ गंगा जी के तट पर था अतएव वह चातक बाण से बिंधा हुआ गंगा जी ही में जा गिरा ! गिरते समय उसने सोचा, 'चलो यह भी अच्छा हुआ ; पुरे जीवन प्रेम निभाया एवं मरते समय गंगा जी का जल मुख में जाएगा जिससे मुक्ति हो जाएगी', ऐसा सोच ही रहा था कि पुनः उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा कि यदि तू गंगाजल पी लेगा एवं मुक्त हो जाएगा तो प्रेम के उज्जवल वस्त्र पर कलंक लग जाएगा ! बस, फिर क्या था, उस चातक ने अपनी चोंच ऊपर उठा ली और उसी झटके में उसके प्राण-पखेरू उड़ गए उसने मरते-मरते भी प्रेम को निष्कलंक ही रखा ! इसी आशय से तुलसीदास जी ने लिखा कि-
बध्यो बधिक पर्यो पुन्य जल , उलटी उठाई चोंच ! तुलसी चातक प्रेम-पट , मरतहूँ लगी न खोंच !!
इसी से आप समझ गए होंगे और इसी से आपको भी शिछा लेनी है ! अस्तु, मुक्ति के चक्कर में पड़कर प्रेम-रस को नहीं खोना है, क्योंकि- भक्ति करत सोई मुक्ति गुसाई ! अनइच्छित आवत वारी आई !!
भक्ति करने पर मुक्ति तो स्वमेव हो ही जाएगी ! जब भक्ति करने पर मुक्ति स्वंय ही हो जाएगी तो भक्ति-रस से क्यों वंचित रह जाय ? क्योंकि मुक्ति होने पर भक्ति-रस पाना असंभव है किन्तु भक्ति पाने पर मुक्ति सहज सिद्ध है ! वास्तव में प्रेम में अपने प्रियतम के गुण भी देखना चाहिए ! वह भी कामना है ! यही कारण है कि संसार में हम जिस भी गुण के कारण प्रेम करते है उस गुण के समाप्त होते ही प्रेम भी नष्ट हो जाता है ! यथा, किसी ने सौन्दर्य से प्रेम किया तो सुन्दरता नष्ट होने पर प्रेम समाप्त हो जाएगा; किसी ने धन से प्रेम किया तो धन समाप्त होते ही प्रेम समाप्त हो जाएगा!
अर्थात अपने सुख कि इच्छा ही कामना है, वह अन्धकार स्वरुप है एवं प्रेमास्पद के सुख कि कामना होना ही प्रेम है, वह प्रकास स्वरुप है!!!
मनुष्य जन्म से ही अपने वास्तविक आनंद की खोज करने लगता है
1. बाल्यावस्था में उसे लगता है की माँ के दुध में और पिता के प्रेम में ही सच्चा आनंद है!
2. किशोरावस्था में उसे लगता है की मित्रों और खिलौने में ही सच्चा आनंद है!
3. युवावस्था में उसे लगता है की पत्नी,.बच्चे और अर्थ की प्राप्ति में ही सच्चा आनंद है !
4 . प्रौढ़ावस्था में उसे लगता है की मान-सम्मान, यश-कीर्ति में ही सच्चा आनंद है !
5 . वृद्धावस्था में उसे लगता है की पुत्र-पौत्र में ही सच्चा आनंद है!
मृत्यु के समय उसे जब अपने किये हुए पापो की याद करके भयंकर वेदना होती है तब उसे महसूस होता है की सच्चा आनंद इश्वर में है .... लेकिन तब तक वो इश्वर का दिया हुआ अनमोल मानव जीवन व्यर्थ कर चूका होता है
वास्तविकता यही है की जीव का परम लक्ष्य आनंद की प्राप्ति है और सच्चा आनंद, आनंद स्वरुप परमात्मा में है अर्थात..... मानव देह पाकर यदि इश्वर को नहीं जाना तो पुनः चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाना होगा....अतएव मानव देह का महत्त्व समझ कर इश्वर को समझना है .......जिससे है अपने परम चरम लक्ष्य आनंदघनस्वरुप अविनाशी परमानन्द परब्रम्ह को प्राप्त कर सकें
1 . एक का अर्थ है...
इश्वर एक है !
2 . दो का अर्थ है...
इश्वर और जीव के मिलने से सृष्टि बनी !
3 . तीन का अर्थ है...
तीन लोक माने गए है - स्वर्ग लोक, मृत्यु लोक, पाताल लोक !
4 . चार का अर्थ है ...
वेद- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद !
5 . पांच का अर्थ है...
तत्त्व पांच होते है- छिति, जल, पावक, गगन, समीर !
6 . छः का अर्थ है...
ऋतुए छः होती है- बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशर !
7 . सात का अर्थ है...
संगीत के सुर सात होते है - सा, रे, गा, म, प, ध, नि, !
8 . आठ का अर्थ है...
दिन और रात मिलकर आठ पहर होते है !
9 . नौ का अर्थ है...
"नवधा भक्ति"...तात्पर्य वर्ष में आने वाली दो नवरात्रियों से भी है !
10 . दस का अर्थ है...
दिशाएँ दस होती है-पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आकाश, पाताल, नैरित्य, वायव्य और आग्नेय. इसके अलावा दिग्पाल भी दस होते है- इन्द्र, यम, कुबेर, वरुण, ब्रम्हा, विष्णु, रूद्र, अग्नि, नैर्त्य और पवन !
शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।
लेकिन हिंदुओं के साधुजनों और ब्राह्मणों ने मिलकर सब कुछ मटियामेट कर दिया। अब चार की जगह चालीस शंकराचार्य होंगे और उन सभी की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियाँ और ठाठ-बाट है क्योंकि उनके पीछे चलने वाले उनके चेले-चपाटियों की भरमार है जो उनके अहंकार को पोषित करते रहते हैं।
शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहाँ हुआ। मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं। चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-
शंकराचार्य के चार शिष्य : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)। माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।
ग्रंथ : शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया।
दसनामी सम्प्रदाय : शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।
दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। कठिन योग साधना और धर्मप्रचार में ही उनका सारा जीवन बितता है। दसनामी संप्रदाय में शैव और वैष्णव दोनों ही तरह के साधु होते हैं।
यह दस संप्रदाय निम्न हैं : 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।
हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी अवधेशानंद गिरि।
शंकराचार्य का दर्शन : शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में है।
अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।