जीवन की सार्थकता

संत एकनाथजी के पास एक व्यक्ति आया और बोला - नाथ! आपका जीवन कितना मधुर है। हमें तो शांति एक क्षण भी प्राप्त नहीं होती। कृपया मार्गदर्शन करें।

एकनाथजी ने कहा - तू तो अब आठ ही दिनों का मेहमान है, अतः पहले की ही भांति अपना जीवन व्यतीत कर। 

यह सुनते ही वह व्यक्ति उदास हो गया। घर गया और पत्नी से बोला - मैंने तुम्हें कई बार नाहक ही कष्ट दिया है। मुझे क्षमा करो। फिर बच्चों से बोला - बच्चों, मैंने तुम्हें कई बार पीटा है, मुझे उसके लिए माफ करो। जिन लोगों से उसने दुर्व्यवहार किया था, सबसे माफी मांगी। 

इस तरह आठ दिन व्यतीत हो गए और नौवें दिन वह एकनाथजी के पास पहुंचा और बोला - नाथ, मेरी अंतिम घड़ी के लिए कितना समय शेष है?


एकनाथजी बोले - तेरी अंतिम घड़ी तो परमेश्वर ही बता सकता है, किंतु तेरे यह आठ दिन कैसे व्यतीत हुए? भोग-विलास और आनंद तो किया ही होगा?

वह व्यक्ति बोला - क्या बताऊं नाथ, मुझे इन आठ दिनों में मृत्यु के अलावा और कोई चीज दिखाई नहीं दे रही थी। इसीलिए मुझे अपने द्वारा किए गए सारे दुष्कर्म स्मरण हो आए और उसके पश्चाताप में ही यह अवधि बीत गई।

एकनाथजी बोले - मित्र, जिस बात को ध्यान में रखकर तूने यह आठ दिन बिताए हैं, हम साधु लोग इसी को सामने रखकर सारे काम किया करते हैं। यह देह क्षणभंगुर है, इसे मिट्टी में मिलना ही है। इसका गुलाम होने की अपेक्षा परमेश्वर का गुलाम बनो। सबके साथ समान भाव रखने में ही जीवन की सार्थकता है।
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धर्म की महानता

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धर्
म र संस्कृति ी महानता दर्शाने वाले राजा शिबि ा दर्शअद्वितीय र अतुलनीय है। क पौराणिकथा े अनुसार उशीनगर देश के राजा शिबि एक दिन अपनी राजसभा में बैठे थे। 

उसी समय एक कबूतर उड़ता हुआ आया और राजा की गोद में गिर कर उनके कपड़ों में छिपने लगा। कबूतर बहुत डरा जान पड़ता था। 

राजा ने उसके ऊपर प्रेम से हाथ फेरा और उसे पुचकारा। कबूतर से थोड़े पीछे ही एक बाज उड़ता आया और वह राजा के सामने बैठ गया। 

बाज बोला- मैं बहुत भूखा हूं। आप मेरा भोजन छीन कर मेरे प्राण क्यों लेते हैं? 

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राजा शिबि बोले- तुम्हारा काम तो किसी भी मांस से चल सकता है। तुम्हारे लिए यह कबूतर ही मारा जाए, इसकी क्या आवश्यकता है। तुम्हें कितना मांस चाहिए? 

बाज कहने लगा- महाराज! कबूतर मरे या दूसरा कोई प्राणी मरे, मांस तो किसी को मारने से ही मिलेगा। 

राजा ने विचार किया और बोले- मैं दूसरे किसी प्राणी को नहीं मारूंगा। अपना मांस ही मैं तुम्हें दूंगा। एक पलड़े में कबूतर को बैठाया गया और दूसरे पलड़े में महाराज अपने शरीर के एक-एक अंग रखते गए। आखिर में राजा खुद पलड़े में बैठ गए। 

बाज से बोले- तुम मेरी इस देह को खाकर अपनी भूख मिटा लो। 

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महाराज जिस पलड़े पर थे, वह पलड़ा इस बार भारी होकर भूमि पर टिक गया था और कबूतर का पलड़ा ऊपर उठ गया था। लेकिन उसी समय सबने देखा कि बाज तो साक्षात देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हो गए है और कबूतर बने अग्नि देवता भी अपने मूल रूप में खड़े हैं। 

अग्नि देवता ने कहा- महाराज! आप इतने बड़े धर्मात्मा हैं कि आपकी बराबरी मैं तो क्या, विश्व में कोई भी नहीं कर सकता। 

इन्द्र ने महाराज का शरीर पहले के समान ठीक कर दिया और बोले- आपके धर्म की परीक्षा लेने के लिए हम लोगों ने यह बाज और कबूतर का रूप बनाया था। आपका यश सदा अमर रहेगा।

दोनों पक्षी बने देवता महाराज की प्रशंसा करके और उन्हें आशीर्वाद देकर अंतर्र्ध्यान हो गए। 

ऐसे कई सच्चे उदाहरण हमारे चारों ओर बिखरे पड़े हैं, जो हमारी संस्कृति और धर्म की महानता व व्यापकता दर्शाते हैं। हमारा दर्शन अद्वितीय और अतुलनीय है। स्वयं कष्ट उठा कर भी शरणागत और प्राणी मात्र की भलाई चाहने वाली संस्कृति और कहां मिलेगी। वहीं ऐसा राजा भी कहां मिलेगा, जो नाइंसाफी नहीं हो जाए, इसलिए स्वयं को ही भोजन हेतु समर्पित कर दें। 
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प्रार्थना की शक्ति का महत्व...

मनुष्य का जीवन उसकी शारीरिक एवं प्राणिक सत्ता में नहीं, अपितु उसकी मानसिक एवं आध्यात्मिक सत्ता में भी आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और कामनाओं का है। 

जब उसे ज्ञान होता है कि एक महत्तर शक्ति संसार को संचालित कर रही है, तब वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, अपनी विषम यात्रा में सहायता के लिए, अपने संघर्ष में रक्षा के लिए आय प्राप्त करने के लिए प्रार्थना द्वारा उसकी शरण लेता है। 

प्रार्थना द्वारा भगवान की ओर साधारण धार्मिक पहुंच, अपने को ईश्वर की ओर मोड़ देने के लिए यह हमारी प्रार्थनारूपी विधि हमारी धार्मिक सत्ता का मौलिक प्रयत्न है, और एक सार्वभौम सत्य पर स्थित है- भले ही इसमें कितनी भी अपूर्णताएं हों और सचमुच अपूर्णताएं हैं भी। 



प्रार्थना के प्रभाव को प्रायः संदेह की दृष्टि से देखा जाता है और स्वयं प्रार्थना निरर्थक तथा निष्फल समझी जाती है। वैश्व संकल्प सदैव अपने लक्ष्य को ही कार्यान्वित करता है। वह सर्वज्ञ होने के कारण अपने वृहत्तर ज्ञान से कर्तव्य पहले ही जान लेता है, परंतु यह व्यवस्था यांत्रिक नियम से नहीं, बल्कि कुछ शक्तियों एवं बलों के द्वारा कार्यान्वित होती है।

यह मानव संकल्प, अभीप्सा और श्रद्धा का एक विशेष रूप मात्र है। प्रारंभ में प्रार्थना निम्न स्तर भी हमारे सबंध को तैयार करने में सहायता पहुंचाती है। मुख्य वस्तु इस प्रकार का साक्षात संबंध, मनुष्य का ईश्वर से संपर्क, सचेतक आदान-प्रदान न कि पार्थिव वस्तु की प्राप्ति। 

अपनी मानसिक रचना के निर्माण के बाद यदि व्यक्ति अपने को 'ईश कृपा' पर समर्पित कर देता है, और इसमें भरोसा रखता है, तो उसको अवश्य ही सफलता मिलेगी। यदि कोई ईश्वर की कृपा का मात्र आह्वान करता है, तो अपने को उसके हाथों में सौंप देता है, तो वह विशेष अपेक्षा नहीं करता। 

प्रार्थना को सूत्रबद्ध करके किसी वस्तु के लिए निवेदन करना होगा। व्यक्ति को यह सवाल नहीं करना चाहिए। यदि सचाई के साथ सच्ची आंतरिक भावना के साथ याचना की जाए तो संभव है- वह स्वीकृत हो जाए।
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ईश्वर का प्रमाण

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एक दिन एक राजा ने अपने सभासदों से कहा, ‘क्या तुम लोगों में कोई ईश्वर के होने का प्रमाण दे सकता है ?’ सभासद सोचने लगे, अंत में एक मंत्री ने कहा, ‘महाराज, मैं कल इस प्रश्न का उत्तर लाने का प्रयास करूंगा।’ सभा समाप्त होने के बाद उत्तर की तलाश में वह मंत्री अपने गुरु के पास जा रहा था। रास्ते में उसे गुरुकुल का एक विद्यार्थी मिला। मंत्री को चिंतित देख उसने पूछा, ‘सब कुशल मंगल तो है ? इतनी तेजी से कहां चले जा रहे हैं ?’

मंत्री ने कहा, ‘गुरुजी से ईश्वर की उपस्थिति का प्रमाण पूछने जा रहा हूं।’ विद्यार्थी ने कहा, ‘इसके लिए गुरुजी को कष्ट देने की क्या आवश्यकता है ? इसका जवाब तो मैं ही दे दूंगा।’ अगले दिन मंत्री उस विद्यार्थी को लेकर राजसभा में उपस्थित हुआ और बोला, ‘महाराज यह विद्यार्थी आपके प्रश्न का उत्तर देगा।’ विद्यार्थी ने पीने के लिए एक कटोरा दूध मांगा। दूध मिलने पर वह उसमें उंगली डालकर खड़ा हो गया। थोड़ी-थोड़ी देर में वह उंगली निकालकर कुछ देखता, फिर उसे कटोरे में डालकर खड़ा हो जाता। जब काफी देर हो गई तो राजा नाराज होकर बोला, ‘दूध पीते क्यों नहीं? उसमें उंगली डालकर क्या देख रहे हो?’ विद्यार्थी ने कहा, ‘सुना है, दूध में मक्खन होता है, वही खोज रहा हूं।’ राजा ने कहा, ‘क्या इतना भी नहीं जानते कि दूध उबालकर उसे बिलोने से मक्खन मिलता है।’ विद्यार्थी ने मुस्कराकर कहा, ‘हे राजन, इसी तरह संसार में ईश्वर चारों ओर व्याप्त है, लेकिन वह मक्खन की भांति अदृश्य है। उसे तप से प्राप्त किया जाता है।’ राजा ने संतुष्ट होकर पूछा, ‘अच्छा बताओ कि ईश्वर करता क्या है ?’

विद्यार्थी ने प्रश्न किया, ‘गुरु बनकर पूछ रहे हैं या शिष्य बनकर?’ राजा ने कहा, ‘शिष्य बनकर।’ विद्यार्थी बोला, ‘यह कौन सा आचरण है ? शिष्य सिंहासन पर है और गुरु जमीन पर।’ राजा ने झट विद्यार्थी को सिंहासन पर बिठा दिया और स्वयं नीचे खड़ा हो गया। तब विद्यार्थी बोला, ‘ईश्वर राजा को रंक और रंक को राजा बनाता है।’

मित्रो, ईश्वर कि उपस्थिति के किसी प्रमाण की क्या आवश्यकता है ? हमारा इस संसार में होना ही इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है. वह तो कण कण में है. जैसे दूध में मक्खन और दही दिखाई नहीं देते, माचिस की तीली में आग नजर नहीं आती, ऐसे ही ईश्वर भी प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते. वह हमसे पूर्ण समर्पण और पूरा विश्वास चाहते हैं . ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए एक पूर्ण सद्गुरु की तलाश करें !!!
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नग्न साधुओं पर प्रतिक्रिया

महाकुंभ विशेष : 
कुछ व्यक्तियोंने महाकुंभमें विचरते नग्न साधुओंपर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूछा है कि जहां मां-बहनें आती हैं, वहां साधुओंका नग्न होकर घूमना कहां तक उचित है? क्या यह भारतीय संस्कृति है ? 
उत्तर : पाश्चात्य देशोंमें कई बार कुछ जन अपने विषयकी ओर ध्यान आकृष्ट करनेके लिए नग्न होकर प्रदर्शन करते हैं !! वहां नग्न होकर प्रदर्शन करनेका उद्देश्य होता है, सभीका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना ! महाकुम्भ्में योगी और महात्मा नग्न होकर विचरते हैं, वहां वे यह सब किसीका ध्यान आकृष्ट करनेके लिए नहीं करते | ध्यान रहे, हम सबकी उत्पत्ति ईश्वरसे हुई, परंतु हमें वह बोध अखंड नहीं होता क्योंकि हमारे अंदर देह बुद्धि होती है, अर्थात “मैं ब्रह्म हूं ” के स्थान पर मैं देह हूं और मैं फलां-फलां हूं, यह विचार अधिक प्रबल होता है | जब तक मैं देह हूं, यह विचार प्रबल रहता है, ईश्वरकी प्रचीति नहीं हो सकती !
नग्न दो प्रकारके योगी रहते हैं – एक जो परमहंसके स्तरके संत होते हैं, उनसे स्वतः ही वस्त्रका त्याग हो जाता है क्योंकि उनकी देह बुद्धि समाप्त हो जाती हैं | ऐसे उच्च कोटिके योगी इस संसारमें विरले ही हैं | दूसरे प्रकारके नग्न योगी हठयोगी होते है, वे अंबरको अपना वस्त्र मानते हैं और वे अपने मनके विरुद्ध जाकर सर्व वस्त्र एवं सर्व बंधन त्याग कर साधनारत होते हैं | उनमेंसे कुछ शैव उपासक भी होते हैं तो कुछ अन्य पंथ अनुसार दिगंबर साधू होते हैं ! जो शैव साधू होते हैं, वे शिवसे एकरूप होने हेतु शिवको प्रिय हैं, वे उनका उपयोग करते हैं |
देह बुद्धि रहते हुए वस्त्रका त्याग, लोगोंका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने हेतु नहीं अपितु साधना हेतु करने वालेके प्रति हीन भावना नहीं, आदरकी भावना होनी चाहिए | कुम्भमें नग्न साधुओंकी विशाल सेना इस बातका द्योतक है कि आज जब कलियुग अपने चरम पर है, तब भी ये हठयोगी अपनी संस्कृति, साधू परंपरा और अपने योगमार्गको बनाए रखने हेतु प्रयत्नशील हैं | ऐसी श्रेष्ठ परंपराका पोषण करने वाली इस दैवी, सनातन, वैदिक परंपराके प्रति हमें गर्व होना चाहिए न कि लज्जा ! और इन हठयोगी नग्न साधू परंपराने समय-समय पर सनातन संस्कृतिका शस्त्र और शास्त्र दोनोंके माध्यमसे रक्षण किया है; अतः इन धर्मरक्षक सात्त्विक सैनिकोंके प्रति प्रत्येक हिन्दुको गर्व होना चाहिये ! 

महाकुंभ विशेष :
कुछ व्यक्तियोंने महाकुंभमें विचरते नग्न साधुओंपर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूछा है कि जहां मां-बहनें आती हैं, वहां साधुओंका नग्न होकर घूमना कहां तक उचित है? क्या यह भारतीय संस्कृति है ?
उत्तर : पाश्चात्य देशोंमें कई बार कुछ जन अपने विषयकी ओर ध्यान आकृष्ट करनेके लिए नग्न होकर प्रदर्शन करते हैं !! वहां नग्न होकर प्रदर्शन करनेका उद्देश्य होता है, सभीका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना ! महाकुम्भ्में योगी और महात्मा नग्न होकर विचरते हैं, वहां वे यह सब किसीका ध्यान आकृष्ट करनेके लिए नहीं करते | ध्यान रहे, हम सबकी उत्पत्ति ईश्वरसे हुई, परंतु हमें वह बोध अखंड नहीं होता क्योंकि हमारे अंदर देह बुद्धि होती है, अर्थात “मैं ब्रह्म हूं ” के स्थान पर मैं देह हूं और मैं फलां-फलां हूं, यह विचार अधिक प्रबल होता है | जब तक मैं देह हूं, यह विचार प्रबल रहता है, ईश्वरकी प्रचीति नहीं हो सकती !
नग्न दो प्रकारके योगी रहते हैं – एक जो परमहंसके स्तरके संत होते हैं, उनसे स्वतः ही वस्त्रका त्याग हो जाता है क्योंकि उनकी देह बुद्धि समाप्त हो जाती हैं | ऐसे उच्च कोटिके योगी इस संसारमें विरले ही हैं | दूसरे प्रकारके नग्न योगी हठयोगी होते है, वे अंबरको अपना वस्त्र मानते हैं और वे अपने मनके विरुद्ध जाकर सर्व वस्त्र एवं सर्व बंधन त्याग कर साधनारत होते हैं | उनमेंसे कुछ शैव उपासक भी होते हैं तो कुछ अन्य पंथ अनुसार दिगंबर साधू होते हैं ! जो शैव साधू होते हैं, वे शिवसे एकरूप होने हेतु शिवको प्रिय हैं, वे उनका उपयोग करते हैं |
देह बुद्धि रहते हुए वस्त्रका त्याग, लोगोंका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने हेतु नहीं अपितु साधना हेतु करने वालेके प्रति हीन भावना नहीं, आदरकी भावना होनी चाहिए | कुम्भमें नग्न साधुओंकी विशाल सेना इस बातका द्योतक है कि आज जब कलियुग अपने चरम पर है, तब भी ये हठयोगी अपनी संस्कृति, साधू परंपरा और अपने योगमार्गको बनाए रखने हेतु प्रयत्नशील हैं | ऐसी श्रेष्ठ परंपराका पोषण करने वाली इस दैवी, सनातन, वैदिक परंपराके प्रति हमें गर्व होना चाहिए न कि लज्जा ! और इन हठयोगी नग्न साधू परंपराने समय-समय पर सनातन संस्कृतिका शस्त्र और शास्त्र दोनोंके माध्यमसे रक्षण किया है; अतः इन धर्मरक्षक सात्त्विक सैनिकोंके प्रति प्रत्येक हिन्दुको गर्व होना चाहिये ! 
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Sury Namaskar


॥ ॐ ध्येयः सदा सवित्र मण्डल मध्यवर्ती नारायण सरसिजा सनसन्नि विष्टः
केयूरवान मकरकुण्डलवान किरीटी हारी हिरण्मय वपुर धृतशंख चक्रः ॥
ॐ मित्राय नमः।
ॐ रवये नमः।
ॐ सूर्याय नमः।
ॐ भानवे नमः।
ॐ खगाय नमः।
ॐ पुषणे नमः।
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः।
ॐ मरीचये नमः।
ॐ आदित्याय नमः।
ॐ सवित्रे नमः।
ॐ अर्काय नमः।
ॐ भास्कराय नमः।
ॐ श्रीसवित्रसूर्यनारायणाय नमः।
॥ आदित्यस्य नमस्कारन् ये कुर्वन्ति दिने दिने
आयुः प्रज्ञा बलम् वीर्यम् तेजस्तेशान् च जायते ॥

|| om dhyeyaḥ sadā savitra maṇḍala madhyavartī nārāyaṇa sarasijā sanasanni viṣṭaḥ
keyūravāna makarakuṇḍalavāna kirīṭī hārī hiraṇmaya vapura dhṛtaśaṁkha cakraḥ ||
om mitrāya namaḥ |
om ravaye namaḥ |
om sūryāya namaḥ |
om bhānave namaḥ |
om khagāya namaḥ |
om puṣaṇe namaḥ |
om hiraṇyagarbhāya namaḥ |
om marīcaye namaḥ |
om ādityāya namaḥ |
om savitre namaḥ |
om arkāya namaḥ |
om bhāskarāya namaḥ |
om śrīsavitrasūryanārāyaṇāya namaḥ |
|| ādityasya namaskāran ye kurvanti dine dine
āyuḥ prajñā balam vīryam tejasteśān ca jāyate ||

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विचार Idea

समय परिवर्तन का धन है। परंतु घड़ी उसे केवल परिवर्तन के रूप में दिखाती है, धन के रूप में नहीं।
- रवींद्रनाथ ठाकुर
संतोष का वृक्ष कड़वा है लेकिन इस पर लगने वाला फल मीठा होता है।
- स्वामी शिवानंद
विचारकों को जो चीज़ आज स्पष्ट दीखती है दुनिया उस पर कल अमल करती है। 
- विनोबा
विश्वविद्यालय महापुरुषों के निर्माण के कारख़ाने हैं और अध्यापक उन्हें बनाने वाले कारीगर हैं।
- रवींद्र
हज़ार योद्धाओं पर विजय पाना आसान है, लेकिन जो अपने ऊपर विजय पाता है वही सच्चा विजयी है।
- गौतम बुद्ध
जबतक भारत का राजकाज अपनी भाषा में नहीं चलेगा तबतक हम यह नहीं कह सकते कि देश में स्वराज है।
- मोरारजी देसाई
मुठ्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है, इतिहास की धारा को बदल सकते हैं।
- महात्मा गांधी
सत्याग्रह बलप्रयोग के विपरीत होता है। हिंसा के संपूर्ण त्याग में ही सत्याग्रह की कल्पना की गई है।
- महात्मा गांधी
दूसरों पर किए गए व्यंग्य पर हम हँसते हैं पर अपने ऊपर किए गए व्यंग्य पर रोना तक भूल जाते हैं।
- रामचंद्र शुक्ल
धन उत्तम कर्मों से उत्पन्न होता है, प्रगल्भता (साहस, योग्यता व दृढ़ निश्चय) से बढ़ता है, चतुराई से फलता फूलता है और संयम से सुरक्षित होता है। 
- विदुर
वाणी चाँदी है, मौन सोना है, वाणी पार्थिव है पर मौन दिव्य।
- कहावत
मुहब्बत त्याग की माँ है। वह जहाँ जाती है अपने बेटे को साथ ले जाती है।
- सुदर्शन
मुस्कान थके हुए के लिए विश्राम है, उदास के लिए दिन का प्रकाश है तथा कष्ट के लिए प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार है। 
- अज्ञात
जिस तरह घोंसला सोती हुई चिड़िया को आश्रय देता है उसी तरह मौन तुम्हारी वाणी को आश्रय देता है।
- रवींद्रनाथ ठाकुर
साफ़ सुथरे सादे परिधान में ऐसा यौवन होता है जिसमें अधिक उम्र छिप जाती है। 
- अज्ञात
ज्ञानी जन विवेक से सीखते हैं, साधारण मनुष्य अनुभव से, अज्ञानी पुरुष आवश्यकता से और पशु स्वभाव से।
- कौटिल्य
जो काम घड़ों जल से नहीं होता उसे दवा के दो घूँट कर देते हैं और जो काम तलवार से नहीं होता वह काँटा कर देता है। 
- सुदर्शन
अपने को संकट में डाल कर कार्य संपन्न करने वालों की विजय होती है, कायरों की नहीं।
- जवाहरलाल नेहरू
सच्चाई से जिसका मन भरा है, वह विद्वान न होने पर भी बहुत देश सेवा कर सकता है।
- पं. मोतीलाल नेहरू
स्वतंत्र वही हो सकता है जो अपना काम अपने आप कर लेता है।
- विनोबा
जिस तरह रंग सादगी को निखार देते हैं उसी तरह सादगी भी रंगों को निखार देती है। सहयोग सफलता का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। 
- मुक्ता
दुख और वेदना के अथाह सागर वाले इस संसार में प्रेम की अत्यधिक आवश्यकता है। 
- डॉ. रामकुमार वर्मा
डूबते को तारना ही अच्छे इंसान का कर्तव्य होता है।
- अज्ञात
सबसे अधिक ज्ञानी वही है जो अपनी कमियों को समझकर उनका सुधार कर सकता हो। 
- अज्ञात
अनुभव-प्राप्ति के लिए काफ़ी मूल्य चुकाना पड़ सकता है पर उससे जो शिक्षा मिलती है वह और कहीं नहीं मिलती।
- अज्ञात
जिसने अकेले रह कर अकेलेपन को जीता उसने सबकुछ जीता। 
- अज्ञात
अच्छी योजना बनाना बुद्धिमानी का काम है पर उसको ठीक से पूरा करना धैर्य और परिश्रम का।
- कहावत
जो पुरुषार्थ नहीं करते उन्हें धन, मित्र, ऐश्वर्य, सुख, स्वास्थ्य, शांति और संतोष प्राप्त नहीं होते।
- वेदव्यास
नियम के बिना और अभिमान के साथ किया गया तप व्यर्थ ही होता है।
- वेदव्यास
जैसे सूर्योदय के होते ही अंधकार दूर हो जाता है वैसे ही मन की प्रसन्नता से सारी बाधाएँ शांत हो जाती हैं।
- अमृतलाल नागर
जैसे उल्लू को सूर्य नहीं दिखाई देता वैसे ही दुष्ट को सौजन्य दिखाई नहीं देता।
- स्वामी भजनानंद
लोहा गरम भले ही हो जाए पर हथौड़ा तो ठंडा रह कर ही काम कर सकता है।
- सरदार पटेल
एकता का किला सबसे सुदृढ़ होता है। उसके भीतर रह कर कोई भी प्राणी असुरक्षा अनुभव नहीं करता।
- अज्ञात
फूल चुन कर एकत्र करने के लिए मत ठहरो। आगे बढ़े चलो, तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे।
- रवींद्रनाथ ठाकुर
सौभाग्य वीर से डरता है और कायर को डराता है।
- अज्ञात
प्रकृति अपरिमित ज्ञान का भंडार है, परंतु उससे लाभ उठाने के लिए अनुभव आवश्यक है। 
- हरिऔध
प्रकृति अपरिमित ज्ञान का भंडार है, पत्ते-पत्ते में शिक्षापूर्ण पाठ हैं, परंतु उससे लाभ उठाने के लिए अनुभव आवश्यक है। 
- हरिऔध
जिस मनुष्य में आत्मविश्वास नहीं है वह शक्तिमान हो कर भी कायर है और पंडित होकर भी मूर्ख है।
- राम प्रताप त्रिपाठी
मन एक भीरु शत्रु है जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है।
- प्रेमचंद
असत्य फूस के ढेर की तरह है। सत्य की एक चिनगारी भी उसे भस्म कर देती है। 
- हरिभाऊ उपाध्याय

एकता का किला सबसे सुरक्षित होता है। न वह टूटता है और न उसमें रहने वाला कभी दुखी होता है।
- अज्ञात
किताबें ऐसी शिक्षक हैं जो बिना कष्ट दिए, बिना आलोचना किए और बिना परीक्षा लिए हमें शिक्षा देती हैं।
- अज्ञात
ऐसे देश को छोड़ देना चाहिए जहाँ न आदर है, न जीविका, न मित्र, न परिवार और न ही ज्ञान की आशा।
- विनोबा
विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है।
- रवींद्रनाथ ठाकुर
कुल की प्रतिष्ठा भी विनम्रता और सदव्यवहार से होती है, हेकड़ी और रुआब दिखाने से नहीं।
- प्रेमचंद
अनुभव की पाठशाला में जो पाठ सीखे जाते हैं, वे पुस्तकों और विश्वविद्यालयों में नहीं मिलते।
- अज्ञात
जिस प्रकार थोड़ी-सी वायु से आग भड़क उठती है, उसी प्रकार थोड़ी-सी मेहनत से किस्मत चमक उठती है।
- अज्ञात
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पुराना फटा सा पर्स

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यात्रियों से खचाखच भरी ट्रेन में टी.टी.ई. को एक पुराना फटा सा पर्स मिला। उसने पर्स को खोलकर यह पता लगाने की कोशिश की कि वह किसका है। लेकिन पर्स में ऐसा कुछनहीं था जिससे कोई सुराग मिलसके। पर्स में कुछ पैसे और भगवान श्रीकृष्ण की फोटो थी। फिर उस ... टी.टी.ई. ने हवा में पर्स हिलाते हुए पूछा -"यह किसका पर्स है?"
एक बूढ़ा यात्री बोला -"यह मेरा पर्स है। इसे कृपया मुझे दे दें।"
टी.टी.ई. ने कहा -"तुम्हें यह साबित करना होगा कि यह पर्स तुम्हारा हीहै। केवल तभी मैं यह पर्स तुम्हें लौटा सकता हूं।"
उस बूढ़े व्यक्ति ने दंतविहीन मुस्कान के साथ उत्तर दिया -"इसमें भगवान श्रीकृष्ण की फोटो है।"
टी.टी.ई. ने कहा -"यह कोई ठोस सबूत नहीं है। किसी भी व्यक्ति के पर्स में भगवान श्रीकृष्ण की फोटो हो सकती है। इसमें क्या खास बात है? पर्स में तुम्हारी फोटो क्यों नहीं है?"
बूढ़ा व्यक्ति ठंडी गहरी सांस भरते हुए बोला -"मैं तुम्हें बताता हूं कि मेरा फोटो इस पर्स में क्यों नहीं है। जब मैं स्कूल में पढ़ रहा था, तब ये पर्स मेरे पिता ने मुझे दिया था। उस समय मुझे जेबखर्च के रूपमें कुछ पैसे मिलते थे। मैंने पर्स में अपने माता-पिता की फोटोरखी हुयी थी।
जब मैं किशोर अवस्था में पहुंचा, मैं अपनी कद-काठी पर मोहित था। मैंने पर्स में से माता-पिता की फोटो हटाकर अपनी फोटो लगा ली। मैंअपने सुंदर चेहरे और काले घने बालों को देखकर खुश हुआ करता था।
कुछ साल बाद मेरी शादी हो गयी। मेरी पत्नी बहुत सुंदर थी और मैं उससे बहुत प्रेम करता था।मैंने पर्स में से अपनी फोटो हटाकर उसकी लगा ली। मैं घंटों उसके सुंदर चेहरे को निहारा करता।
जब मेरी पहली संतान का जन्म हुआ,तब मेरे जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ। मैं अपने बच्चेके साथ खेलने के लिए काम पर कम समय खर्च करने लगा। मैं देर से काम पर जाता ओर जल्दी लौट आता। कहने की बात नहीं, अब मेरे पर्स में मेरे बच्चेकी फोटो आ गयी थी।"
बूढ़े व्यक्ति ने डबडबाती आँखों के साथ बोलना जारी रखा -"कई वर्ष पहले मेरे माता-पिता कास्वर्गवास हो गया। पिछले वर्ष मेरी पत्नी भी मेरा साथ छोड़ गयी।मेरा इकलौता पुत्र अपने परिवार में व्यस्त है। उसके पासमेरी देखभाल का क्त नहीं है। जिसे मैंनेअपने जिगर के टुकड़ेकी तरह पाला था,
वह अब मुझसे बहुत दूर हो चुका है।
अब मैंने भगवान कृष्ण की फोटो पर्स में लगा ली है। अब जाकर मुझे एहसास हुआ है कि श्रीकृष्ण ही मेरे शाश्वत साथी हैं। वे हमेशा मेरे साथ रहेंगे। काश मुझे पहले ही यह एहसास हो गया होता।
जैसा प्रेम मैंने अपने परिवार से किया, वैसा प्रेम यदि मैंने ईश्वरके साथ किया होता तो आज मैं
इतना अकेला नहीं होता।"
टी.टी.ई. ने उस बूढ़े व्यक्ति को पर्स लौटा दिया। अगले स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही वह टी.टी.ई. प्लेटफार्म पर बने बुकस्टाल पर पहुंचा और विक्रेता से बोला-"क्या तुम्हारे पास भगवान की कोई फोटो है? मुझे अपने पर्स में रखने के लिए चाहिए.
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रिश्तों की अहमियत

 मैं घर की नई बहू थी और एक प्राइवेट बैंक में एक अच्छे ओहदे पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर और पति...