प्रत्येक रिश्ते की अहमियत

 मैं घर की नई बहू थी और एक निजी बैंक में एक अच्छी पद पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर, श्री गुप्ता, और मेरे पति, रोहन, के अलावा कोई और नहीं था। रोहन का अपना व्यवसाय था, जिससे वे काफी व्यस्त रहते थे। हमारी निजी ज़िंदगी पर भी इसका असर था, और जब हम साथ समय बिताना चाहते, तो अक्सर घर में मौजूद बुज़ुर्ग ससुर के कारण बाधा आ जाती थी, क्योंकि वे कभी भी हमें बुला लेते थे।

हर सुबह जब मैं जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाकर ऑफिस के लिए निकलने की तैयारी करती, तभी मेरे ससुर मुझे आवाज़ देकर कहते, "बहू, मेरा चश्मा साफ़ करके मुझे दे दो।" यह रोज़ का सिलसिला था। ऑफिस की देरी और काम के दबाव के कारण कभी-कभी मैं मन ही मन खीझ जाती थी, लेकिन फिर भी अपने ससुर से कुछ नहीं कह पाती थी।

एक दिन, मैंने इस बारे में रोहन से बात की। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ, लेकिन उन्होंने पिताजी से कुछ नहीं कहा। उन्होंने मुझे सलाह दी, "सुबह उठते ही पिताजी का चश्मा साफ़ करके उनके कमरे में रख दिया करो, ताकि ऑफिस जाते समय कोई परेशानी न हो।"

अगले दिन मैंने वैसा ही किया, लेकिन फिर भी ऑफिस के लिए निकलते समय वही बात हुई। ससुर जी ने फिर बुलाकर कहा, "बहू, मेरा चश्मा साफ़ कर दो।" मुझे बहुत गुस्सा आया, लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। धीरे-धीरे मैंने उनकी बातों को अनसुना करना शुरू कर दिया, और कुछ समय बाद तो मैंने बिल्कुल ध्यान देना ही बंद कर दिया।

जब भी ससुर जी कुछ बोलते, मैं कोई प्रतिक्रिया नहीं देती और ख़ामोशी से अपने काम में लगी रहती।

समय के साथ, एक दिन ससुर जी का भी निधन हो गया।

वक़्त का पहिया रुकता नहीं है; वह चलता रहता है।

एक दिन छुट्टी थी। अचानक मेरे मन में घर की सफ़ाई करने का ख़याल आया। मैं अपने घर की सफ़ाई में जुट गई। सफ़ाई के दौरान मुझे दिवंगत ससुर जी की एक डायरी मिली।

मैंने जब उस डायरी को पलटना शुरू किया, तो उसके एक पन्ने पर लिखा था, "दिनांक 26.10.2019... मेरी प्यारी बहू अनिता... आज की इस भागदौड़ और तनाव भरी ज़िंदगी में बच्चे घर से निकलते समय अक्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं, जबकि बुज़ुर्गों का यही आशीर्वाद मुश्किल समय में उनके लिए ढाल का काम करता है। इसलिए जब तुम प्रतिदिन मेरा चश्मा साफ़ कर मुझे देने के लिए झुकती थी, तो मैं मन ही मन अपना हाथ तुम्हारे सिर पर रखकर तुम्हें आशीर्वाद देता था। तुम्हारी सास ने जाते समय मुझसे कहा था कि बहू को अपनी बेटी की तरह प्यार से रखना और उसे यह कभी महसूस न होने देना कि वह ससुराल में है और हम उसके माता-पिता नहीं हैं। उसकी छोटी-मोटी गलतियों को उसकी नादानी समझकर माफ़ कर देना। चाहे मैं रहूँ या न रहूँ, मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है, बेटी... सदा खुश रहो।"

अपने ससुर की डायरी पढ़कर मेरी आँखों में आँसू आ गए।

आज ससुर जी को गुज़रे दो साल से ज़्यादा हो चुके हैं, लेकिन फिर भी मैं रोज़ घर से बाहर निकलते समय उनका चश्मा अच्छी तरह साफ़ करके, उनकी मेज़ पर रख देती हूँ... उनके अनदेखे आशीर्वाद की आशा में।

अक्सर हम जीवन में रिश्तों का महत्व समझ नहीं पाते, चाहे वे किसी से भी हों, कैसे भी हों... और जब तक महसूस करते हैं, तब तक वे हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं।


प्रत्येक रिश्ते की अहमियत और उनका भावनात्मक आदर करना बेहद ज़रूरी है, अन्यथा यह जीवन अधूरा है।

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