सनातन
धर्म की शक्ति उसकी
सहनशीलता, विविधता और समय के
साथ सामंजस्य बिठाने की क्षमता में
रही है। लेकिन समय के साथ कुछ
चीज़ें बदलने की आवश्यकता होती
है, क्योंकि जो समाज समय
के साथ नहीं बदलता, वह कमजोर हो
जाता है।
1. भेदभाव
और एकता:
धर्म या समाज में
किसी भी प्रकार का
भेदभाव उसकी जड़ें कमजोर करता है। "व्यक्ति कर्म से बड़ा होता
है, जन्म से नहीं" यह
विचार गीता और अन्य धार्मिक
ग्रंथों में भी व्यक्त किया
गया है। यह समझना जरूरी
है कि कर्म, ज्ञान,
और आचरण किसी भी व्यक्ति को
श्रेष्ठ बनाते हैं, न कि उसका
जन्म।
2. संशोधन
की आवश्यकता:
- धर्म और परंपराओं में
समय के साथ बदलाव
करना एक स्वस्थ समाज
की निशानी है।
- जैसे हम संविधान में
संशोधन चाहते हैं, वैसे ही धर्म और
उसकी प्रथाओं में भी आवश्यकता पड़ने
पर बदलाव किया जाना चाहिए।
- वक़्फ बोर्ड और अन्य व्यवस्थाओं
में जो सुधार की
मांग उठती है, उसी तरह हमें अपनी परंपराओं में भी सुधार पर
विचार करना चाहिए।
3. पाखंड
और आचरण:
अगर कोई व्यक्ति धर्म के नाम पर
मांस या मदिरा सेवन
करता है और खुद
को उच्च समझता है, तो यह उसकी
गलतफहमी है। असली श्रेष्ठता हमारे आचरण और हमारे योगदान
से निर्धारित होती है।
4. धर्म
में सुधार का महत्व:
- हमारे ऋषि-मुनियों ने भी समय-समय पर समाज को
सही दिशा में ले जाने के
लिए बदलाव किए।
- वर्तमान युग में भी जरूरत है
कि हम अपनी सोच
में लचीलापन लाएं और समय के
साथ अनुकूल बदलाव करें।
5. समाज
में एकता:
संकीर्ण मानसिकता और पुरानी सोच
छोड़कर यदि हम धर्म को
उसके मूल सिद्धांतों—सत्य, अहिंसा, करुणा, और एकता—के
आधार पर अपनाएं, तो
समाज और धर्म दोनों
मजबूत होंगे।
निष्कर्ष:
समय
के साथ बदलाव और सुधार ही
किसी संस्कृति और धर्म को
जीवंत और प्रासंगिक बनाए
रखते हैं। सनातन धर्म की शक्ति उसके
व्यापक दृष्टिकोण और समग्रता में
निहित है। इसे मजबूत बनाने के लिए जरूरी
है कि हम भेदभाव
को समाप्त करें और हर व्यक्ति
को उसके कर्म और गुणों के
आधार पर देखें।
यह
विचारधारा न केवल सनातन
धर्म को मजबूत करेगी
बल्कि एकता और सहिष्णुता का
भी उदाहरण बनेगी।
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