मनुष्य का जीवन उसकी शारीरिक एवं प्राणिक सत्ता में नहीं, अपितु उसकी मानसिक एवं आध्यात्मिक सत्ता में भी आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और कामनाओं का है।
जब उसे ज्ञान होता है कि एक महत्तर शक्ति संसार को संचालित कर रही है, तब वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, अपनी विषम यात्रा में सहायता के लिए, अपने संघर्ष में रक्षा के लिए आय प्राप्त करने के लिए प्रार्थना द्वारा उसकी शरण लेता है।
प्रार्थना द्वारा भगवान की ओर साधारण धार्मिक पहुंच, अपने को ईश्वर की ओर मोड़ देने के लिए यह हमारी प्रार्थनारूपी विधि हमारी धार्मिक सत्ता का मौलिक प्रयत्न है, और एक सार्वभौम सत्य पर स्थित है- भले ही इसमें कितनी भी अपूर्णताएं हों और सचमुच अपूर्णताएं हैं भी।
प्रार्थना के प्रभाव को प्रायः संदेह की दृष्टि से देखा जाता है और स्वयं प्रार्थना निरर्थक तथा निष्फल समझी जाती है। वैश्व संकल्प सदैव अपने लक्ष्य को ही कार्यान्वित करता है। वह सर्वज्ञ होने के कारण अपने वृहत्तर ज्ञान से कर्तव्य पहले ही जान लेता है, परंतु यह व्यवस्था यांत्रिक नियम से नहीं, बल्कि कुछ शक्तियों एवं बलों के द्वारा कार्यान्वित होती है।
यह मानव संकल्प, अभीप्सा और श्रद्धा का एक विशेष रूप मात्र है। प्रारंभ में प्रार्थना निम्न स्तर भी हमारे सबंध को तैयार करने में सहायता पहुंचाती है। मुख्य वस्तु इस प्रकार का साक्षात संबंध, मनुष्य का ईश्वर से संपर्क, सचेतक आदान-प्रदान न कि पार्थिव वस्तु की प्राप्ति।
अपनी मानसिक रचना के निर्माण के बाद यदि व्यक्ति अपने को 'ईश कृपा' पर समर्पित कर देता है, और इसमें भरोसा रखता है, तो उसको अवश्य ही सफलता मिलेगी। यदि कोई ईश्वर की कृपा का मात्र आह्वान करता है, तो अपने को उसके हाथों में सौंप देता है, तो वह विशेष अपेक्षा नहीं करता।
प्रार्थना को सूत्रबद्ध करके किसी वस्तु के लिए निवेदन करना होगा। व्यक्ति को यह सवाल नहीं करना चाहिए। यदि सचाई के साथ सच्ची आंतरिक भावना के साथ याचना की जाए तो संभव है- वह स्वीकृत हो जाए।
जब उसे ज्ञान होता है कि एक महत्तर शक्ति संसार को संचालित कर रही है, तब वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, अपनी विषम यात्रा में सहायता के लिए, अपने संघर्ष में रक्षा के लिए आय प्राप्त करने के लिए प्रार्थना द्वारा उसकी शरण लेता है।
प्रार्थना द्वारा भगवान की ओर साधारण धार्मिक पहुंच, अपने को ईश्वर की ओर मोड़ देने के लिए यह हमारी प्रार्थनारूपी विधि हमारी धार्मिक सत्ता का मौलिक प्रयत्न है, और एक सार्वभौम सत्य पर स्थित है- भले ही इसमें कितनी भी अपूर्णताएं हों और सचमुच अपूर्णताएं हैं भी।
यह मानव संकल्प, अभीप्सा और श्रद्धा का एक विशेष रूप मात्र है। प्रारंभ में प्रार्थना निम्न स्तर भी हमारे सबंध को तैयार करने में सहायता पहुंचाती है। मुख्य वस्तु इस प्रकार का साक्षात संबंध, मनुष्य का ईश्वर से संपर्क, सचेतक आदान-प्रदान न कि पार्थिव वस्तु की प्राप्ति।
अपनी मानसिक रचना के निर्माण के बाद यदि व्यक्ति अपने को 'ईश कृपा' पर समर्पित कर देता है, और इसमें भरोसा रखता है, तो उसको अवश्य ही सफलता मिलेगी। यदि कोई ईश्वर की कृपा का मात्र आह्वान करता है, तो अपने को उसके हाथों में सौंप देता है, तो वह विशेष अपेक्षा नहीं करता।
प्रार्थना को सूत्रबद्ध करके किसी वस्तु के लिए निवेदन करना होगा। व्यक्ति को यह सवाल नहीं करना चाहिए। यदि सचाई के साथ सच्ची आंतरिक भावना के साथ याचना की जाए तो संभव है- वह स्वीकृत हो जाए।
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