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भारत में भगवान शिव की उपासना उतनी ही पुरानी है, जितनी पुरानी भारतीय सभ्यता है।
संभवत: भारत में जब सभ्यता का श्रीगणेश नहीं हुआ था तब भी शिव की उपासना की जाती थी।
मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई से इस बात के प्रमाण मिले हैं कि उस प्रागैतिहासिक युग में भगवान शिव की उपासना एवं आराधना प्रचलित थी।
शिव एक ऐसे देवता हैं जो योगी और भोगी, राजा और रंक, सभ्य और वनवासी सभी के आराध्य देव बन गए।
यहां तक कि वे पशुओं का पालन करने वाले, जंगल के निवासियों के ‘पशुपतिनाथ’ के रूप में आराध्य देव बने तो कर्मकांडी शास्त्रियों ने उनकी ‘महादेव’ के रूप में वंदना की।
शतपथ ब्राह्मण तथा कौशीतकि ब्राह्मण में भगवान शिव के आठ स्वरूपों का उल्लेख है-
भव, पशुपति, महादेव, ईशान, शर्व, रुद्र, उग्र एवं अशनि।
पर शिव के इन आठ स्वरूपों में पशुपतिनाथ के स्वरूप को दर्शाने वाली संभवत: दो ही प्रतिमाएं हैं।
ये दोनों ही प्रतिमाएं पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध हैं।
इनमें से एक प्रतिमा है-नेपाल की राजधानी काठमांडू में तथा
दूसरी है म.प्र. के मंदसौर नामक कस्बे में।
मंदसौर की इस प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण मालव सम्राट यशोवर्मन ने आक्रांता हूणों को पराजित करने के उपलक्ष्य में किया था।
पुराणों में उल्लेख
नेपाल के पशुपतिनाथ के संबंध में पुराणों में भी उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख के अनुसार एक बार पांडव, केदारनाथ में भगवान शिव के दर्शन के लिए गए। भगवान शिव ने पांडवों को अपने ही सगोत्रियों की हत्या का दोषी माना एवं दर्शन देना अस्वीकार कर दिया। पांडव भगवान शिव की आराधना एवं उनका पीछा करते रहे। पांडवों से पीछा छुड़ाने के लिए भगवान शिव ने भैसें (महिष) का रूप धारण किया और पृथ्वी के भीतर घुसने लगे। पांडवों ने इस महिष की पूंछ पकड़ ली पर तब तक भगवान शिव पृथ्वी के भीतर घुस चुके थे।
उनका मुख रुद्रनाथ में, बांहें तुंगनाथ में, नाभि मदमहेश्वर में, जटा कल्पेशवर में तथा मस्तक बागमती नदी के दाएं किनारे पर स्थित कांतिपुर में प्रकट हुआ। यह कांतिपुर ही आज काठमांडू के नाम से जाना जाता है। काठमांडू नामकरण होने का कारण यह बताया जाता है कि इस शहर के मध्य में एक ही लकड़ी का एक विशाल काष्ठमंडप था। यह ‘काष्ठमंडप’ कालांतर में काठमांडू कहलाने लगा।
काठमांडू में निॢमत भगवान पशुपतिनाथ का यह मंदिर पैगोडा शैली में है। पशुपतिनाथ का यह विशाल मंदिर, चारों ओर से छोटे-छोटे मंदिरों और धर्मशालाओं से घिरा हुआ है। इस मंदिर के चार द्वार हैं। मंदिर में प्रवेश करते ही विशाल प्रांगण दिखाई पड़ता है। मंदिर के द्वार चांदी के हैं। प्रांगण में कई हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं तथा त्रिशूल की आकृतियां स्थापित हैं।
पशुपतिनाथ के मुख्य मंदिर के अहाते में नंदी की विशाल प्रतिमा है। मंदिर के शिखर सोने के बताए जाते हैं। मुख्य मंदिर नेपाली एवं भारतीय स्थापत्य कला का एक सर्वश्रेष्ठ प्रतीक कहा जा सकता है।
मंदिर में स्थापित भगवान शिव की प्रतिमा लगभग साढ़े तीन फुट ऊंची है। परिक्रमा एवं पूजन के लिए मंदिर में पर्याप्त स्थान है। भगवान पशुपतिनाथ की पूजा रुद्राक्ष एवं कमल-पुष्पों से की जाती है।
पशुपतिनाथ में आस्थावानों (मुख्य रूप से हिंदुओं) को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की अनुमति है। गैर हिंदू आगंतुकों बागमती नदी के दूसरे किनारे से इसे बाहर से देखने की अनुमति है।
यह मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है।
भारत में भगवान शिव की उपासना उतनी ही पुरानी है, जितनी पुरानी भारतीय सभ्यता है।
संभवत: भारत में जब सभ्यता का श्रीगणेश नहीं हुआ था तब भी शिव की उपासना की जाती थी।
मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई से इस बात के प्रमाण मिले हैं कि उस प्रागैतिहासिक युग में भगवान शिव की उपासना एवं आराधना प्रचलित थी।
शिव एक ऐसे देवता हैं जो योगी और भोगी, राजा और रंक, सभ्य और वनवासी सभी के आराध्य देव बन गए।
यहां तक कि वे पशुओं का पालन करने वाले, जंगल के निवासियों के ‘पशुपतिनाथ’ के रूप में आराध्य देव बने तो कर्मकांडी शास्त्रियों ने उनकी ‘महादेव’ के रूप में वंदना की।
शतपथ ब्राह्मण तथा कौशीतकि ब्राह्मण में भगवान शिव के आठ स्वरूपों का उल्लेख है-
भव, पशुपति, महादेव, ईशान, शर्व, रुद्र, उग्र एवं अशनि।
पर शिव के इन आठ स्वरूपों में पशुपतिनाथ के स्वरूप को दर्शाने वाली संभवत: दो ही प्रतिमाएं हैं।
ये दोनों ही प्रतिमाएं पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध हैं।
इनमें से एक प्रतिमा है-नेपाल की राजधानी काठमांडू में तथा
दूसरी है म.प्र. के मंदसौर नामक कस्बे में।
मंदसौर की इस प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण मालव सम्राट यशोवर्मन ने आक्रांता हूणों को पराजित करने के उपलक्ष्य में किया था।
पुराणों में उल्लेख
नेपाल के पशुपतिनाथ के संबंध में पुराणों में भी उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख के अनुसार एक बार पांडव, केदारनाथ में भगवान शिव के दर्शन के लिए गए। भगवान शिव ने पांडवों को अपने ही सगोत्रियों की हत्या का दोषी माना एवं दर्शन देना अस्वीकार कर दिया। पांडव भगवान शिव की आराधना एवं उनका पीछा करते रहे। पांडवों से पीछा छुड़ाने के लिए भगवान शिव ने भैसें (महिष) का रूप धारण किया और पृथ्वी के भीतर घुसने लगे। पांडवों ने इस महिष की पूंछ पकड़ ली पर तब तक भगवान शिव पृथ्वी के भीतर घुस चुके थे।
उनका मुख रुद्रनाथ में, बांहें तुंगनाथ में, नाभि मदमहेश्वर में, जटा कल्पेशवर में तथा मस्तक बागमती नदी के दाएं किनारे पर स्थित कांतिपुर में प्रकट हुआ। यह कांतिपुर ही आज काठमांडू के नाम से जाना जाता है। काठमांडू नामकरण होने का कारण यह बताया जाता है कि इस शहर के मध्य में एक ही लकड़ी का एक विशाल काष्ठमंडप था। यह ‘काष्ठमंडप’ कालांतर में काठमांडू कहलाने लगा।
काठमांडू में निॢमत भगवान पशुपतिनाथ का यह मंदिर पैगोडा शैली में है। पशुपतिनाथ का यह विशाल मंदिर, चारों ओर से छोटे-छोटे मंदिरों और धर्मशालाओं से घिरा हुआ है। इस मंदिर के चार द्वार हैं। मंदिर में प्रवेश करते ही विशाल प्रांगण दिखाई पड़ता है। मंदिर के द्वार चांदी के हैं। प्रांगण में कई हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं तथा त्रिशूल की आकृतियां स्थापित हैं।
पशुपतिनाथ के मुख्य मंदिर के अहाते में नंदी की विशाल प्रतिमा है। मंदिर के शिखर सोने के बताए जाते हैं। मुख्य मंदिर नेपाली एवं भारतीय स्थापत्य कला का एक सर्वश्रेष्ठ प्रतीक कहा जा सकता है।
मंदिर में स्थापित भगवान शिव की प्रतिमा लगभग साढ़े तीन फुट ऊंची है। परिक्रमा एवं पूजन के लिए मंदिर में पर्याप्त स्थान है। भगवान पशुपतिनाथ की पूजा रुद्राक्ष एवं कमल-पुष्पों से की जाती है।
पशुपतिनाथ में आस्थावानों (मुख्य रूप से हिंदुओं) को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की अनुमति है। गैर हिंदू आगंतुकों बागमती नदी के दूसरे किनारे से इसे बाहर से देखने की अनुमति है।
यह मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है।
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