मानव और गाय - यह कैसा रिश्ता

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मानव और गाय - यह कैसा रिश्ता?...
खूँटेसे बँधे हुए बछ्ड़ेको मानवने बन्धन-विमुक्त किया। उसने दौड़कर अपनी माँके थन मुँहमें लिये। गायका वात्सल्य-स्त्रोत उमड़ पड़ा और दुग्ध-धारा बछड़ेके मुखमें पड़ने लगी।

इने-गिने क्षण ही बछड़ेको स्तन-पान करते हुए बीते होंगे कि अपनेको दक्ष एवं कर्म-तत्पर माननेवाले मानवने उसकी रस्सी खींचकर पुन: उसे खूँटेसे बाँध दिया। उसकी जननी तड़प उठी। उसने दौड़कर उसके पास जाना चाहा; पर स्वयं भी खूँटेसे बँधी थी। जा न सकी। मन मारकर बेचारी विवश नेत्रोंसे अपने लालाको निहारती रह गई।

इधर मानव अपनेपर...,अपनी करनीपर, अपनी बुद्धिमता पर एवं शक्ति-सम्पन्नता पर गर्व करते हुए दुहनी लेकर गायका दूध दुहने बैठा। सहनशीलताली मूर्ति, करुणाकी मूर्ति गायने किंचिन्मात्र भी विरोध न कर उसके पात्रको दुग्ध से भर दिया।

अपनी मानवतापर गर्व करते हुए मानवने पुन: बछ्ड़े को बन्धन-विमुक्त कर दिया-दुही गायके थन चूसनेमात्रके लिये। गायको भी माता कह, एक-दो हाथ उसके पीठ और गलेपर फेरकर इस युक्ति-विशारदसे उसे (अपनी समझमें) बहला-फुसला दिया।

पर यहीं मानव भूल में था। भोली गाय बहली-फुसली नहीं थी, वरन् उसका भोलापन...उसका सीधापन उस मानवको वह अन्तिम सारभूत तथ्य अवगत करा गया था, जिसे खोज निकालने का श्रेय मानव स्वयं लेता है। ‘सबमें एक आत्मा है, सब एक ही हैं’- इस भावना से विभोर होते हुए उस गाय ने मानवको अपना पुत्र मान लिया और सहज-भावसे,प्रसन्न-मनसे, अपने बछड़ेके भूखा रखते हुए भी वह उसे दूध पिलाने, पिला-पिलाकर पालने-पोसने लगी।

लेकिन सारभूत तत्वकी खोज करनेवाला..उसे खोज निकालनेवाला...उसका दिगिदगन्तमें प्रचार-प्रसार करनेवाला मानव स्वयं उस तत्वको हृदयंगम न कर सका, उसे अपनेमें रचा-पचा न सका। गायको माता कहकर भी वह उसके बछड़ेको अपना छोटा भाई न समझ सका। उसके पेट भर लेनेपर भी दूध दुहन उसे स्वीकार नहीं हुआ।

इतना भी होता तो गनीमत थी, पर मानव तो आज ऐसी करुणामयी गाय- अपनी माताके ही वधपर ही उतारु है? हाय! हाय ! यह कैसा रिश्ता है माँ-बेटेका। यह कैसी मानवता है? अरे मानव ! तुझे ऐसा करते हुए शर्म नहीं आती?

-श्रीहरिकृष्णदासजी गुप्त ’सियहरि’ ("कल्याण" वर्ष ६९ संख्या ७)
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