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Monday, October 3, 2011

स्वाध्याय हो जीवन का लक्ष्य पुण्यकर्मों से मिलता है मानव जीवन


आग है लेकिन यह ऐसी आग है जो दिखाई नहीं देती जिसका धुआं भी दिखाई नहीं देता। जो आग दिखाई देती है उसको बुझाना सरल है लेकिन जो दिखाई नहीं देता। 

उस ईर्ष्या रूपी आग को किस प्रकार बुझाया जाए यह बहुत विकट प्रश्न है। इसके लिए प्राणिमात्र के प्रति सौहार्द, प्रेम, जन कल्याण की भावना पैदा करनी होगी। दुख का सबसे बड़ा कारण यह है कि मनुष्य अपने घर का देखकर उतना प्रसन्न नहीं होता, जितना दूसरों के घर को जलते देख प्रसन्न होता है। यही ईर्ष्या है। जहां ईर्ष्या का निवास है वहां ईश्वर भक्ति नहीं पनप सकती। 

जीवन का उद्देश्य नहीं है, केवल खाना-पीना।
जीवन का उद्देश्य है जग में, जगना और जगाना।
जगने और जगाने का मतलब है संसार के लोगों को ईश्वरोन्मुख करना। यह कार्य वही कर सकता है जिसे ब्रह्म की अनुभूति हो और जिसमें सेवा समर्पण और परोपकार का भाव हो :- 

खुद कमाओ, खुद खाओ- यह मानव की प्रकृति है।
कमाओ नहीं, छीनकर खाओ- यह मानव की विकृति है।
खुद कमाओ, दूसरों को खिलाओ- यही हमारी संस्कृति है।

मानव जीवन की सफलता के लिए समय का सदुपयोग करें। दौलत से रोटी मिल सकती है पर भूख नहीं। दौलत से बिस्तर मिल सकते हैं, पर नींद नहीं। दौलत से गीता की पुस्तक मिल सकती है पर ज्ञान नहीं। दौलत से मंदिर मिल सकता है पर भगवान नहीं। आश्चर्य की बात है कि रुपए बर्बाद होने पर आज के मनुष्य को उसका दुख तो होता है। परंतु व्यर्थ ही इधर-उधर की बातों में समय को बर्बाद करने पर उसको दु
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