जाति-मज़हब के नाम पर,
हैवान बन गए इंसान,
मर्यादा भूले रिश्तों की,
करते फिरें अपमान।
तो बताओ ज़रा, कैसा है ये धर्म?
जो बाँट दे दिलों को, वो कैसा कर्म?
कहीं मंदिर जले, कहीं मस्जिद टूटी,
इंसानियत की साँसे छूटी।
ना राम ने कहा, ना रहीम ने सिखाया,
नफ़रत का धर्म किसने बनाया?
कहीं नाम पर जाति की तलवार,
कहीं मज़हब के नाम पर वार।
जो जोड़ न पाए, वो तो जहर है,
धर्म तो वही जो सबमें असर है।
बोलो नफ़रत से क्या मिला है?
टूटा घर, टूटा देश का किला है।
प्रेम से जो जीते दिलों को,
बस वही सच्चा साधु मिला है।
जात-पात, मज़हब की दीवारें गिराओ,
इंसान को पहले इंसान बनाओ।
जिसके कर्म में करुणा हो,
बस वही सच्चा धर्म कहलाए।
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