नागा बाबाओं की रहस्‍यमय दुनिया की रोचक जानकारियां

कुम्भ मेले में शैवपंथी नागा साधुओं को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है। नागा साधुओं की रहस्यमय जीवन शैली और दर्शन को जानने के लिए विदेशी श्रद्धालु ज्यादा उत्सुक रहते हैं। कुम्भ के सबसे पवित्र शाही स्नान में सबसे पहले स्नान का अधिकार इन्हें ही मिलता है।

नागा साधुओं का अद्भुत रूप : नागा साधु अपने पूरे शरीर पर भभूत मले, निर्वस्त्र रहते हैं। उनकी बड़ी-बड़ी जटाएं भी आकर्षण का केंद्र रहती है। हाथों में चिलम लिए और चरस का कश लगते हुए इन साधुओं को देखना अजीब लगता है।

मस्तक पर आड़ा भभूत लगा तीनधारी तिलक लगा कर धूनी रमा कर, नग्न रह कर और गुफाओं में तप करने वाले नागा साधुओं का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में भी मिलता है। यह साधु उग्र स्वभाव के होते हैं।
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कुंभ के बाद कहां चले जाते हैं नागा बाबा?

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कुंभ, अर्धकुंभ और महाकुंभ आते ही लाखों की संख्या में आपको नागा बाबा डुबकी लगाते हुए दिखाई दे जाएंगे। लेकिन, कभी किसी ने सोचा है कि नागा बाबा कहां से आते हैं और कहां चले जाते हैं?

17 श्रृंगार की हुई संयम से बंधी निर्वस्‍त्र साधुओं की फौज को देखना अद्भुत है। यह नजारा आपको कुंभ के अलावा और कहां नजर आएगा? इन साधुओं को वनवासी संन्यासी कहा जाता है। दरअसल यह कुंभ के अलावा कभी भी सार्वजनिक जीव में दिखाई नहीं देते क्योंकि ये या तो अपने अखाड़े (आश्रम) के भीतर ही रहते हैं या हिमालय की गुफा में या फिर अकेले ही देशभर में पैदल ही घुमते रहते हैं।

जो चले जाते हैं हिमालय : कुंभ के समाप्त होने के बाद अधिकतर साधु अपने शरीर पर भभूत लपेट कर हिमालय की चोटियों के बीच चले जाते हैं। वहां यह अपने गुरु स्थान पर अगले कुंभ तक कठोर तप करते हैं। इस तप के दौरान ये फल-फूल खाकर ही जीवित रहते हैं।

12 साल तक कठोर तप करते वक्‍त उनके बाल कई मीटर लंबे हो जाते हैं। और ये तप तभी संपन्‍न होता है, जब ये कुंभ मेले के दौरान गंगा में डुबकी लगाते हैं। जी हां कहा जाता है कि गंगा स्नान के बाद ही एक नागा साधु का तप खत्म होता है।

त्रिशूल, शंख, तलवार और चिलम धारण किए ये नागा साधु धूनी रमाते हैं। यह शैवपंथ के कट्टर अनुयायी और अपने नियम के पक्के होते हैं। इनमें से कई सिद्ध होते हैं तो कई औघड़।
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कुंभ मेला : 'अमृत मंथन'

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भारत के नाट्‌य शास्त्र में जिन नाटकों के मंचन का उल्लेख मिलता है उनमें 'अमृत मंथन' सर्वप्रथम गिना जाता है। भारतीय नाटक देवासुर-संग्राम की पृष्ठभूमि में जन्मा, इसे जानने के बाद कुंभ का महत्व और बढ़ जाता है और प्राचीनता भी अधिक सिद्ध होती है।

'अमृत मंथन' के अभिनय से पूर्व कुंभ-स्थापन का उल्लेख भरत ने किया है पर वह पूजा के अंग रूप में ग्रहण किया गया है। 'अमृत कुंभ' से उसका सीधा संबंध नहीं है, किन्तु कुंभ की कल्पना अवश्य उससे सम्बद्ध मानी जा सकती है।

कुम्भं सलिल-सम्पूर्ण पुष्पमालापुरस्कृत्‌म।
स्थापयेद्रंगमध्ये तु सुवर्ण चात्र दापयेत्‌
एवं तु पूजनं कृत्वा मया प्रोक्तः पितामहः।
आज्ञापय विभौ क्षिप्रं कः प्रयोगाः प्रयुज्यताम्‌।
सचेतनो स्म्युक्तो भगवता योजयामृतमंथनम्‌ एतदुत्साहजननं सुरप्रीतिकरः तथा

अर्थः-रंगपीठ के मध्य में पुष्पमालाओं से सज्जित जल से पूर्ण कुंभ स्थापित करना चाहिए और उसके भीतर स्वर्ण डालना चाहिए।

इस प्रकार पूजन करके मैंने ब्रह्मा से कहा- 'हे वैभवशाली, शीघ्र आज्ञा प्रदान करें कि कौन-सा नाटक खेला जाए। तब भगवान ब्रह्मा द्वारा मुझसे कहा गया-'अमृत मंथन का अभिनय करो। यह उत्साह बढ़ाने वाला तथा देवताओं के लिए हितकर है।

वह नाट्‌य-प्रकार 'समवकार' कहलाता था और भरत द्वारा उसका अभिनय धर्म और अर्थ को सिद्ध करने वाला माना गया है। देवताओं के साथ शंकर की अभ्यर्थना भी की गई। 'अमृत मंथन' से इस प्रकार ब्रह्मा-विष्णु-महेश की एकता और देवताओं की प्रसन्नता अभीष्ट रही, जो आज तक चली आ रही है।

'त्रिपुरा-दाह' का अभिनय 'अमृत मंथन' के बाद हुआ, भरत मुनि के इस कथन से 'अमृत मंथन' की कथा व महत्ता और बढ़ जाती है। नाट्‌यवेद की रचना जम्बूद्वीप के भरत खण्ड में पंचम वेद के रूप में मानी गई, क्योंकि शूद्र जाति द्वारा वेद का व्यवहार उनके समय निषिद्ध माना जाता था।

यह पांचवां वेद सब वर्णों के लिए रचा गया, क्योंकि भरत शूद्र जाति को भी अधिकार सम्पन्न बनाना चाहते थे, साथ ही अन्य वर्णों का भी उन्हें ध्यान था। 'सार्ववर्णिकम्‌' शब्द इसलिए महत्वपूर्ण है।

यथा-
न वेदव्यवहारों यं संश्रव्यं शूद्रजातिषु।
तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सार्ववर्णिकम्‌।

कुंभ का महत्व भी इसी प्रकार सभी वर्णों के समन्वित है। किसी वर्ण का गंगा स्नान अथवा कुंभ-स्नान में निषेध नहीं है। वर्णेत्तर लोग भी स्नान करते रहे हैं।

विष्णु के चरणों से चौथे वर्ण की उत्पत्ति मानी गई है और गंगा भी विष्णु के चरणों से निकली हैं ऐसी पौराणिक मान्यता है। दोनों का विशेष संबंध सांस्कृतिक दृष्टि से उपकारक एवं प्रेरक सिद्ध होगा। इस प्रकार कुंभ हर प्रकार के भेदभाव का निषेध करता है।
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श्री हनुमान चालीसा

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आज मंगलवार है महावीर का वार है, ये सच्चा दरबार है सचे मन सो जो कोइ ध्यावे उसका बेड़ा पार है.

श्री हनुमान चालीसा |

दोहा-ॐ श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुरु सुधारी ||
बनरऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायकु फल चारी ||
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरों पवन कुमार ||
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस विकार ||
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर | जय कपीस तिहूँ लोक उजागर ||
रामदूत अतुलित बल धामा | अंजनी पुत्र पवनसुत नामा ||
महावीर विक्रम बजरंगी | कुमति निवार सुमति के संगी ||
कंचन बरन विराज सुबेसा | कानन कुण्डल कुंचित केसा ||
हाथ बज्र औ ध्वजा विराजे | काँधे मूँज जनेऊ साजे ||
संकर सुवन केसरीनंदन | तेज प्रताप महा जग बन्दन ||
विद्यावान गुनी अति चातुर | राम काज करिबे को आतुर ||
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया | राम लखन सीता मन बसिया ||
सूक्ष्म रूप धरी सियहिं दिखावा | विकट रूप धरि लंक जरावा ||
भीम रूप धरि असुर सँहारे | रामचंद्र के काज सँवारे ||
लाय संजीवन लखन जियाये | श्री रघुवीर हरषि उर लाये ||
रघुपति किन्ही बहुत बड़ाई | तुम मम प्रिय भरतही सम भाई ||
सहस बदन तुम्हरो जस गावें | अस कही श्रीपति कठ लगावें ||
सनकादिक ब्रह्मादी मुनीसा | नारद सारद सहित अहीसा ||
जम कुबेर दिकपाल जहाँ ते | कवि कोविद कही सके कहाँ ते ||
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा | राम मिलाय राजपद दीन्हा ||
तुम्हरो मन्त्र विभीसन माना | लंकेस्वर भये सब जग जाना ||
जुग सहस जोजन पर भानु | लील्यो ताहि मधुर फल जानू ||
प्रभु मुद्रिका मेली मुख माहि | जलधि लांघी गये अचरज नाही ||
दर्गम काज जगत के जेते | सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ||
राम दुआरे तुम रखवारे | होत न आज्ञा बिनु पैसारे ||
सब सुख लहें तुम्हारी सरना | तुम रक्षक काहू को डरना ||
आपन तेज सम्हारो आपे | तीनो लोक हाँक ते काँपे ||
भूत पिशाच निकट नहि आवे | महावीर जब नाम नाम सुनावे ||
नासे रोग हरि सब पीरा | जपत निरंतर हनुमत बीरा ||
संकट ते हनुमान छुडावे | मन क्रम वचन ध्यान जो लावे ||
सब पर राम तपस्वी राजा | तिन के काज सकल तुम साजा ||
और मनोरथ जो कोई लावे | सोई अमित जीवन फल पावे ||
चारों जुग प्रताप तुम्हारा | हें परसिद्ध जगत उजियारा ||
साधु संत के तुम रखवारे | असुर निकन्दन राम दुलारे ||
अस्ट सिद्धि नों निधि के दाता | अस बर दीन जानकी माता ||
राम रसायन तुम्हरे पासा | सदा रहो रघुपति के दासा ||
तुम्हरे भजन राम को पावे | जनम जनम के दुःख बिसरावे ||
अन्त काल रघुवर पुर जाई | जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ||
और देवता चित्त न धरई | हनुमत सेई सर्ब सुख करई ||
संकट कटे मिटे सब पीरा | जो सुमिरे हनुमत बलबीरा ||
जे जे जे हनुमान गोसाई | कृपा कहु गुरुदेव की नाई ||
जो सत बार पाठ कर कोई | छुटेहि बंदि महा सुख होई ||
जो यह पड़े हनुमान चालीसा | होई सिद्धि साखी गोरिसा ||
तुलसीदास सदा हरि चेरा | कीजे नाथ ह्रदय महँ डेरा ||
पवन तनय संकट हरण, मंगल मूरति रूप ||
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ||

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अपमान Insult


एक समय की बात है। चाणक्य अपमान भुला नहीं पा रहे थे। शिखा की खुली गांठ हर पल एहसास कराती कि धनानंद के राज्य को शीघ्राति शीघ्र नष्ट करना है। चंद्रगुप्त के रूप में एक ऐसा होनहार शिष्य उन्हें मिला था जिसको उन्होंने बचपन से ही मनोयोग पूर्वक तैयार किया था।

अगर चाणक्य प्रकांड विद्वान थे तो चंद्रगुप्त भी असाधारण और अद्भुत शिष्य था। चाणक्य बदले की आग से इतना भर चुके थे कि उनका विवेक भी कई बार ठीक से काम नहीं करता था।

चंद्रगुप्त ने लगभग पांच हजार घोड़ों की छोटी-सी सेना बना ली थी। सेना लेकर उन्होंने एक दिन भोर के समय ही मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। चाणक्य, धनानंद की सेना और किलेबंदी का ठीक आकलन नहीं कर पाए और दोपहर से पहले ही धनानंद की सेना ने चंद्रगुप्त और उसके सहयोगियों को बुरी तरह मारा और खदेड़ दिया।

चंद्रगुप्त बड़ी मुश्किल से जान बचाने में सफल हुए। चाणक्य भी एक घर में आकर छुप गए। वह रसोई के साथ ही कुछ मन अनाज रखने के लिए बने मिट्टी के निर्माण के पीछे छुपकर खड़े थे। पास ही चौके में एक दादी अपने पोते को खाना खिला रही थी।

दादी ने उस रोज खिचड़ी बनाई थी। खिचड़ी गरमा-गरम थी। दादी ने खिचड़ी के बीच में छेद करके गरमा-गरम घी भी डाल दिया था और घड़े से पानी भरने गई थी। थोड़ी ही देर के बाद बच्चा जोर से चिल्ला रहा था और कह रहा था- जल गया, जल गया।

दादी ने आकर देखा तो पाया कि बच्चे ने गरमा-गरम खिचड़ी के बीच में अंगुलियां डाल दी थीं।

दादी बोली- 'तू चाणक्य की तरह मूर्ख है, अरे गरम खिचड़ी का स्वाद लेना हो तो उसे पहले कोनों से खाया जाता है और तूने मूर्खों की तरह बीच में ही हाथ डाल दिया और अब रो रहा है...।'

चाणक्य बाहर निकल आए और बुढ़िया के पांव छूए और बोले- आप सही कहती हैं कि मैं मूर्ख ही था तभी राज्य की राजधानी पर आक्रमण कर दिया और आज हम सबको जान के लाले पड़े हुए हैं।

चाणक्य ने उसके बाद मगध को चारों तरफ से धीरे-धीरे कमजोर करना शुरू किया और एक दिन चंद्रगुप्त मौर्य को मगध का शासक बनाने में सफल हुए।

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स्वयं के सेवक own servants

दूसरों के नहीं स्वयं के सेवक बनो !!!

एक जज साहब कार में जा रहे थे, अदालत की ओर। मार्ग में देखा कि एक कुत्ता नाली में फंसा हुआ है। जीने की इच्छा है, किंतु प्रतीक्षा है कि कोई आए और उसे कीचड़ से बाहर निकाल दे। जज साहब ने कार रुकवाई और पहुंचे उस कुत्ते के पास। उनके दोनों हाथ नीचे झुक गए और कुत्ते को निकाल कर सड़क पर खड़ा कर दिया। सेवा वही कर सकता है जो झुकना जानता है।

बाहर निकलते ही कुत्ते ने जोर से सारा शरीर हिलाया और पास खड़े जज साहब के कपड़ों पर ढेर सारा कीचड़ लग गया। सारे कपड़ों पर कीचड़ के धब्बे लग गए। किंतु जज साहब घर नहीं लौटे। उन्हीं वस्त्रों में पहुंच गए अदालत में। सभी चकित हुए, किंतु जज साहब के चेहरे पर अलौकिक आनंद की आभा थी।

वे शांत थे। लोगों के बार-बार पूछने पर बोले, मैंने अपने हृदय की तड़पन मिटाई है, मुझे बहुत शांति मिली है। वास्तव में दूसरे की सेवा करने में हम अपनी ही वेदना मिटाते हैं। दूसरों की सेवा हम कर ही नहीं सकते। वे तो मात्र निमित्त बन सकते हैं। उन निमित्तों के सहारे हमें अपने अंतरंग में उतरना होता है, यही सबसे बड़ी सेवा है।

वास्तविक सुख स्वावलंबन में है। आपको शायद याद होगा, उस हाथी का किस्सा जो दलदल में फंस गया था। वह जितना प्रयास करता उतना अधिक धंसता जाता। बाहर निकलने का एक ही मार्ग था कि कीचड़ सूर्य की धूप में सूख जाए। इसी तरह आप भी संकल्पों - विकल्पों के दलदल में फंस रहे हो। अपनी ओर देखने का अभ्यास करो, अपने आप ही ज्ञान की किरणों से यह मोह की कीचड़ सूख जाएगी।

बस अपनी सेवा में जुट जाओ, अपने आपको कीचड़ से बचाने का प्रयास करो।

महावीर ने यही कहा है, 'सेवक बनो स्वयं के।' और खुदा ने भी यही कहा है, 'खुद का बंदा बन।' एक सज्जन जब भी आते हैं , एक अच्छा शेर सुना कर जाते हैं। हमें याद हो गया है :

अपने दिल में डूब कर पा ले सुरागे जिंदगी।
तू अगर मेरा नहीं बनता , न बन , अपना तो बन।।

सेवक मत बनो , स्वयं के सेवक बनो। भगवान के सेवक भी स्वयं के सेवक नहीं बन पाते। खुदा का बंदा बनना आसान है , किंतु खुद का बंदा बनना कठिन है। खुद के बंदे बनो। भगवान की सेवा हम और आप क्या कर सकेंगे , वे तो निर्मल और निराकार हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में अकेले जीने की बात को आत्मविकास का प्रयास माना जाता है , क्योंकि वहां यही चिंतन शेष रहता है कि व्यक्ति अकेला जनमता है , अकेला मरता है। यहां कोई अपना - पराया नहीं। सुख - दुख भी स्वयं द्वारा कृत कर्मों का फल है। क्यों किसी के लिए जीएं ?
सामाजिक दृष्टि से सबके लिए जीने को तत्पर बने।
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जगत में सबसे सुंदर अपना आत्मस्वरूप

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व्यक्ति थोड़ा सा रूप क्या पा लेता है, आकाश में उड़ने लगता है । रूप के घमंड में इतराकर बातें करना शुरू कर देता है । उसके पैर धरती पर नहीं पड़ते हैं । मेरे जैसा रूप तो किसी का ही नहीं । मैं कितना सुंदर हूँ, जब में सड़क पर चलता हूँ तो हर व्यक्ति की दृष्टि मेरी तरफ आ जाती है । लोग इधर उधर न देख कर सब मेरी और देखने लगते है । तुमने देखा नहीं जब में सजधज कर भगवान के दर्शन हेतू मंदिरजी में जाता हूँ या जाती हूँ तो एक बार लोगों का ध्यान पूजा से हटकर मेरी तरफ आकर्षित हो जाता है ।
किस रूप पर अभिमान कर रहे हो मेरे भाई ? तनिक विचार करो, अपने जिस रूप पर आज इतना इतरा रहे हो, पच्चीस साल आगे के रूप को देखोगे तो तुम्हारे चेहरे पर दुनियाँ भर की झुरियाँ दिखाई देने लगेगी । और थोड़ा आगे जाकर के अपनी नजर को दौड़ाओगे तो यह सुंदर सलोना रूप चिता पर सुलगता हुआ दिखाई देगा । तो मेरे भाई ये है तुम्हारी दशा किस रूप पर तुम इतराते हो ? जिस जिस ने भी अपने स्वरूप को भूलकर रूप पर अभिमान किया है, उसकी अन्तिम परिणति यही रही है । पर क्या बताऊँ बंधुओं, आज तो भगवान के दर्शन करने के लिए, जहाँ लोग स्वरूप बोघ के दर्शन के लिए जाते हैं वहाँ भी हमारा ध्यान रूप पर ही टिका रहता है । हर आदमी और औरतें मंदिरजी में दर्शन हेतू तो दस मिनट के लिए आते हैं और मंदिरजी की तैयारी में ड्रेसिंग टेबल पर आधा घण्टा, बीस मिनट लगा देते हैं । आखिर ऐसा क्यों ? में तो समझता हूँ कि आज मंदिरों और धार्मिक कार्यक्रमों में जो लोग इतना सजधज कर के आते हैं, वे एक समस्या कि पूर्ति करते हैं । ग्रंथो यह बताया गया है कि इस काल में स्वर्ग से देव नहीं आते, में समझता हूँ इसी समस्या कि पूर्ति के कारण लोग स्वयं अपने आपको देवी देवता बनाकर भगवान के समक्ष प्रस्तुत करते हैं । पर बंधुओं थोड़ा सोचो -
होड देवों से लगाई, मनुज बनना न सीखा ।
विश्व को वामन पगों से मापने कि कामना है ॥
संत कहते हैं कि रूप का नहीं स्वरूप का सत्कार करो । किस रूप पर इतने मुग्ध होते हो ? मक्खी के पंख से भी पतली शरीर कि एक परत को उतारते ही सुंदर सलौना दिखाई पड़ने वाला यह शरीर घृणा कि चीज बन जाएगा । अत शरीर के रूप कि नहीं स्वरूप कि चिंता करो । आचार्य कुन्द कुन्द कहते हैं "जगत में सबसे सुंदर अपना आत्मस्वरूप है । उसका ही सत्कार करो । कवि ने ठीक ही कहा है-
मत रूप निहारो दर्पण में, दर्पण गंदला हो जाएगा ।
निजरूप निहारो अन्तर में, अन्तर उजाला हो जाएग
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चार सवाल

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एक बार एक राजा ने अपने मंत्री से कहा, 'मुझे इन चार प्रश्नों के जवाब दो। जो यहां हो वहां नहीं, दूसरा- वहां हो यहां नहीं, तीसरा- जो यहां भी नहीं हो और वहां भी न हो, चौथा- जो यहां भी हो और वहां भी।'

मंत्री ने उत्तर देने के लिए दो दिन का समय मांगा। दो दिनों के बाद वह चार व्यक्तियों को लेकर राज दरबार में हाजिर हुआ और बोला, 'राजन! हमारे धर्मग्रंथों में अच्छे-बुरे कर्मों और उनके फलों के अनुसार स्वर्ग और नरक की अवधारणा प्रस्तुत की गई है। यह पहला व्यक्ति भ्रष्टाचारी है, यह गलत कार्य करके यद्यपि यहां तो सुखी और संपन्न दिखाई देता है, पर इसकी जगह वहां यानी स्वर्ग में नहीं होगी। दूसरा व्यक्ति सद्गृहस्थ है। यह यहां ईमानदारी से रहते हुए कष्ट जरूर भोग रहा है, पर इसकी जगह वहां जरूर होगी। तीसरा व्यक्ति भिखारी है, यह पराश्रित है। यह न तो यहां सुखी है और न वहां सुखी रहेगा। यह चौथा व्यक्ति एक दानवीर सेठ है, जो अपने धन का सदुपयोग करते हुए दूसरों की भलाई भी कर रहा है और सुखी संपन्न है। अपने उदार व्यवहार के कारण यह यहां भी सुखी है और अच्छे कर्म करन से इसका स्थान वहां भी सुरक्षित है।'
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अमरता का पात्र

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एक बार धर्मशास्त्रों की शिक्षा देने वाला एक विद्वान ईसा मसीह के पास आया। उसने
ईसा मसीह से पूछा- अमरता की प्राप्ति के
लिए क्या करना होगा? ईसा मसीह बोले- इस
पर धर्मशास्त्र क्या कहते हैं? व्यक्ति बोला- वे
कहते हैं कि हमें ईश्वर को संपूर्ण हृदय से प्रेम
करना चाहिए। अपने पड़ोसी और इष्ट मित्रों को भी ईश्वर से जोड़ देना चाहिए। ईसा ने कहा- बिल्कुल ठीक। तुम इसी पर अमल
करते रहे। विद्वान ने तब जिज्ञासा व्यक्त
की- किंतु मेरा पड़ोसी कौन है? ईसा मसीह
बोले-सुनो, यरूशलम का एक व्यक्ति कहीं दूर
यात्रा पर जा रहा था। रास्ते में उसे कुछ चोर
मिल गए। उन्होंने उसे मारा पीटा और अधमरा करके चले गए। संयोगवश उधर से एक
पादरी आया। उसने उस व्यक्ति को वहां पड़े
देखा पर चला गया। फिर एक छोटा पादरी आया और वह भी उसे
देखकर चलता बना। कुछ देर बाद एक
यात्री वहां से निकला। उसने घायल
की मरहमपट्टी की। उसे कंधे पर उठाकर एक
धर्मशाला पहुंचाया और उसकी सेवा की। दूसरे
दिन जब वह जाने लगा तो धर्मशाला वालों से उस व्यक्ति का समुचित ध्यान रखने और
उसके उपचार का व्यय स्वयं वहन करने की बात
कहकर चला गया। अब कहो इन तीनों में से उस घायल
का सच्चा पड़ोसी कौन हुआ? विद्वान बोला-
वह अपरिचित यात्री जिसने उस पर
दया दिखाई। तब ईसा ने कहा- तो बस तुम
भी ऐसा ही आचरण करो, वैसे ही बनो। सभी के
प्रति प्रेम, दया व सहयोग भाव रखना मानवता की पहचान है और ऐसा करने
वाला सच्चे अर्थों में अमरता का पात्र बनता है।

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कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो

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एक साधु बहुत बूढ़े हो गए थे। उनके जीवन का आखिरी क्षण आ पहुँचा। आखिरी क्षणों में उन्होंने अपने शिष्यों और चेलों को पास बुलाया। जब सब उनके पास आ गए, तब उन्होंने अपना पोपला मुँह पूरा खोल दिया और शिष्यों से बोले-'देखो, मेरे मुँह में कितने दाँत बच गए हैं?' शिष्यों ने उनके मुँह की ओर देखा।
कुछ टटोलते हुए वे लगभग एक स्वर में बोल उठे-'महाराज आपका तो एक भीदाँत शेष नहीं बचा। शायद कई वर्षों से आपका एक भी दाँत नहीं है।' साधु बोले-'देखो, मेरी जीभ तो बची हुई है।'
सबने उत्तर दिया-'हाँ, आपकी जीभ अवश्य बची हुई है।' इस पर सबने कहा-'पर यह हुआ कैसे?' मेरे जन्म के समय जीभ थी और आज मैं यह चोला छोड़ रहा हूँ तो भी यह जीभ बची हुईहै। ये दाँत पीछे पैदा हुए, ये जीभसे पहले कैसे विदा हो गए? इसका क्या कारण है, कभी सोचा?'
शिष्यों ने उत्तर दिया-'हमें मालूम नहीं। महाराज, आप ही बतलाइए।'
उस समय मृदु आवाज में संत ने समझाया- 'यही रहस्य बताने के लिए मैंने तुम सबको इस बेला में बुलाया है। इस जीभ में माधुर्य था, मृदुता थी और खुद भी कोमल थी, इसलिए वह आज भी मेरे पास है परंतु.......मेरे दाँतों में शुरू से ही कठोरता थी, इसलिए वे पीछे आकर भी पहले खत्म हो गए, अपनी कठोरता के कारण ही ये दीर्घजीवी नहीं हो सके।
दीर्घजीवी होना चाहते हो तो कठोरता छोड़ो और विनम्रता सीखो।'
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रिश्तों की अहमियत

 मैं घर की नई बहू थी और एक प्राइवेट बैंक में एक अच्छे ओहदे पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर और पति...