हिन्दू की परिभाषा definition of hindu


प्रेम है जिसका स्वभाव वह है हिन्दू 


क्या है हिन्दू होने का मतलब , माथे पर तिलक लगाना ,हाँथ में सूता बंधना ,ढोगी बाबाओं से आशीर्वाद लेना, मंदिर जाना , जातिवाद का ढोंग फैलाना , अपनी संस्कृति को छोड़ कर पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करना क्या यही है हिंदुत्व ?

हिन्दू की परिभाषा

हिंदू शब्द कि उत्पति का इतिहास “ सिंधु ” नदी के नाम से जुड़ा हुआ है | प्राचीन काल में सिंधु नदी के पार के वासियों को इरान वासी हिंदू कहतें थें | वे “स” का उच्चारण “ह” करते थे | “हिंदू” शब्द के जुड़ने के पहले यह धर्म “सनातन” धर्म कहलाता था |
“सनातन” मतलब शाश्वत या हमेशा बने रहने वाला होता है |
हिंदू कि परिभाषा क्या कि जाए , मेरे हिसाब से जिस धर्म के अनुआयी “ब्रह्म” को जानतें हों हिंदू कहलाने के योग्य हैं | “ब्रह्म” यानी जहाँ तक अपनी कल्पना न जाए सिर्फ अनुभव हीं शेष रह जाए | पूर्ण शून्यता का अनुभव | “ब्रह्म ज्ञान ” अर्थात अपने अहंकार को विस्तृत कर देना यानी परमात्मा में विसर्जित कर देना या यूँ कहें अपने अहंकार को समाप्त कर देना , अपने होने के आस्तित्व को भूला देना | “ब्रह्म” शब्द को परिभाषित नहीं किया जा सकता क्यों? क्योंकि इसके अंदर कल्पना का जगत तो आ हीं जाता है कल्पनातीत जगत भी आ जाता है | ब्रह्म ज्ञान जैसा दुर्लभ ज्ञान अन्य किसी धर्म में नहीं |
प्रेम है जिसका स्वभाव वह है हिन्दू
जितने भी सच्चे “ब्रह्म” ज्ञानी हुएं सबने प्रेम को महता दी है और सबने एक सुर में प्रेम को हीं परमात्मा के मार्ग में प्रथम सोपान बतलाया है | “ब्रह्म” को जानने वालों का कहना है “ब्रह्म” ज्ञानी मनुष्य पृथ्वी पर मौजूद सभी जीवों से एकात्म मह्शूश करता है यानी सभी जीवों को अपना अंग समझता है , अपने से भिन्न नहीं समझता पेड पौधें सभी से जुडाव मह्शूश करता है | सबसे एकात्म मह्शूश करने वाला किसी को अपने से अलग न मानने वाला मनुष्य सबसे प्रेम न करेगा भला |
प्रेम के कारण था भारत कभी विश्व गुरु
अरे कुछ तो बात हो भारत के हिन्दूओं में ताकि विश्व के कोने कोने में बसे लोग यहाँ के हिन्दूओं के प्रेम से खींचे चलें आये और इनकी प्रेम गाथा पुरे विश्व में प्रसिद्ध हो | और प्रेम हीं ऐसा मंत्र है जिसकी बदौलत भारत फिर से एक बार सदा के लिए विश्व गुरु बन सकता है | प्राचीन काल में भारत विश्व गुरु क्यों था ? सम्पूर्ण विश्व के लोग यहाँ के ज्ञान के कारण यहाँ खींचे चले आते थें | प्राचीन काल में शिक्षा का सर्वोच्च केन्द्र “तक्षशिला ” ,“नालंदा” , “विक्रमशिला ” विश्वविद्यालय भारत में थें | कौन सा ज्ञान दिया जाता था यहाँ “तत्व ज्ञान ”या कहें “ब्रह्म ज्ञान” | ब्रह्म ज्ञानी कौन जिसके नस नस में प्रेम दौड़े |
'जो भरा नहीं है भावों से
जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें मानव के लिए प्यार नहीं |'
-मैथली शरण गुप्त
नोट –मूल पंक्ति में मानव के स्थान पर “स्वदेश” तथा के लिए के स्थान पर “का”शब्द का प्रयोग हुआ है | यथा – “जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं”


हिंदू था ज्ञान का खान
ऐसा नहीं कि सिर्फ प्रेम के कारण विश्व गुरु था यह देश बल्कि एक से बढ़ कर वैज्ञानिक भी थे प्राचीन काल में | चौंकिए नहीं भारतीय ऋषि , मुनि, मनीषी क्या थे | एक से बढ़ कर एक विद्याओं के धनी थे ये लोग | आयुर्वेद ,सर्जन चिकित्सा ,रस सिद्धांत विज्ञान, सूर्य विज्ञान ,कुण्डलिनी विज्ञान, गणित का ज्ञान (शून्य का आविष्कार), पातंजली का योग सूत्र और न जाने क्या क्या | क्या नहीं है हमारे पास हमारे वेदों उपनिषदों पुराणों में | आज भी विदेश से लोग दुर्लभ ज्ञान के तलाश में भारत खिंचे चले आतें हैं | किन्तु रसातल में जा रहा है यह सब अपनी विद्याओं अपनी संस्कृति का इज्जत नहीं है दिल में पाश्चात्य संस्कृति के पीछे भागम भाग मचा हुआ है और छाती ठोंक कर कहेंगे कि हम हिंदू हैं |


हिंदुत्व प्रसिद्ध है अपनी संस्कृति ,अपने त्यौहार ,अपने संस्कारों, अपने शुद्धतम खान पान, अपने आदर्श परिवारवाद ,अपने सर्वोच्च नैतिकता के लिए | किन्तु दुखद अब इनका ह्रास होता जा रहा है |
पारिवारिक रिश्तों के लिए यह धर्म मिशाल था | पिता पुत्र का धर्म , माता पिता के लिए पुत्र का उतरदायी होना , भाई भाई का प्रेम , इस धर्म कि खासीयत थी | “अतिथि देवो भव: ” आदर्श वाक्य हुआ करता था कभी भारत में |
हमें अपनी संस्कृति को पुन: स्थापित करना होगा अन्यथा पूरा मनुष्य जाती एक दुर्लभ और अति मूल्यवान धरोहर से वंचित रह जायेगी |
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स्वर्ग और नर्क की बातें

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लोग कहते हैं कि धर्म में लिखा है कि मरने के बाद व्यक्ति अपने पुण्य कर्मों के अनुसार स्वर्ग में जाता है और पाप कर्मों के अनुसार नर्क में दुख भोगता है। क्या यह सच है?

दुनिया के सभी धर्म में स्वर्ग और नर्क की बातें कही गई है। स्वर्ग अर्थात वह स्थान जहां अच्छी आत्माएं रहती है और नर्क वह स्थान जहां बुरी आत्माएं रहती है। कहा जाता है कि पापी व्यक्ति को नर्क में यातनाएं देने के लिए भेज दिया जाता है और पुण्यात्माओं को स्वर्ग में सुख भोगने के लिए भेज दिया जाता है।

स्वर्ग को इस्लाम में जन्नत कहा जाता है और नर्क को दोजख या जेहन्नूम। इसी तरह हर धर्म में यह धारणा है कि ईश्वर ने स्वर्ग और नर्क की रचना की है जहां व्यक्ति को उनके कर्मों के हिसाब से रखा जाता है। पुराणों अनुसार मृत्यु का देवता यमराज आत्माओं को दंड या पुरस्कार देता है। यमराज के मंत्री चित्रगुप्त सभी आत्माओं के कर्मों का हिसाब रखते हैं फिर यम के यमदूत उन्हें स्वर्ग या नर्क में भेज देते हैं। बहुत भयानक है गरुढ़ पुराण।

धर्म के तीन आधार : धर्म को जिंदा बनाए रखने और लोगों में नैतिकता को कायम रखने के तीन आधार है- 1.ईश्वर 2.स्वर्ग-नर्क और प्रॉफेट। यह तीनों ही वेद विरुद्ध माने जा सकते हैं। जब मानव असभ्य और जंगली था तब लोगों को सभ्य और नैतिक बनाने के लिए कुछ लोगों ने भय और लालच का सहारा लिया और लोगों को एक परिवार और समाज में ढाला। डराया ईश्वर और नर्क से और लालच दिया स्वर्ग का, अप्सराओं का। जिन लोगों ने समाज को ईश्वर, स्वर्ग, नर्क से डराकर नए नियम बताए उन्हें फ्रॉफेट माना जाने लगा। फ्रॉफेटों की अपनी किताबें भी होती हैं जिनके प्रति लोग पागल हैं।

वेद इस तरह की कपोल-कल्पनाओं के खिलाफ है। वेद आध्या‍त्म का सच्चा मार्ग ही बताते हैं। वेद अनुसार निश्चित ही व्यक्ति को अपने कर्म, भाव और विचार के अनुसार सद्गति और दुर्गति का सामना करना पड़ता है। जैसे शराब पीने वाले की चेतना गिरने लगती है तो उसे अधोगति कहते हैं और ध्यान करने वाली की चेतना उठने लगती है तो उसे उर्ध्व‍गति कहते हैं। वेद गति को मानता है। यदि आप अच्छी गति और स्थिति में रह हैं तो आप स्वर्ग में हैं और बुरी गति और स्थिति में रह रहे हैं तो आप नर्क में हैं। आदमी चलता फिरता नर्क और स्वर्ग है।
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रामफल

महाकुंभ में आए लोगों के गंगा में डुबकी लगाने के साथ लोग इस फल को खाना नहीं भूलते। मान्यता के अनुसार यह आम फल नहीं बल्कि भगवान राम का फल है। जिसे वनवास के दौरान राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ वन में रहने के दौरान खाया था। हल्का मीठा और बाहर नारंगी और अन्दर से हल्के भूरे रंग का यह फल स्वाद में लजीज है। कहते हैं कि इस फल को खाने के बाद इंसान का मन तो शुद्ध होता ही है। साथ ही यह कंदमूल कई रोगों को दूर भी रखता है। इसे बेचने वाले और खाने वाले लोगों का मानना है कि इस फल को खाने से भगवान राम का आशीर्वाद प्राप्त होता है। jai ram shri ram jai jai ram...
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मागी नाव न केवटु आना


* मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥
* छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥
* एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥
भावार्थ:-जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा (अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी) (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी) तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो!!
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नाम नहीं, कर्म प्रधान

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पुरानी बात हैं। किसीबालक के माँ-बाप ने उसका नाम पापक (पापी) रख दिया। बालक बड़ा हुआ तो उसे यह नाम बहुत बुरा लगने लगा। उसने अपने आचार्य से प्रार्थना की, "भन्ते, मेरा नाम बदल दें। यह नाम बड़ा अप्रिय है, क्योंकि अशुभ और अमांगलिक है।" आचार्य ने उसे समझायाकि नाम तो केवल प्रज्ञप्ति के लिए, व्यवहार-जगत में पुकारने के लिए होता है। नाम बदलने से कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा। कोई पापक नाम रखकर भी सत्कर्मों सेधार्मिक बन सकता है और धार्मिक नाम रहे तो भी दुष्कर्मों से कोई पानी बन सकता है। मुख्य बात तो कर्म की है। नाम बदलने से क्या होगा?
पर वह नहीं माना। आग्रह करता ही रहा। आग्रह करता ही रहा। तब आचार्य ने कहा,"अर्थ-सिद्ध तो कर्म के सुधारने से होगा, परन्तु यदि तू नाम भी सुधारना चाहता है तो जा, गांव भर के लोगों को देख और जिसका नाम तुझे मांगलिक लगे, वह मुझे बता। तेरा नाम वैसा ही बदल दिया जायगा।"
पापक सुन्दर नामवालों की खोज में निकल पड़ा। घर से बाहर निकलते ही उसे शव-यात्रा के दर्शन हुए। पूछा, "कौन मर गया?" लोगों ने बताया"जीवक।" पापक सोचने लगा-नाम जीवक, पर मृत्यु का शिकार हो गया!
आगे बढ़ा तो देखा, किसी दीन-हीन गरीब दुखियारी स्त्री को मारपीट कर घर से, निकाला जा रहा है। पूछा, "कौन है यह?" उत्तर मिला, "धनपाली।" पापक सोचने लगा नाम धनपाली और पैसे-पैसे को मोहताज!
और आगे बढ़ा तो एक आदमी को लोगों से रास्ता पूछते पाया। नाम पूछा तो पता चला-पंथक। पापक फिर सोच में पड़ गया-अरे, पंथक भी पंथ पूछते हैं? पंथ भूलते हैं?
पापक वापस लौट आया। अब नाम के प्रति उसका आकर्षक याविर्कषण दूर हो चुका था। बात समझ में आ गई थी। क्या पड़ा है नाम में? जीवक भी मरते हैं, अ-जीवक भी,धनपाली भी दरिद्र होती है, अधनपाली भी, पंथक राह भूलते हैं, अंपथक भी, जन्म का अंधा नाम नयनसुख, जन्म दुखिया, नाम सदासुख! सचमुच नाम की थोथी महत्ता निरर्थक ही है। रहे नाम पापक, मेरा क्या बिगड़ता है? मैं अपनला कर्म सुधारुंगा। कर्म ही प्रमुख है, कर्म ही प्रधान है।
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मानव और गाय - यह कैसा रिश्ता

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मानव और गाय - यह कैसा रिश्ता?...
खूँटेसे बँधे हुए बछ्ड़ेको मानवने बन्धन-विमुक्त किया। उसने दौड़कर अपनी माँके थन मुँहमें लिये। गायका वात्सल्य-स्त्रोत उमड़ पड़ा और दुग्ध-धारा बछड़ेके मुखमें पड़ने लगी।

इने-गिने क्षण ही बछड़ेको स्तन-पान करते हुए बीते होंगे कि अपनेको दक्ष एवं कर्म-तत्पर माननेवाले मानवने उसकी रस्सी खींचकर पुन: उसे खूँटेसे बाँध दिया। उसकी जननी तड़प उठी। उसने दौड़कर उसके पास जाना चाहा; पर स्वयं भी खूँटेसे बँधी थी। जा न सकी। मन मारकर बेचारी विवश नेत्रोंसे अपने लालाको निहारती रह गई।

इधर मानव अपनेपर...,अपनी करनीपर, अपनी बुद्धिमता पर एवं शक्ति-सम्पन्नता पर गर्व करते हुए दुहनी लेकर गायका दूध दुहने बैठा। सहनशीलताली मूर्ति, करुणाकी मूर्ति गायने किंचिन्मात्र भी विरोध न कर उसके पात्रको दुग्ध से भर दिया।

अपनी मानवतापर गर्व करते हुए मानवने पुन: बछ्ड़े को बन्धन-विमुक्त कर दिया-दुही गायके थन चूसनेमात्रके लिये। गायको भी माता कह, एक-दो हाथ उसके पीठ और गलेपर फेरकर इस युक्ति-विशारदसे उसे (अपनी समझमें) बहला-फुसला दिया।

पर यहीं मानव भूल में था। भोली गाय बहली-फुसली नहीं थी, वरन् उसका भोलापन...उसका सीधापन उस मानवको वह अन्तिम सारभूत तथ्य अवगत करा गया था, जिसे खोज निकालने का श्रेय मानव स्वयं लेता है। ‘सबमें एक आत्मा है, सब एक ही हैं’- इस भावना से विभोर होते हुए उस गाय ने मानवको अपना पुत्र मान लिया और सहज-भावसे,प्रसन्न-मनसे, अपने बछड़ेके भूखा रखते हुए भी वह उसे दूध पिलाने, पिला-पिलाकर पालने-पोसने लगी।

लेकिन सारभूत तत्वकी खोज करनेवाला..उसे खोज निकालनेवाला...उसका दिगिदगन्तमें प्रचार-प्रसार करनेवाला मानव स्वयं उस तत्वको हृदयंगम न कर सका, उसे अपनेमें रचा-पचा न सका। गायको माता कहकर भी वह उसके बछड़ेको अपना छोटा भाई न समझ सका। उसके पेट भर लेनेपर भी दूध दुहन उसे स्वीकार नहीं हुआ।

इतना भी होता तो गनीमत थी, पर मानव तो आज ऐसी करुणामयी गाय- अपनी माताके ही वधपर ही उतारु है? हाय! हाय ! यह कैसा रिश्ता है माँ-बेटेका। यह कैसी मानवता है? अरे मानव ! तुझे ऐसा करते हुए शर्म नहीं आती?

-श्रीहरिकृष्णदासजी गुप्त ’सियहरि’ ("कल्याण" वर्ष ६९ संख्या ७)
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ऐ मालिक तेरे बंदे हम

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ऐ मालिक तेरे बंदे हम
ऐसे हो हमारे करम
नेकी पर चलें
और बदी से टलें
ताकि हंसते हुये निकले दम
जब ज़ुलमों का हो सामना
तब तू ही हमें थामना
वो बुराई करें
हम भलाई भरें
नहीं बदले की हो कामना
बढ़ उठे प्यार का हर कदम
और मिटे बैर का ये भरम
नेकी पर चलें
ये अंधेरा घना छा रहा
तेरा इनसान घबरा रहा
हो रहा बेखबर
कुछ न आता नज़र
सुख का सूरज छिपा जा रहा
है तेरी रोशनी में वो दम
जो अमावस को कर दे पूनम
नेकी पर चलें
बड़ा कमज़ोर है आदमी
अभी लाखों हैं इसमें कमीं
पर तू जो खड़ा
है दयालू बड़ा
तेरी कृपा से धरती थमी
दिया तूने हमें जब जनम
तू ही झेलेगा हम सबके ग़म
नेकी पर चलें
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प्रभु की सोच

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एक बच्चा अपनी मां के साथ टॉफियों की एक दुकान पर पहुंचा। वहां अनेक जारों में अनेक तरह की टॉफियां सजी हुई थीं। बच्चे की आंखें उन टॉफियों को देखकर ललचा रही थीं। दुकानदार को स्नेह उमड़ आया, उसने कहा, बेटे, तुम्हें जो भी टॉफी पसंद आ रही हो, वह बेझिझक ले सकते हो।

बच्चे ने कहा, नहीं। दुकानदार ने बच्चे को हैरानी से देखा और फिर समझाते हुए कहा, मैं तुमसे पैसे नहीं लूंगा। अब तो तुम अपनी पसंद की टॉफी ले सकते हो।
दुकान पर बच्चे के साथ उसकी मां भी थी। उसने कहा, ठीक है बेटे, अंकल कह रहे हैं, तो ले लो। लेकिन बच्चे ने फिर भी मना कर दिया। मां और दुकानदार को वजह समझ में नहीं आई। फिर दुकानदार को एक नया उपाय सूझा, उसने स्वयं
जार में हाथ डाला और बच्चे की तरफ मुट्ठी बढ़ाई। बच्चे ने झट से अपने स्कूल के बस्ते में सारी की सारी टॉफियां डलवा लीं। दुकान से बाहर आने पर मां ने बच्चे से कहा, बड़ा अजीब लड़का है तू। जब तुझे टॉफियां लेने को कहा तब तो मना कर दिया और जब दुकानदार अंकल ने टॉफियां दीं तो मजे से ले लीं। बच्चे ने मां को समझाया, मेरी मुट्ठी बहुत ही छोटी है, दुकानदार की मुट्ठी बड़ी है। मैं लेता तो कम मिलतीं, उसने दीं तो बड़ी मुट्ठी भर कर दीं।

यही हाल आज के मनुष्य का है। हमारी सोच बड़ी छोटी है; और प्रभु की सोच बहुत बड़ी है। आज से 25 वर्ष पहले यदि आपको अपनी इच्छाओं की सूची बनाने को कहा जाता कि आपकी जिन-जिन वस्तुओं की इच्छा है उसे लिखो। तो शायद उस समय जो लिखते, वह आज के संदर्भ में बहुत ही तुच्छ होता।
आज आपको प्रभु ने या प्रकृति ने इतना कुछ दिया है, जो आपकी सोच से कहीं बड़ा है। अपने आसपास पड़ी वस्तुओं की तरफ नजर घुमाकर देखें और सोचें, जिन वस्तुओं को आप सहजता से भोग रहे हैं, वे कई साल पहले आपकी सोच में भी नहीं थीं। इसलिए हमारी सोच बहुत छोटी है तथा प्रभु की सोच हमारे लिए बहुत व्यापक है।
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ॐ नमः शिवाय

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भारत में भगवान शिव की उपासना उतनी ही पुरानी है, जितनी पुरानी भारतीय सभ्यता है।

संभवत: भारत में जब सभ्यता का श्रीगणेश नहीं हुआ था तब भी शिव की उपासना की जाती थी।

मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई से इस बात के प्रमाण मिले हैं कि उस प्रागैतिहासिक युग में भगवान शिव की उपासना एवं आराधना प्रचलित थी।

शिव एक ऐसे देवता हैं जो योगी और भोगी, राजा और रंक, सभ्य और वनवासी सभी के आराध्य देव बन गए।

यहां तक कि वे पशुओं का पालन करने वाले, जंगल के निवासियों के ‘पशुपतिनाथ’ के रूप में आराध्य देव बने तो कर्मकांडी शास्त्रियों ने उनकी ‘महादेव’ के रूप में वंदना की।

शतपथ ब्राह्मण तथा कौशीतकि ब्राह्मण में भगवान शिव के आठ स्वरूपों का उल्लेख है-
भव, पशुपति, महादेव, ईशान, शर्व, रुद्र, उग्र एवं अशनि।

पर शिव के इन आठ स्वरूपों में पशुपतिनाथ के स्वरूप को दर्शाने वाली संभवत: दो ही प्रतिमाएं हैं।

ये दोनों ही प्रतिमाएं पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध हैं।

इनमें से एक प्रतिमा है-नेपाल की राजधानी काठमांडू में तथा

दूसरी है म.प्र. के मंदसौर नामक कस्बे में।

मंदसौर की इस प्रतिमा के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण मालव सम्राट यशोवर्मन ने आक्रांता हूणों को पराजित करने के उपलक्ष्य में किया था।

पुराणों में उल्लेख

नेपाल के पशुपतिनाथ के संबंध में पुराणों में भी उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख के अनुसार एक बार पांडव, केदारनाथ में भगवान शिव के दर्शन के लिए गए। भगवान शिव ने पांडवों को अपने ही सगोत्रियों की हत्या का दोषी माना एवं दर्शन देना अस्वीकार कर दिया। पांडव भगवान शिव की आराधना एवं उनका पीछा करते रहे। पांडवों से पीछा छुड़ाने के लिए भगवान शिव ने भैसें (महिष) का रूप धारण किया और पृथ्वी के भीतर घुसने लगे। पांडवों ने इस महिष की पूंछ पकड़ ली पर तब तक भगवान शिव पृथ्वी के भीतर घुस चुके थे।

उनका मुख रुद्रनाथ में, बांहें तुंगनाथ में, नाभि मदमहेश्वर में, जटा कल्पेशवर में तथा मस्तक बागमती नदी के दाएं किनारे पर स्थित कांतिपुर में प्रकट हुआ। यह कांतिपुर ही आज काठमांडू के नाम से जाना जाता है। काठमांडू नामकरण होने का कारण यह बताया जाता है कि इस शहर के मध्य में एक ही लकड़ी का एक विशाल काष्ठमंडप था। यह ‘काष्ठमंडप’ कालांतर में काठमांडू कहलाने लगा।

काठमांडू में निॢमत भगवान पशुपतिनाथ का यह मंदिर पैगोडा शैली में है। पशुपतिनाथ का यह विशाल मंदिर, चारों ओर से छोटे-छोटे मंदिरों और धर्मशालाओं से घिरा हुआ है। इस मंदिर के चार द्वार हैं। मंदिर में प्रवेश करते ही विशाल प्रांगण दिखाई पड़ता है। मंदिर के द्वार चांदी के हैं। प्रांगण में कई हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएं तथा त्रिशूल की आकृतियां स्थापित हैं।

पशुपतिनाथ के मुख्य मंदिर के अहाते में नंदी की विशाल प्रतिमा है। मंदिर के शिखर सोने के बताए जाते हैं। मुख्य मंदिर नेपाली एवं भारतीय स्थापत्य कला का एक सर्वश्रेष्ठ प्रतीक कहा जा सकता है।

मंदिर में स्थापित भगवान शिव की प्रतिमा लगभग साढ़े तीन फुट ऊंची है। परिक्रमा एवं पूजन के लिए मंदिर में पर्याप्त स्थान है। भगवान पशुपतिनाथ की पूजा रुद्राक्ष एवं कमल-पुष्पों से की जाती है।

पशुपतिनाथ में आस्थावानों (मुख्य रूप से हिंदुओं) को मंदिर परिसर में प्रवेश करने की अनुमति है। गैर हिंदू आगंतुकों बागमती नदी के दूसरे किनारे से इसे बाहर से देखने की अनुमति है।

यह मंदिर नेपाल में शिव का सबसे पवित्र मंदिर माना जाता है।
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शिव

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ॐ नमः शिवाय॥
Ψ. मैं विकारों से रहित , विकल्पों से रहित , निराकार , परम एश्वर्य युक्त , सर्वदा यत्किंच सभी में सर्वत्र ,समान रूप में ब्याप्त हूँ , मैं ईक्षा रहित , सर्व संपन्न ,जन्म -मुक्ति से परे ,सच्चिदानंद स्वरुप कल्याणकारी शिव हूँ केवल , शिव ......न मृत्यु , न संदेह , न तो जाति-भेद (खंडित ) हूँ , न पिता न माता , न जन्म न बन्धु , न मित्र न गुरु न शिष्य ही हूँ ; मैं तो केवल सच्चिदानंद स्वरुप कल्याणकारी शिव हूँ , शिव ......न पुण्य हूँ , न पाप ; न सुख न दुःख , न मन्त्र न तीर्थ , न वेद न यज्न , न भोज्य , न भोजन न भोक्ता ही हूँ ; मै तो केवल सच्चिदानंद स्वरुप कल्याणकारी शिव हूँ , शिव ......न द्वेष , न राग , न लोभ , न मोह , न मत्सर , न धर्म , न अर्थ , न काम , न मोक्ष हूँ ; मैं तो सच्चिदानंद स्वरुप कल्याणकारी शिव हूँ , शिव......न तो प्राण उर्जा हूँ , न पञ्च वायु हूँ , न सप्त धातुएं हूँ , न पञ्च कोष हूँ , न सृष्टी , न प्रलय , न गति , न वाणी और न तो श्रवण ही हूँ ; मैं तो केवल सच्चिदानंद स्वरुप कल्याणकारी शिव हूँ , केवल शिव....... न तो मन हूँ , न बुद्धि , न अहंकार , न चित्त , न पञ्च इन्द्रियां - ( नेत्र ,कान ,जीभ , त्वचा , नासिका ) और न तो पञ्च तत्व (आकाश , भूमि , जल , वायु , अग्नि ) , हूँ ; मैं तो केवल कल्याणकारी शिव हूँ ; शिव हूँ......
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रिश्तों की अहमियत

 मैं घर की नई बहू थी और एक प्राइवेट बैंक में एक अच्छे ओहदे पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर और पति...