वास्तु दोष को दूर करने का सर्वश्रेष्ठ गुप्त उपाय

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भयंकर से भयंकर वास्तु दोष को दूर करने का सर्वश्रेष्ठ गुप्त उपाय =

देशी गौमाता का ब्रह्म मुहुर्त के समय किसी अन्य के बिना टोके और देखे चुपचाप अकेले गौमूत्र किसी पात्र मेँ भरकर अपने घर के दरवाजे से घुसते ही दाहिने ओर से घूमते हुए सभी कौनौ मेँ गौमूत्र छिड़कते हुए दरवाजे के बाँये कौने तक आ जाबे। फिर बचे हुए गौमूत्र को घर के मध्य स्थित आंगन मेँ पूर्ण विसर्जन कर देँ और उस दिन दोपहर के बाद झाड़ू लगावेँ ।
यह उपाय सोमवार को करना है ।
यह उपाय 6 माह मेँ एक बार तथा वर्ष मेँ 2 बार करते रहने से अति लाभ होगा ।
वास्तु दोष पूर्ण रुप से खत्म हो जायेगा ।
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गुरु - चेला

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गुरु - चेला 

कुछ लोग ऐसे हैं जो कहते हैं की 
हम कृष्ण से डायरेक्ट प्रेम करते हैं 

दो प्रेमियों के बीच में तीसरे = गुरु को लाने की
क्या ज़रुरत है ?

एक बार शांति से अपने आप से पूछें की
फिर आप बीच मैं गुरु क्यों बने हुआ हो ?

आपके पास आने वाले लोगों को अपना चेला
क्यों बनाते हो ?

जो पहले से किसी के चेले हैं , शास्त्र केवल व केवल
उन्हें ही चेला बनाने की इजाज़त देता है

बिना स्वयं गुरु धारण किये गुरु बन्ने से
समय आने पर बहुत बुरा हश्र होता है
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आशावादी दृष्टि

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वो जीवन जीने योग्य नहीं, जिसमें परीक्षाएं न हों। जीवन एक निरंतर चलनेवाली परीक्षा है। जिंदगी का हर लम्हा किसी न किसी तरह की परीक्षा है। इसमें जो जितना तपा, वह उतना खरा कुंदन बना।

हर व्यक्तिहर परीक्षा में सफल होना चाहता है। इसलिए परीक्षा चाहे जैसी भी हो, उसके लिए उचित तैयारी करनी चाहिए। बिना तैयारी के परीक्षा देना ऐसा ही है, जैसे बिना तैरना सीखे गहरे पानी में उतरना। बिना सीखे कोई गहरे पानी में तो दूर, उथले पानी में भी नहीं उतरता।

तैराकी पानी में ही सीखी जा सकती है, पानी के बिना नहीं। लेकिन इसका प्रारंभ घनघोर गर्जन करते समुद्र अथवा विपुल जल राशि युक्त महानद में संभव नहीं। इसका प्रारंभ तो शांत उथले जल में ही संभव है। जीवन की परीक्षाओं के लिए भी ऐसा ही परिवेश चाहिए।

जिंदगी की वास्तविक परीक्षाएं विषम परिस्थितियों में ही होती हैं। जिस प्रकार परिश्रमी विद्यार्थी परीक्षा भवन से विजयी होकर लौटते हैं और अपने आत्म सम्मान में वृद्धि करते हैं, उसी प्रकार जो व्यक्ति समय-प्रबंधन और आत्म-प्रबंधन द्वारा जीवन में आने वाली विभिन्न परीक्षाओं की पहले से तैयारी रखते हैं, वे सफलता पाते हैं। इससे उनका आत्म विश्वास बढ़ता है। उनके भीतर आशावादी दृष्टि पैदा होती है। और वे हौसले से आगे बढ़ते हैं।
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” उत्तम धन ” की व्याख्या

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सबसे ” उत्तम धन ” की व्याख्या क्या है ? दो मूल सिद्धांत के कारण ही धन की उत्तमता की व्याख्या संभव है |
पहला सिद्धांत – वही उत्तम धन जो सब जगह चले ( जैसे यूरो प्राय: सभी यूरोपियन देशो में चलता है | इसलिए यूरोप के किसी एक देश की मुद्रा के बजाय यूरो उत्तम क्योंकि वह उस देश के अलावा अन्य यूरोपियन देशो में भी चलता है ) |
दूसरा सिद्धांत – वही उत्तम धन जिससे सब कुछ उपलब्ध हो सके |
संसारी धन की ताकत को इन दोनों सिद्धांतो की कसौटी पर तोला जाये तो वह बहुत कमजोर साबित होता है |
पहले सिद्धांत ( उत्तम धन वही जो सब जगह चले) पर तोले तो पायेंगे की अगर हमने संसारी धन की विश्वमुद्रा ( पुरे विश्व में चलने वाली एक मुद्रा ) भी बना दी तो भी वह अन्य ग्रहों में नहीं चलेगा | अन्य ग्रहों की बात छोड़ दे , वह तो पृथ्वी में भी हर जगह नहीं चलेगी | उद्धरण स्वरुप अगर हम सागर में डूब रहे है और हमारी जेब में खूब सारी विश्वमुद्रा भरी है और एक मगरमच्छ हमें निगलने हेतु सामने है तो क्या हम सागर के मध्य में मगरमच्छ को विश्वमुद्रा देकर यह कह सकते हैं की हमें निगलो मत और अपनी पीठ पर बैठाकर हमें सागर के किनारे छोड़ दो | हमारा संसारी धन पृथ्वीलोक में मगरमच्छ से हमारी रक्षा तक नहीं कर सकता | संसारी धन की ताकत नहीं की वह अगले जन्म में हमारे काम आ सके | क्या इस जन्म का संसारी धन हमारे अगले जन्म में हमें मानव देह और एक सुसंपन्न परिवार में जन्म दिला सकता है? कदापि नहीं |
दूसरा सिद्धांत ( उत्तम धन वही जिससे सब कुछ उपलब्ध हो सके) पर तोले तो पायेंगे की हमारे संसारी धन से चाहे वह रूपया हो , सोना हो , जमीन जायदाद हो या कोई भी अन्य सम्पति हो , उससे हम जीवन की एक श्वास – जीवन का एक पल तक नहीं खरीद सकते | जीवन की एक श्वास भी भूल जाइए, क्या हम संसारी धन से स्वास्थ की गारंटी खरीद सकते हैं की हमें एक भी रोग, बीमारी, शारीरिक प्रतिकूलता नहीं हो | क्या हम संसारी धन से “आनंद” और उससे भी आगे “परमानन्द” की अनुभूति मात्र भी कर सकते हैं | हम मात्र सांसारिक सुख के तुच्छ्य साधन खरीद सकते हैं | ” परमानन्द ” एक शिखर का नाम है जबकि सांसारिक सुख उस शिखर के सबसे निचले पायेदान का नाम है |
सांसारिक धन की चर्चा करके हमने उसकी गुणवत्ता को देखा | अब चर्चा करते हैं प्रभु नामरूपी उस श्रेष्ठत्तम परमधन की | सांसारिक धन के सन्दर्भ में चर्चा किये दोनों सिद्धांत इस परमधन में लबालब डुबे नजर आयेंगे |
पहले सिद्धांत ( उत्तम धन वही जो सब जगह चले) – यह परमधन पृथ्वी के हर कोने में, पृथ्वी के हर कण में, सभी ग्रहों, सभी लोक (इहलोक , परलोक ) में स्थाई रूप से चलता है | इस परमधन की कमाई इस जन्म, अगले जन्म, जन्मोजन्म तक काम आती है | {अर्जुन जी ने मेरे प्रभु से पुछा कि अगर किसी ने पुरे जीवन आपकी भक्ति नहीं की और जीवन के अंतिम चरण में ही आपका स्मरण किया और फिर उसकी निर्धारित मृत्यु ने उसे आ दबोचा तो क्या उसका यह शुभकर्म व्यर्थ चला जाता है | उत्तर में मेरे प्रभु ने स्वयं श्रीमदगीताजी में अपने श्रीवचन में कहा कि अर्जुन मेरा स्मरण, मेरी भक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती ( चाहे जीवन के अंतिम अवस्था में भी की गई हो ) क्योंकि मैं (प्रभु) उसे संजोये रखता हूँ और अगले जन्म में उस जीव को वह प्रदान करता हूँ | }
दूसरा सिद्धांत ( उत्तम धन वही जिससे सब कुछ उपलब्ध हो सके) -ऐसा कुछ भी नहीं जो यह परमधन उपलब्ध नहीं करा सकता | यह डूबते हुये हमारी सागर में, मगरमच्छ के सामने भी रक्षा करता है | गजेन्द्र मोक्ष की श्रीकथा इसका जीवंत उद्धाहरण है | क्योंकि जिन परमपिता परमेश्वर का यह नामधन है, संसार की, भूमंडल की, भूमंडल के बाहर की भी हर चीज उन्ही परमपिता परमेश्वर के आधीन है | इसलिय परमपिता का नामरूपी महाधन हर युग में, हर चीज पर बेखटक चलता ही नहीं दौडता है | उद्धाहरण स्वरुप आप नामरत्न के पुण्यो से अपने पूर्व जन्मों के कठिन से कठिन पापकर्म भी धो सकते हैं | आप नामरत्न के बल पर अपनी भाग्यरेखा भी बदल सकते हैं |
जरा सोचे ऐसा क्या है जो प्रभु नामरूपी धन से अर्जित नहीं किया जा सकता और जरा सोचे की ऐसी कौन सी जगह है जहा पर यह प्रभु नामरूपी नहीं चलता | यह महाधन यमलोक, नर्क में भी चलता है क्योंकि इसी नामरूपी धन के बल पर ही वहाँ से हमारी मुक्ति संभव होती है |
अब अंत में इतना जरुर सोचे की हमारे धन कमाने की प्रवीणता और प्रधानता कही ” सांसारिक धन ” कमाने तक तो सीमित होकर नहीं रह गई है | अगर ऐसा है तो इससे बड़ा दुर्भाग्य मानव जन्म लेकर और कुछ नहीं | अगर ऐसा है तो हमारे धन कमाने की प्रवीणता और प्रधानता को तत्काल प्रभु नामरूपी परमधन कमाने की तरफ अविलम्ब मोड़ना चाहिये नहीं तो यह मानव जीवन बेकार चला जायेगा | ठीक वैसे ही जैसे इंजिनियर बनकर एक व्यक्ति बेलदारी करे या सर्जन बनकर एक व्यक्ति अस्पताल में वार्डबॉय का काम करे |
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हिन्दू की परिभाषा definition of hindu


प्रेम है जिसका स्वभाव वह है हिन्दू 


क्या है हिन्दू होने का मतलब , माथे पर तिलक लगाना ,हाँथ में सूता बंधना ,ढोगी बाबाओं से आशीर्वाद लेना, मंदिर जाना , जातिवाद का ढोंग फैलाना , अपनी संस्कृति को छोड़ कर पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करना क्या यही है हिंदुत्व ?

हिन्दू की परिभाषा

हिंदू शब्द कि उत्पति का इतिहास “ सिंधु ” नदी के नाम से जुड़ा हुआ है | प्राचीन काल में सिंधु नदी के पार के वासियों को इरान वासी हिंदू कहतें थें | वे “स” का उच्चारण “ह” करते थे | “हिंदू” शब्द के जुड़ने के पहले यह धर्म “सनातन” धर्म कहलाता था |
“सनातन” मतलब शाश्वत या हमेशा बने रहने वाला होता है |
हिंदू कि परिभाषा क्या कि जाए , मेरे हिसाब से जिस धर्म के अनुआयी “ब्रह्म” को जानतें हों हिंदू कहलाने के योग्य हैं | “ब्रह्म” यानी जहाँ तक अपनी कल्पना न जाए सिर्फ अनुभव हीं शेष रह जाए | पूर्ण शून्यता का अनुभव | “ब्रह्म ज्ञान ” अर्थात अपने अहंकार को विस्तृत कर देना यानी परमात्मा में विसर्जित कर देना या यूँ कहें अपने अहंकार को समाप्त कर देना , अपने होने के आस्तित्व को भूला देना | “ब्रह्म” शब्द को परिभाषित नहीं किया जा सकता क्यों? क्योंकि इसके अंदर कल्पना का जगत तो आ हीं जाता है कल्पनातीत जगत भी आ जाता है | ब्रह्म ज्ञान जैसा दुर्लभ ज्ञान अन्य किसी धर्म में नहीं |
प्रेम है जिसका स्वभाव वह है हिन्दू
जितने भी सच्चे “ब्रह्म” ज्ञानी हुएं सबने प्रेम को महता दी है और सबने एक सुर में प्रेम को हीं परमात्मा के मार्ग में प्रथम सोपान बतलाया है | “ब्रह्म” को जानने वालों का कहना है “ब्रह्म” ज्ञानी मनुष्य पृथ्वी पर मौजूद सभी जीवों से एकात्म मह्शूश करता है यानी सभी जीवों को अपना अंग समझता है , अपने से भिन्न नहीं समझता पेड पौधें सभी से जुडाव मह्शूश करता है | सबसे एकात्म मह्शूश करने वाला किसी को अपने से अलग न मानने वाला मनुष्य सबसे प्रेम न करेगा भला |
प्रेम के कारण था भारत कभी विश्व गुरु
अरे कुछ तो बात हो भारत के हिन्दूओं में ताकि विश्व के कोने कोने में बसे लोग यहाँ के हिन्दूओं के प्रेम से खींचे चलें आये और इनकी प्रेम गाथा पुरे विश्व में प्रसिद्ध हो | और प्रेम हीं ऐसा मंत्र है जिसकी बदौलत भारत फिर से एक बार सदा के लिए विश्व गुरु बन सकता है | प्राचीन काल में भारत विश्व गुरु क्यों था ? सम्पूर्ण विश्व के लोग यहाँ के ज्ञान के कारण यहाँ खींचे चले आते थें | प्राचीन काल में शिक्षा का सर्वोच्च केन्द्र “तक्षशिला ” ,“नालंदा” , “विक्रमशिला ” विश्वविद्यालय भारत में थें | कौन सा ज्ञान दिया जाता था यहाँ “तत्व ज्ञान ”या कहें “ब्रह्म ज्ञान” | ब्रह्म ज्ञानी कौन जिसके नस नस में प्रेम दौड़े |
'जो भरा नहीं है भावों से
जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें मानव के लिए प्यार नहीं |'
-मैथली शरण गुप्त
नोट –मूल पंक्ति में मानव के स्थान पर “स्वदेश” तथा के लिए के स्थान पर “का”शब्द का प्रयोग हुआ है | यथा – “जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं”


हिंदू था ज्ञान का खान
ऐसा नहीं कि सिर्फ प्रेम के कारण विश्व गुरु था यह देश बल्कि एक से बढ़ कर वैज्ञानिक भी थे प्राचीन काल में | चौंकिए नहीं भारतीय ऋषि , मुनि, मनीषी क्या थे | एक से बढ़ कर एक विद्याओं के धनी थे ये लोग | आयुर्वेद ,सर्जन चिकित्सा ,रस सिद्धांत विज्ञान, सूर्य विज्ञान ,कुण्डलिनी विज्ञान, गणित का ज्ञान (शून्य का आविष्कार), पातंजली का योग सूत्र और न जाने क्या क्या | क्या नहीं है हमारे पास हमारे वेदों उपनिषदों पुराणों में | आज भी विदेश से लोग दुर्लभ ज्ञान के तलाश में भारत खिंचे चले आतें हैं | किन्तु रसातल में जा रहा है यह सब अपनी विद्याओं अपनी संस्कृति का इज्जत नहीं है दिल में पाश्चात्य संस्कृति के पीछे भागम भाग मचा हुआ है और छाती ठोंक कर कहेंगे कि हम हिंदू हैं |


हिंदुत्व प्रसिद्ध है अपनी संस्कृति ,अपने त्यौहार ,अपने संस्कारों, अपने शुद्धतम खान पान, अपने आदर्श परिवारवाद ,अपने सर्वोच्च नैतिकता के लिए | किन्तु दुखद अब इनका ह्रास होता जा रहा है |
पारिवारिक रिश्तों के लिए यह धर्म मिशाल था | पिता पुत्र का धर्म , माता पिता के लिए पुत्र का उतरदायी होना , भाई भाई का प्रेम , इस धर्म कि खासीयत थी | “अतिथि देवो भव: ” आदर्श वाक्य हुआ करता था कभी भारत में |
हमें अपनी संस्कृति को पुन: स्थापित करना होगा अन्यथा पूरा मनुष्य जाती एक दुर्लभ और अति मूल्यवान धरोहर से वंचित रह जायेगी |
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स्वर्ग और नर्क की बातें

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लोग कहते हैं कि धर्म में लिखा है कि मरने के बाद व्यक्ति अपने पुण्य कर्मों के अनुसार स्वर्ग में जाता है और पाप कर्मों के अनुसार नर्क में दुख भोगता है। क्या यह सच है?

दुनिया के सभी धर्म में स्वर्ग और नर्क की बातें कही गई है। स्वर्ग अर्थात वह स्थान जहां अच्छी आत्माएं रहती है और नर्क वह स्थान जहां बुरी आत्माएं रहती है। कहा जाता है कि पापी व्यक्ति को नर्क में यातनाएं देने के लिए भेज दिया जाता है और पुण्यात्माओं को स्वर्ग में सुख भोगने के लिए भेज दिया जाता है।

स्वर्ग को इस्लाम में जन्नत कहा जाता है और नर्क को दोजख या जेहन्नूम। इसी तरह हर धर्म में यह धारणा है कि ईश्वर ने स्वर्ग और नर्क की रचना की है जहां व्यक्ति को उनके कर्मों के हिसाब से रखा जाता है। पुराणों अनुसार मृत्यु का देवता यमराज आत्माओं को दंड या पुरस्कार देता है। यमराज के मंत्री चित्रगुप्त सभी आत्माओं के कर्मों का हिसाब रखते हैं फिर यम के यमदूत उन्हें स्वर्ग या नर्क में भेज देते हैं। बहुत भयानक है गरुढ़ पुराण।

धर्म के तीन आधार : धर्म को जिंदा बनाए रखने और लोगों में नैतिकता को कायम रखने के तीन आधार है- 1.ईश्वर 2.स्वर्ग-नर्क और प्रॉफेट। यह तीनों ही वेद विरुद्ध माने जा सकते हैं। जब मानव असभ्य और जंगली था तब लोगों को सभ्य और नैतिक बनाने के लिए कुछ लोगों ने भय और लालच का सहारा लिया और लोगों को एक परिवार और समाज में ढाला। डराया ईश्वर और नर्क से और लालच दिया स्वर्ग का, अप्सराओं का। जिन लोगों ने समाज को ईश्वर, स्वर्ग, नर्क से डराकर नए नियम बताए उन्हें फ्रॉफेट माना जाने लगा। फ्रॉफेटों की अपनी किताबें भी होती हैं जिनके प्रति लोग पागल हैं।

वेद इस तरह की कपोल-कल्पनाओं के खिलाफ है। वेद आध्या‍त्म का सच्चा मार्ग ही बताते हैं। वेद अनुसार निश्चित ही व्यक्ति को अपने कर्म, भाव और विचार के अनुसार सद्गति और दुर्गति का सामना करना पड़ता है। जैसे शराब पीने वाले की चेतना गिरने लगती है तो उसे अधोगति कहते हैं और ध्यान करने वाली की चेतना उठने लगती है तो उसे उर्ध्व‍गति कहते हैं। वेद गति को मानता है। यदि आप अच्छी गति और स्थिति में रह हैं तो आप स्वर्ग में हैं और बुरी गति और स्थिति में रह रहे हैं तो आप नर्क में हैं। आदमी चलता फिरता नर्क और स्वर्ग है।
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रामफल

महाकुंभ में आए लोगों के गंगा में डुबकी लगाने के साथ लोग इस फल को खाना नहीं भूलते। मान्यता के अनुसार यह आम फल नहीं बल्कि भगवान राम का फल है। जिसे वनवास के दौरान राम ने सीता और लक्ष्मण के साथ वन में रहने के दौरान खाया था। हल्का मीठा और बाहर नारंगी और अन्दर से हल्के भूरे रंग का यह फल स्वाद में लजीज है। कहते हैं कि इस फल को खाने के बाद इंसान का मन तो शुद्ध होता ही है। साथ ही यह कंदमूल कई रोगों को दूर भी रखता है। इसे बेचने वाले और खाने वाले लोगों का मानना है कि इस फल को खाने से भगवान राम का आशीर्वाद प्राप्त होता है। jai ram shri ram jai jai ram...
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मागी नाव न केवटु आना


* मागी नाव न केवटु आना। कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना॥
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई॥2॥
* छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई॥3॥
* एहिं प्रतिपालउँ सबु परिवारू। नहिं जानउँ कछु अउर कबारू॥
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू। मोहि पद पदुम पखारन कहहू॥4॥
भावार्थ:-जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुंदरी स्त्री हो गई (मेरी नाव तो काठ की है)। काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं। मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जाएगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा (अथवा रास्ता रुक जाएगा, जिससे आप पार न हो सकेंगे और मेरी रोजी मारी जाएगी) (मेरी कमाने-खाने की राह ही मारी जाएगी) तो इसी नाव से सारे परिवार का पालन-पोषण करता हूँ। दूसरा कोई धंधा नहीं जानता। हे प्रभु! यदि तुम अवश्य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरणकमल पखारने (धो लेने) के लिए कह दो!!
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नाम नहीं, कर्म प्रधान

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पुरानी बात हैं। किसीबालक के माँ-बाप ने उसका नाम पापक (पापी) रख दिया। बालक बड़ा हुआ तो उसे यह नाम बहुत बुरा लगने लगा। उसने अपने आचार्य से प्रार्थना की, "भन्ते, मेरा नाम बदल दें। यह नाम बड़ा अप्रिय है, क्योंकि अशुभ और अमांगलिक है।" आचार्य ने उसे समझायाकि नाम तो केवल प्रज्ञप्ति के लिए, व्यवहार-जगत में पुकारने के लिए होता है। नाम बदलने से कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा। कोई पापक नाम रखकर भी सत्कर्मों सेधार्मिक बन सकता है और धार्मिक नाम रहे तो भी दुष्कर्मों से कोई पानी बन सकता है। मुख्य बात तो कर्म की है। नाम बदलने से क्या होगा?
पर वह नहीं माना। आग्रह करता ही रहा। आग्रह करता ही रहा। तब आचार्य ने कहा,"अर्थ-सिद्ध तो कर्म के सुधारने से होगा, परन्तु यदि तू नाम भी सुधारना चाहता है तो जा, गांव भर के लोगों को देख और जिसका नाम तुझे मांगलिक लगे, वह मुझे बता। तेरा नाम वैसा ही बदल दिया जायगा।"
पापक सुन्दर नामवालों की खोज में निकल पड़ा। घर से बाहर निकलते ही उसे शव-यात्रा के दर्शन हुए। पूछा, "कौन मर गया?" लोगों ने बताया"जीवक।" पापक सोचने लगा-नाम जीवक, पर मृत्यु का शिकार हो गया!
आगे बढ़ा तो देखा, किसी दीन-हीन गरीब दुखियारी स्त्री को मारपीट कर घर से, निकाला जा रहा है। पूछा, "कौन है यह?" उत्तर मिला, "धनपाली।" पापक सोचने लगा नाम धनपाली और पैसे-पैसे को मोहताज!
और आगे बढ़ा तो एक आदमी को लोगों से रास्ता पूछते पाया। नाम पूछा तो पता चला-पंथक। पापक फिर सोच में पड़ गया-अरे, पंथक भी पंथ पूछते हैं? पंथ भूलते हैं?
पापक वापस लौट आया। अब नाम के प्रति उसका आकर्षक याविर्कषण दूर हो चुका था। बात समझ में आ गई थी। क्या पड़ा है नाम में? जीवक भी मरते हैं, अ-जीवक भी,धनपाली भी दरिद्र होती है, अधनपाली भी, पंथक राह भूलते हैं, अंपथक भी, जन्म का अंधा नाम नयनसुख, जन्म दुखिया, नाम सदासुख! सचमुच नाम की थोथी महत्ता निरर्थक ही है। रहे नाम पापक, मेरा क्या बिगड़ता है? मैं अपनला कर्म सुधारुंगा। कर्म ही प्रमुख है, कर्म ही प्रधान है।
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मानव और गाय - यह कैसा रिश्ता

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मानव और गाय - यह कैसा रिश्ता?...
खूँटेसे बँधे हुए बछ्ड़ेको मानवने बन्धन-विमुक्त किया। उसने दौड़कर अपनी माँके थन मुँहमें लिये। गायका वात्सल्य-स्त्रोत उमड़ पड़ा और दुग्ध-धारा बछड़ेके मुखमें पड़ने लगी।

इने-गिने क्षण ही बछड़ेको स्तन-पान करते हुए बीते होंगे कि अपनेको दक्ष एवं कर्म-तत्पर माननेवाले मानवने उसकी रस्सी खींचकर पुन: उसे खूँटेसे बाँध दिया। उसकी जननी तड़प उठी। उसने दौड़कर उसके पास जाना चाहा; पर स्वयं भी खूँटेसे बँधी थी। जा न सकी। मन मारकर बेचारी विवश नेत्रोंसे अपने लालाको निहारती रह गई।

इधर मानव अपनेपर...,अपनी करनीपर, अपनी बुद्धिमता पर एवं शक्ति-सम्पन्नता पर गर्व करते हुए दुहनी लेकर गायका दूध दुहने बैठा। सहनशीलताली मूर्ति, करुणाकी मूर्ति गायने किंचिन्मात्र भी विरोध न कर उसके पात्रको दुग्ध से भर दिया।

अपनी मानवतापर गर्व करते हुए मानवने पुन: बछ्ड़े को बन्धन-विमुक्त कर दिया-दुही गायके थन चूसनेमात्रके लिये। गायको भी माता कह, एक-दो हाथ उसके पीठ और गलेपर फेरकर इस युक्ति-विशारदसे उसे (अपनी समझमें) बहला-फुसला दिया।

पर यहीं मानव भूल में था। भोली गाय बहली-फुसली नहीं थी, वरन् उसका भोलापन...उसका सीधापन उस मानवको वह अन्तिम सारभूत तथ्य अवगत करा गया था, जिसे खोज निकालने का श्रेय मानव स्वयं लेता है। ‘सबमें एक आत्मा है, सब एक ही हैं’- इस भावना से विभोर होते हुए उस गाय ने मानवको अपना पुत्र मान लिया और सहज-भावसे,प्रसन्न-मनसे, अपने बछड़ेके भूखा रखते हुए भी वह उसे दूध पिलाने, पिला-पिलाकर पालने-पोसने लगी।

लेकिन सारभूत तत्वकी खोज करनेवाला..उसे खोज निकालनेवाला...उसका दिगिदगन्तमें प्रचार-प्रसार करनेवाला मानव स्वयं उस तत्वको हृदयंगम न कर सका, उसे अपनेमें रचा-पचा न सका। गायको माता कहकर भी वह उसके बछड़ेको अपना छोटा भाई न समझ सका। उसके पेट भर लेनेपर भी दूध दुहन उसे स्वीकार नहीं हुआ।

इतना भी होता तो गनीमत थी, पर मानव तो आज ऐसी करुणामयी गाय- अपनी माताके ही वधपर ही उतारु है? हाय! हाय ! यह कैसा रिश्ता है माँ-बेटेका। यह कैसी मानवता है? अरे मानव ! तुझे ऐसा करते हुए शर्म नहीं आती?

-श्रीहरिकृष्णदासजी गुप्त ’सियहरि’ ("कल्याण" वर्ष ६९ संख्या ७)
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रिश्तों की अहमियत

 मैं घर की नई बहू थी और एक प्राइवेट बैंक में एक अच्छे ओहदे पर काम करती थी। मेरी सास को गुज़रे हुए एक साल हो चुका था। घर में मेरे ससुर और पति...