अंतरिक्ष तथा वायुमंडल में सौरमंडल के चारों ओर ग्रहों की गति से जो शोर हो रहा है वह ॐ की ध्वनि की परिणति है। ॐ ब्रह्माण्ड के अंदर नियमित ध्वनि है। सूक्ष्म इंद्रियों द्वारा ध्यान लगाने पर इसकी अनुभूति हो सकती है।
सर्वत्र व्याप्त होने के कारण इस ध्वनि (ॐ) को ईश्वर (प्रणव) की संज्ञा दी गई है। जो ॐ के अर्थ को जानता है, वह अपने आप को जान लेता है और जो अपने आप को जान लेता है वह ईश्वर को जान लेता है। इसलिए ॐ का ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है। समस्त वेद इसी ॐ की व्याख्या करते हैं।
वैदिक चिंतन में परमात्मा के सर्वोत्तम नाम ॐ की मान्यता है। महाभारत काल के पश्चात इससे भिन्न विचारधाएं चल पड़ीं। बौद्ध तथा जैन विचारधाराओं में ॐ की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आई तथा शैव-संप्रदाय में भी ॐ की प्रतिष्ठा बनी रही। शैव संप्रदाय में 'ॐ नमः शिवायः' मंत्र का प्रचार है जो वेदों के अनुकूल है। शाक्त संप्रदाय भी ॐ का परित्याग नहीं कर सका।
शक्ति की प्रधानता होते हुए भी तांत्रिक मंत्रों में सर्वत्र ॐ का प्रथम उच्चारण होता है। सिक्ख पंथ में एक औंकार की मान्यता है। इसके अतिरिक्त पारसी, यहूदी तथा अन्य मतों में भी किसी न किसी रूप में ॐ के चिह्नों की मान्यता है। कहने का अर्थ है कि ॐ का अस्तित्व सर्वकालीन तथा सार्वभौमिक है।
परमात्मा की स्तुति भूः, भुवः और स्वः इन्हीं तीन मात्राओं से निकली है। सृष्टि, स्थिति और प्रलय का संपादन भी इन्हीं तीन मात्राओं से होता है। सत् चित् आनंद की तीन सत्ताएं भी इन्हीं से प्रकट होती हैं। सभी वैदिक मंत्रों का आरंभ ॐ का उच्चारण कर ही किया जाता है। जैसे नारी नर के बिना फलीभूत नहीं होती इसी प्रकार वेदों की ऋचाएं, श्रुतियां ॐ के उच्चारण के बिना पूर्ण नहीं होतीं।
अधिभौतिक, अधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के दुःखों की शांति का सूचक मंत्र है- ॐ।'
ॐ (ईश्वर) की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहते हैं- 'ईश्वर पूर्ण है, जीव भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है और पूर्ण में पूर्ण निकल जाने के बाद पूर्ण ही शेष रह जाता है। माता के शरीर से संतान के उत्पन्न हो जाने पर शिशु और माता दोनों ही पूर्ण रहते हैं।
विचारों के अनुरूप ही मनुष्य की स्थिति और गति होती है। श्रेष्ठ विचार सौभाग्य का द्वार हैं, जबकि निकृष्ट विचार दुर्भाग्य का,आपको इस ब्लॉग पर प्रेरक कहानी,वीडियो, गीत,संगीत,शॉर्ट्स, गाना, भजन, प्रवचन, घरेलू उपचार इत्यादि मिलेगा । The state and movement of man depends on his thoughts. Good thoughts are the door to good fortune, while bad thoughts are the door to misfortune, you will find moral story, videos, songs, music, shorts, songs, bhajans, sermons, home remedies etc. in this blog.
सभी धर्मों में है ॐ का महत्व! ब्रह्माण्ड की ध्वनि हैं 'ॐ' Om has importance in all religions! 'Om' is the sound of the universe
मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
तिरुपति बालाजी मंदिर वेंकटरमना... गोविंदा...गोविंदा!! Tirupati Balaji Temple Venkataramana...Govinda...Govinda!!
कौशल्या सुप्रजा राम। पूर्व संध्या प्रवर्तते, उठिस्ता। नरसारदुला।
तिरुमाला पर्वत पर स्थित भगवान बालाजी के मंदिर की महत्ता कौन नहीं जानता। इस बार धर्मयात्रा में वेबदुनिया आपके लिए लेकर आया है तिरुपति बालाजी मंदिर। भगवान व्यंकटेश स्वामी को संपूर्ण ब्रह्मांड का स्वामी माना जाता है। हर साल करोड़ों लोग इस मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं। साल के बारह महीनों में एक भी दिन ऐसा नहीं जाता जब यहाँ वेंकटेश्वरस्वामी के दर्शन करने के लिए भक्तों का ताँता न लगा हो। ऐसा माना जाता है कि यह स्थान भारत के सबसे अधिक तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केंद्र है। इसके साथ ही इसे विश्व के सर्वाधिक धनी धार्मिक स्थानों में से भी एक माना जाता है।
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मंदिर के विषय में अनुश्रुति -
प्रभु वेंकटेश्वर या बालाजी को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि प्रभु विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे निवास किया था। यह तालाब तिरुमाला के पास स्थित है। तिरुमाला- तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ, शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिरि' कहलाती हैं। श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है, जो वेंकटाद्री नाम से प्रसिद्ध है।
वहीं एक दूसरी अनुश्रुति के अनुसार, 11वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुपति की इस सातवीं पहाड़ी पर चढ़ाई की थी। प्रभु श्रीनिवास (वेंकटेश्वर का दूसरा नाम) उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया। ऐसा माना जाता है कि प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वे 120 वर्ष की आयु तक जीवित रहे और जगह-जगह घूमकर वेंकटेश्वर भगवान की ख्याति फैलाई।
वैकुंठ एकादशी के अवसर पर लोग यहाँ पर प्रभु के दर्शन के लिए आते हैं, जहाँ पर आने के पश्चात उनके सभी पाप धुल जाते हैं। मान्यता है कि यहाँ आने के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
मंदिर का इतिहास -
माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास 9वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है, जब काँचीपुरम के शासक वंश पल्लवों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था, परंतु 15 सदी के विजयनगर वंश के शासन के पश्चात भी इस मंदिर की ख्याति सीमित रही। 15 सदी के पश्चात इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैलनी शुरू हो गई। 1843 से 1933 ई. तक अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत इस मंदिर का प्रबंधन हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला। 1933 में इस मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और एक स्वतंत्र प्रबंधन समिति 'तिरुमाला-तिरुपति' के हाथ में इस मंदिर का प्रबंधन सौंप दिया। आंध्रप्रदेश के राज्य बनने के पश्चात इस समिति का पुनर्गठन हुआ और एक प्रशासनिक अधिकारी को आंध्रप्रदेश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया गया।
मुख्य मंदिर - श्री वेंकटेश्वर का यह पवित्र व प्राचीन मंदिर पर्वत की वेंकटाद्रि नामक सातवीं चोटी पर स्थित है, जो श्री स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे स्थित है। इसी कारण यहाँ पर बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह भारत के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जिसके पट सभी धर्मानुयायियों के लिए खुले हुए हैं। पुराण व अल्वर के लेख जैसे प्राचीन साहित्य स्रोतों के अनुसार कलियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही मुक्ति संभव है। पचास हजार से भी अधिक श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। इन तीर्थयात्रियों की देखरेख पूर्णतः टीटीडी के संरक्षण में है।मंदिर की चढ़ाई - पैदल यात्रियों हेतु पहाड़ी पर चढ़ने के लिए तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम नामक एक विशेष मार्ग बनाया गया है। इसके द्वारा प्रभु तक पहुँचने की चाह की पूर्ति होती है। साथ ही अलिपिरी से तिरुमाला के लिए भी एक मार्ग है।
केशदान- इसके अंतर्गत श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं। पुराने समय में यह संस्कार घरों में ही नाई के द्वारा संपन्न किया जाता था, पर समय के साथ-साथ इस संस्कार का भी केंद्रीकरण हो गया और मंदिर के पास स्थित 'कल्याण कट्टा' नामक स्थान पर यह सामूहिक रूप से संपन्न किया जाने लगा। अब सभी नाई इस स्थान पर ही बैठते हैं। केशदान के पश्चात यहीं पर स्नान करते हैं और फिर पुष्करिणी में स्नान के पश्चात मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते हैं।
श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं।
सर्वदर्शनम- सर्वदर्शनम से अभिप्राय है 'सभी के लिए दर्शन'। सर्वदर्शनम के लिए प्रवेश द्वार वैकुंठम काम्प्लेक्स है। वर्तमान में टिकट लेने के लिए यहाँ कम्प्यूटरीकृत व्यवस्था है। यहाँ पर निःशुल्क व सशुल्क दर्शन की भी व्यवस्था है। साथ ही विकलांग लोगों के लिए 'महाद्वारम' नामक मुख्य द्वार से प्रवेश की व्यवस्था है, जहाँ पर उनकी सहायता के लिए सहायक भी होते हैं।
प्रसादम- यहाँ पर प्रसाद के रूप में अन्न प्रसाद की व्यवस्था है जिसके अंतर्गत चरणामृत, मीठी पोंगल, दही-चावल जैसे प्रसाद तीर्थयात्रियों को दर्शन के पश्चात दिया जाता है।
लड्डू- पनयारम यानी लड्डू मंदिर के बाहर बेचे जाते हैं, जो यहाँ पर प्रभु के प्रसाद रूप में चढ़ाने के लिए खरीदे जाते हैं। इन्हें खरीदने के लिए पंक्तियों में लगकर टोकन लेना पड़ता है। श्रद्धालु दर्शन के उपरांत लड्डू मंदिर परिसर के बाहर से खरीद सकते हैं।
ब्रह्मोत्सव- तिरुपति का सबसे प्रमुख पर्व 'ब्रह्मोत्सवम' है जिसे मूलतः प्रसन्नता का पर्व माना जाता है। नौ दिनों तक चलने वाला यह पर्व साल में एक बार तब मनाया जाता है, जब कन्या राशि में सूर्य का आगमन होता है (सितंबर, अक्टूबर)। इसके साथ ही यहाँ पर मनाए जाने वाले अन्य पर्व हैं - वसंतोत्सव, तपोत्सव, पवित्रोत्सव, अधिकामासम आदि।
विवाह संस्कार- यहाँ पर एक 'पुरोहित संघम' है, जहाँ पर विभिन्न संस्कारों औऱ रिवाजों को संपन्न किया जाता है। इसमें से प्रमुख संस्कार विवाह संस्कार, नामकरण संस्कार, उपनयन संस्कार आदि संपन्न किए जाते हैं। यहाँ पर सभी संस्कार उत्तर व दक्षिण भारत के सभी रिवाजों के अनुसार संपन्न किए जाते हैं।
रहने की व्यवस्था- तिरुमाला में मंदिर के आसपास रहने की काफी अच्छी व्यवस्था है। विभिन्न श्रेणियों के होटल व धर्मशाला यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। इनकी पहले से बुकिंग टीटीडी के केंद्रीय कार्यालय से कराई जा सकती है। सामान्यतः पूर्व बुकिंग के लिए अग्रिम धनराशि के साथ एक पत्र व सौ रुपए का एक ड्राफ्ट यहाँ पर भेजना पड़ता है।
तिरुमाला पर्वत पर स्थित भगवान बालाजी के मंदिर की महत्ता कौन नहीं जानता। इस बार धर्मयात्रा में वेबदुनिया आपके लिए लेकर आया है तिरुपति बालाजी मंदिर। भगवान व्यंकटेश स्वामी को संपूर्ण ब्रह्मांड का स्वामी माना जाता है। हर साल करोड़ों लोग इस मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं। साल के बारह महीनों में एक भी दिन ऐसा नहीं जाता जब यहाँ वेंकटेश्वरस्वामी के दर्शन करने के लिए भक्तों का ताँता न लगा हो। ऐसा माना जाता है कि यह स्थान भारत के सबसे अधिक तीर्थयात्रियों के आकर्षण का केंद्र है। इसके साथ ही इसे विश्व के सर्वाधिक धनी धार्मिक स्थानों में से भी एक माना जाता है।
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मंदिर के विषय में अनुश्रुति -
प्रभु वेंकटेश्वर या बालाजी को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि प्रभु विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे निवास किया था। यह तालाब तिरुमाला के पास स्थित है। तिरुमाला- तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ, शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिरि' कहलाती हैं। श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है, जो वेंकटाद्री नाम से प्रसिद्ध है।
वहीं एक दूसरी अनुश्रुति के अनुसार, 11वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुपति की इस सातवीं पहाड़ी पर चढ़ाई की थी। प्रभु श्रीनिवास (वेंकटेश्वर का दूसरा नाम) उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया। ऐसा माना जाता है कि प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वे 120 वर्ष की आयु तक जीवित रहे और जगह-जगह घूमकर वेंकटेश्वर भगवान की ख्याति फैलाई।
वैकुंठ एकादशी के अवसर पर लोग यहाँ पर प्रभु के दर्शन के लिए आते हैं, जहाँ पर आने के पश्चात उनके सभी पाप धुल जाते हैं। मान्यता है कि यहाँ आने के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
मंदिर का इतिहास -
माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास 9वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है, जब काँचीपुरम के शासक वंश पल्लवों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था, परंतु 15 सदी के विजयनगर वंश के शासन के पश्चात भी इस मंदिर की ख्याति सीमित रही। 15 सदी के पश्चात इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैलनी शुरू हो गई। 1843 से 1933 ई. तक अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत इस मंदिर का प्रबंधन हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला। 1933 में इस मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और एक स्वतंत्र प्रबंधन समिति 'तिरुमाला-तिरुपति' के हाथ में इस मंदिर का प्रबंधन सौंप दिया। आंध्रप्रदेश के राज्य बनने के पश्चात इस समिति का पुनर्गठन हुआ और एक प्रशासनिक अधिकारी को आंध्रप्रदेश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया गया।
मुख्य मंदिर - श्री वेंकटेश्वर का यह पवित्र व प्राचीन मंदिर पर्वत की वेंकटाद्रि नामक सातवीं चोटी पर स्थित है, जो श्री स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे स्थित है। इसी कारण यहाँ पर बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह भारत के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जिसके पट सभी धर्मानुयायियों के लिए खुले हुए हैं। पुराण व अल्वर के लेख जैसे प्राचीन साहित्य स्रोतों के अनुसार कलियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही मुक्ति संभव है। पचास हजार से भी अधिक श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। इन तीर्थयात्रियों की देखरेख पूर्णतः टीटीडी के संरक्षण में है।मंदिर की चढ़ाई - पैदल यात्रियों हेतु पहाड़ी पर चढ़ने के लिए तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम नामक एक विशेष मार्ग बनाया गया है। इसके द्वारा प्रभु तक पहुँचने की चाह की पूर्ति होती है। साथ ही अलिपिरी से तिरुमाला के लिए भी एक मार्ग है।
केशदान- इसके अंतर्गत श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं। पुराने समय में यह संस्कार घरों में ही नाई के द्वारा संपन्न किया जाता था, पर समय के साथ-साथ इस संस्कार का भी केंद्रीकरण हो गया और मंदिर के पास स्थित 'कल्याण कट्टा' नामक स्थान पर यह सामूहिक रूप से संपन्न किया जाने लगा। अब सभी नाई इस स्थान पर ही बैठते हैं। केशदान के पश्चात यहीं पर स्नान करते हैं और फिर पुष्करिणी में स्नान के पश्चात मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते हैं।
श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड ईश्वर को समर्पित करते हैं।
सर्वदर्शनम- सर्वदर्शनम से अभिप्राय है 'सभी के लिए दर्शन'। सर्वदर्शनम के लिए प्रवेश द्वार वैकुंठम काम्प्लेक्स है। वर्तमान में टिकट लेने के लिए यहाँ कम्प्यूटरीकृत व्यवस्था है। यहाँ पर निःशुल्क व सशुल्क दर्शन की भी व्यवस्था है। साथ ही विकलांग लोगों के लिए 'महाद्वारम' नामक मुख्य द्वार से प्रवेश की व्यवस्था है, जहाँ पर उनकी सहायता के लिए सहायक भी होते हैं।
प्रसादम- यहाँ पर प्रसाद के रूप में अन्न प्रसाद की व्यवस्था है जिसके अंतर्गत चरणामृत, मीठी पोंगल, दही-चावल जैसे प्रसाद तीर्थयात्रियों को दर्शन के पश्चात दिया जाता है।
लड्डू- पनयारम यानी लड्डू मंदिर के बाहर बेचे जाते हैं, जो यहाँ पर प्रभु के प्रसाद रूप में चढ़ाने के लिए खरीदे जाते हैं। इन्हें खरीदने के लिए पंक्तियों में लगकर टोकन लेना पड़ता है। श्रद्धालु दर्शन के उपरांत लड्डू मंदिर परिसर के बाहर से खरीद सकते हैं।
ब्रह्मोत्सव- तिरुपति का सबसे प्रमुख पर्व 'ब्रह्मोत्सवम' है जिसे मूलतः प्रसन्नता का पर्व माना जाता है। नौ दिनों तक चलने वाला यह पर्व साल में एक बार तब मनाया जाता है, जब कन्या राशि में सूर्य का आगमन होता है (सितंबर, अक्टूबर)। इसके साथ ही यहाँ पर मनाए जाने वाले अन्य पर्व हैं - वसंतोत्सव, तपोत्सव, पवित्रोत्सव, अधिकामासम आदि।
विवाह संस्कार- यहाँ पर एक 'पुरोहित संघम' है, जहाँ पर विभिन्न संस्कारों औऱ रिवाजों को संपन्न किया जाता है। इसमें से प्रमुख संस्कार विवाह संस्कार, नामकरण संस्कार, उपनयन संस्कार आदि संपन्न किए जाते हैं। यहाँ पर सभी संस्कार उत्तर व दक्षिण भारत के सभी रिवाजों के अनुसार संपन्न किए जाते हैं।
रहने की व्यवस्था- तिरुमाला में मंदिर के आसपास रहने की काफी अच्छी व्यवस्था है। विभिन्न श्रेणियों के होटल व धर्मशाला यात्रियों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। इनकी पहले से बुकिंग टीटीडी के केंद्रीय कार्यालय से कराई जा सकती है। सामान्यतः पूर्व बुकिंग के लिए अग्रिम धनराशि के साथ एक पत्र व सौ रुपए का एक ड्राफ्ट यहाँ पर भेजना पड़ता है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
भूतभावन-मनभावन महाकाल शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक Ghost-pleasing Mahakaal, one of the twelve Jyotirlingas of Shiva.
शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है मध्यप्रदेश के उज्जैन में स्थित महाकाल मंदिर। यह दुनिया का एकमात्र दक्षिणमुखी शिवलिंग है। तंत्र की दृष्टि से इसे बेहद महत्वपूर्ण माना गया है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार महाकाल की स्तुति महाभारत कालीन वेदव्यास से लेकर कालिदास, बाणभट्ट और राजा भोज आदि ने की है।
प्राचीन श्री महाकाल मंदिर का पुनर्निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था। इसके तकरीबन 140 साल बाद दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने उज्जैन पर आक्रमण कर श्री महाकाल मंदिर को क्षतिग्रस्त कर दिया था। वर्तमान मंदिर मराठाकालीन माना जाता है। इसका जीर्णोद्धार आज से करीब 250 साल पूर्व सिंधिया राजघराने के दीवान बाबा रामचंद्र शैणवी ने करवाया था।
महाकालेश्वर की चित्रमय झलकियाँ
‘‘दूषण नामक दैत्य के अत्याचार से जब उज्जयिनी के निवासी त्रस्त हो गए, तो उन्होंने अपनी रक्षा के लिए शिव की आराधना की। आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ज्योति के रूप में प्रकट हुए। दैत्य का संहार किया और भक्तों के आग्रह पर लिंग के रूप में उज्जयिनी में प्रतिष्ठित हो गए।’’ - शिवपुराण में वर्णित कथा से उद्धृत
महाकाल शिवलिंग दुनिया का एकमात्र शिवलिंग है, जहाँ भस्म आरती की जाती है। यह आरती बेहद अलौकिक होती है। प्रातः 4 से 6 बजे तक वैदिक मंत्रों, स्तोत्र पाठ, वाद्य-यंत्रों, शंख, डमरू और घंटी-घड़ियालों के साथ भस्म आरती की जाती है। बम-बम भोले के जयघोष के साथ यह आरती आपकी अंतःचेतना को जाग्रत करती है। इस आरती में भाग लेने के लिए क्या आम- क्या खास हर व्यक्ति आतुर रहता है।
भस्म आरती के समय पूजा-अर्चना के लिए साधारण वस्त्र धारण कर गर्भगृह में जाने की अनुमति नहीं है। पुरुषों को रेशमी सोला (धोती) और महिलाओं को साड़ी पहनने के बाद ही गर्भगृह में जाने दिया जाता है। मुख्य आरती में सिर्फ पुरुष शामिल होते हैं। इस समय यहाँ स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है। गर्भगृह के बाहर बने नंदी हॉ़ल में दर्शनार्थी इस भस्म आरती का अलौकिक आनंद ले सकते हैं।
“ पहले यहाँ मुर्दों की चिताभस्म से भोलेनाथ का श्रृंगार किया जाता था, लेकिन एक बार चिता की ताजी भस्म नहीं मिलने के कारण महाकाल के पुजारी ने अपने जीवित पुत्र को अग्नि के हवाले कर दिया था और बालक की चिताभस्म से भूतभावन का श्रृंगार किया था। तबसे यहाँ मुर्दे की भस्म की जगह गाय के गोबर के कंडों से बनी भस्म से शिव का श्रृंगार किया जाता है।”
प्राचीन श्री महाकाल मंदिर का पुनर्निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था। इसके तकरीबन 140 साल बाद दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने उज्जैन पर आक्रमण कर श्री महाकाल मंदिर को क्षतिग्रस्त कर दिया था। वर्तमान मंदिर मराठाकालीन माना जाता है। इसका जीर्णोद्धार आज से करीब 250 साल पूर्व सिंधिया राजघराने के दीवान बाबा रामचंद्र शैणवी ने करवाया था।
महाकालेश्वर की चित्रमय झलकियाँ
‘‘दूषण नामक दैत्य के अत्याचार से जब उज्जयिनी के निवासी त्रस्त हो गए, तो उन्होंने अपनी रक्षा के लिए शिव की आराधना की। आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ज्योति के रूप में प्रकट हुए। दैत्य का संहार किया और भक्तों के आग्रह पर लिंग के रूप में उज्जयिनी में प्रतिष्ठित हो गए।’’ - शिवपुराण में वर्णित कथा से उद्धृत
महाकाल शिवलिंग दुनिया का एकमात्र शिवलिंग है, जहाँ भस्म आरती की जाती है। यह आरती बेहद अलौकिक होती है। प्रातः 4 से 6 बजे तक वैदिक मंत्रों, स्तोत्र पाठ, वाद्य-यंत्रों, शंख, डमरू और घंटी-घड़ियालों के साथ भस्म आरती की जाती है। बम-बम भोले के जयघोष के साथ यह आरती आपकी अंतःचेतना को जाग्रत करती है। इस आरती में भाग लेने के लिए क्या आम- क्या खास हर व्यक्ति आतुर रहता है।
भस्म आरती के समय पूजा-अर्चना के लिए साधारण वस्त्र धारण कर गर्भगृह में जाने की अनुमति नहीं है। पुरुषों को रेशमी सोला (धोती) और महिलाओं को साड़ी पहनने के बाद ही गर्भगृह में जाने दिया जाता है। मुख्य आरती में सिर्फ पुरुष शामिल होते हैं। इस समय यहाँ स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है। गर्भगृह के बाहर बने नंदी हॉ़ल में दर्शनार्थी इस भस्म आरती का अलौकिक आनंद ले सकते हैं।
“ पहले यहाँ मुर्दों की चिताभस्म से भोलेनाथ का श्रृंगार किया जाता था, लेकिन एक बार चिता की ताजी भस्म नहीं मिलने के कारण महाकाल के पुजारी ने अपने जीवित पुत्र को अग्नि के हवाले कर दिया था और बालक की चिताभस्म से भूतभावन का श्रृंगार किया था। तबसे यहाँ मुर्दे की भस्म की जगह गाय के गोबर के कंडों से बनी भस्म से शिव का श्रृंगार किया जाता है।”
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
भगवान दत्तात्रेय विष्णु के अवतार - आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी Lord Dattatreya Incarnation of Vishnu - Acharya Govind Ballabh Joshi
मार्गशीर्ष का महीना विवाह पंचमी, गीता जयंती आदि विशेष पर्वों के कारण महत्व तो रखता ही है साथ ही इस महीने की पूर्णता दत्तात्रेय जयंती के रूप में पूर्णमासी को होने के कारण विशेष महत्व रखता है। सनातन वैदिक उपासना एवं सन्यास धर्म में दत्तात्रेय भगवान का विशेष महत्व है। इस पर्व के दिन सद्गृहस्थों के यहां व्रत पूजन तो होता ही है लेकिन दशनाम सन्यासियों के अखाड़ों में विशेष अध्यात्मिक प्रवचन भी चलते हैं जिससे आराधाना और साधना से विशेष पुण्य प्राप्त होता है।
महायोगीश्वर दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को प्रदोष काल में हुआ। अतः इस दिन बड़े समारोहपूर्वक दत्त जयंती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत में आया है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रिके व्रत करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः' मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया-विष्णु के ऐसा कहने से भगवान विष्णु ही अत्रि के पुत्र रूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाए। अत्रिपुत्र होने से ये आत्रेय कहलाते हैं।
दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका दत्तात्रेय नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनसूया है, उनका पतिव्रता धर्म संसार में प्रसिद्ध है। पुराणों में कथा आती है, ब्रह्माणी, रुद्राणी और लक्ष्मी को अपने पतिव्रत धर्म पर गर्व हो गया। भगवान को अपने भक्त का अभिमान सहन नहीं होता तब उन्होंने एक अद्भुत लीला करने की सोची।
भक्त वत्सल भगवान ने देवर्षि नारद के मन में प्रेरणा उत्पन्न की। नारद घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों के पास बारी-बारी जाकर कहा-अत्रिपत्नी अनसूया के समक्ष आपको सतीत्व नगण्य है। तीनों देवियों ने अपने स्वामियों-विष्णु, महेश और ब्रह्मा से देवर्षि नारद की यह बात बताई और उनसे अनसूया के पातिव्रत्य की परीक्षा करने को कहा।
देवताओं ने बहुत समझाया परंतु उन देवियों के हठ के सामने उनकी एक न चली। अन्ततः साधुवेश बनाकर वे तीनों देव अत्रिमुनि के आश्रम में पहुंचे। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। अतिथियों को आया देख देवी अनसूया ने उन्हें प्रणामकर अर्घ्य, कंदमूलादि अर्पित किए किंतु वे बोले हम लोग तब तक आतिथ्य स्वीकार न करेंगे जब तक आप हमें अपने गोद में बिठाकर भोजन नहीं कराती।
यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनसूया अवाक् रह गईं किंतु आतिथ्य धर्म की महिमा का लोप न जए इस दृष्टि से उन्होंने नारायण का ध्यान किया। अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान की लीला समझकर वे बोलीं- यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छह-छह मास के शिशु हो जाएं। इतना कहना ही था कि तीनों देव छह मास के शिशु हो रुदन करने लगे।
तब माता ने उन्हें गोद में लेकर दुग्ध पान कराया फिर पालने में झुलाने लगीं। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया। इधर देवलोक में जब तीनों देव वापस न आए तो तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो गईं। फलतः नारद आए और उन्होंने संपूर्ण हाल कह सुनाया। तीनों देवियां अनसूया के पास आईं और उन्होंने उनसे क्षमा मांगी।
देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनसूया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं-आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। तथास्तु- कहकर तीनों देव और देवियां अपने-अपने लोक को चले गए।
कालांतर में ये ही तीनों देव अनसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय श्रीविष्णु भगवान के ही अवतार हैं और इन्हीं के आविर्भाव की तिथि दत्तात्रेय जयंती कहलाती है। भगवान दत्तात्रेय कृपा की मूर्ति कहे जाते हैं।
परम भक्त वत्सल दत्तात्रेय भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुंच जाते हैं। इसीलिए इन्हें स्मृतिगामी तथा स्मृतिमात्रानुगन्ता भी कहा गया है। ये विद्या के परम आचार्य हैं। भगवान दत्तजी के नाम पर दत्त संप्रदाय दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है।
महायोगीश्वर दत्तात्रेय भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को प्रदोष काल में हुआ। अतः इस दिन बड़े समारोहपूर्वक दत्त जयंती का उत्सव मनाया जाता है। श्रीमद्भागवत में आया है कि पुत्र प्राप्ति की इच्छा से महर्षि अत्रिके व्रत करने पर 'दत्तो मयाहमिति यद् भगवान् स दत्तः' मैंने अपने-आपको तुम्हें दे दिया-विष्णु के ऐसा कहने से भगवान विष्णु ही अत्रि के पुत्र रूप में अवतरित हुए और दत्त कहलाए। अत्रिपुत्र होने से ये आत्रेय कहलाते हैं।
दत्त और आत्रेय के संयोग से इनका दत्तात्रेय नाम प्रसिद्ध हो गया। इनकी माता का नाम अनसूया है, उनका पतिव्रता धर्म संसार में प्रसिद्ध है। पुराणों में कथा आती है, ब्रह्माणी, रुद्राणी और लक्ष्मी को अपने पतिव्रत धर्म पर गर्व हो गया। भगवान को अपने भक्त का अभिमान सहन नहीं होता तब उन्होंने एक अद्भुत लीला करने की सोची।
भक्त वत्सल भगवान ने देवर्षि नारद के मन में प्रेरणा उत्पन्न की। नारद घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों के पास बारी-बारी जाकर कहा-अत्रिपत्नी अनसूया के समक्ष आपको सतीत्व नगण्य है। तीनों देवियों ने अपने स्वामियों-विष्णु, महेश और ब्रह्मा से देवर्षि नारद की यह बात बताई और उनसे अनसूया के पातिव्रत्य की परीक्षा करने को कहा।
देवताओं ने बहुत समझाया परंतु उन देवियों के हठ के सामने उनकी एक न चली। अन्ततः साधुवेश बनाकर वे तीनों देव अत्रिमुनि के आश्रम में पहुंचे। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। अतिथियों को आया देख देवी अनसूया ने उन्हें प्रणामकर अर्घ्य, कंदमूलादि अर्पित किए किंतु वे बोले हम लोग तब तक आतिथ्य स्वीकार न करेंगे जब तक आप हमें अपने गोद में बिठाकर भोजन नहीं कराती।
यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनसूया अवाक् रह गईं किंतु आतिथ्य धर्म की महिमा का लोप न जए इस दृष्टि से उन्होंने नारायण का ध्यान किया। अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान की लीला समझकर वे बोलीं- यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छह-छह मास के शिशु हो जाएं। इतना कहना ही था कि तीनों देव छह मास के शिशु हो रुदन करने लगे।
तब माता ने उन्हें गोद में लेकर दुग्ध पान कराया फिर पालने में झुलाने लगीं। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गया। इधर देवलोक में जब तीनों देव वापस न आए तो तीनों देवियां अत्यंत व्याकुल हो गईं। फलतः नारद आए और उन्होंने संपूर्ण हाल कह सुनाया। तीनों देवियां अनसूया के पास आईं और उन्होंने उनसे क्षमा मांगी।
देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्वरूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनसूया से वर मांगने को कहा तो देवी बोलीं-आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। तथास्तु- कहकर तीनों देव और देवियां अपने-अपने लोक को चले गए।
कालांतर में ये ही तीनों देव अनसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय श्रीविष्णु भगवान के ही अवतार हैं और इन्हीं के आविर्भाव की तिथि दत्तात्रेय जयंती कहलाती है। भगवान दत्तात्रेय कृपा की मूर्ति कहे जाते हैं।
परम भक्त वत्सल दत्तात्रेय भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुंच जाते हैं। इसीलिए इन्हें स्मृतिगामी तथा स्मृतिमात्रानुगन्ता भी कहा गया है। ये विद्या के परम आचार्य हैं। भगवान दत्तजी के नाम पर दत्त संप्रदाय दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
शंकराचार्य को जानें
शंकराचार्य जयंती पर विशेष
WD
'शंकरो शंकर: साक्षात्'।
शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।
लेकिन हिंदुओं के साधुजनों और ब्राह्मणों ने मिलकर सब कुछ मटियामेट कर दिया। अब चार की जगह चालीस शंकराचार्य होंगे और उन सभी की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियाँ और ठाठ-बाट है क्योंकि उनके पीछे चलने वाले उनके चेले-चपाटियों की भरमार है जो उनके अहंकार को पोषित करते रहते हैं।
शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहाँ हुआ। मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं। चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-
1. वेदान्त ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।
2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
3. शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
4. ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)
शंकराचार्य के चार शिष्य : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)। माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।
ग्रंथ : शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया।
दसनामी सम्प्रदाय : शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।
दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। कठिन योग साधना और धर्मप्रचार में ही उनका सारा जीवन बितता है। दसनामी संप्रदाय में शैव और वैष्णव दोनों ही तरह के साधु होते हैं।
यह दस संप्रदाय निम्न हैं : 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।
हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी अवधेशानंद गिरि।
शंकराचार्य का दर्शन : शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में है।
अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।
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'शंकरो शंकर: साक्षात्'।
शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।
लेकिन हिंदुओं के साधुजनों और ब्राह्मणों ने मिलकर सब कुछ मटियामेट कर दिया। अब चार की जगह चालीस शंकराचार्य होंगे और उन सभी की अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियाँ और ठाठ-बाट है क्योंकि उनके पीछे चलने वाले उनके चेले-चपाटियों की भरमार है जो उनके अहंकार को पोषित करते रहते हैं।
शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहाँ हुआ। मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं। चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-
1. वेदान्त ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।
2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
3. शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
4. ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)
शंकराचार्य के चार शिष्य : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)। माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे।
ग्रंथ : शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएँ की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया।
दसनामी सम्प्रदाय : शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।
दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते। कठिन योग साधना और धर्मप्रचार में ही उनका सारा जीवन बितता है। दसनामी संप्रदाय में शैव और वैष्णव दोनों ही तरह के साधु होते हैं।
यह दस संप्रदाय निम्न हैं : 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।
हिंदू साधुओं के नाम के आगे स्वामी और अंत में उसने जिस संप्रदाय में दीक्षा ली है उस संप्रदाय का नाम लगाया जाता है, जैसे- स्वामी अवधेशानंद गिरि।
शंकराचार्य का दर्शन : शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे। शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि 'ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।' आत्मा की गति मोक्ष में है।
अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया। वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
दसनामी संप्रदाय-हिंदू संत धारा को जानें Know the Dasnami sect-Hindu saint stream
हिंदू संत धारा को जानें
वर्तमान दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथा वाचकों की फौज खड़ी हो गई है और हिंदुजन भी हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेकर उसका बड़ा-सा फोटो घर में लगाकर उसकी पूजा करता है। उसका नाम या फोटो जड़ित लाकेट गले में पहनता है। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाएगा।
हिंदू संत बनना बहुत कठिन है क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है। इस कठिनाई, अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधु और संत कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिंदू समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है। हालाँकि इनमें से कमतर ही सच्चे संत होते हैं।
हिंदू संन्यास की कुछ पद्धतियाँ है। इन पद्धतियों के सम्प्रदायों में दीक्षित व्यक्ति को ही हिंदुओं का संत माना जाता है। इस संन्यास परम्परा से जो बाहर है वे संत जरूर हो सकते हैं, लेकिन हिंदू संत नहीं। इस संत धारा से जो बाहर है उनमें से ज्यादातर ने हिंदू धर्म की मनमानी व्याखाएँ करके अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर रखी है और यह भी कि उन्होंने हिंदुजन को भरमाकर उनका शोषण कर स्वयं के धार्मिक व्यापार को विस्तार दिया है।
स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने वालों में जैसे संत आसाराम, दादा लेखराज, सत्यसाँई बाबा, महर्षि महेष योगी, श्रीराम शर्मा आचार्य, श्रीश्री रविशंकर आदि असंख्य लोग हैं। इनमें कौन सही और कौन गलत है यह तो जनता ही तय करती है।
हिंदू संत समाज तीन भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियाँ हैं, लेकिन तीनों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है। यह तीन सम्प्रदाय है- A. वैष्णव B.शैव और C.स्मृति। वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्वणव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है। हालाँकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियाँ प्रचलन में थी।
A) शैव संप्रदाय :
शिव को मानने वाले शैव संप्रदाय वाले हैं। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत और दसनामी अधिक प्रसिद्ध हैं। शाक्त और नाथ संप्रदाय भी शैव संप्रदाय का ही अंग है। सभी में दसनामी संप्रदाय ही अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध है। शाक्त और नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति तो शैव और वैष्णव संप्रदाय में समन्वय की भावना से हुई थी।
*दसनामी संप्रदाय :
हिंदू संन्यास की दसनामी पद्धतियों में से किसी एक पद्धति में हिंदू व्यक्ति जब संन्यास लेता है तो उसको नया नाम दिया जाता है। नए नाम के आगे स्वामी और नाम के साथ आनंद जुड़ा होता है अंत में जिस भी पद्धति से संन्यास लिया है उसका नाम होता है। जैसे कि स्वामी अवधेशानंद गिरि- इसमें 'स्वामी' स्वयं के मालिक होने का सूचक है जो सभी दसनामी संतों के नाम के पूर्व जोड़ा जाता है अवधेशानंद में से 'अवधेश' व्यक्ति को दिया गया नाम है जिसमें 'आनंद' जोड़ा जाता है जोकि सभी संतों के नाम के बाद जोड़ा जाता है। अंत में 'गिरि' दसनामी सम्प्रदायों में से एक संप्रदाय का नाम है।
इसी तरह नाथ शब्द का उपयोग भी वही कर सकता है जो कि हिंदू संन्यास पद्धति से दीक्षित हुआ है। अन्य किसी को भी इन शब्दों का इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है, लेकिन मनमानी स्वतंत्रता और राजनीतिज्ञ संवरक्षण के चलते हर कोई स्वामी, आचार्य और आनंद शब्द का इस्तेमाल कर लेता है। जो जानकार है वे जानबूझ कर भी उक्त शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन जिसे हिंदू धर्म की परवाह नहीं है वे ही ऐसा करते हैं।
*संत नाम विशेषण और प्रत्यय : परमहंस, महर्षि, ऋषि, स्वामी, आचार्य, महंत, संन्यासी, नाथ और आनंद आदि।
*दसनामी संप्रदाय : गिरि, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम।
*दसनामी पद्धति :
शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। यह भारत के दस भाग का हिस्सा भी है। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे जो दस क्षेत्रों में बँटें थे जिनके एक एक मठाधीश थे।
दसनामी व्यक्तित्व : दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। हर सुबह वे ललाट पर राख से तीन या दो क्षैतिज रेखाएँ बना लेते। तीन रेखाएँ शिव के त्रिशूल का प्रतीक होती है, दो रेखाओं के साथ एक बिन्दी ऊपर या नीचे बनाते, जो शिवलिंग का प्रतीक होती है। इनमें निर्वस्त्रधारियों को नगा बाबा कहते हैं। दसनामी संत 'नमो नारायण' या 'नम: शिवाय' से शिव की आराधना करते हैं।
नाथ सम्प्रदाय : प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरख नाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं:-
नाथ व्यक्ति : परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं......
प्रारम्भिक दस नाथ:
आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ। इनके बारह शिष्य थे जो इस क्रम में है- नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ।
चौरासी और नौ नाथ परम्परा : आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे। सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे। उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चौरासी मानी गई है।
नौ नाथ गुरु : 1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ। इसके अलावा ये भी हैं: 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ।
ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। बाबा शिलनाथ, दादाधूनी वाले, गजानन महाराज, गोगा नाथ, पंढरीनाथ और साईं बाब को भी नाथ परंपरा का माना जाता है। उल्लेखनीय है कि भगवान दत्तात्रेय को वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदाय का माना जाता है, क्योंकि उनकी भी नाथों में गणना की जाती है। भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं।
B) वैष्णव संप्रदाय :
वैष्णव भगवान विष्णु और उनके अवतारों को मानने वालों का संप्रदाय है। इसे भागवत संप्रदाय भी कहते हैं। मुख्यत: ईश्वर के अलावा ये लोग, विष्णु, राम और कृष्ण के भक्त होते हैं। इसलिए इसके मुख्यत: तीन विभाजन है कृष्णनामी, रामनामी और नारायण। इनका मूल जाप मंत्र है: 'श्रीमन नारायण, नायायण हरि हरि। भजमन नारायण नारायण हरि हरि' और इसके अलावा ये 'हरे रामा हरे कृष्णा' का भी जाप करते हैं।
वैष्णव संप्रदाय के संतों के नाम के आगे महर्षि या स्वामी और नाम के अंत में आचार्य का प्रयोग होता है, जैसे महर्षि वल्लभाचार्य और स्वामी रामानंदाचार्य। वैष्णव सम्प्रदाय के अनेकों उप संप्रदाय भी हो चले हैं उनमें प्रमुख हैं- 1.वल्लभ 2.रामानंद 3.माधव 4.बैरागी, 5.दास 6.निम्बार्क, 7.गौड़ीय, 8.श्री संप्रदाय आदि। इसमें बैरागी और रामानंद का संप्रदाय ही अधिक प्रसिद्ध है।
विष्णु के भक्त श्वेत वस्त्र पहनते, सिर मुँड़ाकर रखते, जबकि दसनामी जटाएँ धारण करते हैं। दसनामियों की तरह वैष्णवों के भी कई मठ है। सीता और राम के भक्त तुलसी के 108 मनकों की अपनी माला, तीन कोनों वाली लाठी और ललाट पर दो सफेद और एक ऊर्ध्वाकार धारियों से पहचाने जाते हैं। राधाकृष्ण के भक्त ललाट पर नाल के आकार की सफेद या काली धारी बनाते थे और गले में एक ही तुलसी की माला पहनते थे।
शैव और वैष्णवों के प्रमुख अखाड़े : जूना अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, आह्वान अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा एवं अटल अखाड़ा। वैष्णवों में बैरागी, उदासीन, रामादंन और निर्मल अखाड़ा।
दर्जा : हर मठ, अणि, नाथ के अनुयायियों के बीच प्रत्येक साधु को उसकी आध्यात्मिक उपलब्धियों के मुताबिक दर्जा प्राप्त है। नौसिखुआ से लेकर अवधूत और परमहंस तक। पूरे देश में मुश्किल से 10 या 12 परमहंस होंगे। पिछले सौ वर्षों में सबसे महान परमहंस थे दक्षिणेश्वर के संत रामकृष्ण। परमहंस से ऊपर भगवान होते हैं। भगवान से ऊपर ईश्वर की सत्ता मानी गई है।
C). स्मृति आधारित संप्रदाय : जो सिर्फ एक निराकार परमेश्वर को ही मानकर उन्हीं की आराधना या स्मरण करता है तथा सभी तरह के वैदिक नियमों को मानता है उसे स्मृति आधारित संप्रदाय के अंतर्गत माना जाता है। इस संप्रदाय के भी अनेकों उप संप्रदाय है। यहाँ स्मृति आधारित संप्रदाय लिखने का उद्येश्य है कि उक्त दो संप्रदायों से अलग जो संप्रदाय है वे इसी के अंतर्गत मान लिए जाते हैं।
नोट : उक्त आलेख में सुधार या कुछ अतिरिक्त जोड़ने के लिए हमें अवगत कराएँ
वर्तमान दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथा वाचकों की फौज खड़ी हो गई है और हिंदुजन भी हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेकर उसका बड़ा-सा फोटो घर में लगाकर उसकी पूजा करता है। उसका नाम या फोटो जड़ित लाकेट गले में पहनता है। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाएगा।
हिंदू संत बनना बहुत कठिन है क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है। इस कठिनाई, अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधु और संत कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिंदू समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है। हालाँकि इनमें से कमतर ही सच्चे संत होते हैं।
हिंदू संन्यास की कुछ पद्धतियाँ है। इन पद्धतियों के सम्प्रदायों में दीक्षित व्यक्ति को ही हिंदुओं का संत माना जाता है। इस संन्यास परम्परा से जो बाहर है वे संत जरूर हो सकते हैं, लेकिन हिंदू संत नहीं। इस संत धारा से जो बाहर है उनमें से ज्यादातर ने हिंदू धर्म की मनमानी व्याखाएँ करके अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर रखी है और यह भी कि उन्होंने हिंदुजन को भरमाकर उनका शोषण कर स्वयं के धार्मिक व्यापार को विस्तार दिया है।
स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने वालों में जैसे संत आसाराम, दादा लेखराज, सत्यसाँई बाबा, महर्षि महेष योगी, श्रीराम शर्मा आचार्य, श्रीश्री रविशंकर आदि असंख्य लोग हैं। इनमें कौन सही और कौन गलत है यह तो जनता ही तय करती है।
हिंदू संत समाज तीन भागों में विभाजित है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियाँ हैं, लेकिन तीनों ही सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है। यह तीन सम्प्रदाय है- A. वैष्णव B.शैव और C.स्मृति। वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ, रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ, शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य और वैष्वणव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है। हालाँकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियाँ प्रचलन में थी।
A) शैव संप्रदाय :
शिव को मानने वाले शैव संप्रदाय वाले हैं। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत और दसनामी अधिक प्रसिद्ध हैं। शाक्त और नाथ संप्रदाय भी शैव संप्रदाय का ही अंग है। सभी में दसनामी संप्रदाय ही अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध है। शाक्त और नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति तो शैव और वैष्णव संप्रदाय में समन्वय की भावना से हुई थी।
*दसनामी संप्रदाय :
हिंदू संन्यास की दसनामी पद्धतियों में से किसी एक पद्धति में हिंदू व्यक्ति जब संन्यास लेता है तो उसको नया नाम दिया जाता है। नए नाम के आगे स्वामी और नाम के साथ आनंद जुड़ा होता है अंत में जिस भी पद्धति से संन्यास लिया है उसका नाम होता है। जैसे कि स्वामी अवधेशानंद गिरि- इसमें 'स्वामी' स्वयं के मालिक होने का सूचक है जो सभी दसनामी संतों के नाम के पूर्व जोड़ा जाता है अवधेशानंद में से 'अवधेश' व्यक्ति को दिया गया नाम है जिसमें 'आनंद' जोड़ा जाता है जोकि सभी संतों के नाम के बाद जोड़ा जाता है। अंत में 'गिरि' दसनामी सम्प्रदायों में से एक संप्रदाय का नाम है।
इसी तरह नाथ शब्द का उपयोग भी वही कर सकता है जो कि हिंदू संन्यास पद्धति से दीक्षित हुआ है। अन्य किसी को भी इन शब्दों का इस्तेमाल करने का अधिकार नहीं है, लेकिन मनमानी स्वतंत्रता और राजनीतिज्ञ संवरक्षण के चलते हर कोई स्वामी, आचार्य और आनंद शब्द का इस्तेमाल कर लेता है। जो जानकार है वे जानबूझ कर भी उक्त शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन जिसे हिंदू धर्म की परवाह नहीं है वे ही ऐसा करते हैं।
*संत नाम विशेषण और प्रत्यय : परमहंस, महर्षि, ऋषि, स्वामी, आचार्य, महंत, संन्यासी, नाथ और आनंद आदि।
*दसनामी संप्रदाय : गिरि, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम।
*दसनामी पद्धति :
शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। यह भारत के दस भाग का हिस्सा भी है। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे जो दस क्षेत्रों में बँटें थे जिनके एक एक मठाधीश थे।
दसनामी व्यक्तित्व : दसनामी सम्प्रदाय के साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। हर सुबह वे ललाट पर राख से तीन या दो क्षैतिज रेखाएँ बना लेते। तीन रेखाएँ शिव के त्रिशूल का प्रतीक होती है, दो रेखाओं के साथ एक बिन्दी ऊपर या नीचे बनाते, जो शिवलिंग का प्रतीक होती है। इनमें निर्वस्त्रधारियों को नगा बाबा कहते हैं। दसनामी संत 'नमो नारायण' या 'नम: शिवाय' से शिव की आराधना करते हैं।
नाथ सम्प्रदाय : प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरख नाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं:-
नाथ व्यक्ति : परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को 'सींगी सेली' कहते हैं।
इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं......
प्रारम्भिक दस नाथ:
आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ। इनके बारह शिष्य थे जो इस क्रम में है- नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ।
चौरासी और नौ नाथ परम्परा : आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे। सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे। उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चौरासी मानी गई है।
नौ नाथ गुरु : 1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ। इसके अलावा ये भी हैं: 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ।
ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। बाबा शिलनाथ, दादाधूनी वाले, गजानन महाराज, गोगा नाथ, पंढरीनाथ और साईं बाब को भी नाथ परंपरा का माना जाता है। उल्लेखनीय है कि भगवान दत्तात्रेय को वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदाय का माना जाता है, क्योंकि उनकी भी नाथों में गणना की जाती है। भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं।
B) वैष्णव संप्रदाय :
वैष्णव भगवान विष्णु और उनके अवतारों को मानने वालों का संप्रदाय है। इसे भागवत संप्रदाय भी कहते हैं। मुख्यत: ईश्वर के अलावा ये लोग, विष्णु, राम और कृष्ण के भक्त होते हैं। इसलिए इसके मुख्यत: तीन विभाजन है कृष्णनामी, रामनामी और नारायण। इनका मूल जाप मंत्र है: 'श्रीमन नारायण, नायायण हरि हरि। भजमन नारायण नारायण हरि हरि' और इसके अलावा ये 'हरे रामा हरे कृष्णा' का भी जाप करते हैं।
वैष्णव संप्रदाय के संतों के नाम के आगे महर्षि या स्वामी और नाम के अंत में आचार्य का प्रयोग होता है, जैसे महर्षि वल्लभाचार्य और स्वामी रामानंदाचार्य। वैष्णव सम्प्रदाय के अनेकों उप संप्रदाय भी हो चले हैं उनमें प्रमुख हैं- 1.वल्लभ 2.रामानंद 3.माधव 4.बैरागी, 5.दास 6.निम्बार्क, 7.गौड़ीय, 8.श्री संप्रदाय आदि। इसमें बैरागी और रामानंद का संप्रदाय ही अधिक प्रसिद्ध है।
विष्णु के भक्त श्वेत वस्त्र पहनते, सिर मुँड़ाकर रखते, जबकि दसनामी जटाएँ धारण करते हैं। दसनामियों की तरह वैष्णवों के भी कई मठ है। सीता और राम के भक्त तुलसी के 108 मनकों की अपनी माला, तीन कोनों वाली लाठी और ललाट पर दो सफेद और एक ऊर्ध्वाकार धारियों से पहचाने जाते हैं। राधाकृष्ण के भक्त ललाट पर नाल के आकार की सफेद या काली धारी बनाते थे और गले में एक ही तुलसी की माला पहनते थे।
शैव और वैष्णवों के प्रमुख अखाड़े : जूना अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, आह्वान अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा एवं अटल अखाड़ा। वैष्णवों में बैरागी, उदासीन, रामादंन और निर्मल अखाड़ा।
दर्जा : हर मठ, अणि, नाथ के अनुयायियों के बीच प्रत्येक साधु को उसकी आध्यात्मिक उपलब्धियों के मुताबिक दर्जा प्राप्त है। नौसिखुआ से लेकर अवधूत और परमहंस तक। पूरे देश में मुश्किल से 10 या 12 परमहंस होंगे। पिछले सौ वर्षों में सबसे महान परमहंस थे दक्षिणेश्वर के संत रामकृष्ण। परमहंस से ऊपर भगवान होते हैं। भगवान से ऊपर ईश्वर की सत्ता मानी गई है।
C). स्मृति आधारित संप्रदाय : जो सिर्फ एक निराकार परमेश्वर को ही मानकर उन्हीं की आराधना या स्मरण करता है तथा सभी तरह के वैदिक नियमों को मानता है उसे स्मृति आधारित संप्रदाय के अंतर्गत माना जाता है। इस संप्रदाय के भी अनेकों उप संप्रदाय है। यहाँ स्मृति आधारित संप्रदाय लिखने का उद्येश्य है कि उक्त दो संप्रदायों से अलग जो संप्रदाय है वे इसी के अंतर्गत मान लिए जाते हैं।
नोट : उक्त आलेख में सुधार या कुछ अतिरिक्त जोड़ने के लिए हमें अवगत कराएँ
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
शत्रु शमन के लिए : To subdue the enemy:
साबुत उड़द की काली दाल के 38 और चावल के 40 दाने मिलाकर किसी गड्ढे में दबा दें और ऊपर से नीबू निचोड़ दें। नीबू निचोड़ते समय शत्रु का नाम लेते रहें, उसका शमन होगा और वह आपके विरुद्ध कोई कदमनहींउठाएगा।
अकारण परेशान करने वाले व्यक्ति से शीघ्र छुटकारा पाने के लिए :
यदि कोई व्यक्ति बगैर किसी कारण के परेशान कर रहा हो, तो शौच क्रिया काल में शौचालय में बैठे-बैठे वहीं के पानी से उस व्यक्ति का नाम लिखें और बाहर निकलने से पूर्व जहां पानी से नाम लिखा था, उस स्थान पर अप बाएं पैर से तीन बार ठोकर मारें। ध्यान रहे, यहप्रयोग स्वार्थवश न करें, अन्यथा हानि हो सकती
अकारण परेशान करने वाले व्यक्ति से शीघ्र छुटकारा पाने के लिए :
यदि कोई व्यक्ति बगैर किसी कारण के परेशान कर रहा हो, तो शौच क्रिया काल में शौचालय में बैठे-बैठे वहीं के पानी से उस व्यक्ति का नाम लिखें और बाहर निकलने से पूर्व जहां पानी से नाम लिखा था, उस स्थान पर अप बाएं पैर से तीन बार ठोकर मारें। ध्यान रहे, यहप्रयोग स्वार्थवश न करें, अन्यथा हानि हो सकती
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
kary Sidhi K liye - to accomplish the task -कार्य की सिद्धि के लिए
किसी कार्य की सिद्धि के लिए जाते समय घर से निकलने से पूर्व ही अपने हाथ में रोटी ले लें। मार्ग में जहां भी कौए दिखलाई दें, वहां उस रोटी के टुकड़े कर के डाल दें और आगे बढ़ जाएं। इससे सफलता प्राप्त होती है।
॰ किसी भी आवश्यक कार्य के लिए घर से निकलते समय घर की देहली के बाहर, पूर्व दिशा की ओर, एक मुट्ठी घुघंची को रख कर अपना कार्य बोलते हुए, उस पर बलपूर्वक पैर रख कर, कार्य हेतु निकल जाएं, तो अवश्य ही कार्य में सफलता मिलती है।
॰ अगर किसी काम से जाना हो, तो एक नींबू लें। उसपर 4 लौंग गाड़ दें तथा इस मंत्र का जाप करें : `ॐ श्री हनुमते नम:´। 21 बार जाप करने के बाद उसको साथ ले कर जाएं। काम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आएगी।
॰ चुटकी भर हींग अपने ऊपर से वार कर उत्तर दिशा में फेंक दें। प्रात:काल तीन हरी इलायची को दाएँ हाथ में रखकर “श्रीं श्रीं´´ बोलें, उसे खा लें, फिर बाहर जाए¡।
प्रातः सोकर उठने के बाद नियमित रूप से अपनी हथेलियों को ध्यानपूर्वक देखें और तीन बार चूमें। ऐसा करने से हर कार्य में सफलता मिलती है। यह क्रिया शनिवार से शुरू करें।
॰ किसी भी आवश्यक कार्य के लिए घर से निकलते समय घर की देहली के बाहर, पूर्व दिशा की ओर, एक मुट्ठी घुघंची को रख कर अपना कार्य बोलते हुए, उस पर बलपूर्वक पैर रख कर, कार्य हेतु निकल जाएं, तो अवश्य ही कार्य में सफलता मिलती है।
॰ अगर किसी काम से जाना हो, तो एक नींबू लें। उसपर 4 लौंग गाड़ दें तथा इस मंत्र का जाप करें : `ॐ श्री हनुमते नम:´। 21 बार जाप करने के बाद उसको साथ ले कर जाएं। काम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आएगी।
॰ चुटकी भर हींग अपने ऊपर से वार कर उत्तर दिशा में फेंक दें। प्रात:काल तीन हरी इलायची को दाएँ हाथ में रखकर “श्रीं श्रीं´´ बोलें, उसे खा लें, फिर बाहर जाए¡।
प्रातः सोकर उठने के बाद नियमित रूप से अपनी हथेलियों को ध्यानपूर्वक देखें और तीन बार चूमें। ऐसा करने से हर कार्य में सफलता मिलती है। यह क्रिया शनिवार से शुरू करें।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
भगवान ब्रह्मा का कुल Clan of Lord Brahma
ब्रह्मा हिन्दू धर्म में एक प्रमुख देवता हैं। वे हिन्दुओं के तीन प्रमुख देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में से एक हैं। ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता कहा जाता है। सृष्टि का रचयिता से आशय सिर्फ जीवों की सृष्टि से है। पुराणों ने इनकी कहानी को मिथकरूप में लिखा।
प्रमुख देवता होने पर भी इनकी पूजा बहुत कम होती है। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि इन्होंने अपनी पुत्री सरस्वती पर कु्दृष्टि डाली थी। दूसरा कारण यह कि ब्रह्मांड की थाह लेने के लिए जब भगवान शिव ने विष्णु और ब्रह्मा को भेजा तो ब्रह्मा ने वापस लौटकर शिव से असत्य वचन कहा था। इनका अकेला लेकिन प्रमुख मंदिर राजस्थान में पुष्कर नामक स्थान पर है। कई लोग गलती से इन्हें 'ब्रह्म' भी मान लेते हैं। जबकि 'ब्रह्म' शब्द 'ईश्वर' के लिए प्रयुक्त होता है।
पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी के मानस पुत्र:- मन से मारिचि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरस, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगुषठ से दक्ष, छाया से कंदर्भ, गोद से नारद, इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार, शरीर से स्वायंभुव मनु, ध्यान से चित्रगुप्त आदि।
पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को 'ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:' ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया। उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी। वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे।
इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्धनारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम 'का' और स्त्री का नाम 'या' रखा।
प्रजापत्य कल्प में ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्वयंभु मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को प्रकट किया। इन दोनों ने ही प्रियव्रत, उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम की संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया।
दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति हैं। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, शिव से सती का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाह का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।
ब्रह्मा के उक्त कुल पर शोध किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि पुराणों में इनके कुल के संबंध में विरोधाभाषिक बातें हैं। कोई दस मानस पुत्र बताता है, कोई सत्रह तो कोई सिर्फ नौ। साथ ही पुराणकारों ने इनके कुल को मिथकीय विस्तार भी दिया जिससे इनकी ऐतिहासिकता स्पष्ट नहीं हो पाती है।
वराह कल्प का पहला मानव 'स्वायंभुव'
वैवस्वत मनु के इतिहास की रूपरेखा
प्रमुख देवता होने पर भी इनकी पूजा बहुत कम होती है। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि इन्होंने अपनी पुत्री सरस्वती पर कु्दृष्टि डाली थी। दूसरा कारण यह कि ब्रह्मांड की थाह लेने के लिए जब भगवान शिव ने विष्णु और ब्रह्मा को भेजा तो ब्रह्मा ने वापस लौटकर शिव से असत्य वचन कहा था। इनका अकेला लेकिन प्रमुख मंदिर राजस्थान में पुष्कर नामक स्थान पर है। कई लोग गलती से इन्हें 'ब्रह्म' भी मान लेते हैं। जबकि 'ब्रह्म' शब्द 'ईश्वर' के लिए प्रयुक्त होता है।
पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी के मानस पुत्र:- मन से मारिचि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरस, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से कृतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगुषठ से दक्ष, छाया से कंदर्भ, गोद से नारद, इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन, सनतकुमार, शरीर से स्वायंभुव मनु, ध्यान से चित्रगुप्त आदि।
पुराणों में ब्रह्मा-पुत्रों को 'ब्रह्म आत्मा वै जायते पुत्र:' ही कहा गया है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जिन चार-सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार पुत्रों का सृजन किया। उनकी सृष्टि रचना के कार्य में कोई रुचि नहीं थी। वे ब्रह्मचर्य रहकर ब्रह्म तत्व को जानने में ही मगन रहते थे।
इन वीतराग पुत्रों के इस निरपेक्ष व्यवहार पर ब्रह्मा को महान क्रोध उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा के उस क्रोध से एक प्रचंड ज्योति ने जन्म लिया। उस समय क्रोध से जलते ब्रह्मा के मस्तक से अर्धनारीश्वर रुद्र उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने उस अर्धनारीश्वर रुद्र को स्त्री और पुरुष दो भागों में विभक्त कर दिया। पुरुष का नाम 'का' और स्त्री का नाम 'या' रखा।
प्रजापत्य कल्प में ब्रह्मा ने रुद्र रूप को ही स्वयंभु मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को प्रकट किया। इन दोनों ने ही प्रियव्रत, उत्तानपाद, प्रसूति और आकूति नाम की संतानों को जन्म दिया। फिर आकूति का विवाह रुचि से और प्रसूति का विवाह दक्ष से किया गया।
दक्ष ने प्रसूति से 24 कन्याओं को जन्म दिया। इसके नाम श्रद्धा, लक्ष्मी, पुष्टि, धुति, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, ऋद्धि, और कीर्ति हैं। तेरह का विवाह धर्म से किया और फिर भृगु से ख्याति का, शिव से सती का, मरीचि से सम्भूति का, अंगिरा से स्मृति का, पुलस्त्य से प्रीति का पुलह से क्षमा का, कृति से सन्नति का, अत्रि से अनसूया का, वशिष्ट से ऊर्जा का, वह्व से स्वाह का तथा पितरों से स्वधा का विवाह किया। आगे आने वाली सृष्टि इन्हीं से विकसित हुई।
ब्रह्मा के उक्त कुल पर शोध किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि पुराणों में इनके कुल के संबंध में विरोधाभाषिक बातें हैं। कोई दस मानस पुत्र बताता है, कोई सत्रह तो कोई सिर्फ नौ। साथ ही पुराणकारों ने इनके कुल को मिथकीय विस्तार भी दिया जिससे इनकी ऐतिहासिकता स्पष्ट नहीं हो पाती है।
वराह कल्प का पहला मानव 'स्वायंभुव'
वैवस्वत मनु के इतिहास की रूपरेखा
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
मौत के बाद क्या होता है? What happens after death?
'न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा।'- भगवान कृष्ण
जब शरीर छूटता है तो व्यक्ति के साथ क्या होता है यह सवाल सदियों पुराना है। इस संबंध में जनमानस के चित्त पर रहस्य का पर्दा आज भी कायम है जबकि इसका हल खोज लिया गया है। फिर भी यह बात विज्ञान सम्मत नहीं मानी जाती, क्योंकि यह धर्म का विषय है।
मुख्यत: तीन तरह के शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्ति जब मरता है तो स्थूल शरीर छोड़कर पूर्णत: सूक्ष्म में ही विराजमान हो जाता है। सूक्ष्म शरीर के विसरित होने के बाद व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है, लेकिन कारण शरीर बीज रूप है जो अनंत जन्मों तक हमारे साथ रहता है।
आत्मा पर छाई धुंध : व्यक्ति रोज मरता है और रोज पैदा होता है, लेकिन उसे इस बात का आभास नहीं होता। प्रतिपल व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और फिर सुषुप्ति अवस्था में जिता है। मरने के बाद क्या होता है यह जानने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति के चित्त की अवस्था जानना जरूरी है या कहना चाहिए की आत्मा के ऊपर छाई भाव, विचार, पदार्थ और इंद्रियों के अनुभव की धुंध का जानना जरूरी है।
आत्मा शरीर में रहकर चार स्तर से गुजरती है : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2)स्वप्न (3)सुषुप्ति और (4)तुरीय अवस्था।
तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है, लेकिन चौथे स्तर में वही होता है जो आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होता है जहां न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सुषुप्ति ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं- जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।
होश का स्तर तय करता गति : प्रथम तीनों अवस्थाओं के कई स्तर है। कोई जाग्रत रहकर भी स्वप्न जैसा जीवन जिता है, जैसे खयाली राम या कल्पना में ही जीने वाला। कोई चलते-फिरते भी नींद में रहता है, जैसे कोई नशे में धुत्त, चिंताओं से घिरा या फिर जिसे कहते हैं तामसिक।
हमारे आसपास जो पशु-पक्षी हैं वे भी जाग्रत हैं, लेकिन हम उनसे कुछ ज्यादा होश में हैं तभी तो हम मानव हैं। जब होश का स्तर गिरता है तब हम पशुवत हो जाते हैं। कहते भी हैं कि व्यक्ति नशे में व्यक्ति जानवर बन जाता है।
पेड़-पौधे और भी गहरी बेहोशी में हैं। मरने के बाद व्यक्ति का जागरण, स्मृति कोष और भाव तय करता है कि इसे किस योनी में जन्म लेना चाहिए। इसीलिए वेद कहते हैं कि जागने का सतत अभ्यास करो। जागरण ही तुम्हें प्रकृति से मुक्त कर सकता है।
क्या होता है मरने के बाद : सामान्य व्यक्ति जैसे ही शरीर छोड़ता है, सर्वप्रथम तो उसकी आंखों के सामने गहरा अंधेरा छा जाता है, जहां उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। कुछ समय तक कुछ आवाजें सुनाई देती है कुछ दृश्य दिखाई देते हैं जैसा कि स्वप्न में होता है और फिर धीरे-धीरे वह गहरी सुषुप्ति में खो जाता है, जैसे कोई कोमा में चला जाता है।
गहरी सुषुप्ति में कुछ लोग अनंतकाल के लिए खो जाते हैं, तो कुछ इस अवस्था में ही किसी दूसरे गर्भ में जन्म ले लेते हैं। प्रकृति उन्हें उनके भाव, विचार और जागरण की अवस्था अनुसार गर्भ उपलब्ध करा देती है। जिसकी जैसी योग्यता वैसा गर्भ या जिसकी जैसी गति वैसी सुगति या दुर्गति। गति का संबंध मति से होता है। सुमति तो सुगति।
लेकिन यदि व्यक्ति स्मृतिवान (चाहे अच्छा हो या बुरा) है तो सुषुप्ति में जागकर चीजों को समझने का प्रयास करता है। फिर भी वह जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भेद नहीं कर पाता है। वह कुछ-कुछ जागा हुआ और कुछ-कुछ सोया हुआ सा रहता है, लेकिन उसे उसके मरने की खबर रहती है। ऐसा व्यक्ति तब तक जन्म नहीं ले सकता जब तक की उसकी इस जन्म की स्मृतियों का नाश नहीं हो जाता। कुछ अपवाद स्वरूप जन्म ले लेते हैं जिन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति बहुत ही ज्यादा स्मृतिवान, जाग्रत या ध्यानी है उसके लिए दूसरा जन्म लेने में कठिनाइयां खड़ी हो जाता है, क्योंकि प्राकृतिक प्रोसेस अनुसार दूसरे जन्म के लिए बेहोश और स्मृतिहीन रहना जरूरी है।
इनमें से कुछ लोग जो सिर्फ स्मृतिवान हैं वे भूत, प्रेत या पितर योनी में रहते हैं और जो जाग्रत हैं वे कुछ काल तक अच्छे गर्भ की तलाश का इंतजार करते हैं। लेकिन जो सिर्फ ध्यानी है या जिन्होंने गहरा ध्यान किया है वे अपनी इच्छा अनुसार कहीं भी और कभी भी जन्म लेने के लिए स्वतंत्र हैं। यह प्राथमिक तौर पर किए गए तीन तरह के विभाजन है। विभाजन और भी होते हैं जिनका वेदों में उल्लेख मिलता है।
जब हम गति की बात करते हैं तो तीन तरह की गति होती है। सामान्य गति, सद्गगति और दुर्गति। तामसिक प्रवृत्ति व कर्म से दुर्गति ही प्राप्त होती है, अर्थात इसकी कोई ग्यारंटी नहीं है कि व्यक्ति कब, कहां और कैसी योनी में जन्म ले। यह चेतना में डिमोशन जैसा है, लेकिन कभी-कभी व्यक्ति की किस्मत भी काम कर जाती है।
सचमुच प्रकृति में किसी भी प्रकार का कोई नियम काम नहीं करता क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति की योग्यता भी असफलता का द्वार खोल देती है और अयोग्य व्यक्ति यदि अच्छी चाहत और सकारात्म विचारों वाला है तो सद्गति को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति को चाहिए जागरण, समर्पण और संकल्प। तो संकल्प लें की आज से हम विचार और भाव के जाल को काटकर सिर्फ दृष्टा होने का अभ्यास करेंगे।
जब शरीर छूटता है तो व्यक्ति के साथ क्या होता है यह सवाल सदियों पुराना है। इस संबंध में जनमानस के चित्त पर रहस्य का पर्दा आज भी कायम है जबकि इसका हल खोज लिया गया है। फिर भी यह बात विज्ञान सम्मत नहीं मानी जाती, क्योंकि यह धर्म का विषय है।
मुख्यत: तीन तरह के शरीर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्ति जब मरता है तो स्थूल शरीर छोड़कर पूर्णत: सूक्ष्म में ही विराजमान हो जाता है। सूक्ष्म शरीर के विसरित होने के बाद व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है, लेकिन कारण शरीर बीज रूप है जो अनंत जन्मों तक हमारे साथ रहता है।
आत्मा पर छाई धुंध : व्यक्ति रोज मरता है और रोज पैदा होता है, लेकिन उसे इस बात का आभास नहीं होता। प्रतिपल व्यक्ति जाग्रत, स्वप्न और फिर सुषुप्ति अवस्था में जिता है। मरने के बाद क्या होता है यह जानने के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति के चित्त की अवस्था जानना जरूरी है या कहना चाहिए की आत्मा के ऊपर छाई भाव, विचार, पदार्थ और इंद्रियों के अनुभव की धुंध का जानना जरूरी है।
आत्मा शरीर में रहकर चार स्तर से गुजरती है : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2)स्वप्न (3)सुषुप्ति और (4)तुरीय अवस्था।
तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है, लेकिन चौथे स्तर में वही होता है जो आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होता है जहां न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सुषुप्ति ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं- जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।
होश का स्तर तय करता गति : प्रथम तीनों अवस्थाओं के कई स्तर है। कोई जाग्रत रहकर भी स्वप्न जैसा जीवन जिता है, जैसे खयाली राम या कल्पना में ही जीने वाला। कोई चलते-फिरते भी नींद में रहता है, जैसे कोई नशे में धुत्त, चिंताओं से घिरा या फिर जिसे कहते हैं तामसिक।
हमारे आसपास जो पशु-पक्षी हैं वे भी जाग्रत हैं, लेकिन हम उनसे कुछ ज्यादा होश में हैं तभी तो हम मानव हैं। जब होश का स्तर गिरता है तब हम पशुवत हो जाते हैं। कहते भी हैं कि व्यक्ति नशे में व्यक्ति जानवर बन जाता है।
पेड़-पौधे और भी गहरी बेहोशी में हैं। मरने के बाद व्यक्ति का जागरण, स्मृति कोष और भाव तय करता है कि इसे किस योनी में जन्म लेना चाहिए। इसीलिए वेद कहते हैं कि जागने का सतत अभ्यास करो। जागरण ही तुम्हें प्रकृति से मुक्त कर सकता है।
क्या होता है मरने के बाद : सामान्य व्यक्ति जैसे ही शरीर छोड़ता है, सर्वप्रथम तो उसकी आंखों के सामने गहरा अंधेरा छा जाता है, जहां उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। कुछ समय तक कुछ आवाजें सुनाई देती है कुछ दृश्य दिखाई देते हैं जैसा कि स्वप्न में होता है और फिर धीरे-धीरे वह गहरी सुषुप्ति में खो जाता है, जैसे कोई कोमा में चला जाता है।
गहरी सुषुप्ति में कुछ लोग अनंतकाल के लिए खो जाते हैं, तो कुछ इस अवस्था में ही किसी दूसरे गर्भ में जन्म ले लेते हैं। प्रकृति उन्हें उनके भाव, विचार और जागरण की अवस्था अनुसार गर्भ उपलब्ध करा देती है। जिसकी जैसी योग्यता वैसा गर्भ या जिसकी जैसी गति वैसी सुगति या दुर्गति। गति का संबंध मति से होता है। सुमति तो सुगति।
लेकिन यदि व्यक्ति स्मृतिवान (चाहे अच्छा हो या बुरा) है तो सुषुप्ति में जागकर चीजों को समझने का प्रयास करता है। फिर भी वह जाग्रत और स्वप्न अवस्था में भेद नहीं कर पाता है। वह कुछ-कुछ जागा हुआ और कुछ-कुछ सोया हुआ सा रहता है, लेकिन उसे उसके मरने की खबर रहती है। ऐसा व्यक्ति तब तक जन्म नहीं ले सकता जब तक की उसकी इस जन्म की स्मृतियों का नाश नहीं हो जाता। कुछ अपवाद स्वरूप जन्म ले लेते हैं जिन्हें पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।
लेकिन जो व्यक्ति बहुत ही ज्यादा स्मृतिवान, जाग्रत या ध्यानी है उसके लिए दूसरा जन्म लेने में कठिनाइयां खड़ी हो जाता है, क्योंकि प्राकृतिक प्रोसेस अनुसार दूसरे जन्म के लिए बेहोश और स्मृतिहीन रहना जरूरी है।
इनमें से कुछ लोग जो सिर्फ स्मृतिवान हैं वे भूत, प्रेत या पितर योनी में रहते हैं और जो जाग्रत हैं वे कुछ काल तक अच्छे गर्भ की तलाश का इंतजार करते हैं। लेकिन जो सिर्फ ध्यानी है या जिन्होंने गहरा ध्यान किया है वे अपनी इच्छा अनुसार कहीं भी और कभी भी जन्म लेने के लिए स्वतंत्र हैं। यह प्राथमिक तौर पर किए गए तीन तरह के विभाजन है। विभाजन और भी होते हैं जिनका वेदों में उल्लेख मिलता है।
जब हम गति की बात करते हैं तो तीन तरह की गति होती है। सामान्य गति, सद्गगति और दुर्गति। तामसिक प्रवृत्ति व कर्म से दुर्गति ही प्राप्त होती है, अर्थात इसकी कोई ग्यारंटी नहीं है कि व्यक्ति कब, कहां और कैसी योनी में जन्म ले। यह चेतना में डिमोशन जैसा है, लेकिन कभी-कभी व्यक्ति की किस्मत भी काम कर जाती है।
सचमुच प्रकृति में किसी भी प्रकार का कोई नियम काम नहीं करता क्योंकि कभी-कभी व्यक्ति की योग्यता भी असफलता का द्वार खोल देती है और अयोग्य व्यक्ति यदि अच्छी चाहत और सकारात्म विचारों वाला है तो सद्गति को प्राप्त हो जाता है। प्रकृति को चाहिए जागरण, समर्पण और संकल्प। तो संकल्प लें की आज से हम विचार और भाव के जाल को काटकर सिर्फ दृष्टा होने का अभ्यास करेंगे।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
ॐ के उच्चारण का रहस्य ॐ है एक मात्र मंत्र, यही है आत्मा का संगीत The secret of pronunciation of Om is the only mantra, this is the music of the soul.
ॐ को ओम लिखने की मजबूरी है अन्यथा तो यह ॐ ही है। अब आप ही सोचे इसे कैसे उच्चारित करें? ओम का यह चिन्ह 'ॐ' अद्भुत है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है। बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार, फैलाव और फैलना। ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं। यह अनादि और अनंत तथा निर्वाण की अवस्था का प्रतीक है।
आइंसटाइन भी यही कह कर गए हैं कि ब्राह्मांड फैल रहा है। आइंसटाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था। महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है। महावीर ने वेदों को पढ़कर नहीं कहा, उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा।
ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक्त 'ओ' पर ज्यादा जोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। यही है √ मंत्र बाकी सभी × है। इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।
तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम।
साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है ॐ का उच्चारण करते रहना।
*त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक :
ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है।
*बीमारी दूर भगाएँ : तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं।
सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।
*उच्चारण की विधि : प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं।
*इसके लाभ : इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं। इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है।
*शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव :
प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं। अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज हो जाती है जिससे रक्त में 'टॉक्सिक' पदार्थ पैदा होने लगते हैं। इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरह आल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है।
आइंसटाइन भी यही कह कर गए हैं कि ब्राह्मांड फैल रहा है। आइंसटाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था। महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है। महावीर ने वेदों को पढ़कर नहीं कहा, उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा।
ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक्त 'ओ' पर ज्यादा जोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। यही है √ मंत्र बाकी सभी × है। इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।
तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम।
साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है ॐ का उच्चारण करते रहना।
*त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक :
ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है।
*बीमारी दूर भगाएँ : तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं।
सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।
*उच्चारण की विधि : प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं।
*इसके लाभ : इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं। इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है।
*शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव :
प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं। अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज हो जाती है जिससे रक्त में 'टॉक्सिक' पदार्थ पैदा होने लगते हैं। इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरह आल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
नहाने के बाद बोलें यह सरस्वती मंत्र..दिमाग चलेगा कम्प्यूटर से भी तेज Chant this Saraswati Mantra after bathing. Your brain will work faster than a computer.
शक्ति, धन के साथ विद्या व बुद्धि का बेहतर तालमेल सफलतम जीवन का सूत्र है। जगतजननी दुर्गा के तीन स्वरूपों महाकाली, महालक्ष्मी के संग महासरस्वती की आराधना शक्ति, पवित्रता, वैभव के साथ ज्ञान को जीवन में उतारने का ही संदेश देती है।
जगतजननी दुर्गा का ज्ञान स्वरूप महासरस्वती के रूप में पूजनीय है। महासरस्वती विद्या, ज्ञान, कला व वाणी की अधिष्ठात्री मानी गई है। यही कारण है कि आज के भाग-दौड़ भरे दौर में भी सफल, यशस्वी व प्रतिष्ठित जीवन की कामना पूरी करने के लिए मां सरस्वती का स्मरण बहुत जरूरी हो जाता है।
ज्ञान की कमी से मन व बुद्धि की कमजोरी आलस्य, कर्महीनता व दरिद्रता की ओर धकेलती है। वहीं वाणी व बुद्धि बल तन व धन की कमी को भी पाट देता है। देवी सरस्वती का ध्यान मन, बुद्धि को शक्ति प्रदान करता है। जिसके लिए नवमी, पंचमी, शुक्रवार के अलावा हर रोज स्नान के बाद देवी का शास्त्रों में बताए एक विशेष मंत्र से ध्यान ऐसी ही कामनासिद्धि करने वाला माना गया है।
जानते हैं यह देवी सरस्वती मंत्र व आसान विधि -
- देवी सरस्वती के स्मरण के बेहद आसान तरीकों में सुबह स्नान कर स्वच्छ सफेद वस्त्र पहने, देवी प्रतिमा पर सफेद फूल अर्पित करे, दीप व अगरबत्ती लगाकर नीचे लिखे का मंत्र का श्रद्धा से बुद्धि, यश व सफलता की कामना से स्मरण करें -
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम:।
वेद वेदान्त वेदांग विद्यास्थानेभ्य एव च।।
सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने।
विद्यारूपे विशालाक्षी विद्यां देहि नमोस्तुते।।
अगर आपकी धर्म और उपासना से जुड़ी कोई जिज्ञासा हो या कोई जानकारी चाहते हैं तो इस आर्टिकल पर टिप्पणी के साथ नीचे कमेंट बाक्स के जरिए हमें भेजें।
जगतजननी दुर्गा का ज्ञान स्वरूप महासरस्वती के रूप में पूजनीय है। महासरस्वती विद्या, ज्ञान, कला व वाणी की अधिष्ठात्री मानी गई है। यही कारण है कि आज के भाग-दौड़ भरे दौर में भी सफल, यशस्वी व प्रतिष्ठित जीवन की कामना पूरी करने के लिए मां सरस्वती का स्मरण बहुत जरूरी हो जाता है।
ज्ञान की कमी से मन व बुद्धि की कमजोरी आलस्य, कर्महीनता व दरिद्रता की ओर धकेलती है। वहीं वाणी व बुद्धि बल तन व धन की कमी को भी पाट देता है। देवी सरस्वती का ध्यान मन, बुद्धि को शक्ति प्रदान करता है। जिसके लिए नवमी, पंचमी, शुक्रवार के अलावा हर रोज स्नान के बाद देवी का शास्त्रों में बताए एक विशेष मंत्र से ध्यान ऐसी ही कामनासिद्धि करने वाला माना गया है।
जानते हैं यह देवी सरस्वती मंत्र व आसान विधि -
- देवी सरस्वती के स्मरण के बेहद आसान तरीकों में सुबह स्नान कर स्वच्छ सफेद वस्त्र पहने, देवी प्रतिमा पर सफेद फूल अर्पित करे, दीप व अगरबत्ती लगाकर नीचे लिखे का मंत्र का श्रद्धा से बुद्धि, यश व सफलता की कामना से स्मरण करें -
सरस्वत्यै नमो नित्यं भद्रकाल्यै नमो नम:।
वेद वेदान्त वेदांग विद्यास्थानेभ्य एव च।।
सरस्वति महाभागे विद्ये कमललोचने।
विद्यारूपे विशालाक्षी विद्यां देहि नमोस्तुते।।
अगर आपकी धर्म और उपासना से जुड़ी कोई जिज्ञासा हो या कोई जानकारी चाहते हैं तो इस आर्टिकल पर टिप्पणी के साथ नीचे कमेंट बाक्स के जरिए हमें भेजें।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
इन शालग्राम शिलाओं को सिर्फ छूने से ही होता ये चमत्कार..! This miracle happens just by touching these Shalagram stones..!
आज देवउठनी एकादशी है। पौराणिक मान्यता के मुताबिक यह जगतपालक भगवान विष्णु के शयन से जागने की शुभ घड़ी है। इसी तरह यह तिथि विष्णु स्वरूप शालग्राम व तुलसी विवाह का मंगलकारी अवसर भी है।
पुराण प्रसंग के मुताबिक शंखचूड़ जैसी दानवी शक्तियों से मुक्ति और जगत कल्याण के लिए ही भगवान विष्णु को शालग्राम शिला का स्वरूप प्राप्त हुआ। यही नहीं दानव राज की पत्नी तुलसी ने श्री विष्णु कृपा के साथ देव वृक्ष तुलसी व गण्डकी नदी का रूप प्राप्त किया। इसलिए गण्डकी नदी और उसके आस-पास पाए जानी वाली शालग्राम शिलाएं बहुत ही पुण्यदायी मानी गई है। साथ ही विष्णु और तुलसी का किसी भी स्थान पर होना सुख-समृद्धि देने वाला माना जाता है।
नारायण स्वरूप यही शालग्राम शिलाएं इस पर बनने वाले चक्र के आधार पर विष्णु के अलग-अलग रूप व अवतारों के नाम वाली होती हैं, जो इतनी चमत्कारी भी मानी गई है कि इनकी पूजा ही नहीं बल्कि छूने मात्र से बड़े से बड़े पापों का अंत हो जाता है। जानते हैं कि ऐसी ही विलक्षण शालग्राम शिलाओं का स्वरूप कैसा होता है?
मत्स्य - कमल के आकार वाली शिला।
कूर्म - नीले रंग, तीन रेखा और बिन्दुओं से अंकित शिला।
ह्ययग्रीव शिला - जिस शिला पर पांच रेखाएं व अंकुश का आकार हो।
नृसिंह - जिस शिला के बीच गदा जैसी रेखा, नाभिचक्र और फैले हुए वक्षस्थल का आकार दिखाई दे।
वामन - छोटी और गोलाकार शिला।
वाराह - विषम आकार व बीच में दो चक्रों के चिन्ह वाली शिला।
कृष्ण - गोलाकार और पीछे की ओर का हिस्सा झुका हुआ हो।
दामोदर - नीले रंग व बीच में भी नीले रंग के च्रकवाली शिला।
अनन्तक - अनेक रंग, रूप व जिस पर नाग जैसे फण अंकित हो।
लक्ष्मीनारायण - दो चक्रों वाली शिला।
इसी प्रकार शंख, गदा, पद्म चिन्हों और चक्र अंकित शालग्राम शिलाएं विष्णु के अनेक नामों से जानी जाती है। जिनकी पूजा हर तरह से मंगल व कल्याण करने वाली मानी जाती है।
पुराण प्रसंग के मुताबिक शंखचूड़ जैसी दानवी शक्तियों से मुक्ति और जगत कल्याण के लिए ही भगवान विष्णु को शालग्राम शिला का स्वरूप प्राप्त हुआ। यही नहीं दानव राज की पत्नी तुलसी ने श्री विष्णु कृपा के साथ देव वृक्ष तुलसी व गण्डकी नदी का रूप प्राप्त किया। इसलिए गण्डकी नदी और उसके आस-पास पाए जानी वाली शालग्राम शिलाएं बहुत ही पुण्यदायी मानी गई है। साथ ही विष्णु और तुलसी का किसी भी स्थान पर होना सुख-समृद्धि देने वाला माना जाता है।
नारायण स्वरूप यही शालग्राम शिलाएं इस पर बनने वाले चक्र के आधार पर विष्णु के अलग-अलग रूप व अवतारों के नाम वाली होती हैं, जो इतनी चमत्कारी भी मानी गई है कि इनकी पूजा ही नहीं बल्कि छूने मात्र से बड़े से बड़े पापों का अंत हो जाता है। जानते हैं कि ऐसी ही विलक्षण शालग्राम शिलाओं का स्वरूप कैसा होता है?
मत्स्य - कमल के आकार वाली शिला।
कूर्म - नीले रंग, तीन रेखा और बिन्दुओं से अंकित शिला।
ह्ययग्रीव शिला - जिस शिला पर पांच रेखाएं व अंकुश का आकार हो।
नृसिंह - जिस शिला के बीच गदा जैसी रेखा, नाभिचक्र और फैले हुए वक्षस्थल का आकार दिखाई दे।
वामन - छोटी और गोलाकार शिला।
वाराह - विषम आकार व बीच में दो चक्रों के चिन्ह वाली शिला।
कृष्ण - गोलाकार और पीछे की ओर का हिस्सा झुका हुआ हो।
दामोदर - नीले रंग व बीच में भी नीले रंग के च्रकवाली शिला।
अनन्तक - अनेक रंग, रूप व जिस पर नाग जैसे फण अंकित हो।
लक्ष्मीनारायण - दो चक्रों वाली शिला।
इसी प्रकार शंख, गदा, पद्म चिन्हों और चक्र अंकित शालग्राम शिलाएं विष्णु के अनेक नामों से जानी जाती है। जिनकी पूजा हर तरह से मंगल व कल्याण करने वाली मानी जाती है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
पानी पीने के इस तरीके को अपनाकर मोटापे से छुटकारा पाएं हमेशा के लिए Get rid of obesity forever by adopting this method of drinking water.
कहते हैं ज्यादा पानी पीने के ढेरों फायदें हैं। चिकित्सक भी ये मानते हैं कि ज्यादा पानी पीने से कई बीमारियां अपने आप ही समाप्त हो जाती हैं। लेकिन पानी को अगर सही तरी के से और सही तरीके से पीया जाए तो आपको मोटापा कंट्रोल करने में भी अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। हमारे शरीर की आवश्यकता खाना खाने से पहले दो गिलास पानी पीने की आदत न सिर्फ आपके वजन को नियंत्रित करती है, बल्कि लंबे समय तक आपको फिट बनाने के लिए भी कारगर है। एक शोध के अनुसार जिन डाइटर्स ने कैलोरी काउंट के तहत आधार लेने पर ध्यान दिया उनके मुकाबले वैसे डाइटर्स का वजन तेजी से घटा, जिन्होंने खाने से पहले दो गिलास पानी पीने का फंडा अपनाया उनका वजन आसानी से घट गया। पानी वजन घटाने का सबसे सस्ता उपाय है। पानी को कैलोरी फ्री आहार भी माना जा सकता है। पानी कम मात्रा में पानी पीने से शरीर में वसा ऊर्जा के रूप में जलने के बजाय एकत्रित होनी शुरू हो जाती है।
इसका कारण है शरीर में मौजूद वसा का ऊर्जा में परिवर्तन आपके शरीर में मौजूद पानी की मात्रा पर निर्भर करता है। जितना अधिक पानी आप पीएंगे, उतनी ही अधिक वसा आप खर्च कर पाएंगे। वह के समय एक गिलास गुनगुने पानी में दो टीस्पून शहद डालकर पीने से वजन नियंत्रित रहता है। यदि इसमें एक टी स्पून नींबू का ताजा रस डाल दिया जाए तो कहना ही क्या। आप चाहे तो दिन में कई बार इसका सेवन कर सकती है।हर एक घंटे में एक गिलास पानी का सेवन आपके शरीर के लिए चमत्कार कर सकता है । यह आपको भूख का एहसास न कराते हुए कम खाने में आपकी मदद करता है । अधिक मात्रा में ग्रहण किया हुआ पानी शरीर से अवांछित अवशेषों को बाहर निकालता है और पाचन प्रक्रिया में अपना सहयोग देता है।
इसका कारण है शरीर में मौजूद वसा का ऊर्जा में परिवर्तन आपके शरीर में मौजूद पानी की मात्रा पर निर्भर करता है। जितना अधिक पानी आप पीएंगे, उतनी ही अधिक वसा आप खर्च कर पाएंगे। वह के समय एक गिलास गुनगुने पानी में दो टीस्पून शहद डालकर पीने से वजन नियंत्रित रहता है। यदि इसमें एक टी स्पून नींबू का ताजा रस डाल दिया जाए तो कहना ही क्या। आप चाहे तो दिन में कई बार इसका सेवन कर सकती है।हर एक घंटे में एक गिलास पानी का सेवन आपके शरीर के लिए चमत्कार कर सकता है । यह आपको भूख का एहसास न कराते हुए कम खाने में आपकी मदद करता है । अधिक मात्रा में ग्रहण किया हुआ पानी शरीर से अवांछित अवशेषों को बाहर निकालता है और पाचन प्रक्रिया में अपना सहयोग देता है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
Sri Gurudeva Datta Vaibhavam
Sri Gurudeva Datta Vaibhavam
By : Sri Mahabhashyam. Rangacharya.
Sages and Seers Of Datta Guru Parampara Bharat and Bharatiyas have a great common heritage. The heritage of perfection is called Guru Parampara. The Siddha heritage has Lord Dattatreya as its pinnacle, being the Guru of Gurus. Understandably, we never call Brahma, Vishnu, Shankara, Ganesha as Gurudevas. But we call Dattatreya as "Sri Guru Deva Datta". Lord Dattatreya is a "Smartugami". you "just remember Him. He is there'. He is an ever living incarnation. In such an illustrious Guru Parampara there have been great sages and seers who were all guided by this heritage. Records of most of them are not available. But by the grace of Lord Dattatreya, the life-stories of a few Siddhas/Mahatmas, are available. Shri Shripada Shri Vallabha is the one, who is an incarnation of Datta Himself.
1 . Sri Sripada Shri Vallabha
We have already seen how the worship of Dattatreya developed with the progress of time. Right from the Puranic age, kings like KartaveeryaArjuna , Ayu Alarka, Yadu and Puranic personalities like Parasurama, Pingala, Prahlada, and later even the historical personalities like Goraknath and others, the name of Dattatreya hovered over the pages of spiritual history with splendour of rare effulgence. Round about 1300 A.D. - A brahmin, learned and well versed in sastras, in philosophy, by name Appala Raja, lived in Pithapuram, a town on the east coast, in Godavari District of Andhra Pradesh. His wife Sumati was a great Sati devoted and chaste, really a Sumati i.e. of good and refined disposition. She used to adore her husband with great reverence and follow the dictates of her husband meticulously and scrupulously. Sri Kshetra Pithapuram is a town (a Railway Station) on the east coast in Godavari District of Andhra Pradesh. The holy place, Pithapuram, abounds in temples of Shiva (Kukkuteswara) and Vishnu (Kuntl Madhava) and also famous for Padagaya tank, where Shraddhas are performed with Pinda Pradana drawing people from all over India. According to the Puranic legend, the demon Gayasura was slained by Lord Vishnu and his mortal remains were strewned all over in a number of places. Afterwards these places came to be reckoned very holy. They are now famous Shiro-Gaya, Nabhi Gaya and Padagaya. This Kshetra Pithapurarn is considered to be as holy as Kashi (Benaras). Skanda Purana mentions that whosoever performs Shraddha wiih Pinda- dana at this holy kund of Pada - Gaya where the feet of Gayasura are supposed to be embedded the Jeevatmas of his forefathers in Pitru-loka get salvation. This holy place is the birth place of Shree Pada Vallaba. Appalaraja and Sumathi were an ideal couple of highest piety and purity. As misfortune would have it, they had two children both of them handicapped one blind and the other without legs. So the couple spent most of their time in looking after them. Their piety, particularly Sumati's sublime minded service bore fruit one day. It was a Shraddha day of the father of Appala Raja. Sumati woke up very early before sunrise as usual and that morning got herself immersed in preparing the food necessities, particularly required for the Shraddha Day. At mid-day when the sun was at the apex, Appalaraja left home to fetch Shraddha-bhoktas. Raja implies King not only in name but also in disposition and behaviour. Though he had no worldly wealth, he was rich in piety and righreousness. Sumati just finished the preparation of food requirements, when she heard the words at the door-step "O please give me cooked food". She found a hermit at the door-step with rare splendour of divine effulgence, face, joyful beaming brighter than that of the sun-glow, Sumati reverentially bowed down and felt that Lord Dattatreya came in that guise of a hermit. He asked for alms and Sumati without hesitation or a second thought brought the food she prepared for the Shraddha and offered in great reverence and saluted him again and again. The hermit was extremely pleased and said Oh! mother, ask me for whatever you wish". Sumati in great ecstasy, prayerfully said "Oh! Lord of Lords, you, all – merciful have called me mother, let those words come true. I wish to have a son like you, universally revered and compassionate to all. The hermit, who is no other than Lord Dattatreya said Be it so and in a twinkle disappeared. Sumati stood at the doorstep alone bewildered and overwhelmed with indescribable joy shedding tears of joy. After inviting, the Bhoktas to attend the Shraddha ceremony, Appala Raja returned home. He was surprised to see Sumati standing at the door - steps in a stupefied condition. After a while recognising her-Raja's return, she told him all that happened and apologtically said "Oh ! my Lord, I have committed a great mistake in giving away the Shraddha food to the hermit, who was just a few minutes before, asking for alms. Please wait for a while I shall re-cook for the Shraddha". Looking at Sumati, Appala Raja was intensely moved and said "Oh ! you have been most lucky, you have done no wrong. To give food to the hungry is the best and greatest of all donations, My forefathers must have been amply and really satisfied with this dana of yours. I feel that you have seen Shri Vishnu Himself in the form of Shri Datta, the incarnate of the Trinity. Days passed on the Lord himself had entered into the body of Sumati and her physical demeanour, day by day grew in divine lustre, She was spending all her time in deep meditation of Sri Datta Prabhu. She couldsee all pervading Digambara Datta in her heart and outside as well. She delivered in the tenth month a divine son. A kind of heavenly delight filled the home. The whole universe appeared to enjoy the sacred event. His Jataka was foretold. He was to be a very great (Tapasvi) ascetic. The child was called Sripada as the emblems of Chakra and Shanka were found in his feet. The splendour of his body so beautiful, so charming with divine lustre his parents named him Shree Vallabha. As it is customary, in his seventh year he was invested with the sacred thread (Upanayanam). Whatever words Shripada spoke had profound significance and he was (Eka Santagrahi) able to memorise anything just by a single reading or on hearing. In very shot time he completed learning Veda Sastras. His learning, maturity of knowledge, erudition in all Vedas and scriptures was stupendous. Thus he grew upto his sixteenth year, when his parents thought of marrying him. Learning the intention of the parents, Sreepada Sree Vallabha, endearingly told them, "1 am already married to renunciation". "1 am an ascentic, I have to be in Nivrithi Marg and so I am not to marry. " Hearing these words of her son, Sumati remembered the words of the hermit who blessed her and thought to herself Yes, the hermit told me of this and it is coming true now". The parents had an affectionate and kindly look at their son and said "Oh ! hermit son . We are extremely fortunate to have you with us and it was to be only for a short time of sixteen years. Whatever is Lord's design it should be carried out. Shripada Yati embraced his mother who in tears of joy and pure love bathed her godly son. The mother in anguish pointed towards her two sons, maimed and blind, and looked appealingly to her son. Lo ! Sripada Sreevallabha by a mere look at the blind brother blessed him with sight and the legless brother endowed with legs. The joy of the parents knew no bounds to find their hitherto, handicapped children, now physically fit and bright. Later they became very learned too. Sreepada, bade good-bye to his joyful parents and started on a pilgrimage. He went to Kashi, Badrinath, and Kedarnath in Himalayas, guiding and imparting Jnana to the Saints. Then coming down visited all the pilgrim centres on the west coast, reached Gokarna and finally retired to Kuruvapur, an island in river Krishna. He was enlightening and giving solace to people wherever he went. His desire was to dispense happiness to one and all, by freeing them from the shackles of worldly attachment and disappointments. By his blessings he made a delinquent, mentally retarded child quite normal and learned like the child's father (who was a great scholar of Vedas) at the request of the widow-mother Ambika and benevolently promised to born as her son in her next Janma. In another case, one day a Muslim Nawab came to river Krishna in a ferry boat with his wives for a joyful float.A washerman who was then washing clothes in the river water seeing the grandeur of the Nawab, felt utter contempt for his own poverty and miserable life. At the same moment Sripada Sri Vallabha Yati happened to come to the river for taking his daily bath as usual. The Yati who could easily read and understand the mind of the washerman and his mental anguish said "Oh! washerman, your mind is yearning for a life of luxury. You will get the same state as that Nawab in your next life." True, the washerman later was born to the Muslim Nawab of Bidar, enjoyed all the royal luxuries and also the grace of Sri Nrisimha Saraswati, who was a reincarnate of Sreepada Sree Vallabha Yati. Sripada Yati fixed a day for his Samadhi. It was on the twelth day of the dark half of month Ashwin, of Margasira Constellation on Thursday, saluted mother Ganga and sat for Samadhi on river-water and disappeared and got merged into Brahman, wherefrom He came in human form on the earth as Sreepada Sree Vallabha. Desires always come in the way of liberation and saints like Sri Sripada Sri Vallabha, have pointed out the ways and process to be free completely from them. Guru Charitha suggests the probable date of Sripada Vallabha as 1300 A.D. but it cannot be taken with any definiteness. In the 13th and 14th centuries, the condition of the country was in a great flux. It will be interesting to have a glimpse of the contemporary conditions of the country in general and Maharashtra then, in particular, the rule of the Mohammedans was not generally very popular. The Mohammedan rulers tried to attract people towards them by offers of power and pelf. At this time in the interest of humanity there was a pressing need of a powerful personality who would not only wean them away from the prevailing powerful enticements, but to put them on the right track. Sri Nrisimha Saraswati was such a personality.
2 . Shri Nrisimha Saraswati Swami
Nrisimha Saraswati was born in a brahmin family at Karanjananagar in the Varad district of Maharastra. His father's name was Madhav who belonged to the Vajasaneyi branch of the Vedas, and his mother's name was Amba almost of the same name Ambika, who got a boon from Sri Srivallabha to be born as her son in next life. In that way Nrisimha Saraswati, whose original name was Saligrama, is supposed to be the reincarnation of Sri Sreepada Sree Vallabha. The boy Nrisimha Saraswati, strangely till the time of his sacred thread ceremony (Upanayana) was uttering only "OM" and nothing else. At the time of the thread-ceremony he further surprised the people reciting the sacred hymns from Vedas. Promising his parents to return after twenty years, he went away only to fulfil his lifemission. He came to Benaras and was immersed in practice of Yoga and penance. It was Sri Krishna Saraswathi an old Sanyasin of high spiritual attainments, belonging to a venerable order of Sanyasins, gave diksha. He scrupulously observed the tenets of Sanyasin, observing, never to stay for more than a couple of days in a particular place, and kept on moving. Wherever he went, gave boons to many explained the real meaning behind the external practices prescribed in the scriptures in relation to mundane and spiritual life. He encouraged the performance of Yagnas(sacrifices). The Bhasma and Rudraksha wearing were highly recommended. The grace of God is always there for the good and it does not discriminate between the rich and the poor. Nrisimha Saraswati placed Sanyasamarga on a high pedestal and on solid foundation. Gurucharitra narrates the story. Chandala with Bhasma obtained from His Guru, who defeated two arrogant and learned Brahmins in discourses and of a Sati whose deceased husband was brought to life by the grace of Guru Nrisimha Saraswathi. We see during his life time, he not only stopped many a person changing his religion for the sake of worldly benefits. He was a poineer in advocating the line of thought put forward by Dattatreya in this Kali Age, like that of Rama worship by Tulsidasa, flourished with great force, inspiring many personalities. The worship of Dattatreya developed considerably with the advent of Nrisimha Saraswai and inspired many saints particularly, in Maharastra.
Later on and even at the time of Nrisimha Saraswati, the worship of a Guru, gained prominece. Guru Charitra speaks very highly -about the glorification of Guru and Guru-Gita as a part of the same. Gradually, thus the prefix Shri Guru Deva gained popularity before the thought of Sri Datta Prabhu. From vedic times, it can be gleaned that faith itself formed a part of reasoning from "Acharya Devo Bhava" mentioned in Taittiriya Upanishad, we find that Svetaketu, very highly well-versed in all the scriptures lacked spiritual knowledge, and had to approach a Guru to obtain it. It is rightly said that Guru, Vedanta and Iswara the trinity of spiritual Sadhana is of utmost importance. God's incarnation in Datta and Shri Guru is one and the same, "God is Trinity is Guru". Nrisimha Saraswati elevated this principle highly, reminding the sloka "Guru is Brahma, Vishnu Maheswar and Guru is nothing but really Parabrahman" Dattatreya is Guru Avatara and later times, invocationJai Guru Dev Datta became an essential, in the Datta worship. A guru is Brahma though he has only one face, instead of four of Brahma; he is Vishnu with two hands instead of four hands and he is Siva with only two eyes, instead of three eyes of Siva. The grace of Sadguru is the primary necessity of life. The yati marga initiated by Sree Pada Sree Vallabha gradually underwent a change into Guru-marga, considering it synonymous with yati marga, in contrast to Vaidika marga which had a firm hold, previously.
Nrisimha Saraswathi, with his yogic powers and penance, represented himself as one who had come, for mankind, to save it from clutches of narrow mindedness, ignorance, who wrongly considered "body" as god and "eating" as prayer. Before the advent of Nrisimha Saraswathi, Karma kanda had its predominance in every religious aspect of a Hindu. There was high stress on Vratas, Prayaschitta, etc., even though tall talks on higest highest philosophical doctrines were conspicuous without any Chitta Suddhi. Behind each and every miracle associated with the name of Sri Nrisimha Saraswati, one thing was emphasized that the pleasures and pains of life are inevitable and are of no value but only the real value lies in attaining the ultimate goal of life, self-realisation, the final emancipation. The self alone is real and all actions are meant for purifying mind. Gradually due to his influence, people's minds got broadened and difference between different sections of the people were bridged over.
3 . Manika Prabhu (1817 -1865 A.D.)
Manohara Nayaka Harakude, a Srivatsa gotra, Desastha Brahmin and Baya Devi of Ladavanti were the parents of Manik Prabhu, their illustrious son. Harakude and Baya Devi were very pious and they did
Parayana of Guru Charitra for over sixteen years continously with rigid observance of the rules of worship indicated in Guru Charitra. Afterwards Lord Dattatreya appeared in a dream gave darshan to Harakude and Baya Devi and asked them to choose a boon. Both like Atri and Anasuya, desired to have a son like the Lord and nothing else. Thus the birth of Manika Prabhu came into existence in the world in the year 1817A.D. From the very childhood Manika Prabhu was known for his worth in yoga, enrapturing his mother Baya Devi like Yasoda Devi, the mother of Lord Krishna by his divine nature. When on Thursdays people flocking together and approaching the child for something or other and their wishes being fulfilled was an exciting scene. Child Manika Prabhu, though he never attended a school, learnt many languages like Kanarese, Urdu, Marathee, Persian, Sanskrit by himself and even acquired proficiency in them. Baya Devi was widowed just when Manika Prabhu was ten years old and so his maternal uncle was his guardian. Manika Prabhu was found wandering here and there doing things quite contrary to the sacred traditions of Hindu religion. For instance, once Manika Prabhu was found putting all his clothes and his chappals on the head of Maruti idol in a temple. His settlement at Manikanagar is quite interesting. Once a certain Brahmin family started for Darshana of Manika Prabhu. On their way at Humnabad there was a temple and there they were resting for the night without knowing that it was the meeting place of thieves. That night a batch of dacoits visited the temple as usual and finding the family resting therein, wanted to loot them. The Brahmin family startled by their presence began crying out "Hei ! Manika Prabhu, Manika Prabhu" for helping them out of the great danger they could sense. Soon a miracle happened and the thieves saw a. great yogi, bedecked with gorgeous jewellery in front, standing at the threshold of the temple. The thieves preferred to loot the person with plenty of jewellery over his body than the humble brahmin family. When the thieves ran after him he disappeared and they found 'themselves benumbed completely, and slowly they sneaked out away, lest something more harm should happen to them. In fact, Manika Prabhu appeared in person there soon after and made the place his permanent abode. The forest surounding the temple was cleared and soon a township sprang up. The place became in a little time, a centre where people saw both renunciation and enjoyment harmoniously blended. Manika Prabhu never ate the rich food prepared for the devotees thronged, but always lived on Madhukari food brought by his disciples, begging from house to house. Some times he went for alms in that way. The paradox was people could see a rich beggar with all his royal pomp was full of simplicity and humility. In him one could see, the effulgence of a saint with the halo of worldly luxury, completely detached. An unbroken celibacy even amidst women and wealth was conspicuous in him strictly avoiding association with ladies in loneliness. He showed tothe world that even ladies with proper direction could attain the highest knowledge of Atman the Absolute, if the director is careful about his ownself. He could freely mix with non Hindus, specially Mohammedans, for he evinced equal care and interest in the welfare of one and all. Thus like Nrisimha Saraswati he influenced both the Hindus and Mohammedans alike. The founder of Sikhism has considered Manika Prabhu as "an incarnation of Dattatreya", while Col.Alkot. of Theosophical Society, Basaveswara the founder of Lingayat sect, gave glorious accounts of Manika Prabhu, as an incarnation born in the world for the good of the people. His wisdom, catholicity and foresight in handling different kinds of people under one banner, is strikingly, significant. In fact his whole life passed in such activity of longing in a fusion of so called opposites in faiths and cults. It is (Sakalamata sthapana) universally of religions, his seeing no conflict between activity (Pravitti) and inaction (nivritti) was his greatest contribution to the society and mankind.
Manika Prabhu had many contemporaries. Of course the followers and disciples of each saint consider them as different Avataras of Dattatreya. For instance, Sri Baka Prabhu among Lingayats, Sri Alam Prabhu among Yavanas, Sri Swami of Akkalkot were all illustrious in their own way.
These saints who were contemporary always considered the worth of one another and never talked of their own greatness. They never cared for fame. Though, inspite of their dislike for it, it came to them and clung to their names even after their departure from the world. They were born for a particular mission and they accomplished it in their own way by giving things to the needy and enlightenment to those who sought for it. For instance, Manika Prabhu in the task of enhancing the power of Sidhas, helped Hamsaraja Swami in his pursuit of self realisation. Manik Prabhu's connection with Sidhas, like Alam Prabhu, Revana Siddha, Suraja Sadananda was mysteriously startling. Manika Prabhu wrote a book called kalpataru which contains the knowledge he desired to impart. Moreover many padas, Artis were composed by him. The subject of Gopi Krishna's equisitively inter-woven in many of his padas in great depth. Manika Prabhu took Samadhi at Manikanagar in 1865, at the age of 48, the news of which was kept a secret at the behest of Manika Prabhu at the time of his taking Samadhi, to allow the people gathered for Datta- Jayanthi to celebrate without marring their joy which would have been upset if the news of his passing away was made public. Manikanagar has become place of pilagrimage, where people throng from all parts of country for the fulfilment of their cherished desires.
4 . Swami of Akkalkot
Lord Dattatreya is an incarnation of the Trinity, the three highest Gods. Brahma, Vishnu and Siva. Their Shakti, Saraswati, Lakshmi and Parvati, being highly chaste women follow their husbands and shower their grace (Anugraha) on the devotees of their Lords. Thus the grace of goddess Saraswati as regards knowledge is fully showered upon as soon as a call is heard from the Guru Dattatreya. Thus we find that devotees of Lord Dattatreya were blessed by Saraswati and they produced monumental works. For instance, Gangadhara Saraswati's Guru Charitra, Dasopanta's Gitarnava, Niranjana's commentaries, Vasudevananda Saraswati's Dattatreya- Mahatmya, inspiring works have been the result of Saraswati's blessings and they contributed considerably to the literature dealing with the process of liberation (Mumukshutva). In the same way Goddess Lakshmi always remained at hand to bestow inexhaustible mines of wealth for advancement of Bhaktas towards their spiritual goal. The life of Manika Prabhu is an instance. The same is the case with Goddess Annapurna (Parvathi) in the role of mother of Universe (Uma) provides food unlimited by her divine grace without knowing wherefrom it comes and how it is managed. The prominence of the three Goddesses varies according to the needs of time and place. Yet all the three are one and the same. Just like the grace of the Goddess of the three principal deities, we often come across the characteristic features of one or theother of three Gods in the lives of these saints. In Sree Pada Sree Vallabha the Avadhuta aspect, in Nrisimha Saraswati the paramahamsa aspect, in the Swami of Akkalkot the child-like (Bala) aspect and mad life (Unmatta), and in Shirdi Sai a peculiar synthesis of all these aspects of Dattatreya are discernible. Various different accounts evolved out of the biographical versions about the birth of the Swami Samartha as pronounced by him at several times. Firstly he told a Pujari of Ganagapur that his name was Nrisimha-bana and that he was born 450 years ago. Secondly, he told a Parsi gentleman that he was from Kadalivana moved to various places, Haridwar. Kedareswara, Pandharpur and finally settled at Akkalkot. Thirdly, he told a devotee Shri Darve that his caste was a Brahmin of Yajurveda branch Kasyapa Gotra. Fourthly, he told a wine merchant that himself an originator having his bed on a leaf of a banyan tree at Dattanagar, and another time told that he was an outcast (Chamar) and his parents belong to the caste of Mahar. Just as his statements regarding his name and caste are varied, his behaviour and daily-life actions happened to be strange and even at times transcending bounds of decency. But nobody ever reported that he behaved against the common rules of the society. Every body in fact respected him as a great saint of unfathomable behaviour and absolutely unconcerned and unattached attitude to the objects, men or environment around him. The life of Swami Samartha was full of miracles and thousands of people gathered around him solely for fulfilment of their worldly desires, while none went to him for spiritual progress. Each utterance of the Swami was regarded to contain some deep secret meaning or reference to a certain incident of the future. According to Swami Shivananda Saraswati, "These sages are absolutely free from selfish desires, They simply witted at times to do good to humanity and every thing came to pass instantaneously". In this aspect, a saint differs from a juggler who performs magic with a selfish motive of earning for his livelihood, and moreover, the action created is an illusion created by him while in the case of a saint it is distinctly different. Swami Samartha discriminated between a righteous desire and an unrighteous one. His refusal of his grace to bless, the revolutionary design of V.D.Phadke, to the Gaeckwad of Baroda who tried to tempt him with wealth and position and so many others who approached him
with mundane motives illustrates the sublime consideration with which he bestowed his anugraham. His life inspired and led many disciples on the path of liberation. Nrisimha Bharati of Alandi, Baba Sabnis are some of them. The highly spiritual life of Samartha was conspicuous in his daily routine. He did each and every work only when he had a mind to do it. Numerous people were miraculously cured by the grace of Swami. The medicines he prescribed varied with the faith of the patient from the juice of a lemon to a remedy prescribed of putting a hand bitten by a scorpion inside a shoe for relief. Many a devotee connected with places sacred to Dattatreya such as Ganagapur, Narsoba Wadi got mysterious calls from their deity to go to the Swami at Akkalkot for his blessings. By his grace he brought about a fundamental change in the lives of many (Hridaya Parivartan) by influencing their minds and hearts to get over their weaknesses and blemishes. In short Swami emphasised the essentiality of purity of mind. He had love and compassion for all cretures without any distinction. Such a personality remarkable both from physical and spiritual aspects, passed away in April 30, 1878 A.D. The Swami wrote nothing yet his whole life inspired many works in this school. While residing both at Akkala (Buddhi) and at kot (Avarna) as a mere witness of both mind and environment around, he dispelled ignorance and showed a clear way of envisioning the reality behind and beyond all things.
5 . Samartha Sadguru Sai Baba
In the unbroken line of sages and saints of Bharat Varsha, who held aloft the torch of spirituality in all climes and ages, the sage of Shirdi, occupies a very significant position. He is a very mysterious personality whom everybody interprets in his own way but no interpetation could give a complete picture of the saint. This is perhaps the reason why he is Rama, Krishna, Hanuman, Sankara, Ganpathi, Dattatreyaall rolled in one according to the Samskar and desire of different devotees. To comprehend the divine nature of Sainath in its entirety is a stupendous exercise in the subtle realm of intuition, experience and realisation. His birth is shrowded in great mystery for no one knew his parentage nor the place of his birth. Possibly, the view held by some that he is a "Ayoni Sambhav" (not born from human womb) be the case, like Lord Dattatreya. Rightly SaiBaba, a Sampurna Avatar of Lord Dattatreya, has his centre every where without a limiting circumference anywhere. When he was asked about his parent-hood, he said "The world is my village, Brahma the father and Maya the Mother". His effulgent complexion was said to be strikingly captivating and endearingly charmful. It is said that particularly, the lustrous golden-hued-body and brilliantly beaming face were remarkably arresting one's attention and they were considered to be the significatnt features of a Tapasvi observing the Mahavrat comprising of Ahimsa, Satya, Astheya, Brahmacharya and Aparigraha, Another distinctive feature was Sai's most brilliant and enchanting eyes beaming out cascades of love compassion and solace. Lo! just a glance of his was enough to dispel all baffling doubts and distressing problems. Significantly, Sai was easily accessible equally to the pauper and the prince, the illiterate and the learned, the young and the old, the atheist and the theist. Sai the arch-alchemist could in the crucible of his irresistible and incissive look and words of divine wisom, transmute the faulty and the fallen, the base metals into precious ones, using the chemical of his grace endowed with compassion and love. The sublime concept of 'Vasudhaika Kutumbam" one world one humanity has been the cardinal principle of the glorious heritage of spirtual and social culture of Bharat Varsha all through the millenniums of the past. In this aspect "Tat-Twam Asi" "Thou Art that" represents the fundamental identity of macrocosm and microcosm and having the same natural characterstics, which are in constant dynamic contact with each other. Sai laid stress on constant faith (Nista) and patience (Saburi) as he demanded always these "two coins" from his devotees. Performance of one's own duty and worship of one's own family deity with pure heart had his appreciation, though at times Sai gave rude shocks to narrow-minded orthodoxy. Yet he never encouraged nor approved anybody changing his religion or his traditional mode of worship. This way of handling the two divine influence over them. His catholicity of outlook, harmonious synthesis of univarsal religion which is as much, Hindu, Muslim, Christian, Buddhist, Zorasterian, even the monism derived from the 19th and early 20th century scientific and technological development, storming the intellectual world, is akin to his tenets. Many great Mahatmas from time to time effected changes in the mode of thinking, worship and ways of life. As a result of their teachings new traditions, new concepts and perceptions have sprung up. Unfortunately, certain aberrations too have crept in. But the life -teachings of Sai are singularly free from these defects.
Sai's grace is like the sea-wind, always blowing from the sea, fresh and envigouration. The Ahimsa aspect of Jainism, the renunciation aspect of Buddhism, the Dharmic aspect of Lord Rama the Nishkama-Karma aspect of Lord Krishna, the universal-love aspect of Jesus, the universalbrotherhood aspect of Islam-all are found harmoniously blended in Sai Nath's way of life, Strikingly in him, the qualities of an Avadhuta and Sanyasin the salient features of sufism, of a hazrat, a parvardigar, a bhikku are easily discernible, Sai is like an oasis in a desert, which provides cool shelter and a refreshing drink to parched souls treading the scorching sands of sansaric life. Truely, there can be no better healing balm than Sai's grace for bleeding hearts badly mauled and wounded in the battles of life. Sai incessantly emphasised the fundamental oneness of all religions. Sai never prescribed a particular mode or method of worship nor initiated with mantra to any one, nor asked to perform any creedal religious rituals. He wrote nothing though his thoughts and flashy sayings are divine in nature and prophetic in result. He is rightly considered to have incarnated in Kali Age as an Avatar of redemption. Even the refuse and the reprobate looked down by the society readily received his Anugraha equally with the righteous and the high. There was no exclusive-ness in His benign concern for the suffering. His grace, was magnanimously pervasive and captivatingly persuasive. "If any child gets covered with mud and dust, is it not my duty like a mother to cleanse him and take him on my lap" typically illustrates the trait of Shri Sai Baba's mercy and concern for the penitent and defaulter, In all the known Avatars of the yore. "Sistha Rakshana and Dustha Sikshana" prevailed as the specific mission of the Avatar. But, singularly Sri Sai, a unique Avatar of Redemption of Kaliyug, redeemed in his own uninimitable way, the faulty the perfidy and even the felon by curtailing their innate tendencies and propensities and effected a complete transformation in the course of their lives. He considered every one without distinction as his child and as mother to her children, to correct, protect and enliven, was his mission. He finished his work left his corporeal body, (which he assumed of his own volition) on Vijaya Dasami, and entered into Mahasamadhi in 1918 a day which significantly happenened to be Bhagawan Buddha's Nirvana, Muharam and Dassarah important and significant to Hindus, Muslims and Buddhists alike. His samadhi at Shirdi acquired importance next to Tirupathi, the abode of Lord Venkateswara in the aspect of huge concourse of devotees ever increasing in number day after day, flocking to Shirdi for solace and fulfilment of their desires, temporal and spiritual as well. In the words of Swami Abhedananda, "Sai Baba is the one great ever bright luminary, still having unparalleled existence, ever shedding his resplendent rays to illuminate every nook and corner of the world". The significant nature of Shirdi Sai's manifestation, at once draws our attention to the distinctive feature of the emergence of numerous temples with Vigraha of Sai installed and worshipped with usual agamic rites and rituals observed in the temples of all Hindu pantheon, Vishnu, Siva, Rama, Krishna, etc.. From all over India and abroad devotees are found flocking at Shirdi in thousands and thousands visiting His Samadhi in the Mandir and Dwarakamayi where he stayed mostly. Sri Sai is a beacon light, a prophet not to proselytise but to help, not to concert but to transform, not to subdue but to elevate, not merely to preach but to live accordingly. His cosmic message of universal brotherhood and endearing humanism and love for all beings, is eternal.
"Pranamyam Deena Bandho Praseeda Mama Rakshaka Namo, Namo Sai Natha Sai Baba Saranam Mama".
By : Sri Mahabhashyam. Rangacharya.
Sages and Seers Of Datta Guru Parampara Bharat and Bharatiyas have a great common heritage. The heritage of perfection is called Guru Parampara. The Siddha heritage has Lord Dattatreya as its pinnacle, being the Guru of Gurus. Understandably, we never call Brahma, Vishnu, Shankara, Ganesha as Gurudevas. But we call Dattatreya as "Sri Guru Deva Datta". Lord Dattatreya is a "Smartugami". you "just remember Him. He is there'. He is an ever living incarnation. In such an illustrious Guru Parampara there have been great sages and seers who were all guided by this heritage. Records of most of them are not available. But by the grace of Lord Dattatreya, the life-stories of a few Siddhas/Mahatmas, are available. Shri Shripada Shri Vallabha is the one, who is an incarnation of Datta Himself.
1 . Sri Sripada Shri Vallabha
We have already seen how the worship of Dattatreya developed with the progress of time. Right from the Puranic age, kings like KartaveeryaArjuna , Ayu Alarka, Yadu and Puranic personalities like Parasurama, Pingala, Prahlada, and later even the historical personalities like Goraknath and others, the name of Dattatreya hovered over the pages of spiritual history with splendour of rare effulgence. Round about 1300 A.D. - A brahmin, learned and well versed in sastras, in philosophy, by name Appala Raja, lived in Pithapuram, a town on the east coast, in Godavari District of Andhra Pradesh. His wife Sumati was a great Sati devoted and chaste, really a Sumati i.e. of good and refined disposition. She used to adore her husband with great reverence and follow the dictates of her husband meticulously and scrupulously. Sri Kshetra Pithapuram is a town (a Railway Station) on the east coast in Godavari District of Andhra Pradesh. The holy place, Pithapuram, abounds in temples of Shiva (Kukkuteswara) and Vishnu (Kuntl Madhava) and also famous for Padagaya tank, where Shraddhas are performed with Pinda Pradana drawing people from all over India. According to the Puranic legend, the demon Gayasura was slained by Lord Vishnu and his mortal remains were strewned all over in a number of places. Afterwards these places came to be reckoned very holy. They are now famous Shiro-Gaya, Nabhi Gaya and Padagaya. This Kshetra Pithapurarn is considered to be as holy as Kashi (Benaras). Skanda Purana mentions that whosoever performs Shraddha wiih Pinda- dana at this holy kund of Pada - Gaya where the feet of Gayasura are supposed to be embedded the Jeevatmas of his forefathers in Pitru-loka get salvation. This holy place is the birth place of Shree Pada Vallaba. Appalaraja and Sumathi were an ideal couple of highest piety and purity. As misfortune would have it, they had two children both of them handicapped one blind and the other without legs. So the couple spent most of their time in looking after them. Their piety, particularly Sumati's sublime minded service bore fruit one day. It was a Shraddha day of the father of Appala Raja. Sumati woke up very early before sunrise as usual and that morning got herself immersed in preparing the food necessities, particularly required for the Shraddha Day. At mid-day when the sun was at the apex, Appalaraja left home to fetch Shraddha-bhoktas. Raja implies King not only in name but also in disposition and behaviour. Though he had no worldly wealth, he was rich in piety and righreousness. Sumati just finished the preparation of food requirements, when she heard the words at the door-step "O please give me cooked food". She found a hermit at the door-step with rare splendour of divine effulgence, face, joyful beaming brighter than that of the sun-glow, Sumati reverentially bowed down and felt that Lord Dattatreya came in that guise of a hermit. He asked for alms and Sumati without hesitation or a second thought brought the food she prepared for the Shraddha and offered in great reverence and saluted him again and again. The hermit was extremely pleased and said Oh! mother, ask me for whatever you wish". Sumati in great ecstasy, prayerfully said "Oh! Lord of Lords, you, all – merciful have called me mother, let those words come true. I wish to have a son like you, universally revered and compassionate to all. The hermit, who is no other than Lord Dattatreya said Be it so and in a twinkle disappeared. Sumati stood at the doorstep alone bewildered and overwhelmed with indescribable joy shedding tears of joy. After inviting, the Bhoktas to attend the Shraddha ceremony, Appala Raja returned home. He was surprised to see Sumati standing at the door - steps in a stupefied condition. After a while recognising her-Raja's return, she told him all that happened and apologtically said "Oh ! my Lord, I have committed a great mistake in giving away the Shraddha food to the hermit, who was just a few minutes before, asking for alms. Please wait for a while I shall re-cook for the Shraddha". Looking at Sumati, Appala Raja was intensely moved and said "Oh ! you have been most lucky, you have done no wrong. To give food to the hungry is the best and greatest of all donations, My forefathers must have been amply and really satisfied with this dana of yours. I feel that you have seen Shri Vishnu Himself in the form of Shri Datta, the incarnate of the Trinity. Days passed on the Lord himself had entered into the body of Sumati and her physical demeanour, day by day grew in divine lustre, She was spending all her time in deep meditation of Sri Datta Prabhu. She couldsee all pervading Digambara Datta in her heart and outside as well. She delivered in the tenth month a divine son. A kind of heavenly delight filled the home. The whole universe appeared to enjoy the sacred event. His Jataka was foretold. He was to be a very great (Tapasvi) ascetic. The child was called Sripada as the emblems of Chakra and Shanka were found in his feet. The splendour of his body so beautiful, so charming with divine lustre his parents named him Shree Vallabha. As it is customary, in his seventh year he was invested with the sacred thread (Upanayanam). Whatever words Shripada spoke had profound significance and he was (Eka Santagrahi) able to memorise anything just by a single reading or on hearing. In very shot time he completed learning Veda Sastras. His learning, maturity of knowledge, erudition in all Vedas and scriptures was stupendous. Thus he grew upto his sixteenth year, when his parents thought of marrying him. Learning the intention of the parents, Sreepada Sree Vallabha, endearingly told them, "1 am already married to renunciation". "1 am an ascentic, I have to be in Nivrithi Marg and so I am not to marry. " Hearing these words of her son, Sumati remembered the words of the hermit who blessed her and thought to herself Yes, the hermit told me of this and it is coming true now". The parents had an affectionate and kindly look at their son and said "Oh ! hermit son . We are extremely fortunate to have you with us and it was to be only for a short time of sixteen years. Whatever is Lord's design it should be carried out. Shripada Yati embraced his mother who in tears of joy and pure love bathed her godly son. The mother in anguish pointed towards her two sons, maimed and blind, and looked appealingly to her son. Lo ! Sripada Sreevallabha by a mere look at the blind brother blessed him with sight and the legless brother endowed with legs. The joy of the parents knew no bounds to find their hitherto, handicapped children, now physically fit and bright. Later they became very learned too. Sreepada, bade good-bye to his joyful parents and started on a pilgrimage. He went to Kashi, Badrinath, and Kedarnath in Himalayas, guiding and imparting Jnana to the Saints. Then coming down visited all the pilgrim centres on the west coast, reached Gokarna and finally retired to Kuruvapur, an island in river Krishna. He was enlightening and giving solace to people wherever he went. His desire was to dispense happiness to one and all, by freeing them from the shackles of worldly attachment and disappointments. By his blessings he made a delinquent, mentally retarded child quite normal and learned like the child's father (who was a great scholar of Vedas) at the request of the widow-mother Ambika and benevolently promised to born as her son in her next Janma. In another case, one day a Muslim Nawab came to river Krishna in a ferry boat with his wives for a joyful float.A washerman who was then washing clothes in the river water seeing the grandeur of the Nawab, felt utter contempt for his own poverty and miserable life. At the same moment Sripada Sri Vallabha Yati happened to come to the river for taking his daily bath as usual. The Yati who could easily read and understand the mind of the washerman and his mental anguish said "Oh! washerman, your mind is yearning for a life of luxury. You will get the same state as that Nawab in your next life." True, the washerman later was born to the Muslim Nawab of Bidar, enjoyed all the royal luxuries and also the grace of Sri Nrisimha Saraswati, who was a reincarnate of Sreepada Sree Vallabha Yati. Sripada Yati fixed a day for his Samadhi. It was on the twelth day of the dark half of month Ashwin, of Margasira Constellation on Thursday, saluted mother Ganga and sat for Samadhi on river-water and disappeared and got merged into Brahman, wherefrom He came in human form on the earth as Sreepada Sree Vallabha. Desires always come in the way of liberation and saints like Sri Sripada Sri Vallabha, have pointed out the ways and process to be free completely from them. Guru Charitha suggests the probable date of Sripada Vallabha as 1300 A.D. but it cannot be taken with any definiteness. In the 13th and 14th centuries, the condition of the country was in a great flux. It will be interesting to have a glimpse of the contemporary conditions of the country in general and Maharashtra then, in particular, the rule of the Mohammedans was not generally very popular. The Mohammedan rulers tried to attract people towards them by offers of power and pelf. At this time in the interest of humanity there was a pressing need of a powerful personality who would not only wean them away from the prevailing powerful enticements, but to put them on the right track. Sri Nrisimha Saraswati was such a personality.
2 . Shri Nrisimha Saraswati Swami
Nrisimha Saraswati was born in a brahmin family at Karanjananagar in the Varad district of Maharastra. His father's name was Madhav who belonged to the Vajasaneyi branch of the Vedas, and his mother's name was Amba almost of the same name Ambika, who got a boon from Sri Srivallabha to be born as her son in next life. In that way Nrisimha Saraswati, whose original name was Saligrama, is supposed to be the reincarnation of Sri Sreepada Sree Vallabha. The boy Nrisimha Saraswati, strangely till the time of his sacred thread ceremony (Upanayana) was uttering only "OM" and nothing else. At the time of the thread-ceremony he further surprised the people reciting the sacred hymns from Vedas. Promising his parents to return after twenty years, he went away only to fulfil his lifemission. He came to Benaras and was immersed in practice of Yoga and penance. It was Sri Krishna Saraswathi an old Sanyasin of high spiritual attainments, belonging to a venerable order of Sanyasins, gave diksha. He scrupulously observed the tenets of Sanyasin, observing, never to stay for more than a couple of days in a particular place, and kept on moving. Wherever he went, gave boons to many explained the real meaning behind the external practices prescribed in the scriptures in relation to mundane and spiritual life. He encouraged the performance of Yagnas(sacrifices). The Bhasma and Rudraksha wearing were highly recommended. The grace of God is always there for the good and it does not discriminate between the rich and the poor. Nrisimha Saraswati placed Sanyasamarga on a high pedestal and on solid foundation. Gurucharitra narrates the story. Chandala with Bhasma obtained from His Guru, who defeated two arrogant and learned Brahmins in discourses and of a Sati whose deceased husband was brought to life by the grace of Guru Nrisimha Saraswathi. We see during his life time, he not only stopped many a person changing his religion for the sake of worldly benefits. He was a poineer in advocating the line of thought put forward by Dattatreya in this Kali Age, like that of Rama worship by Tulsidasa, flourished with great force, inspiring many personalities. The worship of Dattatreya developed considerably with the advent of Nrisimha Saraswai and inspired many saints particularly, in Maharastra.
Later on and even at the time of Nrisimha Saraswati, the worship of a Guru, gained prominece. Guru Charitra speaks very highly -about the glorification of Guru and Guru-Gita as a part of the same. Gradually, thus the prefix Shri Guru Deva gained popularity before the thought of Sri Datta Prabhu. From vedic times, it can be gleaned that faith itself formed a part of reasoning from "Acharya Devo Bhava" mentioned in Taittiriya Upanishad, we find that Svetaketu, very highly well-versed in all the scriptures lacked spiritual knowledge, and had to approach a Guru to obtain it. It is rightly said that Guru, Vedanta and Iswara the trinity of spiritual Sadhana is of utmost importance. God's incarnation in Datta and Shri Guru is one and the same, "God is Trinity is Guru". Nrisimha Saraswati elevated this principle highly, reminding the sloka "Guru is Brahma, Vishnu Maheswar and Guru is nothing but really Parabrahman" Dattatreya is Guru Avatara and later times, invocationJai Guru Dev Datta became an essential, in the Datta worship. A guru is Brahma though he has only one face, instead of four of Brahma; he is Vishnu with two hands instead of four hands and he is Siva with only two eyes, instead of three eyes of Siva. The grace of Sadguru is the primary necessity of life. The yati marga initiated by Sree Pada Sree Vallabha gradually underwent a change into Guru-marga, considering it synonymous with yati marga, in contrast to Vaidika marga which had a firm hold, previously.
Nrisimha Saraswathi, with his yogic powers and penance, represented himself as one who had come, for mankind, to save it from clutches of narrow mindedness, ignorance, who wrongly considered "body" as god and "eating" as prayer. Before the advent of Nrisimha Saraswathi, Karma kanda had its predominance in every religious aspect of a Hindu. There was high stress on Vratas, Prayaschitta, etc., even though tall talks on higest highest philosophical doctrines were conspicuous without any Chitta Suddhi. Behind each and every miracle associated with the name of Sri Nrisimha Saraswati, one thing was emphasized that the pleasures and pains of life are inevitable and are of no value but only the real value lies in attaining the ultimate goal of life, self-realisation, the final emancipation. The self alone is real and all actions are meant for purifying mind. Gradually due to his influence, people's minds got broadened and difference between different sections of the people were bridged over.
3 . Manika Prabhu (1817 -1865 A.D.)
Manohara Nayaka Harakude, a Srivatsa gotra, Desastha Brahmin and Baya Devi of Ladavanti were the parents of Manik Prabhu, their illustrious son. Harakude and Baya Devi were very pious and they did
Parayana of Guru Charitra for over sixteen years continously with rigid observance of the rules of worship indicated in Guru Charitra. Afterwards Lord Dattatreya appeared in a dream gave darshan to Harakude and Baya Devi and asked them to choose a boon. Both like Atri and Anasuya, desired to have a son like the Lord and nothing else. Thus the birth of Manika Prabhu came into existence in the world in the year 1817A.D. From the very childhood Manika Prabhu was known for his worth in yoga, enrapturing his mother Baya Devi like Yasoda Devi, the mother of Lord Krishna by his divine nature. When on Thursdays people flocking together and approaching the child for something or other and their wishes being fulfilled was an exciting scene. Child Manika Prabhu, though he never attended a school, learnt many languages like Kanarese, Urdu, Marathee, Persian, Sanskrit by himself and even acquired proficiency in them. Baya Devi was widowed just when Manika Prabhu was ten years old and so his maternal uncle was his guardian. Manika Prabhu was found wandering here and there doing things quite contrary to the sacred traditions of Hindu religion. For instance, once Manika Prabhu was found putting all his clothes and his chappals on the head of Maruti idol in a temple. His settlement at Manikanagar is quite interesting. Once a certain Brahmin family started for Darshana of Manika Prabhu. On their way at Humnabad there was a temple and there they were resting for the night without knowing that it was the meeting place of thieves. That night a batch of dacoits visited the temple as usual and finding the family resting therein, wanted to loot them. The Brahmin family startled by their presence began crying out "Hei ! Manika Prabhu, Manika Prabhu" for helping them out of the great danger they could sense. Soon a miracle happened and the thieves saw a. great yogi, bedecked with gorgeous jewellery in front, standing at the threshold of the temple. The thieves preferred to loot the person with plenty of jewellery over his body than the humble brahmin family. When the thieves ran after him he disappeared and they found 'themselves benumbed completely, and slowly they sneaked out away, lest something more harm should happen to them. In fact, Manika Prabhu appeared in person there soon after and made the place his permanent abode. The forest surounding the temple was cleared and soon a township sprang up. The place became in a little time, a centre where people saw both renunciation and enjoyment harmoniously blended. Manika Prabhu never ate the rich food prepared for the devotees thronged, but always lived on Madhukari food brought by his disciples, begging from house to house. Some times he went for alms in that way. The paradox was people could see a rich beggar with all his royal pomp was full of simplicity and humility. In him one could see, the effulgence of a saint with the halo of worldly luxury, completely detached. An unbroken celibacy even amidst women and wealth was conspicuous in him strictly avoiding association with ladies in loneliness. He showed tothe world that even ladies with proper direction could attain the highest knowledge of Atman the Absolute, if the director is careful about his ownself. He could freely mix with non Hindus, specially Mohammedans, for he evinced equal care and interest in the welfare of one and all. Thus like Nrisimha Saraswati he influenced both the Hindus and Mohammedans alike. The founder of Sikhism has considered Manika Prabhu as "an incarnation of Dattatreya", while Col.Alkot. of Theosophical Society, Basaveswara the founder of Lingayat sect, gave glorious accounts of Manika Prabhu, as an incarnation born in the world for the good of the people. His wisdom, catholicity and foresight in handling different kinds of people under one banner, is strikingly, significant. In fact his whole life passed in such activity of longing in a fusion of so called opposites in faiths and cults. It is (Sakalamata sthapana) universally of religions, his seeing no conflict between activity (Pravitti) and inaction (nivritti) was his greatest contribution to the society and mankind.
Manika Prabhu had many contemporaries. Of course the followers and disciples of each saint consider them as different Avataras of Dattatreya. For instance, Sri Baka Prabhu among Lingayats, Sri Alam Prabhu among Yavanas, Sri Swami of Akkalkot were all illustrious in their own way.
These saints who were contemporary always considered the worth of one another and never talked of their own greatness. They never cared for fame. Though, inspite of their dislike for it, it came to them and clung to their names even after their departure from the world. They were born for a particular mission and they accomplished it in their own way by giving things to the needy and enlightenment to those who sought for it. For instance, Manika Prabhu in the task of enhancing the power of Sidhas, helped Hamsaraja Swami in his pursuit of self realisation. Manik Prabhu's connection with Sidhas, like Alam Prabhu, Revana Siddha, Suraja Sadananda was mysteriously startling. Manika Prabhu wrote a book called kalpataru which contains the knowledge he desired to impart. Moreover many padas, Artis were composed by him. The subject of Gopi Krishna's equisitively inter-woven in many of his padas in great depth. Manika Prabhu took Samadhi at Manikanagar in 1865, at the age of 48, the news of which was kept a secret at the behest of Manika Prabhu at the time of his taking Samadhi, to allow the people gathered for Datta- Jayanthi to celebrate without marring their joy which would have been upset if the news of his passing away was made public. Manikanagar has become place of pilagrimage, where people throng from all parts of country for the fulfilment of their cherished desires.
4 . Swami of Akkalkot
Lord Dattatreya is an incarnation of the Trinity, the three highest Gods. Brahma, Vishnu and Siva. Their Shakti, Saraswati, Lakshmi and Parvati, being highly chaste women follow their husbands and shower their grace (Anugraha) on the devotees of their Lords. Thus the grace of goddess Saraswati as regards knowledge is fully showered upon as soon as a call is heard from the Guru Dattatreya. Thus we find that devotees of Lord Dattatreya were blessed by Saraswati and they produced monumental works. For instance, Gangadhara Saraswati's Guru Charitra, Dasopanta's Gitarnava, Niranjana's commentaries, Vasudevananda Saraswati's Dattatreya- Mahatmya, inspiring works have been the result of Saraswati's blessings and they contributed considerably to the literature dealing with the process of liberation (Mumukshutva). In the same way Goddess Lakshmi always remained at hand to bestow inexhaustible mines of wealth for advancement of Bhaktas towards their spiritual goal. The life of Manika Prabhu is an instance. The same is the case with Goddess Annapurna (Parvathi) in the role of mother of Universe (Uma) provides food unlimited by her divine grace without knowing wherefrom it comes and how it is managed. The prominence of the three Goddesses varies according to the needs of time and place. Yet all the three are one and the same. Just like the grace of the Goddess of the three principal deities, we often come across the characteristic features of one or theother of three Gods in the lives of these saints. In Sree Pada Sree Vallabha the Avadhuta aspect, in Nrisimha Saraswati the paramahamsa aspect, in the Swami of Akkalkot the child-like (Bala) aspect and mad life (Unmatta), and in Shirdi Sai a peculiar synthesis of all these aspects of Dattatreya are discernible. Various different accounts evolved out of the biographical versions about the birth of the Swami Samartha as pronounced by him at several times. Firstly he told a Pujari of Ganagapur that his name was Nrisimha-bana and that he was born 450 years ago. Secondly, he told a Parsi gentleman that he was from Kadalivana moved to various places, Haridwar. Kedareswara, Pandharpur and finally settled at Akkalkot. Thirdly, he told a devotee Shri Darve that his caste was a Brahmin of Yajurveda branch Kasyapa Gotra. Fourthly, he told a wine merchant that himself an originator having his bed on a leaf of a banyan tree at Dattanagar, and another time told that he was an outcast (Chamar) and his parents belong to the caste of Mahar. Just as his statements regarding his name and caste are varied, his behaviour and daily-life actions happened to be strange and even at times transcending bounds of decency. But nobody ever reported that he behaved against the common rules of the society. Every body in fact respected him as a great saint of unfathomable behaviour and absolutely unconcerned and unattached attitude to the objects, men or environment around him. The life of Swami Samartha was full of miracles and thousands of people gathered around him solely for fulfilment of their worldly desires, while none went to him for spiritual progress. Each utterance of the Swami was regarded to contain some deep secret meaning or reference to a certain incident of the future. According to Swami Shivananda Saraswati, "These sages are absolutely free from selfish desires, They simply witted at times to do good to humanity and every thing came to pass instantaneously". In this aspect, a saint differs from a juggler who performs magic with a selfish motive of earning for his livelihood, and moreover, the action created is an illusion created by him while in the case of a saint it is distinctly different. Swami Samartha discriminated between a righteous desire and an unrighteous one. His refusal of his grace to bless, the revolutionary design of V.D.Phadke, to the Gaeckwad of Baroda who tried to tempt him with wealth and position and so many others who approached him
with mundane motives illustrates the sublime consideration with which he bestowed his anugraham. His life inspired and led many disciples on the path of liberation. Nrisimha Bharati of Alandi, Baba Sabnis are some of them. The highly spiritual life of Samartha was conspicuous in his daily routine. He did each and every work only when he had a mind to do it. Numerous people were miraculously cured by the grace of Swami. The medicines he prescribed varied with the faith of the patient from the juice of a lemon to a remedy prescribed of putting a hand bitten by a scorpion inside a shoe for relief. Many a devotee connected with places sacred to Dattatreya such as Ganagapur, Narsoba Wadi got mysterious calls from their deity to go to the Swami at Akkalkot for his blessings. By his grace he brought about a fundamental change in the lives of many (Hridaya Parivartan) by influencing their minds and hearts to get over their weaknesses and blemishes. In short Swami emphasised the essentiality of purity of mind. He had love and compassion for all cretures without any distinction. Such a personality remarkable both from physical and spiritual aspects, passed away in April 30, 1878 A.D. The Swami wrote nothing yet his whole life inspired many works in this school. While residing both at Akkala (Buddhi) and at kot (Avarna) as a mere witness of both mind and environment around, he dispelled ignorance and showed a clear way of envisioning the reality behind and beyond all things.
5 . Samartha Sadguru Sai Baba
In the unbroken line of sages and saints of Bharat Varsha, who held aloft the torch of spirituality in all climes and ages, the sage of Shirdi, occupies a very significant position. He is a very mysterious personality whom everybody interprets in his own way but no interpetation could give a complete picture of the saint. This is perhaps the reason why he is Rama, Krishna, Hanuman, Sankara, Ganpathi, Dattatreyaall rolled in one according to the Samskar and desire of different devotees. To comprehend the divine nature of Sainath in its entirety is a stupendous exercise in the subtle realm of intuition, experience and realisation. His birth is shrowded in great mystery for no one knew his parentage nor the place of his birth. Possibly, the view held by some that he is a "Ayoni Sambhav" (not born from human womb) be the case, like Lord Dattatreya. Rightly SaiBaba, a Sampurna Avatar of Lord Dattatreya, has his centre every where without a limiting circumference anywhere. When he was asked about his parent-hood, he said "The world is my village, Brahma the father and Maya the Mother". His effulgent complexion was said to be strikingly captivating and endearingly charmful. It is said that particularly, the lustrous golden-hued-body and brilliantly beaming face were remarkably arresting one's attention and they were considered to be the significatnt features of a Tapasvi observing the Mahavrat comprising of Ahimsa, Satya, Astheya, Brahmacharya and Aparigraha, Another distinctive feature was Sai's most brilliant and enchanting eyes beaming out cascades of love compassion and solace. Lo! just a glance of his was enough to dispel all baffling doubts and distressing problems. Significantly, Sai was easily accessible equally to the pauper and the prince, the illiterate and the learned, the young and the old, the atheist and the theist. Sai the arch-alchemist could in the crucible of his irresistible and incissive look and words of divine wisom, transmute the faulty and the fallen, the base metals into precious ones, using the chemical of his grace endowed with compassion and love. The sublime concept of 'Vasudhaika Kutumbam" one world one humanity has been the cardinal principle of the glorious heritage of spirtual and social culture of Bharat Varsha all through the millenniums of the past. In this aspect "Tat-Twam Asi" "Thou Art that" represents the fundamental identity of macrocosm and microcosm and having the same natural characterstics, which are in constant dynamic contact with each other. Sai laid stress on constant faith (Nista) and patience (Saburi) as he demanded always these "two coins" from his devotees. Performance of one's own duty and worship of one's own family deity with pure heart had his appreciation, though at times Sai gave rude shocks to narrow-minded orthodoxy. Yet he never encouraged nor approved anybody changing his religion or his traditional mode of worship. This way of handling the two divine influence over them. His catholicity of outlook, harmonious synthesis of univarsal religion which is as much, Hindu, Muslim, Christian, Buddhist, Zorasterian, even the monism derived from the 19th and early 20th century scientific and technological development, storming the intellectual world, is akin to his tenets. Many great Mahatmas from time to time effected changes in the mode of thinking, worship and ways of life. As a result of their teachings new traditions, new concepts and perceptions have sprung up. Unfortunately, certain aberrations too have crept in. But the life -teachings of Sai are singularly free from these defects.
Sai's grace is like the sea-wind, always blowing from the sea, fresh and envigouration. The Ahimsa aspect of Jainism, the renunciation aspect of Buddhism, the Dharmic aspect of Lord Rama the Nishkama-Karma aspect of Lord Krishna, the universal-love aspect of Jesus, the universalbrotherhood aspect of Islam-all are found harmoniously blended in Sai Nath's way of life, Strikingly in him, the qualities of an Avadhuta and Sanyasin the salient features of sufism, of a hazrat, a parvardigar, a bhikku are easily discernible, Sai is like an oasis in a desert, which provides cool shelter and a refreshing drink to parched souls treading the scorching sands of sansaric life. Truely, there can be no better healing balm than Sai's grace for bleeding hearts badly mauled and wounded in the battles of life. Sai incessantly emphasised the fundamental oneness of all religions. Sai never prescribed a particular mode or method of worship nor initiated with mantra to any one, nor asked to perform any creedal religious rituals. He wrote nothing though his thoughts and flashy sayings are divine in nature and prophetic in result. He is rightly considered to have incarnated in Kali Age as an Avatar of redemption. Even the refuse and the reprobate looked down by the society readily received his Anugraha equally with the righteous and the high. There was no exclusive-ness in His benign concern for the suffering. His grace, was magnanimously pervasive and captivatingly persuasive. "If any child gets covered with mud and dust, is it not my duty like a mother to cleanse him and take him on my lap" typically illustrates the trait of Shri Sai Baba's mercy and concern for the penitent and defaulter, In all the known Avatars of the yore. "Sistha Rakshana and Dustha Sikshana" prevailed as the specific mission of the Avatar. But, singularly Sri Sai, a unique Avatar of Redemption of Kaliyug, redeemed in his own uninimitable way, the faulty the perfidy and even the felon by curtailing their innate tendencies and propensities and effected a complete transformation in the course of their lives. He considered every one without distinction as his child and as mother to her children, to correct, protect and enliven, was his mission. He finished his work left his corporeal body, (which he assumed of his own volition) on Vijaya Dasami, and entered into Mahasamadhi in 1918 a day which significantly happenened to be Bhagawan Buddha's Nirvana, Muharam and Dassarah important and significant to Hindus, Muslims and Buddhists alike. His samadhi at Shirdi acquired importance next to Tirupathi, the abode of Lord Venkateswara in the aspect of huge concourse of devotees ever increasing in number day after day, flocking to Shirdi for solace and fulfilment of their desires, temporal and spiritual as well. In the words of Swami Abhedananda, "Sai Baba is the one great ever bright luminary, still having unparalleled existence, ever shedding his resplendent rays to illuminate every nook and corner of the world". The significant nature of Shirdi Sai's manifestation, at once draws our attention to the distinctive feature of the emergence of numerous temples with Vigraha of Sai installed and worshipped with usual agamic rites and rituals observed in the temples of all Hindu pantheon, Vishnu, Siva, Rama, Krishna, etc.. From all over India and abroad devotees are found flocking at Shirdi in thousands and thousands visiting His Samadhi in the Mandir and Dwarakamayi where he stayed mostly. Sri Sai is a beacon light, a prophet not to proselytise but to help, not to concert but to transform, not to subdue but to elevate, not merely to preach but to live accordingly. His cosmic message of universal brotherhood and endearing humanism and love for all beings, is eternal.
"Pranamyam Deena Bandho Praseeda Mama Rakshaka Namo, Namo Sai Natha Sai Baba Saranam Mama".
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
लक्ष्मीजी की प्रचलित लोककथा दिवाली पर देवी लक्ष्मी की कथा Popular folk tale of Lakshmiji Story of Goddess Lakshmi on Diwali
हमारी लोक संस्कृति में इसी त्योहार और माता लक्ष्मी की बड़ी भोली व सौंधी सी कथा प्रचलित है। एक बार कार्तिक मास की अमावस को लक्ष्मीजी भ्रमण पर निकलीं। चारों ओर अंधकार व्याप्त था। वे रास्ता भूल गईं। उन्होंने निश्चय किया कि रात्रि वे मृत्युलोक में गुजार लेंगी और सूर्योदय के पश्चात बैकुंठधाम लौट जाएंगी, किंतु उन्होंने पाया कि सभी लोग अपने-अपने घरों में द्वार बंद कर सो रहे हैं।
तभी अंधकार के उस साम्राज्य में उन्हें एक द्वार खुला दिखा जिसमें एक दीपक की लौ टिमटिमा रही थी। वे उस प्रकाश की ओर चल दीं। वहां उन्होंने एक वृद्ध महिला को चरखा चलाते देखा। रात्रि विश्राम की अनुमति मांग कर वे उस बुढ़िया की कुटिया में रुकीं।
वृ्द्ध महिला लक्ष्मीदेवी को बिस्तर प्रदान कर पुन: अपने कार्य में व्यस्त हो गई। चरखा चलाते-चलाते वृ्द्धा की आंख लग गई। दूसरे दिन उठने पर उसने पाया कि अतिथि महिला जा चुकी है किंतु कुटिया के स्थान पर महल खड़ा था। चारों ओर धन-धान्य, रत्न-जेवरात बिखरे हुए थे।
कथा की फलश्रुति यह है कि मां लक्ष्मीदेवी जैसी उस वृद्धा पर प्रसन्न हुईं वैसी सब पर हों। और तभी से कार्तिक अमावस की रात को दीप जलाने की प्रथा चल पड़ी। लोग द्वार खोलकर लक्ष्मीदेवी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
किंतु मानव समाज यह तथ्य नहीं समझ सका कि मात्र दीप जलाने और द्वार खोलने से महालक्ष्मी घर में प्रवेश नहीं करेंगी। बल्कि सारी रात परिश्रम करने वाली वृद्धा की तरह कर्म करने पर और अंधेरी राहों पर भटक जाने वाले पथिकों के लिए दीपकों का प्रकाश फैलाने पर घरों में लक्ष्मी विश्राम करेंगी। ध्यान दिया जाए कि वे विश्राम करेंगी, निवास नहीं। क्योंकि लक्ष्मी का दूसरा नाम ही चंचला है। अर्थात् अस्थिर रहना उनकी प्रकृति है।
इस दीपोत्सव पर कामना करें कि राष्ट्रीय एकता का स्वर्णदीप युगों-युगों तक अखंड बना रहे। हम ग्रहण कर सकें नन्हे-से दीप की कोमल-सी बाती का गहरा-सा संदेश कि बस अंधकार को पराजित करना है और नैतिकता के सौम्य उजास से भर उठना है। लक्ष्मी सूक्त का पाठ करें और मां लक्ष्मी से दिव्यता का आशीष प्राप्त करें।
।। न क्रोधो न च मात्सर्य
न लोभो ना शुभामति:
भवन्ति कृत पुण्यानां
भक्तानां सूक्त जापिनाम्।।
अर्थात् लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने वाले की क्रोध, मत्सर, लोभ व अन्य अशुभ कर्मों में वृत्ति नहीं रहती। वे सत्कर्मों की ओर प्रेरित होते हैं।
तभी अंधकार के उस साम्राज्य में उन्हें एक द्वार खुला दिखा जिसमें एक दीपक की लौ टिमटिमा रही थी। वे उस प्रकाश की ओर चल दीं। वहां उन्होंने एक वृद्ध महिला को चरखा चलाते देखा। रात्रि विश्राम की अनुमति मांग कर वे उस बुढ़िया की कुटिया में रुकीं।
वृ्द्ध महिला लक्ष्मीदेवी को बिस्तर प्रदान कर पुन: अपने कार्य में व्यस्त हो गई। चरखा चलाते-चलाते वृ्द्धा की आंख लग गई। दूसरे दिन उठने पर उसने पाया कि अतिथि महिला जा चुकी है किंतु कुटिया के स्थान पर महल खड़ा था। चारों ओर धन-धान्य, रत्न-जेवरात बिखरे हुए थे।
कथा की फलश्रुति यह है कि मां लक्ष्मीदेवी जैसी उस वृद्धा पर प्रसन्न हुईं वैसी सब पर हों। और तभी से कार्तिक अमावस की रात को दीप जलाने की प्रथा चल पड़ी। लोग द्वार खोलकर लक्ष्मीदेवी के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
किंतु मानव समाज यह तथ्य नहीं समझ सका कि मात्र दीप जलाने और द्वार खोलने से महालक्ष्मी घर में प्रवेश नहीं करेंगी। बल्कि सारी रात परिश्रम करने वाली वृद्धा की तरह कर्म करने पर और अंधेरी राहों पर भटक जाने वाले पथिकों के लिए दीपकों का प्रकाश फैलाने पर घरों में लक्ष्मी विश्राम करेंगी। ध्यान दिया जाए कि वे विश्राम करेंगी, निवास नहीं। क्योंकि लक्ष्मी का दूसरा नाम ही चंचला है। अर्थात् अस्थिर रहना उनकी प्रकृति है।
इस दीपोत्सव पर कामना करें कि राष्ट्रीय एकता का स्वर्णदीप युगों-युगों तक अखंड बना रहे। हम ग्रहण कर सकें नन्हे-से दीप की कोमल-सी बाती का गहरा-सा संदेश कि बस अंधकार को पराजित करना है और नैतिकता के सौम्य उजास से भर उठना है। लक्ष्मी सूक्त का पाठ करें और मां लक्ष्मी से दिव्यता का आशीष प्राप्त करें।
।। न क्रोधो न च मात्सर्य
न लोभो ना शुभामति:
भवन्ति कृत पुण्यानां
भक्तानां सूक्त जापिनाम्।।
अर्थात् लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने वाले की क्रोध, मत्सर, लोभ व अन्य अशुभ कर्मों में वृत्ति नहीं रहती। वे सत्कर्मों की ओर प्रेरित होते हैं।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
हमारे दशनाम इस परकार है ः
हमारे दशनाम इस परकार है ः
(1)-वन, (2)-अरण्य, (3)-गिरि, (4)-सागर, (5)-पर्वत, (6)-तीर्थ, (7)-आश्रम, (8)-पुरि, (9)-भारती, (10)-सरस्वती
हमारे समाज की 52 मढी है जो इस परकार है----
गिरि,पर्वत,सागर की 27 मढी है
ओर पुरियो की 16 मढी है,
ओर गुरू शंकरा चार्य सन्यासी वन की 4 मढी हैI
ओर भारतीयो की 4 मढी है
ओर लामा गुरू की 1 मढी है
जिनका विवरण इस परकार है:-
{गिरि,पर्वत,सागर की 27 मढी इस परकार है --
1-रामदत़ी, 2-ओंकार लाल नाथी, 3-चन्दनाथी बोदला, 4-व्रहा नाथी, 5-दुर्गा नाथी, 6-व्रहा नाथी, 7-सेज नाथी, 8-जग जीवन नाथी, 9-पाटम्बर नाथी, 10-ज्ञान नाथी- -11-अघोर नाथी, 12-भाव नाथी, 13-ऋदि नाथी, 14-सागर नाथी, 15-चाँद नाथ बोदला, 16-कुसुम नाथी, 17-अपार नाथी, 18-रत्न नाथी, 19-नागेन्द्र नाथी, 20-रूद्र नाथी 21-महेश नाथी, 22-अजरज नाथी, 23-मेघ नाथी, 24-पर्वत नाथी, 25-मान नाथी, 26-पारस नाथी, 27-दरिया नाथी
पुरियो की 16 मढी इस परकार है:-
1-वैकुण्ठ पुरि, 2-केशव पुरि मुलतानी, 3-गंगा पुरि दरिया पुरि, 4-ञिलोक पुरि, 5-वन मेघनाथ पुरि, 6-सेज पुरि, 7-भगवन्त पुरि, 8-पू्रण पुरि 9-भण्डारी हनुमत पुरि, 10-जड भरत पुरि, 11-लदेर दरिया पुरि, 12-संग दरिया पुरि, 13-सोम दरिया पुरि 14-नील कण्ठ पुरि, 15-तामक भियापुरि, 16-मुयापुरिनिरंजनी-
गुरू शंकरा चार्य सन्यासी वन की 4 मढी इस परकार ह:-
1-गंगासनी वन, 2-सिंहासनी वन, 3-वाल वन कुण्डली श्री वन, 4-होड सारी वन-अत्म वन,
भारती की 4 मढी इस परकार है-
1-मन मुकुन्द भारती , 2-नृसिंह भारती, 3-पदम नाथ भारती , 4-बाल किषन भारती ,
लामा गुरू की 1 मढी इस परकार है-
पाहरी की छाप लामा गुरु की मढी चीन में है॥
कृपया इस विवरण को समाज के व्यक्तियो तक पहुचाऎ ताकि सभी हमारे समाज के बारे में जान सके॥
(1)-वन, (2)-अरण्य, (3)-गिरि, (4)-सागर, (5)-पर्वत, (6)-तीर्थ, (7)-आश्रम, (8)-पुरि, (9)-भारती, (10)-सरस्वती
हमारे समाज की 52 मढी है जो इस परकार है----
गिरि,पर्वत,सागर की 27 मढी है
ओर पुरियो की 16 मढी है,
ओर गुरू शंकरा चार्य सन्यासी वन की 4 मढी हैI
ओर भारतीयो की 4 मढी है
ओर लामा गुरू की 1 मढी है
जिनका विवरण इस परकार है:-
{गिरि,पर्वत,सागर की 27 मढी इस परकार है --
1-रामदत़ी, 2-ओंकार लाल नाथी, 3-चन्दनाथी बोदला, 4-व्रहा नाथी, 5-दुर्गा नाथी, 6-व्रहा नाथी, 7-सेज नाथी, 8-जग जीवन नाथी, 9-पाटम्बर नाथी, 10-ज्ञान नाथी- -11-अघोर नाथी, 12-भाव नाथी, 13-ऋदि नाथी, 14-सागर नाथी, 15-चाँद नाथ बोदला, 16-कुसुम नाथी, 17-अपार नाथी, 18-रत्न नाथी, 19-नागेन्द्र नाथी, 20-रूद्र नाथी 21-महेश नाथी, 22-अजरज नाथी, 23-मेघ नाथी, 24-पर्वत नाथी, 25-मान नाथी, 26-पारस नाथी, 27-दरिया नाथी
पुरियो की 16 मढी इस परकार है:-
1-वैकुण्ठ पुरि, 2-केशव पुरि मुलतानी, 3-गंगा पुरि दरिया पुरि, 4-ञिलोक पुरि, 5-वन मेघनाथ पुरि, 6-सेज पुरि, 7-भगवन्त पुरि, 8-पू्रण पुरि 9-भण्डारी हनुमत पुरि, 10-जड भरत पुरि, 11-लदेर दरिया पुरि, 12-संग दरिया पुरि, 13-सोम दरिया पुरि 14-नील कण्ठ पुरि, 15-तामक भियापुरि, 16-मुयापुरिनिरंजनी-
गुरू शंकरा चार्य सन्यासी वन की 4 मढी इस परकार ह:-
1-गंगासनी वन, 2-सिंहासनी वन, 3-वाल वन कुण्डली श्री वन, 4-होड सारी वन-अत्म वन,
भारती की 4 मढी इस परकार है-
1-मन मुकुन्द भारती , 2-नृसिंह भारती, 3-पदम नाथ भारती , 4-बाल किषन भारती ,
लामा गुरू की 1 मढी इस परकार है-
पाहरी की छाप लामा गुरु की मढी चीन में है॥
कृपया इस विवरण को समाज के व्यक्तियो तक पहुचाऎ ताकि सभी हमारे समाज के बारे में जान सके॥
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goswami-samaj
मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
क्या आप जानते हैं? ज्योतिर्लिंग कितने हैं? Do you know? How many Jyotirlingas are there?
यह भगवान शंकर के रूप में स्थापित हैं। ये हिंदुओं के लिए पूज्य हैं। भारत में 12 ज्योतिर्लिंग बताए गए हैं, ये हैं- सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकाल, ओंकार, केदारनाथ, भीमशंकर, नागेश्वर, वैद्यनाथ, रामेश्वर, घृणेश्वर, विश्वेश्वर और त्रयंबकेश्वर।
पौराणिक ग्रंथों में अयोध्या और सरयु नदी की क्या चर्चा मिलती है?
अयोध्या नगर की चर्चा रामायण में मिलती है। माना जाता है कि मनु के एक अवतार ने इसे सरयु नदी के किनारे बसाया था। यह सूर्यवंशी राजाओं की नगरी थी। राजा दशरथ यहां के राजा हुआ करते थे। भगवान राम का जन्म उन्हीं के घर हुआ था। पुराण की एक और कथा के अनुसार, राजा सगर के पुत्र असमंजस ने अयोध्या के बच्चों को मारकर इस नदी में फेंक दिया था। पर बाद में उन्हें फिर जिंदा भी कर दिया था।
उत्तर प्रदेश में आज भी अयोध्या नाम का एक शहर अवस्थित है।
अनंतचतुर्दशी में किस देवता की पूजा की जाती है?
अनंतचतुर्दशी में भगवान अनंत की पूजा की जाती है। यह भादों के शुक्लपक्ष के चतुर्दशी के दिन मनाया जाता है। इस दिन चौदह धागों से निर्मित ‘अनंत’ (चौदह गाठों वाली डोर) को बांह पर बांधा जाता है। पुरुष इसे बाईं बांह पर और स्त्रियां इसे दाईं बांह पर बांधती है। अनंत की चौदह गांठें भगवान के चौदह गुणों का प्रतीक मानी जाती हैं। इसलिए अनंत को चौदह दिनों तक बांह पर बांध कर रखा जाता है।
महाभारत की रचना किन्होंने की थी?
महाभारत की रचना महर्षि व्यास ने की थी। ये पराशर ऋषि के पुत्र थे। जन्म नदी के बीच एक टापू पर होने और रंग काला(कृष्ण) होने के कारण, इनका नाम ‘कृष्ण द्वैपायन’ पड़ गया। माना जाता है कि बाद में इन्होंने वेदों का संपादन भी किया था। वेदों के संपादन के बाद इनका नाम वेद-व्यास पड़ गया।
पौराणिक ग्रंथों में अयोध्या और सरयु नदी की क्या चर्चा मिलती है?
अयोध्या नगर की चर्चा रामायण में मिलती है। माना जाता है कि मनु के एक अवतार ने इसे सरयु नदी के किनारे बसाया था। यह सूर्यवंशी राजाओं की नगरी थी। राजा दशरथ यहां के राजा हुआ करते थे। भगवान राम का जन्म उन्हीं के घर हुआ था। पुराण की एक और कथा के अनुसार, राजा सगर के पुत्र असमंजस ने अयोध्या के बच्चों को मारकर इस नदी में फेंक दिया था। पर बाद में उन्हें फिर जिंदा भी कर दिया था।
उत्तर प्रदेश में आज भी अयोध्या नाम का एक शहर अवस्थित है।
अनंतचतुर्दशी में किस देवता की पूजा की जाती है?
अनंतचतुर्दशी में भगवान अनंत की पूजा की जाती है। यह भादों के शुक्लपक्ष के चतुर्दशी के दिन मनाया जाता है। इस दिन चौदह धागों से निर्मित ‘अनंत’ (चौदह गाठों वाली डोर) को बांह पर बांधा जाता है। पुरुष इसे बाईं बांह पर और स्त्रियां इसे दाईं बांह पर बांधती है। अनंत की चौदह गांठें भगवान के चौदह गुणों का प्रतीक मानी जाती हैं। इसलिए अनंत को चौदह दिनों तक बांह पर बांध कर रखा जाता है।
महाभारत की रचना किन्होंने की थी?
महाभारत की रचना महर्षि व्यास ने की थी। ये पराशर ऋषि के पुत्र थे। जन्म नदी के बीच एक टापू पर होने और रंग काला(कृष्ण) होने के कारण, इनका नाम ‘कृष्ण द्वैपायन’ पड़ गया। माना जाता है कि बाद में इन्होंने वेदों का संपादन भी किया था। वेदों के संपादन के बाद इनका नाम वेद-व्यास पड़ गया।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
आप जानते हैं? Do you know?
द्वापर युग क्या था?
पुराणों में, पृथ्वी की रचना को बारह युगों में बांटा गया है। द्वापर युग बारह युगों में तीसरा है। पुराणों के अनुसार इस युग में पृथ्वी पर पाप कर्म बढ़ गए थे। भगवान कृष्ण का अवतार इसी युग में हुआ था। महाभारत का युद्ध इसी युग में हुआ था। पुराणों में इसे 864000वर्ष का माना जाता है। माना जाता है कि इस युग में लोगों की आयु 2000 साल की होती थी।
भगवान विष्णु को नरसिंह अवतार क्यों लेना पड़ा?
हिरण्यकशिपु नामक दैत्य को ब्रह्मा जी का वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु न मनुष्य से न देवता से, न घर के अंदर न बाहर, न दिन और न ही रात में होगी। उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। हिरण्यकशिपु उसकी विष्णु भक्ति ने अप्रसन्न था। वह उसका वध करने लगा। उसने प्रह्लाद को खंभे में बांधकर ज्योंही तलवार उठाई कि खंभे से भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में उत्पन्न हुए। उनका सिर सिंह का और धड़ मनुष्य का था। उन्हें ब्रह्मा जी के वरदान के बारे में पता था, उन्होंने द्वार के बीच में अपनी गोद में हिरण्यकशिपु को बिठाकर उसका पेट चीर डाला। यह समय भी संध्या काल का था-यानि न दिन न रात।
नर्मदेश्वर कौन हैं?
नर्मदेश्वर एक पवित्र शिवलिंग है जिसे भगवान शिव का रूप माना जाता है। यह नर्मदा नदी के तट पर अवस्थित है। नर्मदेश्वर को महत्वपूर्ण तीर्थ-स्थानों में एक माना जाता है। पुराणों के अनुसार इस तीर्थ में पूजा करने से पुण्य मिलता है।
‘मीमांसा’ क्या है?
यह भारत के छह दर्शनों में एक है। इसे वेदों का अंग माना जाता है। इसके दो भाग हैं, पूर्व मीमांसा और उत्तरमीमांसा। मीमांसा दर्शन के रचनाकार जैमिनि नामक ऋषि थे। इस ग्रंथ में वेद के उपदेशों की व्याख्या की गई है।
नारायणी सेना क्या थी?
महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण की सेना का नाम नारायणी था। कृष्ण की शर्त थी कि महाभारत की लड़ाई में जिस पक्ष से वे लड़ेंगे उनकी सेना उनके दूसरे पक्ष के साथ रहेगी। दुर्योंधन ने उनकी विशाल सेना को अपनी तरफ (कौरवों) रखने की इच्छा जाहिर की फलस्वरूप भगवान कृष्ण को पांडवों की तरफ से लड़ना पड़ा।
पुराणों में, पृथ्वी की रचना को बारह युगों में बांटा गया है। द्वापर युग बारह युगों में तीसरा है। पुराणों के अनुसार इस युग में पृथ्वी पर पाप कर्म बढ़ गए थे। भगवान कृष्ण का अवतार इसी युग में हुआ था। महाभारत का युद्ध इसी युग में हुआ था। पुराणों में इसे 864000वर्ष का माना जाता है। माना जाता है कि इस युग में लोगों की आयु 2000 साल की होती थी।
भगवान विष्णु को नरसिंह अवतार क्यों लेना पड़ा?
हिरण्यकशिपु नामक दैत्य को ब्रह्मा जी का वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु न मनुष्य से न देवता से, न घर के अंदर न बाहर, न दिन और न ही रात में होगी। उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था। हिरण्यकशिपु उसकी विष्णु भक्ति ने अप्रसन्न था। वह उसका वध करने लगा। उसने प्रह्लाद को खंभे में बांधकर ज्योंही तलवार उठाई कि खंभे से भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में उत्पन्न हुए। उनका सिर सिंह का और धड़ मनुष्य का था। उन्हें ब्रह्मा जी के वरदान के बारे में पता था, उन्होंने द्वार के बीच में अपनी गोद में हिरण्यकशिपु को बिठाकर उसका पेट चीर डाला। यह समय भी संध्या काल का था-यानि न दिन न रात।
नर्मदेश्वर कौन हैं?
नर्मदेश्वर एक पवित्र शिवलिंग है जिसे भगवान शिव का रूप माना जाता है। यह नर्मदा नदी के तट पर अवस्थित है। नर्मदेश्वर को महत्वपूर्ण तीर्थ-स्थानों में एक माना जाता है। पुराणों के अनुसार इस तीर्थ में पूजा करने से पुण्य मिलता है।
‘मीमांसा’ क्या है?
यह भारत के छह दर्शनों में एक है। इसे वेदों का अंग माना जाता है। इसके दो भाग हैं, पूर्व मीमांसा और उत्तरमीमांसा। मीमांसा दर्शन के रचनाकार जैमिनि नामक ऋषि थे। इस ग्रंथ में वेद के उपदेशों की व्याख्या की गई है।
नारायणी सेना क्या थी?
महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण की सेना का नाम नारायणी था। कृष्ण की शर्त थी कि महाभारत की लड़ाई में जिस पक्ष से वे लड़ेंगे उनकी सेना उनके दूसरे पक्ष के साथ रहेगी। दुर्योंधन ने उनकी विशाल सेना को अपनी तरफ (कौरवों) रखने की इच्छा जाहिर की फलस्वरूप भगवान कृष्ण को पांडवों की तरफ से लड़ना पड़ा।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
पूरी नींद लेने के फायदे ही फायदे Benefits of getting full sleep
फुर्सत की जिंदगी में हम ज्यादा सोते हैं। पूरी नींद लेने के अनेक फायदे हैं, जिनमें से पांच नींचे दिए जा रहे हैं।
1. संतुलित वजन
अमेरिकी शोधकर्ताओं ने पाया है कि कम सोने वालों के शरीर का वजन ज्यादा होता है। ब्रिटेन में किए गए एक अध्ययन में यह देखा गया कि पांच घंटे की नींद लेने वाले लोगों में भूख बढ़ाने वाला हार्मोन 15 फीसदी अधिक मात्रा में बनता है। वहीं आठ घंटे की नींद लेने वाले लोगों में यह हार्मोन सामान्य मात्रा में ही बनता है। हार्मोन के बढ़ने से लोग ज्यादा खाते हैं और मोटापे का शिकार होते हैं।
2.अच्छी याद्दाश्त
पर्याप्त नींद लेने वालों की याददाश्त भी अच्छी रहती है। इस संबंध में हावर्ड में एक प्रयोग किया गया। उसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि 12 घंटे की नींद सोने वाले लोग सीखी हुई चीजों को अच्छी तरह से याद रख पाते हैं। एक दूसरे प्रयोग का नतीजा यह था कि देर रात तक काम करने वाले लोगों की सोचने की क्षमता कम हो जाती है।
3.बीमारियों से बचाव
अच्छी नींद से हमारे शरीर की, रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। एक शोध में पाया गया है कि कम नींद लेने वालों के शरीर में रोगों से लड़ने वाली कोशिकाएं कम हो जाती हैं। और तो और रात की पालियों में काम करने वालों में स्तन कैंसर होने की संभावना 80 फीसदी बढ़ जाती है। पूरी नींद सोने वालों में सर्दी-जुकाम और अल्सर जैसी बीमारियां भी कम होती हैं।
4.उम्र बढ़ने के लक्षण भी कम होते हैं
पर्याप्त नींद नहीं लेने वालों को बढ़ती उम्र के कई लक्षण आ घेरते हैं। एक व्यापक शोध में यह पाया गया कि प्रतिदिन 6 से 7 घंटे की नींद लेने वाले 4.5 घंटे से कम सोने वालों की तुलना में लम्बी उम्र जीते हैं।
5.बच्चों की मानसिकता पर प्रभाव
पर्याप्त नींद न लेने से किशोरों में पनपते अवसाद और आत्मविश्वास की कमी में भी फायदा पहुंचता है। आपके बच्चे अगर कम नींद लेते हैं तो उनमें शराब और ड्रग लेने की आदत पड़ने की संभावना बढ़ जाती है।
1. संतुलित वजन
अमेरिकी शोधकर्ताओं ने पाया है कि कम सोने वालों के शरीर का वजन ज्यादा होता है। ब्रिटेन में किए गए एक अध्ययन में यह देखा गया कि पांच घंटे की नींद लेने वाले लोगों में भूख बढ़ाने वाला हार्मोन 15 फीसदी अधिक मात्रा में बनता है। वहीं आठ घंटे की नींद लेने वाले लोगों में यह हार्मोन सामान्य मात्रा में ही बनता है। हार्मोन के बढ़ने से लोग ज्यादा खाते हैं और मोटापे का शिकार होते हैं।
2.अच्छी याद्दाश्त
पर्याप्त नींद लेने वालों की याददाश्त भी अच्छी रहती है। इस संबंध में हावर्ड में एक प्रयोग किया गया। उसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि 12 घंटे की नींद सोने वाले लोग सीखी हुई चीजों को अच्छी तरह से याद रख पाते हैं। एक दूसरे प्रयोग का नतीजा यह था कि देर रात तक काम करने वाले लोगों की सोचने की क्षमता कम हो जाती है।
3.बीमारियों से बचाव
अच्छी नींद से हमारे शरीर की, रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। एक शोध में पाया गया है कि कम नींद लेने वालों के शरीर में रोगों से लड़ने वाली कोशिकाएं कम हो जाती हैं। और तो और रात की पालियों में काम करने वालों में स्तन कैंसर होने की संभावना 80 फीसदी बढ़ जाती है। पूरी नींद सोने वालों में सर्दी-जुकाम और अल्सर जैसी बीमारियां भी कम होती हैं।
4.उम्र बढ़ने के लक्षण भी कम होते हैं
पर्याप्त नींद नहीं लेने वालों को बढ़ती उम्र के कई लक्षण आ घेरते हैं। एक व्यापक शोध में यह पाया गया कि प्रतिदिन 6 से 7 घंटे की नींद लेने वाले 4.5 घंटे से कम सोने वालों की तुलना में लम्बी उम्र जीते हैं।
5.बच्चों की मानसिकता पर प्रभाव
पर्याप्त नींद न लेने से किशोरों में पनपते अवसाद और आत्मविश्वास की कमी में भी फायदा पहुंचता है। आपके बच्चे अगर कम नींद लेते हैं तो उनमें शराब और ड्रग लेने की आदत पड़ने की संभावना बढ़ जाती है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
प्रार्थना, ध्यान और योग से बढ़ती है एकाग्रता Concentration increases through prayer, meditation and yoga
बच्चों को एकाग्र करने के लिए योग का सहारा लें
बहुत सारे बच्चों ने अपने व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि टेलीविजन के सामने बैठने की उनकी आदत से उनकी एकाग्रता घटती है। टेलीविजन के सामने बैठने की बजाय यदि उन्हें ध्यान के कुछ सरल तरीके बताए जाएं तो उन्हें हर तरह से फायदे ही होंगे।
ध्यान करने से उनके स्वास्थ्य पर तो सकारात्मक प्रभाव पड़ता ही है, उनके मानसिक सेहत पर भी अनुकूल असर पड़ता है।
अमेरिका के मेडिकल कॉलेज के एक अध्ययन के मुताबिक स्कूल जाने वाले मध्य आयु के 34 बच्चों ने लगातार तीन महीनों तक प्रतिदिन 20 मिनट ध्यान किया। ऐसा करने से उन बच्चों के रक्तचाप में आश्चर्यजनक रूप से कमी आई।
बहुत सारे बच्चों ने अपने व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि टेलीविजन के सामने बैठने की उनकी आदत से उनकी एकाग्रता घटती है। टेलीविजन के सामने बैठने की बजाय यदि उन्हें ध्यान के कुछ सरल तरीके बताए जाएं तो उन्हें हर तरह से फायदे ही होंगे।
ध्यान करने से उनके स्वास्थ्य पर तो सकारात्मक प्रभाव पड़ता ही है, उनके मानसिक सेहत पर भी अनुकूल असर पड़ता है।
अमेरिका के मेडिकल कॉलेज के एक अध्ययन के मुताबिक स्कूल जाने वाले मध्य आयु के 34 बच्चों ने लगातार तीन महीनों तक प्रतिदिन 20 मिनट ध्यान किया। ऐसा करने से उन बच्चों के रक्तचाप में आश्चर्यजनक रूप से कमी आई।
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जय श्री राम
चाय की चुस्की से सुधारें स्वास्थ्य Improve health by sipping tea
वैज्ञानिक चाय पीने से होने वाले लाभों की खोज में निरंतर लगे हुए हैं। युनाइटेड किंगडम के न्यूकैसल विश्वविद्यालय में किए गए कुछ परीक्षणों से यह पता चला है कि चाय के इस्तेमाल से और उसमें भी खासकर हरी चाय के इस्तेमाल से आपकी स्मरण-शक्ति बढ़ सकती है। साथ ही यह एल्जाइमर की संभावना को भी कम करता है।
इसके पहले शिकागो में किए गए एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला गया कि जिन लोगों को अधिक तनाव और सिरदर्द होता था, उन्हें सिर्फ कैफीन के सेवन से ही बहुत अधिक फायदा पहुंचा। उतना ही, जितना कि दर्दनाशक दवा से पहुंचता है।
प्राय: दांतों के ऊपर रंगहीन और खुरदरी-सी परत जम जाती है। इलिनॉइस के एक समूह ने यह भी पता लगाया कि काली चाय में पाया जाने वाला तत्व पॉलीफिनॉल दांतों के ऊपर जमने वाली इस रंगहीन परत को दूर करता है और इसे फिर से बनने से रोकता है।
साथ ही पॉलीफिनॉल दांतों के बीच छेद और गड्ढा करने वाले अम्लों की मात्रा को भी कम करता है।
इसके पहले शिकागो में किए गए एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला गया कि जिन लोगों को अधिक तनाव और सिरदर्द होता था, उन्हें सिर्फ कैफीन के सेवन से ही बहुत अधिक फायदा पहुंचा। उतना ही, जितना कि दर्दनाशक दवा से पहुंचता है।
प्राय: दांतों के ऊपर रंगहीन और खुरदरी-सी परत जम जाती है। इलिनॉइस के एक समूह ने यह भी पता लगाया कि काली चाय में पाया जाने वाला तत्व पॉलीफिनॉल दांतों के ऊपर जमने वाली इस रंगहीन परत को दूर करता है और इसे फिर से बनने से रोकता है।
साथ ही पॉलीफिनॉल दांतों के बीच छेद और गड्ढा करने वाले अम्लों की मात्रा को भी कम करता है।
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जय श्री राम
वजन घटाने वाले ठंडे पानी से सावधान रहें! Be careful with cold water that causes weight loss!
प्राय: कहा जाता है कि तैरना बहुत अच्छा व्यायाम है और यह सभी दृष्टि से फायदेमंद होता है। तैरना एक पूर्ण व्यायाम है। यद्यपि तैरना बहुत से लोगों के लिए लाभदायक हो सकता है, क्योंकि तैरते समय शरीर को पानी का सहारा मिलता रहता है, जिस वजह से जोड़ों को झटके नहीं लगते। पानी के सहारे की वजह से जोड़ों पर पड़ने वाला प्रभाव कम हो जाता है।
लेकिन यदि आप अपना वजन कम करने के लिए तैर रहे हैं तो ठंडे पानी में तैरना खतरनाक भी हो सकता है।
फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में इस संदर्भ में एक शोध किया गया। शोधकर्ताओं ने, कुछ लोगों को, 45 मिनट तक पानी के भीतर सीधे साइकिल पर व्यायाम करने के लिए कहा। पहले पानी का तापमान 20 डिग्री सेल्सियस रखा गया और उसके बाद उसे बढ़ाकर 33 डिग्री सेल्सियस कर दिया गया। इसके अतिरिक्त उन्होंने 45 मिनट तक सिर्फ आराम किया।
हर चरण के बाद वे लोग खाने-पीने की चीजों से भरे हुए कमरे में 45 मिनट तक रहे। उन्हें यह नहीं बताया गया था कि उनकी कैलोरी (ऊर्जा) का हिसाब रखा जा रहा है।
गर्म पानी में व्यायाम करने की तुलना में ठंडे पानी में व्यायाम करने के बाद लोगों ने 44 प्रतिशत अधिक कैलोरी ग्रहण की। और 45 मिनट तक सिर्फ आराम करने के बाद उन्होंने 41 प्रतिशत अधिक कैलरी ग्रहण की।
इस अध्ययन से यह पता चलता है कि शरीर का तापमान, व्यायाम के बाद ग्रहण किए जा रहे भोजन पर गहरा प्रभाव डालता है। शरीर का तापमान कम या ज्यादा होने पर व्यायाम के बाद ग्रहण किए जा रहे भोजन की मात्रा बदल जाती है।
इसके पहले के एक अध्ययन से भी यही बात प्रमाणित होती है, जिसमें यह पाया गया था कि जिन महिलाओं ने वजन कम करने के लिए तैरने का तरीका अपनाया, उन महिलाओं की तुलना में उनका कम वजन घटा, जिन्होंने वजन कम करने के लिए दौड़ने या साइकिल चलाने का तरीका अपनाया।
लेकिन यदि आप अपना वजन कम करने के लिए तैर रहे हैं तो ठंडे पानी में तैरना खतरनाक भी हो सकता है।
फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में इस संदर्भ में एक शोध किया गया। शोधकर्ताओं ने, कुछ लोगों को, 45 मिनट तक पानी के भीतर सीधे साइकिल पर व्यायाम करने के लिए कहा। पहले पानी का तापमान 20 डिग्री सेल्सियस रखा गया और उसके बाद उसे बढ़ाकर 33 डिग्री सेल्सियस कर दिया गया। इसके अतिरिक्त उन्होंने 45 मिनट तक सिर्फ आराम किया।
हर चरण के बाद वे लोग खाने-पीने की चीजों से भरे हुए कमरे में 45 मिनट तक रहे। उन्हें यह नहीं बताया गया था कि उनकी कैलोरी (ऊर्जा) का हिसाब रखा जा रहा है।
गर्म पानी में व्यायाम करने की तुलना में ठंडे पानी में व्यायाम करने के बाद लोगों ने 44 प्रतिशत अधिक कैलोरी ग्रहण की। और 45 मिनट तक सिर्फ आराम करने के बाद उन्होंने 41 प्रतिशत अधिक कैलरी ग्रहण की।
इस अध्ययन से यह पता चलता है कि शरीर का तापमान, व्यायाम के बाद ग्रहण किए जा रहे भोजन पर गहरा प्रभाव डालता है। शरीर का तापमान कम या ज्यादा होने पर व्यायाम के बाद ग्रहण किए जा रहे भोजन की मात्रा बदल जाती है।
इसके पहले के एक अध्ययन से भी यही बात प्रमाणित होती है, जिसमें यह पाया गया था कि जिन महिलाओं ने वजन कम करने के लिए तैरने का तरीका अपनाया, उन महिलाओं की तुलना में उनका कम वजन घटा, जिन्होंने वजन कम करने के लिए दौड़ने या साइकिल चलाने का तरीका अपनाया।
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जय श्री राम
झपकी लीजिए, मस्त रहिए take a nap, stay cool
हममें से बहुतों को हर रोज रात में सात से आठ घंटे सोने की सलाह दी जाती है। और जो लोग दिन में अपने काम के बीच एकाध झपकी ले लेते हैं, उन्हें डर लगता है कि कहीं ऐसा करने से उनकी रात की नींद न खराब हो जाए।
लेकिन अमेरिका के शोधकर्ताओं का कहना है कि दिन में झपकियां लेने से रात की नींद में खलल नहीं पड़ता और न ही रात में नींद आना मुश्किल होता है, बल्कि झपकियां लेने से दिमाग कहीं बेहतर तरीके से काम करता है। इस संबध में अमेरिका में एक शोध किया गया।
शोधकर्ताओं ने करीब 32 वयस्क लोगों को सोचने और याद करने का कुछ काम दिया। तीसरे दिन उन्हें दो से चार बजे दोपहर में थोड़ी देर झपकियां लेने या हल्का सो लेने के लिए कहा गया।
उसके बाद चार दिनों तक उन लोगों ने बिल्कुल झपकी नहीं ली और काम पूरा किया। जिस दिन उन लोगों ने झपकियां ली थीं, उस दिन उनके काम का प्रदर्शन बेहतर रहा। साथ ही साथ दिन में झपकी लेने का कोई भी प्रभाव उनकी रात्रि की नींद पर नहीं पड़ा।
उनकी रात की नींद पहले की तरह ही गहरी और संतुष्टिदायक थी। निद्रा संबंधी गड़बड़ियों के विशेषज्ञ डॉ. थॉमस रॉथ का कहना है, ‘दरअसल जैविक रूप से मनुष्य को 10 घंटे नींद की आवश्यकता होती है। इसलिए अगर संभव हो तो, आप दिन में भी थोड़ी देर सोने का समय निकालें।
सभी लोग दिन में झपकियां नहीं ले सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि सौभाग्य से यदि आप सप्ताह के अंत में भी, अगर दोपहर में आराम कर सकें तो यह बहुत फायदेमंद होता है।
लेकिन अमेरिका के शोधकर्ताओं का कहना है कि दिन में झपकियां लेने से रात की नींद में खलल नहीं पड़ता और न ही रात में नींद आना मुश्किल होता है, बल्कि झपकियां लेने से दिमाग कहीं बेहतर तरीके से काम करता है। इस संबध में अमेरिका में एक शोध किया गया।
शोधकर्ताओं ने करीब 32 वयस्क लोगों को सोचने और याद करने का कुछ काम दिया। तीसरे दिन उन्हें दो से चार बजे दोपहर में थोड़ी देर झपकियां लेने या हल्का सो लेने के लिए कहा गया।
उसके बाद चार दिनों तक उन लोगों ने बिल्कुल झपकी नहीं ली और काम पूरा किया। जिस दिन उन लोगों ने झपकियां ली थीं, उस दिन उनके काम का प्रदर्शन बेहतर रहा। साथ ही साथ दिन में झपकी लेने का कोई भी प्रभाव उनकी रात्रि की नींद पर नहीं पड़ा।
उनकी रात की नींद पहले की तरह ही गहरी और संतुष्टिदायक थी। निद्रा संबंधी गड़बड़ियों के विशेषज्ञ डॉ. थॉमस रॉथ का कहना है, ‘दरअसल जैविक रूप से मनुष्य को 10 घंटे नींद की आवश्यकता होती है। इसलिए अगर संभव हो तो, आप दिन में भी थोड़ी देर सोने का समय निकालें।
सभी लोग दिन में झपकियां नहीं ले सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि सौभाग्य से यदि आप सप्ताह के अंत में भी, अगर दोपहर में आराम कर सकें तो यह बहुत फायदेमंद होता है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
सफलतापूर्वक काम निपटाने के तरीके Ways to get things done successfully
जब आपके सिर पर काम का पहाड़ इकट्ठा होने लगता है तो देर रात तक रुककर उन कामों को निपटाने में भी एक किस्म का आनंद मिलता है। इस चीज का भी अपना एक आकर्षण है कि ज्यादा से ज्यादा मेहनत करके काम को पूरा किया जाए। लेकिन आप और आपके स्वास्थ्य के लिए यह खतरनाक भी हो सकता है।
अमेरिका में किए गए एक शोध के मुताबिक जो लोग काम के लिए अपने सुनिश्चित घंटों से ज्यादा काम करते हैं, उनकी काम से संबंधित दिक्कतें और परेशानियां बढ़ जाती हैं। और जो लोग काम के लिए निश्चित घंटों में ही काम करते हैं, उन्हें इस तरह की परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता।
यहां हम आपको कुछ तरकीबें बता रहे हैं कि कैसे आप काम के निश्चित घंटों से अधिक काम किए बगैर भी अपने काम को समय पर और आसानी से कैसे निबटा सकते हैं। यहां कॉलिन की ‘सबकुछ कार्यालय में ही कैसे करें’ से कुछ युक्तियां सुझाई जा रही हैं :
काम की समझ...
यह सुनिश्चित करने के लिए कि पहले ही चरण में सारा काम अच्छे तरीके से और पूर्णत: समाप्त हो जाए, काम से संबंधित आपकी समझ बिल्कुल सही और सटीक होनी चाहिए।
पहले एक काम खत्म करें...
अगले काम की शुरुआत करने से पूर्व जो काम आपके हाथ में हैं, पहले उसे खत्म करें।
कठिन काम का समय..
यह सोचना छोड़ दीजिए कि अपने हाथों में जिम्मेदारी लेने और कामों का प्रतिनिधित्व करने में सदा अधिक समय लगता है। पूर्ण दायित्व के साथ काम करने के लिए निश्चित समय से अधिक तो काम करना ही पड़ेगा। खासतौर पर अगर किसी काम को कई बार करने की आवश्यकता हो, तब भी कामों को अतिरिक्त समय देने की कोई आवश्यकता नहीं होती है।
देखिए कि आप किस समय अपने भीतर सर्वाधिक ऊर्जा महसूस करते हैं। सबसे कठिन काम उसी समय में करें, जब आपके भीतर सबसे ज्यादा ऊर्जा हो।
थोड़ा आराम भी...
दोपहर के खाने के समय अपने कार्यालय के बाहर थोड़े समय के लिए घूम आएं। इससे आपकी ऊर्जा पुन: संगठित हो जाएगी और आपकी उत्पादकता में भी वृद्धि होगी।
अपने काम के लिए समय का बहुत कड़ा और कठोर नियम न बनाएं। ऐसा करने से काम में होने वाली अनपेक्षित देरी को टाला जा सकता है।
अमेरिका में किए गए एक शोध के मुताबिक जो लोग काम के लिए अपने सुनिश्चित घंटों से ज्यादा काम करते हैं, उनकी काम से संबंधित दिक्कतें और परेशानियां बढ़ जाती हैं। और जो लोग काम के लिए निश्चित घंटों में ही काम करते हैं, उन्हें इस तरह की परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता।
यहां हम आपको कुछ तरकीबें बता रहे हैं कि कैसे आप काम के निश्चित घंटों से अधिक काम किए बगैर भी अपने काम को समय पर और आसानी से कैसे निबटा सकते हैं। यहां कॉलिन की ‘सबकुछ कार्यालय में ही कैसे करें’ से कुछ युक्तियां सुझाई जा रही हैं :
काम की समझ...
यह सुनिश्चित करने के लिए कि पहले ही चरण में सारा काम अच्छे तरीके से और पूर्णत: समाप्त हो जाए, काम से संबंधित आपकी समझ बिल्कुल सही और सटीक होनी चाहिए।
पहले एक काम खत्म करें...
अगले काम की शुरुआत करने से पूर्व जो काम आपके हाथ में हैं, पहले उसे खत्म करें।
कठिन काम का समय..
यह सोचना छोड़ दीजिए कि अपने हाथों में जिम्मेदारी लेने और कामों का प्रतिनिधित्व करने में सदा अधिक समय लगता है। पूर्ण दायित्व के साथ काम करने के लिए निश्चित समय से अधिक तो काम करना ही पड़ेगा। खासतौर पर अगर किसी काम को कई बार करने की आवश्यकता हो, तब भी कामों को अतिरिक्त समय देने की कोई आवश्यकता नहीं होती है।
देखिए कि आप किस समय अपने भीतर सर्वाधिक ऊर्जा महसूस करते हैं। सबसे कठिन काम उसी समय में करें, जब आपके भीतर सबसे ज्यादा ऊर्जा हो।
थोड़ा आराम भी...
दोपहर के खाने के समय अपने कार्यालय के बाहर थोड़े समय के लिए घूम आएं। इससे आपकी ऊर्जा पुन: संगठित हो जाएगी और आपकी उत्पादकता में भी वृद्धि होगी।
अपने काम के लिए समय का बहुत कड़ा और कठोर नियम न बनाएं। ऐसा करने से काम में होने वाली अनपेक्षित देरी को टाला जा सकता है।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
एलर्जी का इलाज है मूंगफली
ऐसे बच्चों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है, जिन्हें कुछ कड़े छिलके वाली चीजों, जैसे बादाम, अखरोट आदि से एलर्जी होती है। इस एलर्जी के कुछ घातक परिणाम भी हो सकते हैं।
अध्ययन से पता चलता है कि इस एलर्जी के शिकार बच्चों में से 20 प्रतिशत प्राय: जल्द ही उससे मुक्त भी हो जाते हैं, लेकिन इस बात की पूरी संभावना बनी रहती है कि वे पुन: उस एलर्जी के शिकार हो जाएं।
अब वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि दानों वाले फल, जैसे मूंगफली के सेवन से ऐसी एलर्जी की संभावना को कम किया जा सकता है।
अमेरिका के मैरिलैंड में ‘जॉन हॉपकिंस बाल केंद्र’ के एक अध्ययन में ऐसे 68 बच्चों पर शोध किया गया, जो इस किस्म की एलर्जी के शिकार थे। इस शोध में यह पाया गया कि जो बच्चे निरंतर मूंगफली का सेवन कर रहे थे, उनमें इस तरह की एलर्जी का होना कम हो गया। जबकि अन्य बच्चे, जो कभी-कभी ही ऐसे फलों का सेवन करते थे, उनमें एलर्जी होने की संभावना निरंतर बनी रहती थी।
अध्ययन से पता चलता है कि इस एलर्जी के शिकार बच्चों में से 20 प्रतिशत प्राय: जल्द ही उससे मुक्त भी हो जाते हैं, लेकिन इस बात की पूरी संभावना बनी रहती है कि वे पुन: उस एलर्जी के शिकार हो जाएं।
अब वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि दानों वाले फल, जैसे मूंगफली के सेवन से ऐसी एलर्जी की संभावना को कम किया जा सकता है।
अमेरिका के मैरिलैंड में ‘जॉन हॉपकिंस बाल केंद्र’ के एक अध्ययन में ऐसे 68 बच्चों पर शोध किया गया, जो इस किस्म की एलर्जी के शिकार थे। इस शोध में यह पाया गया कि जो बच्चे निरंतर मूंगफली का सेवन कर रहे थे, उनमें इस तरह की एलर्जी का होना कम हो गया। जबकि अन्य बच्चे, जो कभी-कभी ही ऐसे फलों का सेवन करते थे, उनमें एलर्जी होने की संभावना निरंतर बनी रहती थी।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
ज्यादा दोस्त बनाएं, अपनी उम्र बढ़ाएं Make more friends, extend your life
यह तो माना जाता था कि विवाहित लोगों की जिंदगी कुंवारों की तुलना में लंबी होती है। लेकिन क्या दोस्तों के साथ का भी हमारे स्वास्थय पर सकारात्मक असर होता है?
ऑस्ट्रेलिया में इस सम्बंध में एक नया अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन के मुताबिक अपने दोस्तों के बीच ज्यादा से ज्यादा रहने से हम ज्यादा लम्बी जिंदगी जीते हैं।
उनके अनुसार, रिश्तेदारों के बीच रहने से हमारी उम्र पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। यह निष्कर्ष, 70 वर्ष से ऊपर के 1,477 लोगों पर, दस साल तक किए गए अध्ययन के बाद निकाला गया है।
इस शोध दल के मुताबिक दोस्त आपके व्यवहार को रिश्तेदारों की तुलना में ज्यादा प्रभावित करते हैं। इससे आपके स्वास्थ्य में सकारात्मक परिवर्तन होते हैं।
स्वस्थ रहना हैं तो आज भी खेलें बचपन के खेल
ऑस्ट्रेलिया में इस सम्बंध में एक नया अध्ययन किया गया है। इस अध्ययन के मुताबिक अपने दोस्तों के बीच ज्यादा से ज्यादा रहने से हम ज्यादा लम्बी जिंदगी जीते हैं।
उनके अनुसार, रिश्तेदारों के बीच रहने से हमारी उम्र पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ता। यह निष्कर्ष, 70 वर्ष से ऊपर के 1,477 लोगों पर, दस साल तक किए गए अध्ययन के बाद निकाला गया है।
इस शोध दल के मुताबिक दोस्त आपके व्यवहार को रिश्तेदारों की तुलना में ज्यादा प्रभावित करते हैं। इससे आपके स्वास्थ्य में सकारात्मक परिवर्तन होते हैं।
स्वस्थ रहना हैं तो आज भी खेलें बचपन के खेल
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
करवा चौथ की पौराणिक कथाएं Mythological stories of Karva Chauth
करवा चौथ की पौराणिक कथाएं
करवा चौथ की पौराणिक कथा के अनुसार एक समय की बात है, जब नीलगिरी पर्वत पर पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने गए। तब किसी कारणवश उन्हें वहीं रूकना पड़ा। उन्हीं दिनों पांडवों पर गहरा संकट आ पड़ा। तब चिंतित व शोकाकुल द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान किया तथा कृष्ण के दर्शन होने पर पांडवों के कष्टों के निवारण हेतु उपाय पूछा।
तब कृष्ण बोले- हे द्रौपदी! मैं तुम्हारी चिंता एवं संकट का कारण जानता हूं। उसके लिए तुम्हें एक उपाय करना होगा। जल्दी ही कार्तिक माह की कृष्ण चतुर्थी आने वाली है, उस दिन तुम पूरे मन से करवा चौथ का व्रत रखना। भगवान शिव, गणेश एवं पार्वती की उपासना करना, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे तथा सबकुछ ठीक हो जाएगा।
कृष्ण की आज्ञा का पालन कर द्रोपदी ने वैसा ही करवा चौथ का व्रत किया। तब उसे शीघ्र ही अपने पति के दर्शन हुए और उसकी सारी चिंताएं दूर हो गईं।
जब मां पार्वती द्वारा भगवान शिव से पति की दीर्घायु एवं सुख-संपत्ति की कामना की विधि पूछी तब शिव ने 'करवा चौथ व्रत’ रखने की कथा सुनाई थी। करवा चौथ का व्रत करने के लिए श्रीकृष्ण ने दौपदी को निम्न कथा का उल्लेख किया था।
पुराणों के अनुसार करवा नाम की एक पतिव्रता धोबिन अपने पति के साथ तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित गांव में रहती थी। उसका पति बूढ़ा और निर्बल था। एक दिन जब वह नदी के किनारे कपड़े धो रहा था तभी अचानक एक मगरमच्छ वहां आया, और धोबी के पैर अपने दांतों में दबाकर यमलोक की ओर ले जाने लगा। वृद्ध पति यह देख घबराया और जब उससे कुछ कहते नहीं बना तो वह करवा..! करवा..! कहकर अपनी पत्नी को पुकारने लगा।
पति की पुकार सुनकर धोबिन करवा वहां पहुंची, तो मगरमच्छ उसके पति को यमलोक पहुंचाने ही वाला था। तब करवा ने मगर को कच्चे धागे से बांध दिया और मगरमच्छ को लेकर यमराज के द्वार पहुंची। उसने यमराज से अपने पति की रक्षा करने की गुहार लगाई और साथ ही यह भी कहा की मगरमच्छ को उसके इस कार्य के लिए कठिन से कठिन दंड देने का आग्रह किया और बोली- हे भगवन्! मगरमच्छ ने मेरे पति के पैर पकड़ लिए है। आप मगरमच्छ को इस अपराध के दंड-स्वरूप नरक भेज दें।
करवा की पुकार सुन यमराज ने कहा- अभी मगर की आयु शेष है, मैं उसे अभी यमलोक नहीं भेज सकता। इस पर करवा ने कहा- अगर आपने मेरे पति को बचाने में मेरी सहायता नहीं कि तो मैं आपको श्राप दूंगी और नष्ट कर दूँगी।
करवा का साहस देख यमराज भी डर गए और मगर को यमपुरी भेज दिया। साथ ही करवा के पति को दीर्घायु होने का वरदान दिया। तब से कार्तिक कृष्ण की चतुर्थी को करवा चौथ व्रत का प्रचलन में आया। जिसे इस आधुनिक युग में भी महिलाएं अपने पूरी भक्ति भाव के साथ करती है और भगवान से अपनी पति की लंबी उम्र की कामना करती हैं।
करवा चौथ की पौराणिक कथा के अनुसार एक समय की बात है, जब नीलगिरी पर्वत पर पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने गए। तब किसी कारणवश उन्हें वहीं रूकना पड़ा। उन्हीं दिनों पांडवों पर गहरा संकट आ पड़ा। तब चिंतित व शोकाकुल द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान किया तथा कृष्ण के दर्शन होने पर पांडवों के कष्टों के निवारण हेतु उपाय पूछा।
तब कृष्ण बोले- हे द्रौपदी! मैं तुम्हारी चिंता एवं संकट का कारण जानता हूं। उसके लिए तुम्हें एक उपाय करना होगा। जल्दी ही कार्तिक माह की कृष्ण चतुर्थी आने वाली है, उस दिन तुम पूरे मन से करवा चौथ का व्रत रखना। भगवान शिव, गणेश एवं पार्वती की उपासना करना, तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे तथा सबकुछ ठीक हो जाएगा।
कृष्ण की आज्ञा का पालन कर द्रोपदी ने वैसा ही करवा चौथ का व्रत किया। तब उसे शीघ्र ही अपने पति के दर्शन हुए और उसकी सारी चिंताएं दूर हो गईं।
जब मां पार्वती द्वारा भगवान शिव से पति की दीर्घायु एवं सुख-संपत्ति की कामना की विधि पूछी तब शिव ने 'करवा चौथ व्रत’ रखने की कथा सुनाई थी। करवा चौथ का व्रत करने के लिए श्रीकृष्ण ने दौपदी को निम्न कथा का उल्लेख किया था।
पुराणों के अनुसार करवा नाम की एक पतिव्रता धोबिन अपने पति के साथ तुंगभद्रा नदी के किनारे स्थित गांव में रहती थी। उसका पति बूढ़ा और निर्बल था। एक दिन जब वह नदी के किनारे कपड़े धो रहा था तभी अचानक एक मगरमच्छ वहां आया, और धोबी के पैर अपने दांतों में दबाकर यमलोक की ओर ले जाने लगा। वृद्ध पति यह देख घबराया और जब उससे कुछ कहते नहीं बना तो वह करवा..! करवा..! कहकर अपनी पत्नी को पुकारने लगा।
पति की पुकार सुनकर धोबिन करवा वहां पहुंची, तो मगरमच्छ उसके पति को यमलोक पहुंचाने ही वाला था। तब करवा ने मगर को कच्चे धागे से बांध दिया और मगरमच्छ को लेकर यमराज के द्वार पहुंची। उसने यमराज से अपने पति की रक्षा करने की गुहार लगाई और साथ ही यह भी कहा की मगरमच्छ को उसके इस कार्य के लिए कठिन से कठिन दंड देने का आग्रह किया और बोली- हे भगवन्! मगरमच्छ ने मेरे पति के पैर पकड़ लिए है। आप मगरमच्छ को इस अपराध के दंड-स्वरूप नरक भेज दें।
करवा की पुकार सुन यमराज ने कहा- अभी मगर की आयु शेष है, मैं उसे अभी यमलोक नहीं भेज सकता। इस पर करवा ने कहा- अगर आपने मेरे पति को बचाने में मेरी सहायता नहीं कि तो मैं आपको श्राप दूंगी और नष्ट कर दूँगी।
करवा का साहस देख यमराज भी डर गए और मगर को यमपुरी भेज दिया। साथ ही करवा के पति को दीर्घायु होने का वरदान दिया। तब से कार्तिक कृष्ण की चतुर्थी को करवा चौथ व्रत का प्रचलन में आया। जिसे इस आधुनिक युग में भी महिलाएं अपने पूरी भक्ति भाव के साथ करती है और भगवान से अपनी पति की लंबी उम्र की कामना करती हैं।
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
शिवरात्रि की रात 'ॐ नमः शिवाय' जप Chanting 'Om Namah Shivay' on the night of Shivratri
शिवरात्रि की रात 'ॐ नमः शिवाय' जप
शिवजी का पत्रम-पुष्पम् से पूजन करके मन से मन का संतोष करें, फिर ॐ नमः शिवाय.... ॐ नमः शिवाय.... शांति से जप करते गये। इस जप का बड़ा भारी महत्त्व है। अमुक मंत्र की अमुक प्रकार की रात्रि को शांत अवस्था में, जब वायुवेग न हो आप सौ माला जप करते हैं तो आपको कुछ-न-कुछ दिव्य अनुभव होंगे। अगर वायु-संबंधी बीमारी हैं तो 'बं बं बं बं बं' सवा लाख जप करते हो तो अस्सी प्रकार की वायु-संबंधी बीमारियाँ गायब !
ॐ नमः शिवाय मंत्र तो सब बोलते हैं लेकिन इसका छंद कौन सा है, इसके ऋषि कौन हैं, इसके देवता कौन हैं, इसका बीज क्या है, इसकी शक्ति क्या है, इसका कीलक क्या है – यह मैं बता देता हूँ। अथ ॐ नमः शिवाय मंत्र। वामदेव ऋषिः। पंक्तिः छंदः। शिवो देवता। ॐ बीजम्। नमः शक्तिः। शिवाय कीलकम्। अर्थात् ॐ नमः शिवाय का कीलक है 'शिवाय', 'नमः' है शक्ति, ॐ है बीज... हम इस उद्देश्य से (मन ही मन अपना उद्देश्य बोलें) शिवजी का मंत्र जप रहे हैं – ऐसा संकल्प करके जप किया जाय तो उसी संकल्प की पूर्ति में मंत्र की शक्ति काम देगी।
पौष्टिक प्रसाद
छुहारा, सूखा नारियल और मिश्री सम मात्रा में मिलाकर २० ग्राम खाएं । इससे शरीर सुडौल होगा, चेहरे पर निखार व सौंदर्य आएगा ।
बल-वीर्य की वृद्धि के लिए
तुलसी के बीज को मिक्सी में घुमा लो और उससे साड़े तीन गुना गुड़ की चाशनी बनाकर उसमे डाल दो । फिर मटर जितनी गोलियां बना लो । २ गोली सुबह दूध के साथ लो । इससे बल-वीर्य बढेगा और यौवन आएगा ।
बाल काले करने के लिए
आंवले के रस के साथ मेहँदी लगाने से बाल काले होते हैं ।
पेट में गैस
काजू को तल के, उसमे काली मिर्च व नमक डालकर रख दिया । जब गैस की तकलीफ हो, २-४ काजू चबा के खाएं ।
शरीर की मजबूती के लिए
रात को ५ खजूर पानी में भिगा दो । सुबह दूध के साथ या घी के साथ या ऐसे ही लो । इससे लौह तत्व व कैल्शियम बढेगा । महीने में १०-१५ दिन खाओ । इससे शरीर की कमजोरी दूर होंगी ।
दांतों की मजबूती
* आंवले का चूर्ण पानी में उबाल के कुल्ले करने से दांत मज़बूत व स्वच्छ होंगे ।
* मुंह में सरसों के तेल को कुल्ले की तरह घुमाओ । इससे चेहरा पुष्ट होगा, भोजन में षडरस अच्छी तरह से आने लगेंगे । भोजन ग्रहण करने की व स्वाद लेने की क्षमता बढ़ेगी । फटे होंठ ठीक होंगे व द
स्वप्न दोष में
दो खूब पके केलों का गूदा निकाल कर खूब फेंट लें। फिर उसमें हरे आँवलों का रस 1 तोला (11.5 ग्राम) तथा शुद्ध शहद 1 तोला मिलाकर सुबह शाम चाटें। कुछ ही दिनों के प्रयोग से स्वप्नदोष दूर हो जाता है।
गोझारण!
सर्दियों में कभी कभी गोझारण पी लिया करें| इअसे किडनी,लीवर बढ़िया रहेगा| खांशी की तकलीफ में फायदा होगा | गर्मियों में ना लें, इसकी ताशिर गर्म होती है|
बालों में रूशी हो तो बाल शेम्पू की जगह पे गोझारण से धो लें | शेम्पू भी इतनी सफाई नहीं करता जीतनी गोझारण से हो जाती है| सारी रुसी साफ| नहाने के समय बाल में गोझारण लगाकर १-२ मिनट के बाद धो दें, रुसी साफ |
अगर आपने किसी कारण से आध्यात्मिक शक्ति खो दी है तो आसन पर बैठकर ह्रदय में अनाहत चक्र का ध्यान करें l ऋषि विश्वामित्र जी को भी इसी प्रयोग से खोई हुई शक्ति पुनः प्राप्त हुई थी l
अधिक नीद आने पर
जिन को दिन में बार-बार नींद के झोके आते हैं, वे छुहारे (खरिक) को धोकर टुकड़े करके पास रख लें और नींद आये तो टुकड़ा खाए और थोड़ा दूध पियें । एक दिन में ३-४ लें, ज्यादा नहीं....तो नींद नहीं आयेगी । अथवा सुबह खाली पेट लाल गाजर का रस पियें ।
गंगा स्नान के लिए रोज हरद्वार तो जा नही सकते, घर में ही गंगा स्नान का पुन्य मिलाने के लिए एक छोटा सा मन्त्र है ..
ॐ ह्रीं गंगायै ॐ ह्रीं स्वाहा
ये मन्त्र बोलते हुए स्नान करे तो गंगा स्नान का लाभ होगा |
द्वादशी, अमावस, पूनम और रविवार को तुलसी के पत्ते ना तोडें . बाकी दिन
ॐ सुप्रभाय नमः, ॐ सुभद्राय नमः
ये बोलते हुए तुलसी पत्ते तोड़ो तो ये मन्त्र बोलनेवाले का स्वाथ्य/ तबियत ठीक करेगा|
जब भी तुलसी का पत्ता तोड़ो तो सूर्यास्त के बाद नही तोडे और सूर्योदय के पहेले नही तोड़े..
घर के इशान कोण में तुलसी और भी शुभ मानी जाती है. इस का लाभ जरुर लें
यादशक्ति व बल बढ़ाने के लिए
यादशक्ति और बल बढ़ाना है तो काजू (३ काजू बच्चे व ५ काजू बड़े) व मधु ज़रा लगा के चबा-चबा के खाएं । इससे यादशक्ति व बल बढेगा । पेट की वायु सम्बन्धी बीमारियाँ दूर होंगी ।
मच्छर व मक्खियाँ भगाने के लिए
गेंदे के फूल या गेंदे के फूल का गमला कमरे में और फूल बिस्तर पर रखने से मच्छर भाग जाते हैं और गुलाब के फूल रखने से मक्खियाँ भाग जाती हैं । गेंदे के फूलों का इतर लगायें । गौ चन्दन धूपजलाएं ।
शिव मन्दिर में लप- झप कराने वाली light है तो शिव दर्शन से दूर करती… लप-झप करानेवाली lights मन्दिर में, पूजा के जगह पे रखना नुकसान का काम है, फायदा नहीं ... चंचलता बढ़ेगी……
: जब लड़की की शादी के बाद घर से विदाई हो तब -
एक लोटे पानी में पिसी हुई हल्दी थोडी दाल दें; बेटी जब द्वार पर आये ससुराल जाने के लिए (विदाई के समय), तो बेटी के सिर पर सात बार वो लोटे का पानी घुमा दें, भगवन्नाम लेते हुए, और वो पानी उछाल दें; बेटी सुखी रहेगी (ससुराल में)
रात को बच्चे उठकर रोते हैं तो दूध आदि पिलाकर/पिलाते हुए सिर पर हाथ घुमाते हुए गुरु मंत्र जप करें, तुलसी की माला पहनाये।
रात को डरावने सपने आते हैं तो सोने से पहले ॐ हरये नमः जप करें।
ईशान कोण में तुलसीजी हों, और पूजा के स्थान में गंगाजी का जल हो, तो सम्रिद्धि में बरकत होती है.|
आर्थिक परेशानी हो, तो सतत ७ शुक्रवार महा-लक्ष्मी के मन्दिर में धूप-दीप दान करें; अपना पुरुषार्थ भी करें, लाभ होगा |
पोछा लगाते हैं घर में तो उस पानी में सैंधा नमक और थोड़ा गो-झरण दाल दे तो घर में क्लेश कम होता और शान्ति बढ़ती है..
कमज़ोर बच्चों को गाय के थन से सीधे ही धार बच्चे के मुंह में डालें | प्रतिदिन दो - चार धार बच्चे के मुंह में डालने से बच्चे का स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक होने लगेगा |
महाभारत में लिखा है.....टूटे फूटे बर्तनों में कलह का व कलिय
शिवजी का पत्रम-पुष्पम् से पूजन करके मन से मन का संतोष करें, फिर ॐ नमः शिवाय.... ॐ नमः शिवाय.... शांति से जप करते गये। इस जप का बड़ा भारी महत्त्व है। अमुक मंत्र की अमुक प्रकार की रात्रि को शांत अवस्था में, जब वायुवेग न हो आप सौ माला जप करते हैं तो आपको कुछ-न-कुछ दिव्य अनुभव होंगे। अगर वायु-संबंधी बीमारी हैं तो 'बं बं बं बं बं' सवा लाख जप करते हो तो अस्सी प्रकार की वायु-संबंधी बीमारियाँ गायब !
ॐ नमः शिवाय मंत्र तो सब बोलते हैं लेकिन इसका छंद कौन सा है, इसके ऋषि कौन हैं, इसके देवता कौन हैं, इसका बीज क्या है, इसकी शक्ति क्या है, इसका कीलक क्या है – यह मैं बता देता हूँ। अथ ॐ नमः शिवाय मंत्र। वामदेव ऋषिः। पंक्तिः छंदः। शिवो देवता। ॐ बीजम्। नमः शक्तिः। शिवाय कीलकम्। अर्थात् ॐ नमः शिवाय का कीलक है 'शिवाय', 'नमः' है शक्ति, ॐ है बीज... हम इस उद्देश्य से (मन ही मन अपना उद्देश्य बोलें) शिवजी का मंत्र जप रहे हैं – ऐसा संकल्प करके जप किया जाय तो उसी संकल्प की पूर्ति में मंत्र की शक्ति काम देगी।
पौष्टिक प्रसाद
छुहारा, सूखा नारियल और मिश्री सम मात्रा में मिलाकर २० ग्राम खाएं । इससे शरीर सुडौल होगा, चेहरे पर निखार व सौंदर्य आएगा ।
बल-वीर्य की वृद्धि के लिए
तुलसी के बीज को मिक्सी में घुमा लो और उससे साड़े तीन गुना गुड़ की चाशनी बनाकर उसमे डाल दो । फिर मटर जितनी गोलियां बना लो । २ गोली सुबह दूध के साथ लो । इससे बल-वीर्य बढेगा और यौवन आएगा ।
बाल काले करने के लिए
आंवले के रस के साथ मेहँदी लगाने से बाल काले होते हैं ।
पेट में गैस
काजू को तल के, उसमे काली मिर्च व नमक डालकर रख दिया । जब गैस की तकलीफ हो, २-४ काजू चबा के खाएं ।
शरीर की मजबूती के लिए
रात को ५ खजूर पानी में भिगा दो । सुबह दूध के साथ या घी के साथ या ऐसे ही लो । इससे लौह तत्व व कैल्शियम बढेगा । महीने में १०-१५ दिन खाओ । इससे शरीर की कमजोरी दूर होंगी ।
दांतों की मजबूती
* आंवले का चूर्ण पानी में उबाल के कुल्ले करने से दांत मज़बूत व स्वच्छ होंगे ।
* मुंह में सरसों के तेल को कुल्ले की तरह घुमाओ । इससे चेहरा पुष्ट होगा, भोजन में षडरस अच्छी तरह से आने लगेंगे । भोजन ग्रहण करने की व स्वाद लेने की क्षमता बढ़ेगी । फटे होंठ ठीक होंगे व द
स्वप्न दोष में
दो खूब पके केलों का गूदा निकाल कर खूब फेंट लें। फिर उसमें हरे आँवलों का रस 1 तोला (11.5 ग्राम) तथा शुद्ध शहद 1 तोला मिलाकर सुबह शाम चाटें। कुछ ही दिनों के प्रयोग से स्वप्नदोष दूर हो जाता है।
गोझारण!
सर्दियों में कभी कभी गोझारण पी लिया करें| इअसे किडनी,लीवर बढ़िया रहेगा| खांशी की तकलीफ में फायदा होगा | गर्मियों में ना लें, इसकी ताशिर गर्म होती है|
बालों में रूशी हो तो बाल शेम्पू की जगह पे गोझारण से धो लें | शेम्पू भी इतनी सफाई नहीं करता जीतनी गोझारण से हो जाती है| सारी रुसी साफ| नहाने के समय बाल में गोझारण लगाकर १-२ मिनट के बाद धो दें, रुसी साफ |
अगर आपने किसी कारण से आध्यात्मिक शक्ति खो दी है तो आसन पर बैठकर ह्रदय में अनाहत चक्र का ध्यान करें l ऋषि विश्वामित्र जी को भी इसी प्रयोग से खोई हुई शक्ति पुनः प्राप्त हुई थी l
अधिक नीद आने पर
जिन को दिन में बार-बार नींद के झोके आते हैं, वे छुहारे (खरिक) को धोकर टुकड़े करके पास रख लें और नींद आये तो टुकड़ा खाए और थोड़ा दूध पियें । एक दिन में ३-४ लें, ज्यादा नहीं....तो नींद नहीं आयेगी । अथवा सुबह खाली पेट लाल गाजर का रस पियें ।
गंगा स्नान के लिए रोज हरद्वार तो जा नही सकते, घर में ही गंगा स्नान का पुन्य मिलाने के लिए एक छोटा सा मन्त्र है ..
ॐ ह्रीं गंगायै ॐ ह्रीं स्वाहा
ये मन्त्र बोलते हुए स्नान करे तो गंगा स्नान का लाभ होगा |
द्वादशी, अमावस, पूनम और रविवार को तुलसी के पत्ते ना तोडें . बाकी दिन
ॐ सुप्रभाय नमः, ॐ सुभद्राय नमः
ये बोलते हुए तुलसी पत्ते तोड़ो तो ये मन्त्र बोलनेवाले का स्वाथ्य/ तबियत ठीक करेगा|
जब भी तुलसी का पत्ता तोड़ो तो सूर्यास्त के बाद नही तोडे और सूर्योदय के पहेले नही तोड़े..
घर के इशान कोण में तुलसी और भी शुभ मानी जाती है. इस का लाभ जरुर लें
यादशक्ति व बल बढ़ाने के लिए
यादशक्ति और बल बढ़ाना है तो काजू (३ काजू बच्चे व ५ काजू बड़े) व मधु ज़रा लगा के चबा-चबा के खाएं । इससे यादशक्ति व बल बढेगा । पेट की वायु सम्बन्धी बीमारियाँ दूर होंगी ।
मच्छर व मक्खियाँ भगाने के लिए
गेंदे के फूल या गेंदे के फूल का गमला कमरे में और फूल बिस्तर पर रखने से मच्छर भाग जाते हैं और गुलाब के फूल रखने से मक्खियाँ भाग जाती हैं । गेंदे के फूलों का इतर लगायें । गौ चन्दन धूपजलाएं ।
शिव मन्दिर में लप- झप कराने वाली light है तो शिव दर्शन से दूर करती… लप-झप करानेवाली lights मन्दिर में, पूजा के जगह पे रखना नुकसान का काम है, फायदा नहीं ... चंचलता बढ़ेगी……
: जब लड़की की शादी के बाद घर से विदाई हो तब -
एक लोटे पानी में पिसी हुई हल्दी थोडी दाल दें; बेटी जब द्वार पर आये ससुराल जाने के लिए (विदाई के समय), तो बेटी के सिर पर सात बार वो लोटे का पानी घुमा दें, भगवन्नाम लेते हुए, और वो पानी उछाल दें; बेटी सुखी रहेगी (ससुराल में)
रात को बच्चे उठकर रोते हैं तो दूध आदि पिलाकर/पिलाते हुए सिर पर हाथ घुमाते हुए गुरु मंत्र जप करें, तुलसी की माला पहनाये।
रात को डरावने सपने आते हैं तो सोने से पहले ॐ हरये नमः जप करें।
ईशान कोण में तुलसीजी हों, और पूजा के स्थान में गंगाजी का जल हो, तो सम्रिद्धि में बरकत होती है.|
आर्थिक परेशानी हो, तो सतत ७ शुक्रवार महा-लक्ष्मी के मन्दिर में धूप-दीप दान करें; अपना पुरुषार्थ भी करें, लाभ होगा |
पोछा लगाते हैं घर में तो उस पानी में सैंधा नमक और थोड़ा गो-झरण दाल दे तो घर में क्लेश कम होता और शान्ति बढ़ती है..
कमज़ोर बच्चों को गाय के थन से सीधे ही धार बच्चे के मुंह में डालें | प्रतिदिन दो - चार धार बच्चे के मुंह में डालने से बच्चे का स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक होने लगेगा |
महाभारत में लिखा है.....टूटे फूटे बर्तनों में कलह का व कलिय
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मानवता और राष्ट्रीयता के अनुकूल व्यवहार ही इंसान का प्रमुख धर्म है।
जय श्री राम
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